गर्व की वजहें

संजीव शुक्ल (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

घर से निकलते ही, आज सुबह सुरेश का लड़का मिल गया। कहने लगा कि आज तो गजबै हो गया अंकल जी। 

मैंने कहा कि क्या हुआ, बड़े प्रसन्न दिख रहे हो। प्रत्युत्तर में उसने दाहिनी तरफ़ झुकते हुए पान की लंबी पीक उड़ेली। मैं जल्दी से पीछे हटा ताकि पैजामे को पीकरंजित होने से बचा सकूँ, पर कुछ न कुछ छीटें पड़ ही गईं। मन खिन्न हुआ पर लिहाज़ में कुछ कह न सका। अपनी मौखिक गतिविधि को संपन्न कर उसने कहा कि अंकल आप जाने नहीं? 

मैंने कहा, “क्या हुआ?” अब मैं भी बेचैन हुआ। फिर अपने पूर्वानुमान के आधार पर सब कुछ जानने के अंदाज़ में कहा कि हाँ वो रामलोटन का लड़का अब घरवालों की बात मान शादी करने को राज़ी हो गया है। कल मैंने उसको बिठाके क़ायदे से समझाया था। मानना ही था उसे। मैंने अपनी समझाइश की अहमियत जताई। 

वह तुरंत मुँह बिचकाते हुए कहा कि अरे वो नहीं। आप भी अंकल इन घरेलू बातों में उलझे रहते हैं। मैं अपनी संकीर्णता पर शरमाया, लेकिन तुरंत ही ख़ुद को सँभाल ऊँची जानकारी देते हुए बताया कि अच्छा तुम मानमर्दन सिंह की बात कर रहे हो, हाँ अब वे समाजवादी नहीं रहे। उन्होंने चुनाव में अपना नामांकन वापस ले पार्टी बदल ली है। 

“अरे नहीं अंकल आप भी कहाँ . . .” कहकर वह फिर एक बार झुका। मैंने झट से दूरी बनाई और ख़ुद को सफलतापूर्वक उसकी छींटाकशी से बचा ले गया। इस उमर में ख़ुद की फ़ुर्ती पर नाज़ हुआ। 

“जो सत्तर सालों में नहीं हुआ, वह आज हुआ,” उसने फुल कांफिडेंस के साथ कहा। 

“ऐसा क्या हो गया भाई?” 

उसने कहा कि अंकल सत्तर सालों में आज पहली बार कविता और शायरी को संवैधानिक जगह मिली। मेरी कुछ भी समझ में नहीं आया। 

मैंने पूछा, “वह कैसे।”

उसने कहा, “आपने मुख्य निर्वाचन आयुक्त की प्रेस कॉन्फ्रेंस देखी?” 

मैंने न के भाव से खोपड़ी हिलाई। 

उसने कहा, “जाइए तब आपने क्या देखा? अरे अभी अपने निर्वाचन आयुक्त ने सवाल का जवाब एक शेर से देकर पत्रकारों का मुँह बंद कर दिया। तो अब आपै बताइए कि शायरी को संवैधानिक स्थान मिला कि नहीं?यह पहली बार हुआ है। गर्व से सीना चौड़ा हो गया। यह राष्ट्रवादी सोच के कारण सम्भव हुआ। जब ऊपर राष्ट्रवादी सोच होती है, तो हर क्षेत्र में ऐसे ही गर्व करने की वजहें बनती हैं।” 

“मगर उनको पत्रकारों के सवालों का जवाब तथ्यों के आधार पर देना चाहिए था,” मैंने टोका। 

“अरे नहीं अंकल आप समझे नहीं, वह जवाब ही तो था!” 

अब मेरे पास सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
लघुकथा
ऐतिहासिक
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में