उजाले में अँधेरा . . .
ज़हीर अली सिद्दीक़ीदिन के उजाले में
धुँध सा जो अँधेरा फैला
रोशनी का सूनापन
या अँधेरे का पूरापन फैला।
यहाँ हर कोई,
उजाले की चाह में हरदम
पर क़दमों के निशां
अँधेरे की राह में हरदम।
कितनी अजीब दास्ताँ है
रोशनी की पैरवी करना
ख़ुद के हाथों से ही
नस्लों में अँधेरा भरना।
तुझे छुपाता रहा
रात के अँधेरे से हरदम
मुझे पता ना चला
मैं ख़ुद ही अँधेरे में हरदम।
तुझे पता न चले
अँधेरे की फ़ितरत क्या है
यहाँ तो उजाले में भी
क़यामत-सी दहशत फैली।
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