सड़क और राही
ज़हीर अली सिद्दीक़ीसृजन की चाह में,
बनती-बिगड़ती हूँ।
नया रूप पाने को,
मन से तरसती हूँ।
दुल्हन सी अलंकृत,
महसूस करती हूँ।
कुरूप से रूप का
ढाँचा निहारती हूँ...
गन्तव्य भटके को
रास्ता दिखाती हूँ
निराशा में आशा का,
दीपक जलाती हूँ
नया रूप पाते ही
हुंकार भरती हूँ
पसीने से सिंचित
सफलता बुनती हूँ
ए राही! राह तेरी हूँ
कर्मों का अरमान हूँ
क्योंकि मैं सड़क हूँ...
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