अंश हूँ मैं . . .
डॉ. ज़हीर अली सिद्दीक़ी
बारिश की हर बूँद
जो मढ़ई, मचान और
खपरैल से टपकती है
किफ़ायती इतनी कि
कोई मोल नहींं
प्रसार इतना कि
कोई अंत नहींं तभी
अनंत की आधारशिला हूँ मैं . . .
इसमें ही मेरे पुरखों के
संघर्ष की कहानी है
अतीत की झलक भी
जिसका वर्तमान हूँ मैं
परम्परा का राग भी
जिसका सुरीला एहसास हूँ मैं
संस्कृति की धरोहर भी
जिसका अतुल्य विरासत हूँ मैं . . .
ये बूँदें,
बारिश की उन बूँदों से
तनिक भी कम नहींं
जो सीप को मोती बनाती हैं
कृषकों की आशाओं को
पुनर्जन्म देती हैं
सूख रहे वृक्षों की
शाख में जान और
प्यासे नभचरों के
पंखों में परवान तभी
हौसलों की उड़ान लिए उड़ रहा हूँ मैं . . .
ये बूँदें मिट्टी से सनकर
मटमैली तो हैं परन्तु
मिलन की सौंधी ख़ुश्बू
कस्तूरी से कम नहीं
उसी माटी का अंश हूँ
आज मैं वही ख़ुश्बू लिए
भ्रमण कर रहा हूँ पर
भ्रमित हूँ, व्याकुल भी
मृग के माफिक . . .
यह ख़ुश्बू
पुरखों के पसीने की है
और उसी पसीने का अंश हूँ मैं
मैं मिट्टी और पसीने का
अतुल्य अमिट समागम हूँ . . .
गगनचुंबी इमारत की
ऊँचाई का सूत्रधार हूँ मैं
मिट्टी और पसीने की बुनियाद से . . .
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