निहायत ग़रीब
ज़हीर अली सिद्दीक़ीसही मायने में निहायत ग़रीब क़िस्म का इंसान हूँ। इसकी मालुमात मुझे और मेरी अन्तरात्मा को है। साँझा तो मैं उन सभी अमीरों से करता हूँ जो ग़रीबी का दामन छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। एक दिन मेरे साथ अजीबोग़रीब वाक़या हुई। मुझे कुछ बेशक़ीमती चीज़ों में दिलचस्पी जग गयी। बेशक़ीमती चीज़ें कुछ और नहीं बल्कि ख़ुशी, अमीरी, ज्ञान, परोपकार और नींद थीं। चुनाँचे मैं ढेर सारा पैसा लेकर बाज़ार गया हुआ था; पहुँचा तो पता चला अधिकतर दुकानें हमेशा के लिए मरहूम हो गयी थीं। कुछ दुकानें खुली थीं पर केवल बोर्ड लगा था, सही मायने में वो भी मरहूम होने को थीं। पता नहीं क्यों दुकानदारों को इतनी किफ़ायती चीज़ों का सौदा मंजूर नहीं। मैं मुँह लटकाये घर लौट रहा था कि अचानक जानी-पहचानी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। पलटकर देखा तो एक ज़ईफ़... "ज़िन्दगी प्यार का गीत है इसे हर दिल को गाना पड़ेगा..." गुनगना रहा था। गीत वाक़ई में मेरे सारे बेशक़ीमती चीज़ों से सजा गुलदस्ता था। उस ज़ईफ़ ने ज़िंदगी का सबसे बेहतरीन तोहफ़ा दिया एक गीत के रूप में। (बताते चलूँ यह गीत चित्रपट : सौतन (१९८३) से लिया गया है। गीतकार : सावन कुमार, गायिका : लता मंगेशकर तथा संगीतकार : उषा खन्ना जी हैं।) ज़ईफ़ सारी भौतिक वस्तुओं से परे मेरे छात्रावास के पीछे की बस स्थानक पर रहता था। बाहर से देखने में महज़ एक पागल और ग़रीब लगता है लेकिन सही मायने में अमीर है। इस घटना के बाद पता चला ऐसे चीज़ों का मोलभाव नहीं कर सकते न ही कोई दुकानदार अपनी दुकान में रख सकता है। हृदय और अन्तर्मन से उपजे अन्न के ग्रहण करने से ही शरीर रूपी दुकान संचालित होती है। सारी दुकानों पर ताला लगा था क्योंकि आज के अन्न में बेशक़ीमती चीज़ों का टोटा है। दूसरी तरफ़ ऐसी दुकानें जहाँ, दुःख, अज्ञान, द्वेष, लालच, इर्ष्या धड़ल्ले से बिक रहीं थीं, ताँता लगा हुआ था लोगों का...! इस ख़रीददारी को अमीरी नहीं बल्कि ऐसी ग़रीबी कहते हैं, जो बड़ी ज़हरीली होती है। मुंशी प्रेमचंद का कथन "अमीरी की क़ब्र पर पनपी हुई ग़रीबी बड़ी ज़हरीली होती है" भारतीय आज़ादी से पूर्व लिखा गया था। उस वक़्त मुल्क़ सभी प्रकार के विपदाओं से जूझ रहा था। देखा जाय तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी शत-प्रतिशत सत्य है। फ्रेंक क्रासले ने ग़रीबी को ईश्वर से उचित सम्बन्ध जोड़ने तथा अमीरी को, चाहे मन की हो या धन की, विच्छेद का माध्यम बताया है।
वास्तविक अर्थों में ग़रीब तो आज के अमीर हैं जो एक तरफ़ अमीरी का निःशब्द राग अलापते हैं तो दूसरी तरफ़ ख़ुदा के क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हैं। आचार्य विनोबा भावे के शब्दों में कहें तो "ग़रीब वह नहीं जिसके पास कम है बल्कि वह है जिसकी धनवान होते हुए भी इच्छा कम नहीं हुई है"। मेरे अनुसार वास्तविक अमीरी आदर्शवाद की बुनियाद पर बनी ऐसी इमारत है जिसका दुःख, डर, डाह, लालच, मोह, माया जैसे बवंडर बाल बांका तक भी नहीं कर सकते। उलटे घुटने टेक सजदा करते हैं। ऐसे आदर्शों को ग़रीब बताना महज़ कुपोषित विचारों की उपज है। ऐसे विषाक्त एवं कुपोषित विचारों को महज़ पनाह देना ही आदर्शवाद की निर्मम हत्या है। हम अपने ही हाथों से नवजात शिशुओं के विचारों को काल के गाल सौंप रहे हैं।
हमारे आदर्श मरण शैय्या पर अंतिम करवटें बदल रहे हैं। जिनका निराकरण वैचारिक महामारी के टीकाकरण के सामान है।
मेरे अनुसार बीमार विचारों का निराकरण शिशु की प्रथम पाठशाला, उसके घर में ही संभव हैं। शर्त यह है कि उस पाठशाला में उसकी पढ़ाई स्वस्थ विचारों की जननी अर्थात माँ के सान्निध्य में होनी चाहिए। नैतिकता के समावेश, सुविचारों से सिंचित शिशु... समाज का विशालकाय वृक्ष बनता है, जिसके तले थलचर और नभचर को ठंडक की आस जगती है।
वास्तविक अर्थों में जर्जर विचारों का कायाकल्प, ग़रीबी को अमीरी में तब्दील करने की एक मात्र आशा की किरण है।
मालुमात= ज्ञान, जानकारी; ज़ईफ़= बूढ़ा, वृद्ध; मरहूम = मरा हुआ, दिवंगत; किफ़ायती= कम खर्च करनेवाला, बचानेवाला
14 टिप्पणियाँ
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Very nice though
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Commendable. Bahut sundar lekhan
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Very good Bhaiya ji
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So nice Kabile tareef
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Adbut
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I proud of u Zahir.And all the best or your bright future .You are a great personality
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Bhot khoob Zahir bhai
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Jordaar jabardast Ali sab Kya sajoya h aapne iss lekh ko Hindi aur Urdu ka atbhut sangam..Aur ek ishara apne root me waps lautne ka. Jaha ek saccha Bharat rhta h ya u kahe ki rhta tha
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Very nice story....and inspirational lines...thank you zahir
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Zabardast
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I salute you brother
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बहुत अच्छे तऱीके से विचारों को गूंथा है आपने इस लेख में
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Good work
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It's really very nice and thoughtful
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