आत्माएँ भी मरती हैं . . .
ज़हीर अली सिद्दीक़ीगीता का उपदेश–
आत्मा अजर-अमर है,
शारीरिक शिथिलता अंत नहीं
एक नई शुरूआत और
पदार्थ का ऊर्जा में
परिवर्तन माना जाता है
तभी तो आत्माएँ
दूसरे शरीर में प्रवेश करती हैं
लेकिन
उन आत्माओं का क्या
जो अचेत पड़ी हुई हैं,
हिलाने-डुलाने पर भी
हरक़त में नहीं हैं
सवालिया निशान!
क्या आत्मा भी मरती है?
क्या दूसरे के शरीर में
जाने से डरती है?
तभी मेरी आत्मा
सिसकते हुए बोली–
वैचारिक मलिनता और
ज्ञान और कर्म इन्द्रियों में
तालमेल ना होना
सबसे बड़ा कारण है,
आत्माओं के मरने का
क्योंकि शरीर की आत्मा
ज्ञान इंद्रियों से लड़ कर
चेतनाशून्य हो जाती है
ऐसी स्थिति में, कुछ आत्माएँ . . .
आत्महत्या कर लेती हैं,
तो कुछ अश्वत्थामा की तरह
अमर तो हैं पर
अमरत्व का अभिशाप लिए
दर-दर भटकती हैं
डरती हैं दूसरे शरीर में जाने से
"ईश्वर का रूप-शिशु "
एक मात्र विकल्प है
दूसरे शरीर में जाने का
परन्तु
बचपन, जवानी, बुढ़ापे के
बदलते प्रारूप और
बहुरूपिया क़िरदार
लगाम लगा देते हैं
आत्माओं के बदलाव पर
तभी तो आत्माएँ
मरना पसंद करती हैं
भटकना पसन्द करती हैं
भटकती आत्मा बनकर . . .
1 टिप्पणियाँ
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'आत्मा अजर, अमर कहाँ...कुछ एक मरती भी हैं'। पाठक को गहन मनन करने पर जो विवश कर दे वही तो उत्तम कविता/रचना है।
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