ए लहर! लहर तू रहती है
ज़हीर अली सिद्दीक़ीक्रूर भले कहता कोई
कर्म प्रधान तू रहती है
सागर के गहराई में भी
ए लहर! लहर तू रहती है।
अध्यात्म की उद्गम है तू
विद्रोह की हुंकार है
चेतना की आग़ोश में
श्रेष्ठता की प्रमाण है।
चट्टानों से टकराने पर
अक्सर लोग टूट जाते हैं
क्या अदा अनोखी है तेरी!
विकराल रूप धारण करती है।
साहिल देख ठहर जाती है
थमकर भी तू रम जाती है
वज़ह प्रेमियों के जोड़ों की
जगह सुखद तू बन जाती है।
भरती डगर जिस ओर तू
रुकती नहीं उस ओर तू
यदि हार भी उस जीत में
उस हार का आधार क्या?
चीख़ती चिंघाड़ती
बढ़ती रही बिन हारती
आराम का फ़रमान क्या
जब जीत का अरमान था।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- आँसू
- आत्माएँ भी मरती हैं . . .
- उजाले में अँधेरा . . .
- उड़ान भरना चाहता हूँ
- ए लहर! लहर तू रहती है
- एक बेज़ुबां बच्ची
- कौन हूँ?
- गणतंत्र
- चिंगारी
- चुगली कहूँ
- जहुआ पेड़
- तज़ुर्बे का पुल
- दीवाना
- नज़रें
- पत्रकार हूँ परन्तु
- परिंदा कहेगा
- पहिया
- मरा बहुरूपिया हूँ...
- मैं पुतला हूँ...
- लौहपथगामिनी का आत्ममंथन
- विडम्बना
- विषरहित
- सड़क और राही
- हर गीत में
- ख़ुशियों भरा...
- ग़म एक गम है जो...
- हास्य-व्यंग्य कविता
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- सामाजिक आलेख
- नज़्म
- लघुकथा
- कविता - हाइकु
- विडियो
-
- ऑडियो
-