सुकून
डॉ. अंकिता गुप्ता
हम बना रहे थे घर बालू पर,
जानते हुए कि लहरें आ जाएँगी,
हम बुन रहे थे ख़्वाब अपने,
जानते हुए, कि ज़िम्मेदारियाँ जीत जाएँगी।
हम बना रहे थे काग़ज़ की कश्तियाँ,
जानते हुए, कि पानी में घुल जाएँगी,
हम भर रहे थे उड़ान सपनों की,
जानते हुए, कि ज़िम्मेदारियाँ जीत जाएँगी।
पर, कितना सुकून है,
रेत पर घर बना कर खेलने में,
काग़ज़ की कश्ती तैराने में,
अख़बार के हवाईजहाज़ को उड़ान देने में,
और, तालाब में पत्थर फेंक भँवर बनाने में।
कितना सुकून है,
ख़ुद के साथ, अपनों के सपने सँजोने में,
ज़िम्मेदारियों के बीच,
ख़ुद के साथ, अपनो के लिए जीने में,
कितना सुकून है, जीवन के इस आनंद में।