हम बड़े हो रहे हैं
डॉ. अंकिता गुप्तान जाने क्यों,
हम बड़े हो रहे हैं,
न जाने क्यों,
हम अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं।
आज सब कुछ अपने हिसाब से करते हैं,
अपनी उड़ान को विश्वास से भरते हैं,
अब तो,
अपने निश्चय भी स्वयं ही करते हैं,
और तो और,
पैसों का हिसाब भी हम ही रखते हैं।
पर फिर भी,
न जाने क्यों,
मन में इक अनकही मायूसी का ठहराव है,
अनचाही उलझनों का वास है,
रोज़ की उधेड़ बुन का, धीमा सा बहाव है।
याद करते हैं बीते दिन,
तो लगता है,
अरसा हो गया,
बारिश में भीगे हुए,
अरसा हो गया,
दोस्तों संग साइकिल पर सवार हुए,
अब नहीं है कन्धों पर स्कूल के बस्ते का वज़न,
अब नहीं है यूनिफ़ॉर्म भी, हम पर सृजन,
कहीं, खो गई हैं इमली की गोलियाँ,
कहीं, खो गयी हैं हमारी हँसी ठिठोलियाँ।
अब ऐसा लगता है, जैसे,
हम कुछ खो रहे हैं,
अपनी उथल पुथल में ही,
गुम हो रहे हैं,
एक्स बॉक्स की दुनिया में,
मिट्टी के मैदान से दूर हो रहे हैं,
लैपटॉप की दुनिया में,
किताबी कहानियों से दूर हो रहे हैं,
मॉल के बाज़ार में,
अपने शहर के मेले से दूर हो रहे हैं,
सोसाइटी की गलियों में,
मोहल्ले से दूर हो रहे हैं,
अपने फ़्लैट में रहकर भी,
अपने घर से दूर हो रहे हैं,
हम अपने बचपन से दूर,
अपनी नींव से दूर हो रहे हैं,
धीरे धीरे अपनी कश्ती से
बस पार हो रहे हैं,
हम अपने बचपन से दूर,
ख़ुद के ही ग़ुलाम हो रहे हैं।
हम अपने बचपन से दूर,
ख़ुद के ही ग़ुलाम हो रहे हैं।
अब हम,
बड़े हो रहे हैं,
अब हम,
अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं।
अब हम,
अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं।
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