स्त्री, एक विशेषण है
डॉ. अंकिता गुप्ताराहगीर बनी जीवन की राह में,
पग पग पर ठोकर खाती हुई,
तेज़ हवा में पत्तों की तरह बहती हुई,
ढूँढ़ लेती है स्त्री अपना सर्वस्व
काँच के टूटे टुकड़ों में।
दबी हुई घास की भाँति,
कठिनाइयों को सहती हुई,
स्त्री करुणा का आईना बन जाती है।
पेड़ की छाँव की तरह,
अपना सर्वस्व दूसरों को देती हुई,
स्त्री बलिदान की प्रतिमा बन जाती है।
रेगिस्तान की बंजर ज़मीन की तरह,
राहगीरों को राह देती हुई,
स्त्री शिष्टाचार की प्रतिकृति बन जाती है।
सँभलती-सँभालती नदी की लहरों की तरह,
नैया पार लगाती हुई,
स्त्री चंचलता का प्रतीक बन जाती है।
पेड़ों की तरह निःस्वार्थ,
सभी के जीवन को ख़ुशहाल करती हुई,
स्त्री संस्कारों की तस्वीर बन जाती है।
जकड़ी है वह अनेक बंधनों से,
दबी हुई है समाज की धारणाओं से,
लड़ सकती है वो अपने सम्मान को,
अपने अधिकार को
जैसे कि तलवार की धार हो।
वह हो सकती है उद्दंड,
लहरों सी, और, चपल, बिजली सी,
न उसे कोई रौंद सकता है, न तोड़ सकता है,
छू सकती है वो गगन को, हवाओं की गूँज सी।
स्त्री,
अटल है, निडर है, स्वतंत्र है,
अपनी महत्वाकांक्षाओं को सुशोभित किये,
अपने कर्त्तव्य के लिए प्रतिबद्ध है।
मर्यादित है, गौरवपूर्ण है, करुणामयी है,
दयामयी, ममतामयी,
दृढ़, स्थिर और विनीत है।
संवेदनशील, प्रेरणाप्रद, और गतिशील,
फिर भी वह शांत है, जैसे अरण्य में एक झील।
माँ है, मासी है, भगिनी है, बुआ है,
काकी, भाभी, बहू, पत्नी, और बेटी है।
अपनी निर्मलता से सभी को जोड़े,
आदर्शों की एक मूर्ति है।
अपनी मुस्कराहट से हर मुश्किलों पर जय पाती हुई,
स्त्री, एक विशेषण है।
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