फिर से बेटी!
डॉ. अंकिता गुप्ता
माथे पर लकीरें लिए, दिल में घबराहट लिए,
टहल रहा था वो, मन में एक संकोच लिए,
चेहरे पर झलक रही थी, उसके मन की हलचल,
अनकही बैचनी से थी उसके मन में उथल पुथल,
करहाने की आवाज़ पर, उसका दिल दहल रहा था,
बेटियों को बाँहों में समाये, वह चिंता जनक मुस्कुरा रहा था।
सुनकर एक नन्ही किलकारी,
बढ़ गयी दिल की धड़कनें इस बारी,
हाथ में थामा जब उस कली को,
रोक न पाया अखियों से अश्रुओं को,
देकर फिर से बेटी, क्यों बढ़ा दिया बोझ मन पर,
यह कहकर, वो रोया अपने भाग्य पर।
बेटियों का बाप बोल, मुझे ये संसार है सताता,
मैं, इस संसार में श्रापित हूँ कहलाता,
इस पापी समाज में, कैसे इनका भविष्य बनाऊँगा,
इस अनपढ़ समाज में, कैसे इन बेटियों को पढ़ाऊँगा,
इस पिपासु समाज में, कैसे दहेज़ लोभियों का पेट भर पाऊँगा,
इस दक़ियानूसी समाज में, कैसे अपनी बेटियों का सर उठाऊँगा।
रुआँसी सी बोली,
क्या रेत दें इसका गला,
अभी किसी को नहीं पता है चला,
ये कहकर, उसका भी भर आया गला,
सुनकर अपनी पत्नी ये शब्द,
संकोचवश, स्तब्ध, वो हो गया निःशब्द।
देख उस नन्ही बच्ची की मुस्कान,
आ गई उसकी रूह में जान,
देख उसे, जगी उसके दिल में नयी आशाएँ,
उसके लिए मिटा देगा रास्ते से हर बाधाएँ,
भिगो कर ख़ुद को अश्रुओं में,
बोला, मुझे दिख रही है नारायणी इसमें।