काल का पानी

01-05-2024

काल का पानी

डॉ. अंकिता गुप्ता (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

आज, मैं सेलुलर जेल गर्वित खड़ी हूँ, 
हर पल अपने वुजूद के लिए लड़ी हूँ, 
इस गौरव पूर्ण सम्मान के पीछे, 
मैंने सर्वस्व लुटते देखा है, 
मैंने सेनानियों को न्योछावर होते देखा है। 
 
एक अथाह विशाल समुद्र तट पर, 
जब रखा था मेरा नींव का पत्थर, 
समन्दर के रंग बिरंगे जीव जंतु थे मेरा सहरा, 
तो दूजी ओर था हरे भरे पेड़ों का पहरा, 
स्वर्गलोक सा दृश्य था बहुत सुनहरा। 
 
मेरी दीवारें इतनी ऊँची क्यों हैं, 
रोशन दान इतना छोटा क्यों है, 
हर द्वार पर इतना भारी दरवाज़ा क्यों है, 
कौन है ये जो आये हैं बेड़ियाँ पहनकर, 
रह रहे हैं मेरे कमरों में क़ैदी बनकर। 
 
ये तो है, स्वाधीनता के लिए लड़ रहे क्रन्तिकारी, 
सज़ा दे रहे हैं इन्हें, ये अँग्रेज़ अधिकारी, 
भिन्न भिन्न प्रांतों से आये हैं भर के देश प्रेम की चिंगारी, 
हर घड़ी छाई है इन पर आज़ाद हिन्द की ख़ुमारी, 
बने हैं कोल्हू के बैल, मन में जज़्बा है भारी। 
 
समुद्र से भी खारी हो गयी हूँ, उनके आँसुओं से भीग कर, 
नहीं दीखता मुझे अब समुद्र के जीवों का रंग, 
लहू में भीगकर, लाल हो गया मेरे आँगन का रंग, 
नहीं सुन पाती हूँ अब उछलती कूदती लहर, 
बस सुनती हूँ कोड़ों की मार का क़हर। 
 
बहाकर वीर शहीदों को जीवंत समुद्र में, 
मुझे काल का पानी क़रार दिया, 
पंछियों की चहचाहटों को, कोड़ों की चीख ने दबा दिया, 
वीर क्रांतिकारियों को, अपने ही देश में 
आतंकवादी क़रार दिया। 
 
अँग्रेज़ों से टकराकर सेनानियों का साहस टूटते देखा है, 
फिर भी, हँसते हुए फाँसी पर चढ़ते देखा है, 
कोल्हू के बैल से ज़्यादा श्रम करते देखा है, 
फिर भी, सरफ़रोशी की कामना को पनपते देखा है, 
मैंने सावरकर, बटुकेश्वर और सान्याल को लड़ते देखा है। 

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