स्मृतियों के तलघर

01-12-2024

स्मृतियों के तलघर

डॉ. मधु सन्धु (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

‘स्मृतियों के तलघर’ बलजीत सैली का रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से 2022 में प्रकाशित संस्मरण संकलन है। सैली बलजीत पेशे से इंजीनियर होते हुए भी साहित्यकार हैं—उपन्यासकार, कवि, संस्मरणकार और सबसे बढ़कर कहानीकार। विज्ञान के छात्र रहे, लेकिन विद्यार्थी जीवन में ही उन पर कहानी जगत कुछ ऐसा छाया कि इंजीनियरिंग के समीकरण बेकार लगने लगे। उनकी रचनाएँ हिन्दी की प्रत्येक प्रतिष्ठित पत्रिका में मिल जाती हैं और पाठक को अपनी जादुई विषयवस्तु एवं अभिव्यक्ति शैली से सम्मोहित कर लेती हैं। उनके बीस के आस पास कहानी संग्रह आ चुके हैं—अपनी अपनी दिशाएँ, गीली मिट्टी के खिलौने, तमाशा हुआ था, अब वहाँ सन्नाटा उगता है, बापू बहुत उदास है, यंत्र पुरुष, समंदर में उतरी लड़की, मुखौटों वाला आदमी, घरौंदे से दूर, अंधा घोड़ा, वह आदमी नहीं था, यह नाटक नहीं था, टप्परवास, घोड़े अब हाँफ रहे हैं, तुम यहाँ ख़ुश हो न . . ., चंद्रमोहन, नंगी ईंटों वाला मकान, यह मुक्तिपथ नहीं, धूल में तलाश छाँव की, सैली बलजीत की चर्चित कहानियाँ। 

पाँच पुस्तकों में संस्मरण हैं— बहुत याद आओगे मॉरीशस, मेरे आईने में, अपने अपने आईने, स्मृतियों के झरोखे और स्मृतियों के तलघर। 

‘स्मृतियों के तलघर’ उन्होंने अपने चार भाइयों—बुआदास, बलविंदर, देवेन्द्र तथा अश्विनी को समर्पित की है। उसके बाद अक्तूबर 2006 का लिखा कमलेश्वर का एक पत्र है। 

यहाँ दो खंडों में विभाजित कुल 13 संस्मरण हैं। प्रथम खंड में वे उन प्रसिद्ध अग्रज साहित्यकारों से अनुस्यूत अपनी स्मृतियों को पाठकों से साझा कर रहे हैं, जिनका नैकट्य भुलाए नहीं भूलता, भले ही आज वे इस दुनिया में नहीं हैं और द्वितीय खंड में जीवन के आत्मीय सफ़र के सेतु उनका एक अंतरंग मित्र और दो भाई हैं। बेटी शैलजा का पिता से संबन्धित संस्मरण भी यहाँ संकलित है। स्नेहिल पिता, वटवृक्ष सा संरक्षक पिता, कुबेर सा सम्पन्न/दिलेर पिता, प्रकृति और संगीत प्रेमीपिता, यारों का यार पिता, क़लम का जादूगर, बहुपठित पिता। हर संस्मरण से जुड़े भाई बलविंदर के बनाए पेंसिल स्केच पुस्तक को अद्वितीय गरिमा दे रहे हैं। 

नौकरी के कारण सैली बलजीत समय समय पर बटाला, पठानकोट, सुजानपुर, शाहपुर कंडी, कांगड़ा में रहे, लेकिन उनके तार दिल्ली से सदैव जुड़े रहे। सैली यायावर हैं—उनकी साहित्यिक यात्राओं में चंडीगढ़, इलाहाबाद, मथुरा, रांची, कलकत्ता, गया, पटना, डलहौज़ी, शिलांग, देहरादून, मॉरीशस आदि अनेक स्थल आते हैं। दिल्ली उनके लिए उपलब्धियों का शहर रहा। यहाँ उड़ानों के लिए पंख मिले। सपने रंगीन हुए। दिल्ली की यात्राएँ उन्हें दिल्ली दरबार से जोड़ती हैं। कमलेश्वर, सभारज मिश्रा यहीं के बंधु रहे। बटाला पर लिखते हैं:

“मैं अब इसे विजय बतालवी का शहर कहता हूँ . . . हरभजन बाजवा का शहर कहता हूँ—मनोहर कालरा का शहर कहता हूँ . . . और मेरा शहर तो है ही . . . बटाला मेरे शिराओं में रेंगता है।”1
साहित्यकार पिता के विषय में शैलजा सैली लिखती हैं:

“पापा को एक-एक कहानी के लिए दिनों तक छटपटाते भी देखा है . . . रात रात भर जागते भी देखा है . . . और कहानी को किसी बड़ी पत्रिका में छपे हुए देख, बच्चों की तरह किलकारियाँ मारते हुए भी देखा है . . .। मैंने उन्हें कहानियाँ बुनते, मथते, ओढ़ते, बिछाते और सुनाते देखा है।”2

कमलेश्वर को उन्होंने ‘बहसों को ज़िंदा रखने वाला कथाकार’ कहा है। उन दिनों सारिका के संपादक कमलेश्वर थे। सैली बलजीत ने समांतर कहानी के सूत्रधार कमलेश्वर का सारा साहित्य पढ़ डाला। 1980 में उनसे पत्राचार और मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हुआ। सारिका के तिलिस्म ने सैली को सारिका जैसी कहानियाँ लिखने के लिए प्रेरित किया। कमलेश्वर उन्हें सैली भाई कहकर ही संबोधित करते थे। एक कहानी संकलन को शीर्षक ‘वहाँ सन्नाटा उगता है’ कमलेश्वर ने दिया। इसकी भूमिका लिखी और प्रकाशक भी ढूँढ़ दिया। कमलेश्वर ने साहित्य अकादमी के संकलन ‘बीसवीं सदी की हिन्दी कहानी’ में सैली को भी स्थान दिया। 

सरोज वशिष्ठ का ‘दपदपाता और खनकता हुआ चेहरा’ भी बलजीत सैली की स्मृतियों में जीवंत है। सरोज के लिये जीवन एक मिशन था। उन्होंने सैली के साहित्यिक जनून को पहचाना और शिव कुमार बटालवी पर काम करने का आग्रह किया। किरण बेदी, पद्मा सचदेव, कुसुम अंसल के साथ मिलकर तिहाड़ की जेलों में साहित्यिक माहौल पैदा किया। 

गीतों की दुनिया के बेताज बादशाह गोपालदास नीरज से सैली बलजीत का मुलाक़ात का सपना तब पूरा हुआ, जब एक मुशायरे के अवसर पर 20 मई 2000 को वे पठानकोट आए, जबकि सैली किशोरावस्था से उनके फ़ैन थे, तब से जब ‘नई उम्र नई फसल’ (1965) में रफी साहब ने यह गीत गाया था—‘कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे।’ लिखते हैं:

‘कारवां गुज़र गया’ का सर्वप्रथम प्रसारण आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र से हुआ था और पूरे देश में तहलका मच गया था। देश में धूम मचाने के बाद अमेरिका, कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड आदि देशों की सीमाएँ फलाँग गया था।”3 

संस्मरण नीरज के जीवन संघर्ष की भी बात करता है कि वे क्लर्क से टाइपिस्ट, सरकारी अधिकारी, संपादक और फिर प्राध्यापक बने, लेकिन गीतों ने उन्हें पूरे देश में प्रसिद्धि दी। मुशायरों के वे सरताज थे, फ़िल्मी गीतों के बादशाह। नीरज कहते थे:

“हमारे देश में नदियाँ गाती हैं, पेड़ गाते हैं, पक्षी गाते हैं, प्रकृति की गोद में अथाह संगीत है . . . लय है . . . ऐसे देश में संगीत कभी मर नहीं सकता . . . गीत ज़िंदा रहेगा।”4 

महीपसिंह की कहानियों से भी सैली बलजीत का परिचय छात्र जीवन में ही हो गया, पत्राचार भी शुरू हो गया, संचेतना में कहानियाँ भी छपने लगी, लेकिन महीपसिंह से सैली बलजीत की मुलाक़ात 1994 की फरवरी में दिल्ली के पुस्तक मेले में हुई। लिखते हैं:

‘संचेतना’ के संपादक का कैसा जनून था . . . उन्होंने न जाने कितने कहानीकारों को कुन्दन बना दिया।”5

उनकी ‘1995 की श्रेष्ठ कहानियाँ’ संकलन में सैली की कहानी का होना उन्हेंआत्मगौरव से भर गया। 

सुदर्शन फाकिर को सैली ने ‘ग़ज़लों की दुनिया का बेताज बादशाह’, ‘शब्दों को तराशने वाले जादूगर’, ‘साहबे मुशायरा’ कहा है। उनकी पहली ग़ज़ल बेगम अख़्तर ने गाई थी। अधिकांश ग़ज़लें जगजीत सिंह और चित्रासिंह ने गाई हैं। ‘दूरियाँ’, ‘यलगार’, ‘प्रेम-अग्न’ जैसी फ़िल्मों के गीत उन्हीं की देन हैं। उनके ‘हे राम’ भजन की एक करोड़ कॉपी बिकी थी। सैली की उनसे मुलाक़ातें जालंधर, पठानकोट में हुई। ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो’ उन्हीं की नज़्म थी। 

बलजीत सैली ने ‘कहानियों के खाँचों को तराशने वाले शख़्स’ उत्तर प्रदेश के पुलिस अधिकारी, डी. आई. जी. उमाशंकर से भी अपने नैकट्य की बात की है। उमाशंकर ही नहीं उनका पूरा परिवार सैली की कहानियों का दीवाना था। वे झांसी से पठानकोट सिर्फ़ उनकी कहानियाँ पढ़ने के लिए आए। उनके अंदर भी कहानियों के कई प्लॉट थे और सैली से अनुरोध कि उनको भी अपनी लेखनी से अमर करें। वे लेखक के लिए पाठक थे, बड़े भाई थे, प्रणेता थे, मार्ग दर्शक थे, उनके बच्चों के दादू थे। 

संस्मरणकार की यादों का एक छोर पंजाब, दसूहा के ‘दिशाओं को मापने वाले, ऐतिहासिक धरोहरों को खँगालने वाले यायावर’ सतीश बस्सी से भी जुड़ा है। दूर संचार विभाग की नौकरी ने उन्हें मानों यायावरी का चस्का ही लगा दिया था। जीवन के उत्तरार्द्ध में वे कांगड़ा में सैटल हो गए और यही लेखक से पहली बार भेंट हुई। अपने पीछे यात्रा संस्मरणों का अमूल्य अप्रकाशित भंडार छोड़ गए। 

वक़्त की साज़िश को कहानियों में बेनक़ाब करने वाले सारिका, धर्मयुग में छपने वाले डोगरी कथाकार जोगिंदर पल सर्राफ/ छत्रपाल की कहानियों के तो सैली भी रसिया थे और वह भी सैली की कहानियों की बुनावट का रसिया था। वह वैसाखियों वाला कद्दावार कथाकार था, कवि था। जम्मू से छत्रपाल आकाशवाणी की ख़बरें पढ़ता था, लेकिन कालांतर में शायद उसके पत्रकार ने उसके कहानीकार का गला घोंट दिया। 

पत्रकार और कथाकार रमेश बत्रा करनाल से थे। सैली से उनकी मुलाक़ात जालंधर में हुई, जब वे हिन्दी मिलाप में थे। वे सारिका, धर्मयुग में ख़ूब छपे। दिल्ली, मुंबई में ख़ूब रहे। लघुकथा को सींचने और कहानी का चेहरा-मोहरा सँवारने में उनका योगदान अविस्मरणीय है। पारिवारिक उत्तरदायित्वों से अनासक्त रहे। उनकी असमय मृत्यु के बाद गीता डोगरा ने ‘रमेश बतरा की चर्चित कहानियाँ’ संपादित की। 

विजय बटालवी के गीतों का सफ़र चुनावी रैलियों से शुरू हुआ और जल्दी ही वह फ़िल्मी गीतकार-संगीतकार और सेलिब्रिटी बन गये। अनेक मित्रों की रचनाओं को भी अपनी मख़मली आवाज़ से सँवारा। 

द्वितीय खंड का प्रथम संस्मरण प्रवीण प्रकाशन के सभाराज मिश्रा का है, जो प्रथम भेंट में ही लेखक की उम्मीदों की झोली भर देता है, उसकी कश्ती का खेवट हो जाता है, उसके लिए मसीहा हो जाता है, किताबों को वरीयता से छापता है, एकमुश्त रॉयल्टी भी दिलवाता है। यहीं कादंबरी के संपादक राजेंद्र अवस्थी का सान्निध्य मिला, अयन प्रकाशन के भूपाल सूद से दोस्ती हुई, जनवाणी के अरुण जी, हंस के राजेन्द्र यादव से मुलाक़ात हुई और मिश्रा से जुड़ाव। मिश्रा एक कर्मठ योद्धा की तरह, मशीन की तरह प्रवीण प्रकाशन के सारे काम सँभाले हुए थे। अपना प्रकाशन भी खोला, जिसने उन्हें ओंधे मुँह गिरा दिया, फिर जनवाणी में आये और प्रकाशक का दायाँ हाथ हो गए। गाँव इनकी ज़िन्दगी है और दिल्ली कर्म स्थली। 

दूसरा संस्मरण लेखक के बास्केट बाल खिलाड़ी, राष्ट्रपति मैडल विजेता भाई देवेन्द्र कुमार का है। वह पाँचों भाइयों में से चौथे स्थान पर है। राष्ट्रीय टीम में होने के कारण उसकी कर्म स्थली खेल का मैदान ही रही और पूरा परिवार उस लाड़ले के देश या विदेश से घर लौटने की प्रतीक्षा में रहता। वह फ़िल्मी गीतों और ग़ज़लों, शिवकुमार की शायरी का रसिया है, राजकुमारों की तरह जीता है। वह अपने भाग्य में राजयोग लेकर ही आया है। मेहनत और क़िस्मत सदा उसके साथ रही। 

अंतिम संस्मरण भाई अश्विनी कुमार पर है। सैली ने उसे ‘अपना आकाश साथ लेकर उड़ने वाला यायावर’ कहा है, जो कालांतर में कैलिफ़ोर्निया जाकर बस गया। सैली का कवि कहता है, “बटाला की गलियाँ उसके विदेश जाने से सूनी हो गई।” और वह सैली को “घर का नगीना” मानता है। माँ और पिता की यादों से यह संस्मरण भरे पड़े हैं। 

चाहने वालों से, पाठकों से, मित्रों से सैली के आत्मीय और पारिवारिक सम्बन्ध रहे। उनके सपरिवार आने से घर गुलज़ार हो जाता था। फोन पर दुख-सुख सांझे करना, साहित्यिक चर्चायें करना उन्हें आत्मिक प्रसन्नता देता। पत्नी कृष्णा और शैलजा, अमित, यथार्थ, राजीव का हर बार ज़िक्र बताता है कि यह परिवार से गहरे जुड़ा साहित्यकार है और उसके दोस्त भी ऐसे ही हैं। विजय बटालवी पर कहते हैं:

“उसका भरा पूरा परिवार लहलहाने लगा था। पत्नी सतनाम कौर उसकी धड़कन हो गई थी। बेटे दीपेश और नरेन उसके सपनों को रंगीन करने लगे थे।”6

अनगिनत मित्र हैं इस कथाकार के—निर्मल विनोद, सिमर सदोष, हरिवंश अनेजा, सुशील कुमार फुल्ल, सुरेश सेठ, नरेश शर्मा दीननगरी, सुभाष रस्तोगी, प्रेम विज, राजेन्द्र नाथ रहबर, ओ. पी. टाक, जितेंद्र महाजन, तरसेम गुजराल, कमलेश भारतीय, सुरेंदर मनन, विनोद शाही, देविन्दर पंडित, के. डी. सिंह। मित्रों का दुख उनके पाँव के नीचे की ज़मीन धसका देता है और उनका ऊँचाइयाँ छूना उन्हें व्यक्तिगत प्रसन्नता देता है। 

मित्रों की ढेरों कहानियाँ सैली के अंतस में गहरे खुदी हुई हैं। उनकी कृतियों की कटिंग अनमोल ख़जाने की तरह सँभाल कर रखते। उमाशंकर तिवारी, सतीश बस्सी संस्मरणकार के फ़ैन भी रहे और मित्र-बंधु भी। संस्मरणकार की कहानियों को पढ़ने की उत्कट आकांक्षा, पिपासा उनमें रही। कथ्य और अभिव्यक्ति का जादू उनके सिर चढ़कर बोलता था। विजय बटालवी ने उनकी रचनाओं को आवाज़ दी। कैसेट बनाई, यू ट्यूब पर डाउन लोड की। रमेश बत्रा ने नामी पत्रिकाओं में कहानियाँ, ग़ज़लें प्रकाशित की। 

यह एक बहु पठित रचनाकार है, उसके बहु पठित मित्र, बंधु और परिजन हैं, जबकि उसका रचना संसार एकदम भिन्न है। निम्न वर्गीय पात्र, जीवन शैली, व्यवहार, रहन-सहन, बोल-चाल, आर्थिक विडंबनाए—सैली पंजाब के शैलेश मटियानी हैं। 

प्रथम खण्ड ‘अलविदा . . . बहुत याद आओगे’ में मुख्यतः उत्तर भारत यानी पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश के साहित्यकार, फ़ैन हैं। जो आज सैली की यादों की धरोहर हो चुके हैं। जाने कौन सी यात्रा पर निकल चुके हैं। जिनकी स्मृति आज भी आवाज़ में तरलता, मन में वेदना, जीवन में उदासी और ख़ालीपन भरती है। 

पहाड़ों का तिलिस्म उन्हें बाँधता है। हिम शिखर, चीड़ और देवदार अभिभूत करते हैं। साहित्यिक संगोष्ठियाँ प्राण संचारित करती हैं। पेड़ों से छनती धूप बाँध लेती है, शीतल बयार के झोंके हिलोरते हैं। शिमला में देवदार के घने वृक्षों की क़तारबद्ध पंक्तियाँ, सन्नाटा, जम्मू की पुरवाइयाँ और शीतल हवाएँ उन पर जादू करती हैं। पहाड़ी शहर सैली के सपनों के शहर हैं। दिल्ली का कसैला मौसम, दमघोंटू हवाएँ, गर्मियाँ उन के लिए लाक्षागृह का पर्याय हैं और मित्र छत्रपाल के पोलियो ग्रस्त शरीर के लिए तो दिल्ली दिक़्क़तों का पहाड़ है। 

उनकी भाषा पाठक पर तिलस्मी प्रभाव छोड़ती है, जादू करती है और पंक्तियाँ गूँज-अनुगूँज बन जाती हैं:

“वह उन दिनों उड़ानें भरने लगा था। ज़िन्दगी उसके लिए रंगीनीयों के ताजमहल निर्मित करने लगी थी। . . . उसकी उड़ानों के पीछे आकाश मापने के अनेक सपने महका करते थे।”7

पता ही नहीं चलता कि सैली गद्य लिख रहे हैं या गद्य गीत:

“मैं हवा में उड़ने वाला पाखी हो गया। ज़िन्दगी राजनीगंधा की तरह महक उठी थी।”8

कहीं कहीं शैली विवरणात्मक भी हो गई है, “सड़क के आगे इक्का-दुक्का दुकानें, फिर एक पुरानी सी इमारत वाला गुरुद्वारा—फिर पीर बाबा की मज़ार—फिर तंग सी गालियाँ, फिर प्रवीण प्रकाशन का एक कमरे वाला दफ़तर. . .।”9

‘स्मृतियों के तलघर’ पंजाब की हिन्दी कहानी, हिन्दी कहानीकारों का जीवंत दस्तावेज़ है। स्मृतियों का संग्रहणीय अमूल्य भू-गृह, तहख़ाना है।      

संदर्भ:

  1. सैली बलजीत, स्मृतियों के तलघर, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2022 पृष्ठ 96-97

  2. वही, पृष्ठ 16 

  3. वही, पृष्ठ 41 

  4. वही, पृष्ठ 40 

  5. वही, पृष्ठ 45 

  6. वही, पृष्ठ 97 

  7. वही, पृष्ठ 129

  8. वही, पृष्ठ 96 

  9. वही, पृष्ठ 108 

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