राजनीति के कुचक्र और इक्कीसवीं शती का प्रवासी हिन्दी उपन्यास

01-07-2023

राजनीति के कुचक्र और इक्कीसवीं शती का प्रवासी हिन्दी उपन्यास

डॉ. मधु सन्धु (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)


(महिला उपन्यासकारों के संदर्भ में) 

 

‘पॉलिटिक्स’ या ‘राजनीति’ का सीधा सम्बन्ध शासन तंत्र से है। इसमें दो शब्द आए हैं—राज और नीति, अर्थात्‌ उचित समय, उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला। धर्म सूत्रों में, महाभारत के शान्ति पर्व में, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, नीति ग्रन्थों में, पुराणों में हमें राजनीति के व्यापक अर्थ मिलते हैं। पश्चिम में अरस्तू और भारत में चाणक्य को राजनीति का पितामह अथवा पंडित माना गया है। 

शासन तंत्र कई प्रकार का होता है—लोकतन्त्र/प्रजातन्त्र और राजतंत्र यानी डेमोक्रेसी और मोनार्की। अधिनायकतंत्र/ तानाशाही अथवा डिक्टेटरशिप भी इस तंत्र का एक प्रकार है। आज विश्व में लोकतन्त्र का बोलबाला है। जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही इस प्रणाली के संचालक होते हैं। अब्राहम लिंकन इसे जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा किया जाने वाला शासन कहते हैं। मूलतः लोकतन्त्र एकाधिक दलों के बीच खेला जाने वाला एक खेल है। जिसमें विजयी दल जनता के मत लेकर अपनी सरकार बनाता है और विरोधी दल विपक्ष बैठ उसे सजग-सचेत रखता है। देशहित, जनहित, निःस्वार्थ भाव और ईमानदारी जैसे आदर्श जन प्रतिनिधि के अनिवार्य गुण होने चाहिए। जबकि आज लालच, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, अनैतिकता के कुचक्र इसे दाग़दार कर रहे हैं। 

इक्कीसवीं शती की प्रवासी महिला उपन्यासकारों ने वैश्विक राजनीति के अनेक चित्र अपने उपन्यासों में चित्रित किए हैं। इन उपन्यासकारों ने राजनीति के अनेक खेल अपनी आँखों से देखे हैं। भारत-पाक विभाजन, कश्मीर में हिंदुओं पर होने वाले अत्याचार, नेताओं की निरंकुशता, युगांडा से प्रवासियों को निकाला जाना, राजनैतिक दलों की वैयक्तिक सीमारेखाएँ, नसलवाद, दंगे-फ़साद आदि अनेक पक्ष उभर कर सामने आए हैं। 

स्वदेश राणा के उपन्यास ‘कोठेवाली’ का कथाक्षेत्र विभाजन पूर्व की गुजरात तहसील के ढक्की दरवाज़े की गली से लेकर से लेकर अमृतसर और लंदन तक फैला है और कथा समय 1930 से 1970 तक का है। उपन्यास बताता है कि विभाजन से पहले हिन्दू-मुस्लिम मिल-जुल कर रहते थे। ढक्की दरवाज़े की इस गली में बदरीलाल, लाजो, बेकरी वाला बख्तियार, अर्ज़ी नफीस हुकुमचंद, ठेकेदार निसार अहमद, मुनियारी, पंसारी, लोहार, मोची, नाई, आढ़ती, दर्जी, कसाई, सराफ़—सब घी-शक्कर की तरह रहते हैं। जबकि विभाजन के समय हवा बदल जाती है। उपन्यास कहता है कि राजनीति दरिंदगी को जन्म देती है। नफ़रत और मार-काट का कारण बनती है। राजनीति मानवता के लिए चुनौती है। राजनीति तोड़ती है, जोड़ती नहीं। बेकरी वाले बख्तियार की घरवाली बदरीलाल से सात माह की गर्भवती बदरुनिस्सा से कहती है:

“काफर की औलाद को इस मुसलमानों की गली में पैदा करोगी तो हम सब की ख़ैर नहीं। तुम्हारे घर में लगाई आग हम सबको जला देगी। लाहौर चली जाओ, बाद में कभी लौट आना।”1

बदरूनिस्सा छोटी बहन जाहिदा को लेकर लाहौर जाने वाली खचाखच भरी गाड़ी तो पकड़ती है, मगर उससे कभी उतरती नहीं। गाड़ी में ही मृत माँ की सतमाही बच्ची ताहिरा जन्म लेती है और मौसी जाहिदा की गोद भर जाती है। विभाजन के समय भारत आ रहा बदरीलाल भी रास्ते के ख़ून-खराबे, मार-काट में ही दम तोड़ देता है। अँग्रेज़ों की राजनीति इस देश के लोगों को तोड़ना थी तो उनके भारतीय मुलाज़िम भी अपनी जड़ों से बहुत गहरे जुड़े हुए थे। 

विभाजन से पूर्व अँग्रेज़ भारतीय अधिकारियों/ कर्मचारियों को उनकी वफ़ादारी के पुरस्कार स्वरूप रायसाहब की उपाधि देते थे। फ़ैज़ बाज़ार के इंकलाबी जुलूस से पुलिस कमिश्नर टामस रेडिंग को बचाने के पुरस्कार स्वरूप असिस्टेंट पुलिस सुपरिन्टेंडेंट मलिक केदारनाथ को राय साहब की उपाधि मिलती है। जबकि केदारनाथ ने हाथ नीचा करके आँसू गैस के कुछ गोले घुड़सवार पुलिस पर भी फेंक दिये थे कि इंकलाबी फ़ैज़ बाज़ार की गलियों में गुम हो सकें। 

यूरोपियन देशों के प्रजातन्त्र में राजतंत्र आज भी जीवित है। राजा रानी यूरोपियन मानसिकता के भावनात्मक पहलू भी हैं और परम्परा, उत्तराधिकार तथा इतिहास के प्रतिनिधि भी। अर्चना पेन्यूली के ’वेयर डू आई बिलांग’2 की क्वीन मारग्रेट नव वर्ष की पूर्व संध्या पर भाषण देती है। अर्चना डेनमार्क की प्रवासी विरोधी राजनीति पर लिखती हैं कि नसलवाद के कारण मकेनिक गोविंदप्रसाद को शिपिंग कम्पनी से हाथ धोने पड़ते हैं। हरि को चेक-इन-काउंटर पर काफ़ी समय लगता है। स्टेफनी की तरह स्मिता को स्कूल में स्थायी नौकरी नहीं मिलती। मिसेज ब्राउन कहती हैं कि वे अपने स्कूल में उन्हीं लोगों को लेती हैं, जिनकी मातृ भाषा अंग्रेज़ी होती है। उन्हें अपने स्कूल में अमेरिकन चाहिए, एशियन्स नहीं। पिया खोर्सगाड चुनाव में अपना मुद्दा यही बनाती है कि डेनमार्क इमिग्रेट्स के लिए नहीं है। यह केवल डेनिशों का राष्ट्र है। अप्रवासियों के लिए कल्याण सुविधाएँ कम हैं। स्थायी निवास के लिए अनुमति तीन वर्ष से बढ़ाकर सात वर्ष कर दी जाती है। डेनिश नागरिकता हासिल करने के लिए नौ वर्ष का निवास चाहिए। डेनिश भाषा, संस्कृति, इतिहास की परीक्षाएँ पास करना अनिवार्य है। 

सुधा ओम ढींगरा के ‘नक्काशीदार कैबिनेट’ में आतंकवाद का वह समय है, जब पंजाब में खालिस्तानियों की हिंसा का विरोध करने वालों को हिंसा का शिकार होना पड़ता था। पाश जैसे कवि, साहित्यकार, संपादक, बुद्धिजीवी की उग्रवादियों द्वारा हत्या इसलिए की जाती है कि वह हिंसा, धार्मिक कट्टरता का विरोधी था। अमेरिका से एंटी-47 पत्रिका के ज़रिये उसने खालिस्तान का खुला विरोध किया था। पम्मी की हत्या इसलिए होती है कि उसके लेखों में उनका समर्थन नहीं होता था। सोनल के पिता और दादा भी उनकी खूंखारता का शिकार होते हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार और तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का भी उपन्यास में वर्णन है। 

हत्याओं की इस शृंखला को जन्म देने वाले आतंकवाद, उग्रवाद, खलिस्तान-सब राजनीति की ही संतानें हैं। पत्रकारिता को लोकतन्त्र का प्रमुख स्तम्भ कहा गया है। ‘नक्काशीदार कैबिनेट‘ के पूर्वार्द्ध में प्रमुख रोल निभाने वाला पम्मी पत्रकार है। मीनल की हत्या पर जब न्यायतंत्र नींद से न जगने का हठ लिए था, पम्मी और मीडिया ही उनकी तंद्रा भंग करते हैं। सुधा जी लिखती हैं:

“जीवन का युद्ध हो या देशों का युद्ध, राजनीति की शतरंज हो या धर्म का मैदान, दो ही प्रवृतियाँ आमने-सामने होती हैं, कौरव-पांडव, देवता-असुर।”3

“क़ानून अंधा नहीं, क़ानून गुनाहगार है, जो अपराधियों का साथ देता है।”4

उपन्यास उस पंजाब का चित्रण करता है, जिसके वातावरण में दोहरा संत्रास है। एक संत्रास वह है जो सोनल को मीनल की हत्या ने दिया, चाचा-चाची और उनके सगों-साथियों ने, नाना-मामा ने दिया—जिसके कारण वह वर्षों ढंग से सो नहीं पाती और दूसरा संत्रास उग्रवाद, आतंकवाद, खालिस्तान की देन है—जिसने भाई सरीखे पम्मी के, पिता और दादे के प्राण लिए। 

धर्म और जातिवाद की जड़ें समाज और राजनीति दोनों में गहरे धँसी रहती हैं। भारत के मण्डल कमीशन के संदर्भ में इलाप्रसादरोशनी आधी अधूरी सी5 में कहती हैं कि सभी जानते हैं कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए राजनेता कुछ भी कर सकते हैं। बी.एच.यू. के हॉस्टल की राजनीति में भी जाति महत्त्वपूर्ण है, व्यक्ति नहीं। छात्र संघ में राजपूत ग्रुप का वर्चस्व है। उपन्यास में छात्र संस्थानों में निकलने वाले जुलूस, पुलिस का लाठीचार्ज, धरने, आदि का भी ज़िक्र है। 

सुषम बेदी के ‘पानी केरा बुदबुदा’ उपन्यास की पिया कश्मीर की कली है। लेकिन उसके लिए कश्मीर—एक भूला हुआ सपना, एक गहरे दबा हुआ दर्द है। जहाँ से घर-बाहर-सब छीन-झपट कर आतंकवादियों द्वारा कश्मीरी पंडितों को काफ़िर कहकर निकाल दिया गया, देश निकाला दे दिया गया, जान से मार दिया गया, हर वहशीपन उन पर किया गया। नफ़रत, नफ़रत को जन्म देती है। अमेरिका में एक पैनल में सलमान नाम देख पिया विचलित हो कहती है:

“सारे ऐसे ही होते हैं। धरम के पक्के। हम उनकी नज़र में काफ़िर हैं। हमें मारकर उन्हें बहिश्त मिलता है, जन्नत मिलती है। कितनी अमानवीय सोच है। सारा कश्मीर हम हिन्दुओं से ख़ाली करवा लिया, या मार डाला या हमें भागना पड़ा।”6

जड़ों से उखड़ने की वेदना लिए पिया का यह विस्थापित परिवार दिल्ली आने को विवश हो गया। कोई लोकतन्त्र, कोई राजनेता, कोई राजनीति उन्हें बेघर, बेवतन होने से नहीं बचा सकी। 

राजनेता का अधिकारक्षेत्र असीमित रहता है। मानवाधिकारों के अतिक्रमण की निरंकुशता इसका अभिन्न अंग है। राजनीति का एक रूप वह है, जब युगांडा में प्रवासियों पर तत्काल ख़ाली हाथ देश छोड़ने का हुकमनामा जारी कर दिया जाता है। नीना पॉल के ‘कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर शहर7 में युगांडा की क्रूर राजनीति है। उपन्यास एक प्रवासी परिवार की तीन पीढ़ियों की संघर्ष गाथा लिए है—नानी, बेटी, जमाई और नातिन। कभी नानी सरला गुजरात के नवसारी में रहती थी। विवाहोपरांत युगांडा में पति के साथ आई और फिर यहीं बस गई। यानी नवसारी जन्म स्थल और युगांडा कर्मस्थल बना। यहाँ बहुत से गुजराती, भारतवंशी, एशियन लोग रहते हैं और सभी सम्पन्न हैं। इतने सम्पन्न कि स्थानीय लोग इनके यहाँ मज़दूरी या दूसरे छोटे-मोटे काम करके अपनी जीविका जुटाते हैं। युगांडा के राष्ट्रपति ईदी अमीन को यही नागवारा गुज़रा। इसीलिए उन्होंने खुलेआम एलान किया कि सभी भारतवंशी, एशियन युगांडा छोड़ कर एक सप्ताह के अंदर, अपनी सारी जायदाद, धन-दौलत छोड़कर और सिर्फ़ दो सूटकेस में थोड़ा सा ज़रूरी सामान तथा 55 डॉलर लेकर देश छोड़ दें। सरला, सरोज और सुरेश पाँच महीने की निशा को लेकर लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर ख़ाली हाथ उतरते हैं और ब्रिटेन के एशियन्स बहुल गाँवों के शहर लेस्टर के लाफ़्बरों में अपना भाग्य आज़माने आ जाते हैं। 

हंसा दीप के उपन्यास ‘कुबेर’8 में लोकतान्त्रिक भारत के राजनेता की सीमाएँ, कूटनीति, स्वार्थपरकता और धूर्तताओं का अंकन है। अपने वोट बैंक के लिए, मीडिया पर प्रचार के लिए, अख़बारों में वाहवाही के लिए, राजनीति की दुकान चलाने के लिए नेता लोग अक़्सर चौके-छक्के लगाया करते हैं—जैसे किसी ग़रीब के घर भोजन करना, किसी गाँव को गोद लेना, किसी बच्चे की पढ़ाई का दायित्व ओढ़ना और जैसे ही वे दायित्वों से आँखें मूँदते हैं, चुनाव हारते हैं या संरक्षण से मुँह मोड़ते हैं—सब औंधे मुँह गिर जाता है। यही गाज़ ‘कुबेर’ के नायक धन्नू पर गिरती है। नेताजी उसे दो मील दूर अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िल करवा दो वर्ष तो उसका ख़र्च उठाते हैं, लेकिन बाद में शिक्षिका और बापू की मार तथा भूख उसे शहर जाने वाली सड़क पर ला खड़ा कर देती है। 

अनिलप्रभा कुमार ‘सितारों में सूराख़’ में अमेरिका की क्रूर राजनीति के अनेक पक्षों को उजागर करती हैं। कहती हैं:

“यह गन कल्चर अमेरिकी कल्चर का पर्याय है। यूँ कहें कि आज का यह अमेरिका स्थापित ही बंदूक के बल पर हुआ है। सभी जानते हैं कि यहाँ के मूल निवासी रेड इंडियन्स को बंदूक के बल पर ही तो पराजित कर उनकी ज़मीन हथियाई गई थी। फिर अमेरिकन रेवोल्यूशनरी वार। सब इस बात की गवाही देते हैं कि जिसके पास ताक़त है, वही विजेता रहा है।”9

आज के अमेरिकी राजनेता श्वेत राष्ट्रवाद के समर्थक हैं, यानी उनके वक्तव्यों में प्रवासियों के लिए डर, नफ़रत और कट्टरता है। 

राजनेताओं को गन-लॉबी से चुनावों में बहुत सा अनुदान मिलता है। इसलिए राजनेता बंदूक संशोधन क़ानून पर कार्यवाही के कभी हक़ में नहीं रहे। स्कूलों में आए दिन होने वाली गोलाबारी के कारण अमेरिका के स्कूली छात्र सबसे अधिक आहत, संत्रस्त और भयभीत हैं, लेकिन नेताओं को इसकी चिंता नहीं। 

द्वितीय महायुद्ध में जिस बर्बरता से छह मिलियन यहूदियों का संहार किया गया, नाज़ियों द्वारा हज़ारों लोग रोज़ मौत के घाट उतारे गए, चार गैस चैम्बर बनाए गए—इसे जेरूसलम के लोग भूल नहीं पाते। 

अमेरिका में रह रहे भारतीय और पाकिस्तानी प्रवासियों में अपनी भाषा, खान-पान, संस्कृति के कारण आत्मीयता पनप ही आती है, किन्तु विभाजन के समय हुई नृशंसता, वहशत, बीच की नफ़रत को नहीं मिटा पा रही है, छुरों के नंगे नाच, लूट-पाट, बलात्कारों की शृंखला, जिसने जय के दादा-दादी को, विस्थापितों को ज़िंदा लाशों में बदल दिया था। जैसा क्रूर इतिहास अमेरिका यूरोप के पास है, वैसी ही वीभत्स भारत विभाजन की त्रासदी है। जय को भी नंगे छुरों के पैशाचिक नाच, कुएँ में गिरती युवतियाँ, दादी की विक्षिप्तता के दृश्य हांट करते हैं। इसी कारण जय बेटी चिन्मया की मुस्लिम लड़के समीर खान के साथ दोस्ती स्वीकार नहीं कर पाता। 

उस देश में कितने सूराख़ हैं—बंदूक संस्कृति का सूराख़, राजनेताओं के आत्मकेंद्रण और वोट नीति का सूराख़, नसलवाद का सूराख़, नारी उत्पीड़न का सूराख़, सबवे में हत्याओं और लूटपाट का सूराख़, सूचना प्रसारण में सिमटा बाज़ारवाद का सूराख़, नौकरी में अस्थायीत्व का सूराख़-क्या राजनेता इन सूराख़ों के प्रति कभी सजग होंगे? 

राजनेता कितने अमानवीय, निरंकुश, उदण्ड और शक्ति का दुरुपयोग करने वाले हो सकते हैं, इसका एक चित्र सुधा ओम ढींगरा के उपन्यास ‘दृश्य से अदृश्य का सफर’ में देख सकते हैं। सायरा पर कॉलेज यूनियन का नेता और एक राजनेता का पुत्र प्रेम आमंत्रण अस्वीकारने पर भयंकर एसिड अटैक करता है। लेकिन इस जानलेवा अमानवीय कृत्य का दंड भी पीड़ित और उसके परिजन ही भोगते हैं। सायरा और उसके माता-पिता को डरा-धमकाकर राजनैतिक शक्ति से इस देश में निष्कासित कर दिया जाता है। उनका घर तीन करोड़ में ख़रीद उन्हें दस साल का अमेरिका का वीसा दिलवा दिया। क्या भारत और क्या अमेरिका राजनेता और राजनीति दोनों के कुचित्र उपन्यास में बिखरे पड़े हैं। कोरोना से उत्पन्न आपातकाल में भी राजनीति सक्रिय है। सत्ता देश और देशवासियों से ऊपर हो गई है। न्यूयार्क का मेयर ऑपोज़िट दल का है वह मदद के लिए बार-बार दुहाई देता है जबकि रूलिंग दल न्यूयार्क की उपेक्षा कर अपने राज्यों को मदद पहुँचाने में व्यस्त रहता है। डॉली का बलात्कार करने और करवाने वाला उसका जेठ करनाल का एक गुंडा है और किसी राजनेता के साथ जुड़ा है। राजनीति उपन्यास में खलपात्रों का हथियार बनकर आई है। राजनेता बेपनाह दौलत में खेलते हैं। दक्षिण भारतीय युवती का उत्तर भारतीय युवक से प्रेम उपन्यास के राजनेता पिता को इतना नागवार लगता है कि इस प्रेम को गुनाह मान उस परिवार को ही वहाँ से अपना व्यापार समेट भागने के लिए विवश कर दिया जाता है और बेटी की शादी कर उसे विदेश भेज दिया जाता है। 

इन उपन्यासकारों ने वैश्विक स्तर पर राजनीति के कुचक्रों का चित्रण किया है। भारत, ब्रिटेन, कैनेडा, अमेरिका, युगांडा—कहीं भी रह लो, इनकी मानवता विरोधी अनीति-कुनीति भोगने के लिए आम आदमी अभिशप्त है। राजनीति के कुचक्र दरिंदगी को जन्म देते है। नफ़रत और मार-काट का कारण बनते है। राजनीति मानवता के लिए चुन्नौती है। राजनीति तोड़ती है, जोड़ती नहीं। हत्याओं की इस शृखला को जन्म देने वाले आतंकवाद, उग्रवाद, ख़ालिस्तान, मण्डल कमीशन—सब राजनीति की ही संतानें हैं। बाज़ारवाद, धर्म, नसलवाद और जातिवाद की जड़ें समाज और राजनीति दोनों में गहरे धँसी रहती हैं। राजनीति के खेल कॉलेज-विश्वविद्यालय से ही शुरू हो जाते हैं। राजनीति में जाति, नसल, धर्म, देश, अर्थ महत्त्वपूर्ण रहते हैं, व्यक्ति नहीं। 

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, 
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब। 

संदर्भ: 

  1. स्वदेश राणा, कोठेवाली, अभिव्यक्ति, www.abhivyakti-hindi.org 

  2. अर्चना पेन्यूली, वेयर डू आई बिलांग, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2010

  3. सुधा ओम ढींगरा, नक़्क़ाशीदार केबिनेट, पृष्ठ 73

  4. वही, पृष्ठ 15

  5. इला प्रसाद, रोशनी आधी अधूरी सी, भावना प्रकाशन, दिल्ली-912016

  6. सुषम बेदी, पानी केरा बुदबुदा, किताब घर, दिल्ली, 2017, पृष्ठ 40

  7. नीना पॉल, कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर, hindsamay.com

  8. हंसा दीप, कुबेर, शिवना, सीहोर, मध्य प्रदेश, 2019

  9. अनिलप्रभा कुमार, सितारों में सूराख़, भावना प्रकाशन, दिल्ली-91, 2021, पृष्ठ 129

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
कविता
साहित्यिक आलेख
लघुकथा
शोध निबन्ध
कहानी
रेखाचित्र
यात्रा-संस्मरण
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो