हिन्दी उपन्यास में चित्रित अर्थतन्त्र का श्यामल पक्ष
डॉ. मधु सन्धु(प्रवासी महिला उपन्यासकारों के संदर्भ में)
डॉ.मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब।
वैश्विक बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक के अनुसार भारत 107 देशों में 62वें स्थान पर है। ग़रीबी का आँकड़ा शहराती भारत में 9.2 प्रतिशत और ग्रामीण भारत में 36.8 प्रतिशत है। भारत विकासशील देश है और हमारी युवा पीढ़ी विकसित देशों के प्रति लगातार आकर्षित हो रही है। इन युवाओं के अंतरराष्ट्रीय प्रवास के मूल में मुख्यतः आर्थिक संसाधन, अभिजात जीवन स्तर की आकांक्षा, उच्चशिक्षा और कैरियर यानी उज्ज्वल भविष्य का मोह है। देश का नाम ऊँचा करने में प्रवासियों का योगदान भी अप्रतिम रहा है। जागरण समाचार पत्र के अनुसार:
“ऐसे प्रभावी राजनेताओं में अमेरिका की पहली महिला और पहली अश्वेत उपराष्ट्रपति कमला हैरिस, मॉरीशस में प्रविंद जगन्नाथ, राजकेश्वर पुरयाग, अनिरुद्ध जगन्नाथ, नवीनचंद्र राम ग़ुलाम, गुयाना में भरत जगदेव, डोनाल्ड रविंद्र नाथ रामोतार, सूरीनाम में चंद्रिका प्रसाद संतोखी, दक्षिण अफ़्रीका में अहमद कथराडा, सिंगापुर में प्रो. एस. जयकुमार, न्यूजीलैंड में प्रियंका राधाकृष्णन, डॉ. आनंद सत्यानंद, त्रिनिदाद एवं टोबैगो में कमला प्रसाद बिसेसर, कुराकाओ में यूजीन रघुनाथ, ब्रिटेन में ऋषि सुनक आदि नाम उभरकर दिखाई दे रहे हैं। इसी तरह आइटी, कंप्यूटर, मैनेजमेंट, बैंकिंग, वित्त आदि क्षेत्रों में दुनिया में ऊँचाइयों पर दिखाई दे रहे सुंदर पिचाई, सत्य नडेला, शांतनु नारायण, दिनेश पालीवाल और अजय बंगा आदि ने भारत के साथ स्नेह के सूत्र मज़बूत बनाए हैं।” 1
विकसित देशों में भले ही इन भारतीयों की देन अप्रतिम हो, ऐसा भी नहीं है कि विकसित देशों का हर निवासी सम्पन्न-अति सम्पन्न है। 2020 की एक रपट के अनुसार अमेरिका में 4 करोड़ से ज़्यादा लोग ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। बहुत से लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्राप्त नहीं है। बहुत से इलाक़ों में लोग खाने का सामान ख़रीदने के लिए फ़ूड स्टैम्प पर निर्भर हैं, बेघर हैं।
ब्रिटेन पर बनी एक डाकुमेंटरी के अनुसार:
“ब्रिटेन में बेरोज़गारी दर ऐतिहासिक रूप से कम स्तर 3.6 प्रतिशत है। फिर भी ग़रीबी का स्तर सारे रिकॉर्ड तोड़ रहा है। यह एक विरोधाभासी स्थिति है। ब्रिटेन के लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को इन दिनों ग़रीब माना जाता है। कारण-महँगाई और बिजली और गैस की ऊँची क़ीमतें। हाल के महीनों में तेज़ी से बढ़ती महँगाई और गैस बिजली की क़ीमतों में नाटकीय वृद्धि ब्रिटेन के लाखों लोगों को ग़रीबी में धकेल रही है। अनिश्चित रोज़गार वाली कामकाजी दुनिया वेतन में उतार-चढ़ाव को जन्म देती है। पिछले 10 वर्षों में समाज के कमज़ोर तबक़े को सरकार का कम साथ मिल रहा है। डेविड कैमरन के कार्यकाल में शुरू हुई इन नीतियों से जीवन प्रत्याशा में कमी आई है। ब्रिटेन के वंचित लोग अपने अमीर हमवतनों की तुलना में 10 साल पहले मर रहे हैं। इसे “शिट लाइफ़ सिंड्रोम” के रूप में जाना जाता है, ऐसी ज़िन्दगी जीना जो ख़राब रहन-सहन, बीमारी और ड्रग की लत से ग्रस्त है। यह डॉक्युमेंट्री, ब्लैकपूल क़स्बे से लेकर स्कॉटलैंड की सीमा पर एश्टन-अंडर-लाइन और कम्ब्रिया तक उन लोगों के बारे में बताती है जिनके पास नौकरी तो है लेकिन फिर भी वे रोज़मर्रे का ख़र्च नहीं उठा सकते।2
प्रवासी महिला उपन्यासकारों ने वैश्विक ग़रीबी के अनेक चित्र इन उपन्यासों में दिये हैं।
स्वदेश राणा के ‘कोठे वाली’3 में भारत और लंदन दोनों की ग़रीबी चित्रित है। 1947 से पहले के भारत में रेडियो की ग़ज़ल गायिका बदरूनिस्सा गुजरात की गंदे नाले के पार बसी रंगरेज़ बस्ती में कुम्हारिन माँ और रंगरेज़ पिता के साथ घोर ग़रीबी में रह रही है। उसके एकतल्ले घर में ऊपर छत को जाने वाली कोई सीढ़ी तक नहीं और ऐसी ही ग़रीबी से दो-ढाई-तीन दशक बाद उसकी लंदन में रहने वाली बेटी ताहिरा भी जूझ रही है। हैडन सेंट्रल की जिस गंदी बस्ती में ताहिरा रहती है, वहाँ उसके पास न टीवी है, न टेप रिकॉर्डर, न रेडियो, न फ़र्नीचर, न ज़रूरत की वस्तुएँ, न ताज़ी हवा, न धूप। सब बेरंग, बेढंग, फटीचर, पैबंद लगा और भुतहा है।
दिव्या माथुर की ‘शाम भर बातें’4 में ब्रिटेन में मीता के यहाँ शादी की बीसवीं वर्षगाँठ का आयोजन है। बेकारी, महँगाई और कमीनगी की हद तक कंजूसी जगह-जगह मिलती है। उपन्यास बताता है कि इंग्लैंड की इकोनोमी का बुरा हाल है। हज़ारों लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। घनश्याम रणजीत के आगे किसी छोटे-मोटे काम के लिए गिड़गिड़ाता है। मनीषा को काम चाहिए—जीने के लिए, आवास और खानपान के लिए। पर काम कहाँ है? इसीलिए वह न चाहते हुए भी रंजीत के लिए अपने को परोसने के किए विवश है। मीता मिडल क्लास मेहमानों के लिए थोक में समोसे और चाइनीज़ स्प्रिंग रोल लाती है। ड्राइ फ़्रूट की ट्रे पर नज़र रखती है। शराब की बोतल खुलते ही उस के दिमाग़ में उसका रेट खलबली मचाने लगता है, हालाँकि यह बोतलें उसने डिप्लोमेट मूल्य पर ख़रीदी हैं। फोटोग्राफर तक नहीं बुलाती और अपने कैमरे को भी अनचाहे मेहमानों की फ़ोटोज़ से ओवरलोड नहीं करती। डी.जे. न बुला वह पैसे भी बचा लेती है। कार्पेट पर कुछ गिरने पर वह परेशान हो उठती है। क्रॉकरी की प्लेटों की सलामती के लिए विशेष सतर्क है। लंच शाम तक ही वितरित हो पाता है। मेहमानों के सेल में जुटाये उपहार या एक तिहाई दामों पर ख़रीदे गुलदस्ते उसे क़तई पसंद नहीं। उसे तो बोन चाइना और क्रिस्टल के उपहारों की उम्मीद थी। डिब्बों को देख कर ही उसे (कमीज, साड़ी, कंबल, शराब, शिल्प कृतियाँ आदि) अंदर के उपहारों और उनकी टुच्ची क़ीमत का अनुमान हो जाता है और वह सोच लेती है कि कौन से भारत जाने पर और कौन से पड़ोसियों या रिश्तेदारों के यहाँ निपटाए जा सकते हैं। अँग्रेज़ या ख़ास मेहमान ख़ाली हाथ भी आ जाये, तो कोई बात नहीं, लेकिन गिरगिट जैसों का ख़ाली हाथ आना उसे बहुत बुरा लगता है। उच्च और मध्यवर्ग के मेहमानों के लिए टिशू पेपर भी उसी हिसाब से रखती है। स्नैक्स और मेन कोर्स पहले किसे देना हैं तथा बचा-खुचा किसे—यह उसे स्पष्ट है। आपा, मोहिनी और गिरगिट की भरी हुई प्लेटें देख उसकी भूख ही मर जाती है। सोचती है, “कितना खाएँगे ये लोग।” रिचर्ड को आम खिलाने के लिए वह उसे रसोई में ही ले आती है, कि कहीं कोई और आम माँगने न लग जाये। हैल्थ शो में मुफ़्त में मिले ‘नो स्मोकिंग’ के नामपट्ट जगह-जगह चिपका देती है। प्रिया और लूसी को निर्धारित से एक पैसा भी अधिक नहीं देगी।
नीना पॉल का ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’5 में त्रासदी कुछ अलग ही प्रकार की है। युगांडा के राष्ट्रपति ईदी अमीन को प्रवासी भारतीयों की संपन्नता नागवार लगती है और वह खुलेआम ऐलान कर देता है कि सभी भारतवंशी, एशियन युगांडा छोड़ कर एक सप्ताह के अंदर, अपनी सारी जायदाद, धन-दौलत छोड़कर और सिर्फ़ दो सूटकेस में थोड़ा सा ज़रूरी सामान तथा 55 डॉलर लेकर देश छोड़ दें। सरला, सरोज और सुरेश पाँच महीने की निशा को लेकर लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर ख़ाली हाथ उतरते हैं और ब्रिटेन में एशियन्स बहुल गाँवों के शहर लेस्टर के लाफ़्बरों में अपना भाग्य आज़माने आ जाते हैं। ब्रिटेन एक महँगा देश है। यहाँ घर चलाने के लिए सुरेश, सरोज, सरला तीनों को काम करना पड़ता है। ब्रिटेन वेलफ़ेयर स्टेट है। भारतवंशी तो हर छोटा-बड़ा काम करने को तत्पर रहते हैं, वे कारख़ानों में मज़दूरी करते हैं, ओवर टाइम लगाते हैं, होटलों में बरतन धोते हैं, ड्राइवरी करते हैं। जबकि स्थानीय लोग छोटा काम करने की बजाय सरकारी भत्ता लेना अधिक पसंद करते हैं। उपन्यास बेकारी, मंदी और ग़रीबी का विस्तृत चित्रण करता है। ऐसी भी स्थिति है कि एक ही घर में रात-दिन की शिफ़्ट के हिसाब से दस-दस लोग रहते हैं। शादी के अवसर पर गराज में बाथरूम बनवा उसमें अतिथि ठहराए जाते हैं। भारतीय ओवरटाइम लगाकर अधिक से अधिक धन कमाना चाहते हैं। अर्थ संकट का एक रूप वह भी है, जब कारख़ाने बंद हो जाते हैं, नौकरियाँ छूट जाती हैं, वेलफ़ेयर स्टेट भत्ता बंद करने की चेतावनी देती है, लोगों को स्टाल लगाने पड़ते हैं। कोयला खदानों का बंद होना, समुद्र में से गैस मिलना, बड़े-बड़े मॉल खुलना, छोटी दूकानें घाटे में जाना या बंद होना, बेरोज़गारी फैलना, आर्थिक तंगी के कारण निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विश्वविद्यालय की मायरा, जिलियन जैसी लड़कियों का चोरी-छुपे कॉल गर्ल का धंधा करना, सरोज का धागे और हौज़री के कारख़ाने में काम करना—ऐसे ही तथ्य हैं। जहाँ युवा काम के लिए भटक रहे हों, वहाँ वृद्धों की दयनीय अवस्था का अनुमान करना ही कठिन है।
कादंबरी मेहरा का ‘निष्प्राण गवाह’6 अपराध कथा है, जासूसी कथा है। रहस्य रोमांच भरे इस उपन्यास की कहानी का आरंभ मार्टिन गिलबर्ग द्वारा लंदन के दक्षिणी छोर पर बोर्नमथ शहर से पाँच-सात मील दूर, औने-पौने दामों में साल्सबारी के नर्सिंग होम में पड़ी बयानवें वर्षीय स्टैला से उसका ख़स्ताहाल, तीन बेडरूम वाला बीच हाउस ख़रीदने से होता है। यहाँ उखड़े प्लास्टर, भुतहले बदरंग परदे, पीलाए वाल पेपर, गले हुए चौखटे और सीलन की बदबू है। उपन्यास में मुख्यतः निम्न और निम्न मध्यवर्गीय परिवार आए हैं। गुरुशरण सामान ढोने वाला ट्रक ड्राइवर है। उसका पिता मैकेनिक और माँ भारतीय रेस्टोरेन्ट में काम करती है। उसकी सहायक जेनिफ़र का पिता पानी के जहाज़ों के रख-रखाव की टीम में है और माँ स्कूल में सफ़ाई का काम करती है। रोज़मरी की दोस्त और ‘टू स्टेग्स’ की बनी-गर्ल हेलेन बिन माँ-बाप की युवती है। सरकारी फोस्टर माँ-बाप उसे बेटी कम, परिचारिका अधिक मानते हैं। उनकी रुचि उसमें नहीं उसके सरकारी भत्ते में है। रोज़मरी के माँ-बाप आयरलैंड में आलू की फ़सल बरबाद हो जाने से भुखमरी से तंग आकर इंग्लैंड में आकर बस जाते हैं। उसकी माँ आयरीन के पिता वेल्स में कोयले की खान में काम करते थे। 45 वर्ष की उम्र में खदान में ही दबकर उनकी मृत्यु हो गई। सोलह सत्रह वर्षीय आयरीन बस्ती के ही एक मज़दूर से शादी करती है। वह घरों में काम करके गुज़ारा करती थी।
उषा प्रियम्वदा के ‘नदी’7 में पति डॉ. गगनेन्द्र बिहारी सिन्हा मकान बेच, सामान समेट, नौ और सात वर्षीय दोनों बेटियों सपना और झरना को ले भारत, पत्नी का पासपोर्ट, वीसा, गहने, रुपए पैसे—सब कुछ सहेज और उस ठंडे, पराये, ग़ैर भाषाई देश में उसे छोड़ भारत चले आते हैं। गंगा बिना ‘वर्क पेपर’ के तो छोटी-से-छोटी नौकरी भी नहीं जुटा सकती। बिना काग़ज़ों के तो उसे अस्पताल में मरीज़ों का मल उठाने जैसा काम भी नहीं मिल सकता। वीसा के पेपर मिल जाने पर भी अगर क्लर्क की नौकरी करे तो कमरे का किराया, बस का सफ़र, जीवन की दूसरी ज़रूरतें पूरी नहीं हो सकती। ग़रीबी के कारण वह अर्जुनसिंह की रखैल होने जैसी स्थिति स्वीकारने का मन बना लेती है। आर्थिक तंगी इस भारतीय संस्कृति में पली बढ़ी स्त्री को एरिक एरिक्सन के साथ घर शेयर करने को विवश करती है। वह सिर की छत और दो वक़्त की रोटी के लिए उत्तरी कैलिफ़ोर्निया में रह रही कैंसर पीड़ित प्रवीण बहन की दिन-रात अवैतनिक दासी बन कर सेवा करती है। उनकी मृत्यु के बाद वह वृद्ध, बीमार लकवाग्रस्त प्रवीण की पत्नी बनाम सेवादार बनती है। पिछली उम्र में उसे एक किसान स्त्री की तरह दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है और प्रवीण जी के बेटे यशवंत की करुण और उदार दृष्टि का पात्र बनना पड़ता है। उनके ‘भया कबीर उदास’8 का नायक नायिका के पापा के हैड माली का बेटा है।
अर्चना पेन्यूली के ‘पॉल की तीर्थयात्रा’9 का पॉल में अस्थिरता पॉल दो शादियों और दो स्त्रियों से सम्बन्ध होने के बावजूद अकेला है और फ़क़ीर है। उसके पास एक किराये का दो कमरों का घर और अपने विसंगत जीवन जैसा ही बेमेल-सा फ़र्नीचर है। सोफा-कम-बेड दूसरी पत्नी नीना से मिला, उसी की कार उसकी मृत्यु के बाद उसकी माँ से ख़रीद ली, उस पर बिछी लाल चादर माँ ने दी, दीवान एक मित्र का है, दीवार पर लगी पेंटिंग बहन जूलिया की भेंट है, कुर्सी मकान मालिकिन ने दी, किताबों का रैक पुराना किरायेदार छोड़ गया, किचन की गोल मेज़ बेटी लूसी ने ऑन-लाइन ख़रीद कर दी।
‘वेयर डू आई बिलांग’10 में अर्चना पेन्यूली कहती हैं:
“सभी को अपनी जगह और अपने देश से अगाध प्रेम होता है। मगर जब इंसान वहाँ विद्यमान अथवा उपजी मुसीबतों को अत्यंत कठोर पाता है तो वहाँ से पलायन करना चाहता है, एक बेहतर और सुरक्षित गन्तव्य की ओर। कभी अज्ञात रास्तों की खोज की जिजीविषा, नई अनजानी जगह जाकर जीवन जीने की लिप्सा, दौलत कमाने की आकांक्षा व एक अच्छी ज़िन्दगी जीने की अभिलाषा इंसान को अपना नीड़ छोड़कर उड़ान भरने को प्रेरित करती है।”
सत्तर के दशक में गोविंद प्रसाद शांडिल्य ने मकेनिक के रूप में फ़्री पोर्ट डेन्मार्क में शरण पाई थी। मंदी के दिनों में पत्नी कमला घर का अर्थतन्त्र सँभाल लेती है। कुलीन ब्राह्मण होते हुए भी वह एक पाँच सितारा होटल के बीस कमरों और ग़ुस्लख़ानों की सफ़ाई का काम करती है, खाना बनाने के ठेके लेती है। बेटी सुधा मेक्डोनल में नौकरी करती है। बेटे सुभाष और सुरेश को सुबह-सुबह लोगों के घरों में अख़बार बाँटने भेजती है। इंडियन रेस्टोरेन्ट खोलती है।
इला प्रसाद का ‘रोशनी आधी अधूरी सी’11 उपन्यास अमेरिका के अर्थसंकट और बेरोज़गारी के भी परिदृश्य लिए हैं। नौकरी जुटा पाना आसान नहीं, कोंटेक्ट्स चाहिए। आई.आई.टी. मुंबई की उच्च शिक्षित शुचि अमेरिका में एक स्कूल टीचर की नौकरी भी नहीं जुटा पाती। पति इन्द्र भी नौकरी और बेकारी के बीच झूल रहा है। रश्मि जानती है कि यूनिवर्सिटी में शाम या रात की क्लासेज़ लेने से तो अच्छा है कि किसी स्कूल में नौकरी कर ली जाये। कम से कम जीवन बीमे की सुरक्षा तो मिलेगी। आर्थिक असुरक्षा हर पल बनी रहती है। अमेरिकी अख़बारों में 46000 नौकरियाँ ख़त्म होने का समाचार है। हर रोज़ एक कंपनी बंद हो रही है। छंटनी हो रही है। रज़ाई का ग़िलाफ़ भी लेना हो तो सेल की प्रतीक्षा की जाती है। जॉब फ़ेयर लगते हैं। अमेरिका के दूर दराज़ के हिस्सों से भी प्रत्याशी आते हैं, पर सी.वी. ले आवश्यकतानुसार बुलाने के लिए कह कर लौटा दिया जाता है, निर्मल वर्मा की कहानी ‘लंदन की एक रात’ के विली, जार्ज और मैं की तरह। कैटरीना तूफ़ान के बाद से हालात और भी बदतर हो जाते हैं। मेक्डोनल में तो शुचि-इन्द्र एक ऐसे असहाय, अपाहिज, बेघर बूढ़े से भी मिलते हैं, जिसने पिछले छह दिन से कुछ नहीं खाया है।
निष्कर्षत: विकसित देशों के अर्थतन्त्र का श्यामल पक्ष, प्रवासी की बेबसी और संघर्षों का लेखा-जोखा इन उपन्यासों में बिखरा पड़ा है।
संदर्भ:
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https://www.jagran.com/editorial/apnibaat-nri-is-strength-of-our-country-22321655.html
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#DWहिन्दी #DWDocumentaryहिन्दी #uk
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स्वदेश राणा, कोठेवाली, अभिव्यक्ति, www.abhivyakti-hindi.org
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दिव्या माथुर, शाम भर बातें, वाणी, दिल्ली, 2018
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नीना पॉल, कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर, hindisamay.com
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कादंबरी मेहरा, निष्प्राण गवाह, शिवना, सीहोर, जून 2020
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उषा प्रियम्वदा, नदी, राजकमल, दिल्ली, 2014
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वही, भया कबीर उदास, राजकमल, नई दिल्ली, 2007
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अर्चना पेन्यूली, पॉल की तीर्थयात्रा, राजपाल एंड संज, दिल्ली 2016
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वही, वेयर डू आई बिलांग, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2010
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इला प्रसाद, रोशनी आधी अधूरी सी, भावना, दिल्ली, 2016
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