निर्णय

15-06-2025

निर्णय

डॉ. मधु सन्धु (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

कल की बात है—धनदनाता बिज़नेस, अति संपन्नता, महल सा घर, टॉप करने वाला, मैडल/ ट्रॉफी जीतने वाला, आज्ञाकारी, समझदार, लाड़ला, सुपर इंटेलिजेंट बेटा, अत्याधुनिक जीवन शैली, बुलंदियों पर बने रहने की आकांक्षा।     सोने पर सुहागा था; न धन की कमी, न इंटेलिजेंस की। बेटा स्कूल के बाद महानगर के हॉस्टल में पढ़ाई करने लगा। हर छुट्टी पर आ धमकता, फिर आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए और साथ ही विदेश गमन। वह जाना नहीं चाहता था, घर का बिज़नेस सँभालना चाहता था, कहता—मैं घर से निकल सकता हूँ, पर घर मेरे अंदर से नहीं निकलता। पर उसे बाँध कर कैसे रखते? आस-पड़ोस, नाते-रिश्ते, मित्र-परिचित-सब के बेटे विदेश में थे। 

आज घर का पेंट और शारीरिक ऊर्जा/तेज सब निस्तेज, हो रहे हैं। बाहर बरामदे में दो वृद्ध दीखते हैं—हैल्थ इन्श्योरेंस की फ़ाईल सँभालते हुए। अख़बारवाले, माली, धोबी, सफ़ाई कर्मचारी, मेड, फल-सब्ज़ी हॉकर, ऑन लाईन सामान लाने वालों का इंतज़ार करते हुए। उनकी उपस्थिति से अपने को तरोताज़ा करते हुए। सन्नाटा तोड़ते हुए। थोड़ा होंठ हिलाते, थोड़ा उठते-बैठते बस इन्हीं की हलचल की प्रतीक्षा रहती है। कभी कभार मोबाइल की घंटी भी टनटना जाती है—विदेश में बसी संतान से एक-आध पल बात या वीडियो कॉल हो जाती है। मन तुष्ट भी हो जाता है और कसमसाता भी है। निर्णय ऐसे ग़लत भी हो जाया करते हैं? 

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घर आवाज़ों से भरा रहता है। साथ वाले कमरों से, लॉबी-किचन से, ड्राईग-डाइनिंग से, छत-टेरेस से तीखी-मंद आवाज़ें आती रहती हैं। सब जानती-पहचानती हूँ, महसूसती हूँ। सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने की आवाज़ का अंतर भी पता चल जाता है। चिल-पों, उछल-कूद, गीत-संगीत, लड़ाई-झगड़े, मेहमान-मित्र— हंगामा ही हंगामा है। शान्ति तो है ही नहीं इस घर में। अपने में ही लगे रहते हैं। मेरे लिए अलग आया रख दी और उत्तरदायित्व ख़त्म। इतना भी नहीं कि रोज़ सुबह की चाय मेरे कमरे में आकर पी लें, डिनर यहाँ कर लें, थोड़ा बतिया लें, कोई सलाह-मशवरा ले लें। हाथ पकड़ बाहर का चक्कर लगवा आयें। बड़ों का मान–सम्मान करने से इनका क़द छोटा थोड़े हो जाएगा। वह मन ही मन बुदबुदा/कुनमुना रही थी। इससे अच्छी तो अपनी पड़ोसिन की ज़िन्दगी है। बेटा बाहर है, घर में शान्ति तो है। 

1 टिप्पणियाँ

  • 11 Jun, 2025 01:26 AM

    लघुकथा हो कर भी स्थिति का सिहांवलोकन... एक कहावत याद आ गयी... शादी का लड्डू जो..... डॉ मधु संधु की विशिष्टता ही यही है कि वह यथार्थ को भी ऐसा उकेरती हैं कि पाठक चौंक उठता है... अरे यह पक्ष तो देखा और सोचा ही नहीं... साधारण को ख़ास और आकर्षक बनाना आपको बाखूबी मालूम है... शुभकामनाएँ!

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