प्रवासी महिला कहानीकारों की नायक प्रधान कहानियाँ

23-01-2019

प्रवासी महिला कहानीकारों की नायक प्रधान कहानियाँ

डॉ. मधु सन्धु

वैश्विक समाज मुख्यत: पितृ सत्ताक है। भारत मुनि का ‘नाट्य शास्त्र’ और अरस्तू का ‘पोएटिक्स’ नेता और चरित्र चित्रण की बात ही खुल कर करते हैं। नायिका भेद तो मनोरंजन का विषय रहा है। प्रवासी महिला कहानीकारों ने पुरुषीय दुख-दर्द, उत्पीड़न, बेचारगी, उदारत्व, गरिमा, निष्कपटता, संयम का ऐसा चित्रण किया है कि सारी की सारी पाठकीय संवेदना उनके हिस्से में आ रही है। पुरुष मनोविज्ञान की यहाँ अनेकानेक परतें भी खुलती दिखाई देती हैं और स्त्री खलनायिका बनी अपने दोगले, विकराल रूप से उनका जीवन दूभर कर रही है, उनकी साँसों पर प्रतिबंध लगा रही है। अगर वह बहन है तो उषा प्रियम्वदा की ‘ज़िंदगी और गुलाब के फूल’ की वृन्दा की तरह भाई का सब कुछ छीन-झपट रही है। माँ है तो सुषम बेदी की ‘अच्छा बेटा’ की तरह बेटे का तलाक़ करा उसे साइकोसमैटिक बना रही है। पत्नी है तो नीना पॉल की ‘आखिरी गीत‘ की तरह बच्चों को पिता के ख़िलाफ़ भड़का रही है या दिव्या माथुर के यहाँ पति को ‘मेड इन इंडिया’ का गालीनुमा सम्बोधन दे लगातार अपमानित कर रही है। नायक पुरुष ही है- हारा हुआ या विजयी। उषा राजे सक्सेना की ‘डैडी’ सा स्नेहिल और उदार, सुषम बेदी की ‘अवसान’ के दिवाकर सा कर्तव्य सजग, अर्चना पेन्यूली की ‘डेरिक की तीर्थ यात्रा’ सा संबंधों को मन के स्तर पर जीने वाला, कादंबरी मेहरा की ‘टैटू’ के क्रूरतम जल्लाद सा करुण और मानवीय।

प्रवासी महिला कहानीकारों द्वारा पुरुषवादी नायकप्रधान कहानियों की शुरुआत उसी दिन हो गई थी, जिस दिन पाठकों के हाथ उषा प्रियम्वदा की ‘ज़िंदगी और गुलाब के फूल’1 (प्रवास से पहले की कहानी) लगी थी। पता नहीं किस आत्मसम्मान के चक्कर में भाई सुबोध ने लगी-लगाई नौकरी छोड़ दी और छोटी बहन वृन्दा की नौकरी लग गई और घर में ही एक बाज़ारवाद पसर गया। धीरे-धीरे बेकार भाई की पढ़ने की मेज़, अलार्म घड़ी, कालीन, छोटी मेज़, आराम कुर्सी कमाने वाली बहन वृन्दा के कमरे मे पहुँच गए। यहाँ तक कि उसकी प्रेमिका शोभा की भी कहीं और सगाई हो गई। अब उसे न पहले अख़बार मिलता है, न नाश्ता। न उसके कपड़े धुलाये जाते हैं और न खाने के लिए उसकी प्रतीक्षा की जाती है। हालात का मारा सुबोध मुंडू की तरह बाज़ार के काम करता है और दिन भर पार्क में पड़ा रहता है।

प्रवासी महिला कहानीकारों ने यहाँ उस संसार का सृजन किया है, जहाँ सुपुत्रों का उत्पीड़न हो रहा है। मातायेँ बेटों की घर गृहस्थी तहस-नहस कर रही हैं। कहानी इस भ्रम को तोड़ती है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता कुमाता नहीं। मातृत्व का उदार, उदात्त, उच्चासन माँ की प्रभुत्व कामना या आधिपत्य ग्रंथि के कारण यहाँ डोलता दिखाई देता है। सुषम बेदी की ‘अच्छा बेटा’2 में राजस्थान के किसी गाँव से अमित अपनी पत्नी के साथ अमेरिका आया हुआ है। उसकी माँ और पिता भी साल में चार महीने के लिए आया करते हैं। आजकल यहीं हैं। सास बहू के झगड़े के कारण पैंतीस वर्षीय बेटे पर तलाक़ के लिए ज़ोर डाला जा रहा है। अच्छा बेटा बनने के चक्कर में अमित न चाहते हुये भी तलाक़ लेता है और साइकोसमैटिक हो जाता है। अच्छा बेटा बनना उसे बहुत भारी पड़ता है। वह मन: रोगी होकर रह जाता है।

उन देशों के बच्चों ने समझ लिया है कि माँ-बाप जीवन भर तो साथ नहीं रह सकते। पिता लोग पत्नियों से तलाक़ वगैरह लेते ही रहते हैं। पिता भी जानते हैं कि बच्चों का आर्थिक दायित्व उठाना, उनसे थोड़ा-बहुत लाड़-प्यार करना, उनकी ज़रूरतें समझना उनका हक़ भी है और कर्तव्य भी। यह अमेरिका है। यहाँ के भारतीय पुरुष भी एक से न पटने पर दूसरी और तीसरी पत्नी का जुगाड़ कर रहे हैं। फिर भी वे अच्छे पिता और नायक हैं। सुषम बेदी की ‘अवसान’3 के डॉक्टर दिवाकर ने तीन शादियाँ की हैं। पाँच बच्चे हैं। दो पत्नियों से संबंध विच्छेद के बावजूद दिवाकर अच्छा पिता है। वह बच्चों के स्कूल-कॉलेज की फ़ीस देता है। उनके जन्मदिनों पर उपहार भेजता है। उन्हें खाने पर रेस्तरां ले जाता है और बच्चे भी उसके जन्मदिन और क्रिसमस पर उसे कार्ड भेजते हैं।

दुनिया भर के अख़बार सौतेले पिताओं के खल चरित्र- आचरण से भरे रहते हैं। लेकिन उषा राजे सक्सेना की ‘डैडी’4 बेइन्तिहा प्यार करने वाले हैफ़ फ़ादर की कहानी है। यहाँ हैफ़ डैडी फ्रेंक का स्नेहिल रूप, मानवीय संवेदनाएँ और रिश्तों का साकारात्मक चित्रण है। वह तीन साल की थी, जब माँ ने यह शादी की थी। पूरा प्यार-दुलार मिलने के बावजूद नायिका ममी-डैडी की नीली आँखों, भूरे बालों तथा अपनी काली आँखों और काले बालों के कारण उद्वेलित रहती है और यह बाईस वर्षीय युवती माँ की मृत्यु के बाद अपने बायलोजिकल पिता की खोज में स्पेन के लिए चल देती है। स्पेन में सप्ताह भर रुकती है। लेकिन जल्दी ही जान जाती है कि हैफ़ डैडी का प्यार, विश्वास और सहृदयता ही उसकी पूँजी है। उन्होंने ही आज तक उसकी हर सुरक्षा और सुविधा की चिंता की है।

एक समय था कि भारतीय पुरुष के पास सुरक्षित गुड, बैटर, बेस्ट के सभी विकल्प उसे आत्मकेंद्रित पीड़क बना देते थे और पत्नी दूसरे, तीसरे, चौथे स्थान पर आती थी, लेकिन अमेरिका में जन्मी नई भारतीय स्त्री अपनी श्रेष्ठता का दावा करती इसे खुले आम चुनौती दे रही है। यहाँ बदल रही प्रवासी भारतीय संस्कृति का एक नवांकुरित पहलू और भारत से विदेश गए पुरुष की न लौट पाने की विवशताएँ अनेक संदर्भों में चित्रित की गई हैं। पत वाले संवेदनशील पति पुरुष का अस्तित्व गौण होता जा रहा है, वह सिर्फ छटपटा रहा है। बहुत बड़ा दिल है इन पतियों का। पत्नी के पर-पुरुष सम्बन्धों को जान वे न हो-हल्ला करते हैं, न उत्पीड़ित करते हैं, न उनसे घर या बच्चे छीनते हैं। उन्हें स्पेस देने वाले वीतरागी पति इन कहानियों में मिलते हैं। नीना पॉल की ‘आखिरी गीत’5 में वर्षों पहले संगीतकार पति कपिल पत्नी के किसी और के प्रति आकर्षण के कारण उन्हें छोड़ कर चले गए थे। जब कि पत्नी द्वारा बच्चों को यह बताया गया कि अपने संगीत प्रेम के कारण उन्होंने घर छोड़ दिया है। कल की बेचारी, सब की संवेदना पर एकाधिकार रखने वाली पत्नी आज खलनायिका बन बच्चों में पिता और उसके संगीत से नफ़रत भर रही है। पिता के कैंसर पीड़ित होने पर बच्चे बड़े बेमन से उनके पास आते हैं और सच्चाई जानने के बाद बेटी सोनल पिता के पास ही रह जाती है। पिता की अक्षमता देख बेटी पिता द्वारा आयोजित उस म्यूज़िक कन्सर्ट में कार्यक्रम दे पिता की आत्मा को तृप्त करती है, जिसके टिकट बिक जाने के बावजूद वे उसके आयोजन में असमर्थ थे।

समय और स्थान बदल गया है, समस्याएँ बदल गई हैं। जीवनादर्श परिवर्तित हो गए हैं। सब उलट-पुलट गया है। नाहर से गरजने वाले पति भीगी बिल्ली बन रहे हैं। ग्रीन कार्ड ने नए उपनिषदों का सृजन किया है। जिनकी संहिताओं में अंतर देशीय, अंतर धार्मिक, अंतर सांस्कृतिक विवाहों की आचार संहिता पर अलिखित हस्ताक्षर भी आते हैं। सुदर्शन प्रियदर्शिनी की ‘आचार संहिता’6 में कैथी से विवाह करने पर नाहर ऐसी ही संहिताओं का पालन करने के लिए बाध्य है। पति उत्पीड़न के कई हथियार उसके पास हैं। जैसे पति के मेहमानों का आना, बच्चों के लिए भारतीय भाषा-संस्कृति, खान-पान, भारत जाना, पत्नी को दोस्तों के साथ जाने से रोकना - सब वर्जित है। वह नाहर न रह कर मानों भीगी बिल्ली बन कर रह जाता है। उसे माँ या बहन सरिता से फोन पर बात करने या उन्हें घर बुलाने की भी मनाही है।

पीड़ित पतियों के अनन्य त्रासद रूप इन कहानियों में मिलते हैं। लगता है इन प्रवासी पतियों के दुखों का अंत नहीं। उज्ज्वल भविष्य का सपना लेकर नीना पॉल की ‘किश्तों का भुगतान’7 का सुनील आयातित पति के रूप में उस तारा के लिए विदेश आता है, जो वर्षों स्टीव से भावात्मक और शारीरिक रूप से जुड़ी रही है। वह उसे सदैव कमतर समझती और बताती रही है। कभी बच्चों के पालन-पोषण का हवाला देकर, कभी कम शिक्षा की दुहाई देकर वह उसे उस फ़ैक्टरी का कर्मचारी ही बनाए रखती है, जहाँ एक दुर्घटना में वह अपाहिज हो जाता है। बेटे के अंदर भी उसके लिए घृणा भरती रहती है। जीवन भर के अपमान उसे इतना त्रस्त करते हैं कि मृत्यु के पल वह मित्र प्रमोद के पास आ जाता है और निर्णय लेता है कि उसके शव के साथ सिर्फ वही हो।

स्नेह ठाकुर की ‘क्षमा’8 के नायक ने धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर किशोरावस्था में जूली से शादी की और उसका धर्म अपनाकर प्रचारक बन गया था। दो बच्चे भी हुए। ओढ़े हुए धर्म को जैसे ही छोडना चाहा, जूली से भी तलाक़ लेना पड़ा। जूली ने डेविड से शादी कर ली और सौतेला पिता डेविड दोनों बच्चों का हत्यारा ही नहीं, नन्ही सी बेटी का यौन उत्पीड़क भी है। ऐसे में मैं क्या करे? उसके आर्तनाद का अंत नहीं।

इस बेचारे पुरुष के अनेक रूप यहाँ चित्रित हैं। सुदर्शन प्रियदर्शिनी की ‘सेंध’9 में हिन्दू ऋषभ ईसाई टीना से शादी करता है। तब माँ और उसके मन में था की धर्म तो ऊपरी चीज़ है। जब बच्चा होता है तो एक तरफ़ से राजू या राजा और दूसरी तरफ़ से निकोलुस नाम दिया जाता है। बड़ा होने पर पिता उसके मुंडन करवाना चाहता है और माँ बेपटिस्म। कहानी धर्म, संस्कार और ईश्वर की दार्शनिक व्याख्या करती नायक की द्वंद्व ग्रस्त मन:स्थितियाँ चित्रित करती है।

दिव्या माथुर की ‘मेड इन इंडिया’10 प्रवासी पति के उत्पीड़न का दर्दनाक रूप लिए है। चंडीगढ़ के बाईस वर्षीय सतनाम की अपने से कहीं बड़ी, भद्दी, मोटी, तलाक़शुदा लंदन की जसबीर लांबा से शादी कर उसे बलि का बकरा बना दिया जाता है। दोनों देशों के संस्कृतिगत अंतर के कारण सतनाम को जसबीर की सहेलियों का व्यवहार वेश्या सा लगता है और जसबीर को सतनाम गँवारों सा। शराब, सिगरेट, चुंबन, आलिंगन सतनाम से झेले नहीं जाते। लंदन पहुँचते ही उसे पत्नी-परिवार से अपमान मिलता है, खाना सूँघ-सूँघ कर दिया जाता है, और उनके होटल ‘छैइयाँ छैइयाँ’ में काम पर बंधुआ मज़दूर जैसा व्यवहार किया जाता है। कहीं वह भारत न चला जाये, इसलिए पासपोर्ट छीन लिया जाता है। उसका नाम ‘मेड इन इंडिया’ रख दिया जाता है। चंडीगढ़ में बात भी नहीं करवाई जाती। चोरी का झूठा इल्ज़ाम लगा पुलिस के हवाले किया जाता है।

ग़रीबों की इच्छाएँ नहीं ज़रूरतें होती हैं। पिता की असमय मृत्यु, बहनों के विवाह की चिंता और मामा के दोस्त की अमेरिकन सिटीज़न बेटी का रिश्ता आने पर सुधा ओम ढींगरा की ‘वह कोई और थी’11 के अभिनन्दन को अमेरिका आना पड़ता है, लेकिन यहाँ आते ही उसे स्पष्ट हो जाता है कि वह पति या दामाद न होकर सिर्फ़ एक नौकर, एक मुंडु है। उसे अभिनन्दन से नंदू बना दिया गया है। क्योंकि वर्क परमिट के लिए वह सपना पर निर्भर है। पक्का ग्रीन कार्ड मिलने में तो वर्षों लगते हैं। वर्क परमिट और दो वर्ष का ग्रीन कार्ड मिल जाने के बाद भी गृहस्थ के लिए वह सपना की ज़्यादतियाँ सहने को विवश है। वह शांत महासागर हो जाता है, भीतर से कितनी भी लहरें उठें, ऊपर से धीर- गंभीर बना रहता है। आज रात को माँ का भारत से फोन आया है कि ताऊ और चाचा की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई है और सपना को ग़ुस्सा है कि रात के फोन ने उसकी नींद ख़राब कर दी। अंतत: वह लगातार मिलने वाले अपमान से तंग आकर सारे रिश्ते तोड़ पासपोर्ट ले भारत के लिए निकल पड़ता है। कहानी अमेरिका में भारत से इम्पोर्ट किए दूल्हे का शोषण, उत्पीड़न लिए है।

अर्चना पेन्यूली की ‘डेरिक की तीर्थ यात्रा’12 में एक परित्यक्त पति प्रेमी डेरिक प्रौढ़ावस्था में भी 90 किलोमीटर की पदयात्रा कर पूर्व पत्नी/प्रेमिका को श्रद्धांजलि देने पहुँचता है। यह नायक रिश्तों से अन्तर्मन से जुड़ा है। पूर्व पत्नी नीना की बरसी पर पहुँचने के लिए नीना की माँ का फोन आया है। बरसी 90 किलोमीटर दूर सिद्धि विनायक के मंदिर में है और डेरिक दिन-रात 15 घंटे चल कर वहाँ पैदल जाने का निर्णय लेता है। गूगल से सारे विवरणों का अध्ययन कर वह पदयात्रा की तैयारी करता है। ज़रूरी ख़रीददारी करता है। सारे रास्ते की छानबीन करता है। मंदिर के पुजारी से बात करता है। पिछले साढ़े तीन सालों से नीना कैंसर से जूझ रही थी और डेरिक थोड़ा-बहुत उसके संपर्क मे था। पूर्व पत्नी की पुण्य तिथि पर 90 किलोमीटर पैदल चल कर आना डेरिक के भावनात्मक लगाव और महमानवीय गुणों का ही प्रतीक है।

अर्चना पेन्यूली की ‘वह उसे क्यों पसंद करती है’13 में कामकाजी पत्नी का निठ्ठला पति भी हीरो है। कहानी के अतिथि और अनिल ने तीन साल पहले प्रेम विवाह किया है। पत्नी अतिथि उससे अधिक कमाऊ, अधिक पढ़ी-लिखी, अधिक अभिजात परिवार से है। वह एम. बी. ए. है। तीस हज़ार कमाती है। उसने फ़्लैट ख़रीदा है। उसकी तनख्वाह से ही सब बिल जाते हैं। लेकिन शारीरिक थकान और दिमाग़ी उपद्रव से छुटकारा पाने के लिए वह नौकरी से इस्तीफ़ा दे देती है, पर घर के ख़र्चों का क्या करे? हर समय दोस्तों के साथ टी. वी. क्रिकेट में मस्त रहने वाले पति पुरुष अनिल के पास कभी ढंग की नौकरी भी नहीं रही। ऐसे में पति अनिल का सकारात्मक रवैया और ‘मैं हूँ न’ का आत्मविश्वास उसे बता देता है कि नायक अनिल के साथ होते वे हार ही नहीं सकते।

कादंबरी मेहरा ‘टैटू’14 में नायकत्व एक जल्लाद से भी क्रूर पुरुष को मिला है। ‘जल्लाद से भी क्रूर’ यानी खलनायक को उन्होंने नायकत्व दिया है। कहती हैं कि क्रूर धंधा करने वाले सब लोग क्रूर नहीं होते। पैट्रिक/ मैक्स का पैतृक धंधा जल्लाद का था, लेकिन बॉक्सर पैट्रिक इससे भी आगे बढ़ा। उसने ग़लत मंशाओं से मारे गए लोगों के शवों को क्रूर अमानवीय ढंग से अंग-भंग करके बिखरा-बिखरा कर ठिकाने लगाने का धंधा अपनाया और ऐय्याश जीवन बिताने लगा। एक शव के उसे पाँच से दस हज़ार पाउंड तक मिल जाते। उसने अपने शरीर पर भी साँपों, चमगादड़ों, मांस खाते लकड़बग्घों, गिद्दों के टैटू बनवाए हुये थे। छब्बीस की उम्र में एक बार उसे एक क्रूरता और बलात्कार की शिकार 16-18 वर्षीय युवती का भी शव ठिकाने लगाना पड़ा। उसका मन चीत्कार कर उठा। रात के लिए एक रोज़ वह जिस युवती को लाया, वह उसी की बहन थी। उसने यह धंधा छोड़ दिया। उस लड़की से शादी की। दूर कहीं जाकर घरों का सामान ढोने वाली कंपनी में मज़दूरी करने लगा। दो बच्चे हुए। पर एक दिन अपराध जगत के पुराने लोगों ने उसे घेर लिया और अपना बचाव करते-करते उससे हत्या हो गई। पैट्रिक ने स्वयं पुलिस को सूचित किया और सात वर्ष जेल में भी बिताए।

फ़ैटेसी शिल्प में लिखी मेनका शेरदिल की कहानी ‘पेरिस की सौबरान लाइब्रेरी के इंडौलोजी विभाग में एक स्वप्न’15 में भी नायकत्व जीवन के रस को समझने की चेष्टा में जागते-सोते शोध संलिप्त रसायन शास्त्र का एक वैज्ञानिक को दिया गया है। नायक पेरिस की सौबरान लाइब्रेरी के इंडौलोजी विभाग में अपना देश छोड़ विगत दस वर्ष से बिना वेतन के शोध कर रहा है। स्वप्न में उसे एक चोर बताता है कि पृथ्वी और जल के मिलने से मधुर रस बनते हैं। अग्नि की पृथ्वी के संग अधिकता बढ़ जाये तो अम्ल रस उत्पन्न हो जाता है। जल और अग्नि की अधिकता से तिक्त रस बनाता है। पृथ्वी और वायु की अधिकता से काषाय रस बनता है।

कहानी के परिक्षेत्र में प्रवासी महिला कहानीकारों की देन अप्रतिम है। विश्व के विभिन्न भागों में रह रही इन कहानीकारों ने बदले जीवन संदर्भों, नई उभरी समस्याओं को परिवर्तित समय और स्थान, देश और मान्यताओं, आधुनिकता और मूल्यवत्ता के अनुरूप स्वर दिया है। अमेरिका से उषा प्रियम्वदा, सुषम बेदी, सुधा ओम ढींगरा, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, ब्रिटेन से नीना पॉल, उषा राजे सक्सेना, दिव्या माथुर, कादंबरी मेहरा, डेन्मार्क से अर्चना पेन्यूली, कैनेडा से स्नेह ठाकुर, फ़्रांस से मेनका शेरदिल ने प्रवास में रह रहे पुरुष के जीवन संघर्ष और समझौतों, उसकी पराये देश और अपने घर में स्थिति, उत्पीड़न और संयम को जिस प्रकार चित्रित किया है, वह निश्चय ही हमारे समक्ष एक नए प्राणी का चित्र उकेरता है।

संदर्भ सूची:

1. उषा प्रियम्वदा, ज़िंदगी और गुलाब के फूल, ज़िंदगी और गुलाब के फूल, ग्यारहवाँ संस्करण, 2011, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली- 110003
2. सुषम बेदी, अच्छा बेटा, तीसरी आँख, पराग, दिल्ली, 2016
3. सुषम बेदी, अवसान, अभिव्यक्ति, 16 अक्तूबर 2002
4. उषा राजे सक्सेना, डैडी, वह रात और अन्य कहानियाँ, सामयिक, नई दिल्ली, 2007
5. नीना पॉल, आखिरी गीत, साहित्य शिल्पी, मई 2012
6. सुदर्शन प्रियदर्शिनी, आचार संहिता, गद्य कोश, सम्पर्क: http://gadyakosh.org/Gk/आचार_संहिता/-सुदर्शन-प्रियदर्शिनी
7. नीना पॉल, किश्तों का भुगतान ,गर्भनाल, सितम्बर 2014, वर्ष-4, अंक-7, इंटरनेट संस्करण-94
8. स्नेह ठाकुर, क्षमा, वसुधा, जुलाई-सितंबर 2015, वर्ष: 12, अंक: 47.
9. सेंध, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, अभिव्यक्ति, 7 अप्रेल 2014
10. दिव्या माथुर, मेड इन इंडिया, गद्य कोश, http://gadyakosh.org/gk/मेड_इन_इंडिया_/_दिव्या_माथुर
11. सुधा ओम ढींगरा , वह कोई और थी, कमरा न॰ 103, प्रकाशक: हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर, उ० प्र० 246701, 2013
12. अर्चना पेन्यूली, डेरिक की तीर्थ यात्रा, हंस, सितंबर, २०१४
13. अर्चना पेन्यूली, वह उसे क्यों पसंद करती है, साहित्यकुंज, 4 फरवरी 2008, www.sahityakunj.net
14. कादम्बरी मेहरा, टैटू, अभिव्यक्ति, 9 जून 2015
15. मेनका शेरदिल पेरिस की सौबरान लाइब्रेरी की इंडौलोजी विभाग में एक स्वप्न, ई-कल्पना, मई २०१६, http://www.ekalpana.net/#!4-2/ioqsx

1 टिप्पणियाँ

  • प्रवासी महिला साहित्यकारों की कहानियों की सुंदर समीक्षा के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ डॉ ऋतु शर्मा ननंन पाँडे नीदरलैंड 031-0622252508

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