कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर-शहर
डॉ. मधु सन्धुउपन्यास : कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर-शहर
लेखिका : नीना पॉल
प्रकाशक : हिन्दी समय
लिंक : कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर-शहर
‘कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर-शहर’ ब्रिटेन की हिन्दी कहानीकार, ग़ज़लकार, उपन्यासकार नीना पॉल का तीसरा उपन्यास है। इससे पहले उनके दो उपन्यास ‘रिहाई’ (2007) और ‘तलाश’( 2010) प्रकाशित हो चुके हैं।
‘कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर शहर’ एक प्रवासी परिवार की तीन पीढ़ियों की संघर्ष गाथा लिए है- नानी, बेटी-जमाई और नातिन। कभी नानी सरला गुजरात के नवसारी में रहती थी। विवाहोपरांत युगांडा में पति के साथ आई और फिर यहीं बस गई। यहीं बेटी सरोज का जन्म, पालन-पोषण और शादी हुई। यानी नवसारी जन्मस्थल और युगांडा कर्मस्थल बना। आज इस परिवार में चार लोग हैं- सरला, बेटी सरोज, जमाई सुरेश और नातिन निशा। यहाँ बहुत से गुजराती, भारतवंशी, एशियन लोग रहते हैं और सभी सम्पन्न हैं। इतने सम्पन्न कि स्थानीय लोग इनके यहाँ मज़दूरी या दूसरे छोटे-मोटे काम करके अपनी जीविका जुटाते हैं। युगांडा के राष्ट्रपति ईदी अमीन को यही नागवार गुज़रा। इसीलिए उन्होंने खुलेआम ऐलान किया कि सभी भारतवंशी, एशियन युगांडा छोड़ कर एक सप्ताह के अंदर, अपनी सारी जायदाद, धन-दौलत छोड़कर और सिर्फ़ दो सूटकेस में थोड़ा सा ज़रूरी सामान तथा 55 डॉलर लेकर देश छोड़ दें। सरला, सरोज और सुरेश पाँच महीने की निशा को लेकर लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर ख़ाली हाथ उतरते हैं। नानी सरला बेन के लिए तो युगांडा के बाद यह दूसरा प्रवास/भटकाव था, जिसकी वेदना उसकी ख़ामोश नज़रों और मन में उमड़ते तूफ़ान में स्पष्ट थी। वे ब्रिटेन मे एशियन्स बहुल गाँवों के शहर लेस्टर के लाफ़्बरो में अपना भाग्य आज़माने आ जाते हैं।
यह वह समय था, जब ब्रिटेन को कोयला खदान, धागा, गार्मेंट्स, गैस, व्यापार, कारखानों की प्रॉडक्शन में इज़ाफ़ा करने के लिए - सब जगह, पूरे ब्रिटिश अर्थतन्त्र के लिए सस्ते मज़दूरों की ज़रूरत थी। इस गुजराती परिवार के माध्यम से लेखिका ने भारतीयों के जीवट, श्रम क्षमता और कुशल व्यापार बुद्धि का वर्णन किया है कि ये ऐसे लोग हैं जो युगांडा में रहें या ब्रिटेन में- उन देशों की उन्नति में अपने अमिट हस्ताक्षर जोड़ ही देते हैं। समझदार लोग अपना कारोबार- घर- जायदाद बेच बहुत पहले ही युगांडा छोड़ ब्रिटेन मे सैटल हुये और बड़े बिजनेस मैन बन गए। भारतीयों ने ब्रिटेन के अर्थतन्त्र को एक ख़ास ऊँचाई दी। लेस्टर शहर को उन्नति के शिखर तक पहुँचाने वाले भारतीय ही रहे। जल्दी ही लेस्टर के बेलग्रेव रोड पर, साड़ियाँ, सोना-चाँदी, हीरे के आभूषण, गुजराती मिठाई की दुकानें और पंजाबी ढाबे खुल गए। नीना पॉल ने इन ख़ानाबदोश प्रवासियों का गहन जीवन संघर्ष दिया है। ब्रिटेन एक महँगा देश है। यहाँ घर चलाने के लिए सुरेश, सरोज, सरला तीनों को काम करना पड़ता है। इन्होंने ही इसका कायापलट किया। ब्रिटेन वेल्फ़ेयर स्टेट है। भारतवंशी तो हर छोटा-बड़ा काम करने को तत्पर रहते हैं, वे कारखानों नें मज़दूरी करते हैं, होटलों में बरतन धोते हैं, ड्राइवरी करते हैं, जबकि स्थानीय लोग छोटा काम या किसी एशियन के कारखाने में काम करने की बजाय सरकारी भत्ता लेना अधिक पसंद करते हैं। वे ओवरटाइम भी नहीं लगाते।
बेकारी, मंदी और ग़रीबी का विस्तृत चित्रण मिलता है। ऐसी भी स्थिति है कि एक ही घर में रात-दिन की शिफ़्ट के हिसाब से दस-दस लोग रहते है। शादी के अवसर पर गराज में बाथरूम बनवा उसमें अतिथि ठहराए जाते हैं। भारतीय ओवरटाइम लगाकर अधिक से अधिक धन कमाना चाहते हैं। अर्थ संकट का एक रूप वह भी है, जब कारखाने बंद हो जाते हैं, नौकरियाँ छूट जाती हैं, वेलफ़ेयर स्टेट भत्ता बंद करने की चेतावनी देती है, लोगों को स्टाल लगाने पड़ते हैं। कोयला खद्दानों का बंद होना, समुद्र में से गैस मिलना, बड़े-बड़े मॉल खुलना, छोटी दूकानें घाटे में जाना या बंद होना, बेरोज़गारी फैलना, आर्थिक तंगी के कारण निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विश्वविद्यालय की मायरा, जिलियन जैसी लड़कियों का चोरी- छुपे कॉल गर्ल का धंधा करना, सरोज का धागे और हौज़री के कारखाने में काम करना- ऐसे ही तथ्य हैं। जहाँ युवा काम के लिए भटक रहे हों, वहाँ वृद्धों की दयनीय अवस्था का अनुमान करना ही कठिन है। समुद्र से गैस निकालना सरकार की कामयाबी थी तो नौकरियों का चला जाना जनता के लिए धक्का। मज़दूरों के लिए लड़ने को सशक्त यूनियन थी। हड़तालें भी हुई, लेकिन व्यर्थ। सरकार के आगे किसी की नहीं चली।
रंगभेद, नसलवाद या अंग्रेज़ों के सुपीरियेरिटी कॉम्प्लेक्स का उपन्यासकार ने विस्तृत वर्णन किया है। चमड़ी का रंग, खानपान और भाषा को लेकर अंग्रेज़ भारतीयों को हेय मानते रहे हैं। भारतीय भी नए देश, नई भाषा, नए लोगों के कारण गुट बनाकर रहना ही पसंद करते थे। स्कूलों में अंग्रेज़ और भारतीय बच्चों के अलग-अलग ग्रुप रहते और खेल के मैदान में दोनों की भिड़न्त भी हो जाया करती। अंग्रेज़ अध्यापक भी इनसे भेद-भाव करते। इतने एशियन्स को देख ब्रिटेन के लोगों ने इनके विरुद्ध आवाज़ तो उठाई, लेकिन अपने देश का हित सोच अधिक आपत्ति नहीं जताई। बचपन यानी स्कूल के दिनों से ही निशा को रंगभेद की इस त्रासदी का सामना करना पड़ता है। मित्र लिंडा की माँ नायिका निशा को एलियन कहती है-
“न जाने यह लड़की किन एलियन्स को लेकर घर आ जाती है। उफ. . . सारा घर बदबू से भर गया है। क्या किसी अपने जैसे से दोस्ती नहीं कर सकती। न जानें कितने किटाणु छोड़ गई होगी ब्लेकी. . .।“( हिन्दी समय)
निशा की रूममेट एंजी उसे ब्लैक बास्टर्ड कहती मारने के लिए हाथ उठाती है। एंडरिया ईर्ष्यावश कारखाने में सरोज का हाथ जला देती है। बलिण्डा को भारतीयों से डर लगता है कि कहीं भारत में अँग्रेज़ी राज का बदला लेने तो नहीं आए? ग्रेट ब्रिटेन चार भागों में बँटा हुआ है- इंग्लैंड, आयरलैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स। अपने को ऊँचा और सभ्य मानने वाले यह लोग आयरिश लोगों को भी पसंद नहीं करते, जबकि हैं तो वे भी गोरे ही। उनके बच्चों को भी अपने स्कूलों में पढ़ाना नहीं चाहते। इंग्लिश पब में आयरिश को बीयर तक नहीं मिलती और न ही वे इनके चर्च में जा सकते हैं। अंग्रेज़ मरीज़ काली नर्सों से टीका तक लगवाना नहीं चाहते। पराकाष्ठा तो तब है, जब वे उनपर थूकने से भी बाज़ नहीं आते। विरोधाभास देखिये कि एक ओर अंग्रेज़ भारतीयों से घृणा करते हैं और दूसरी ओर अपनी गोरी चमड़ी को गंदमी करने के लिए ढेरों उपाय करते रहते हैं।
समय के साथ- साथ इंग्लिश मानसिकता भी बदलने लगती है। पढ़ाई में अपनी प्रखर बुद्धि के कारण निशा के अंग्रेज़ साथी मैत्री से इंकार नहीं कर पाते। स्कूली दिनों में उसकी एंजी और लिंडा से दोस्ती होती है और लेस्टर विश्वविद्यालय में तो आयरिश साइमन, फ्रेंच जैकलीन, मानचैस्टर से पंजाबी अलका, वेल्स का किशन कारडिफ़ और युगांडा की गुजराती निशा एक ही फ़्लैट में रहते हैं। उनमें प्रगाढ़ मैत्री है। नौकरी का समय आने पर निशा और साइमन एक ही शहर, एक ही घर में रहने का निर्णय लेते हैं। नानी की भारत यात्रा के प्रसंग में निशा सायमन को भी साथ ले जाना चाहती है। नीना पॉल लिखती है-
“जब विचारों में शुद्धता आती है, तो आँखों से नफ़रत मिट जाती है। रंग रूप का भेद भाव भी समाप्त हो जाता है। जब दो संस्कृतियों के बच्चे एक हो जाते हैं, तब बड़ों को भी अपने विचारों की दिशा को मोड़ देना ही पड़ता है। हाँ! अपने व्यवहार को बदलने में उन्हें समय अवश्य लग जाता है।“ ( हिन्दी समय)
पश्चिम में भी स्नेह सम्बन्ध भावनाओं से ओत–प्रोत हैं। लिंडा अपनी पढ़ाई छोड़ यूनिवर्सिटी से माँ के पास इसलिए आ जाती है क्योंकि उसकी सिंगल पेरेंट माँ को भावात्मक स्तर पर बेटी की ज़रूरत है। माँ तलाक़शुदा है, तलाक़ वहाँ भी असहज स्थिति है और माँ डिप्रेशन में चली जाती है। जबकि उपन्यासकार ने उन वृद्धों का भी चित्रण किया है जिन्हें ढलती उम्र के कारण कोई काम नहीं मिल पाता, जिनके बच्चों ने अकेला छोड़ दिया है, जिन्हें क्रिसमिस या ईस्टर पर एक कार्ड भेजकर बच्चे कर्तव्यबोध से मुक्ति पा लेते हैं, जो मृत्यु का इंतज़ार करने के लिए अभिशप्त हैं।
अपने देश की याद के स्वर या गहन अंतर्द्वंद्व यहाँ भी हैं। नानी सरला की एक ही इच्छा है- एक बार नवसारी ज़रूर जाना है, जबकि वह इतना भी नहीं जानती कि वहाँ उसका अपना कोई होगा भी या नहीं, कोई पहचानेगा भी या नहीं। 76 की उम्र में, गालब्लेडर के ऑपरेशन के बाद भी यह आकांक्षा दबती नहीं। विडम्बना यह है कि जिस देश को अरसा पहले नानी ने छोड़ दिया था, जिस देश को माँ ने कभी देखा ही नहीं, जिस देश की नागरिकता भी उनके पास नहीं, उसे वे अपना देश कहती हैं। भारतवंशी यह ख़ानाबदोश भटकता परिवार किसे अपना देश कहे? भारत को, अफ़्रीका को या ब्रिटेन को?
लेस्टर का वर्णन तो लेखिका ने रिपोतार्ज की तरह किया है। ख़ूबसूरत मौसम, प्रदूषण रहित सड़कें, मिलनसार, मददगार और स्थानीय इतिहास के जानकार टैक्सी ड्राईवर। जो एक बार यहाँ आ जाये, उसका बार-बार आने को मन करता है। ब्रिटेन की रानी भी लेस्टर आये तो बाज़ार का चक्कर अवश्य लगाती है। यहाँ बच्चों के लिए स्पेस सेंटर है। बुज़ुर्गों के लिए मंदिर हैं, नेबरहुड सेंटर है। विश्वविद्यालयों में यहाँ की शहरी और ग्रामीण पुरानी इमारतों, वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों-फूलों को बचाए और बनाए रखने के लिए शोधकार्य होते हैं। कपड़े के कारखानों के कारण भी इस शहर की अपनी पहचान है। लेस्टर के चारों ओर केनाल हैं। यह व्यापार के भी काम आती थी और बोटिंग तथा पिकनिक के भी। पार्क, झाड़ियाँ, बत्तखें आगन्तुकों को मोह लेती। धीरे-धीरे इनमें नालों का पानी गिरने लगा, मछलियाँ मरने लगी, चूहों का जमावाड़ा बढ़ता गया। लाफ़्बरो के काले भूरे पत्थरों से ढके बीकन हिल से शहर का पूरा नज़ारा दिखाई देता है- विक्टोरिया स्ट्रीट, लंबी टेढ़ी-मेढ़ी सड़कें, कारखानों का धुआँ, आकाश को छूता चर्च, क्वीन्स पार्क, विश्व युद्ध का स्मारक चिन्ह तिमंज़िला क्रिलियन। चर्च के लिए संगीतमय अद्भुत घंटियाँ बनाने वाली बेल फाउंडरी भी यहीं स्थित है। लेस्टर से 20-25 मील दूर स्थित नौटिंघम शहर और वहाँ के रोबिनहुड कॉसल का भी सविस्तार वर्णन मिलता है। लेस्टर का भूगोल और इतिहास, लेस्टर में हो रही प्रगति- यानी नीना पॉल ने यहाँ के हर छोटे-बड़े क्रिया-कलाप को स्वर दिया है। जेम्स, प्रिंस ऑफ वेल्स, लेडी जेन ग्रे का भी ऐतिहासिक वर्णन है।
रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टियन कट्टरताओं के बावजूद ब्रिटेन सच में धर्म निरपेक्ष देश है। यहाँ बसे सभी देशों के लोग धीरे-धीरे धार्मिक स्वतन्त्रता अर्जित कर लेते हैं। यहाँ सरकारी अनुमति और ग्रांट से बने कैथौलिक चर्च है, भारतीय मन्दिर हैं। धार्मिक कार्यों के लिए कम्यूनिटी सेंटर हैं, जहाँ हिन्दी, पंजाबी, गुजराती की कक्षाएँ भी लगती हैं। लोग खुलकर अपने धार्मिक त्योहार मनाते हैं।
स्थानीय लोग और प्रवासी- दोनों के उत्सव त्योहार यहाँ चित्रित हैं। ‘बोन फ़ायर नाइट’ और ‘क्रिसमस’ को ‘दीवाली’ की तरह पटाखे चलाये जाते, रोशनी की जाती हैं। भारतीयों और पाकिस्तानियों में चाहे कितनी भी असमानताएँ हों, लेकिन उनमें एक सौहार्द और भाईचारा है। दीवाली और ईद मिलजुल कर मनाते हैं। ‘हैलोवीन’ और ‘गाय फ़ॉक्स नाइट’ बहुत कुछ भारतीय ‘लोहड़ी’ और ‘दशहरे’ जैसे त्योहार है।
नई पीढ़ी की नई सोच है। निशा माता पिता के संरक्षण से बाहर निकल अपनी आँखों से दुनिया देखना और समझना चाहती है, इसीलिए वह उच्च शिक्षा के लिए लॉफ़्बरो छोड़ लेस्टर विश्वविद्यालय में आती है। भिन्न देशों के छात्र- छात्राओं के साथ मिलजुल कर रहना उसे अच्छा लगता है।
उपन्यासकार ने पाश्चात्य संस्कृति में यौन जीवन की प्रधानता का प्रभाव भारतीयों पर भी दिखाया है। लाफ़्बरो की दो बहनें अपने धार्मिक और पुरातनपंथी माता-पिता की बन्दिशों से तंग आ चोरी-चोरी नाइट क्लब आया करती हैं।
यहाँ ब्रिटेन में बसा एक मिनी भारत है। भारतीयों की बहुत सी सोने की दुकानों के कारण बेलग्रेव रोड को गोल्ड माईल भी बोलते हैं। यहाँ साड़ियों की भी बहुत सी दुकानें हैं। लेस्टर में इटैलियन, स्पेनिश, अँग्रेज़ी खाने के अतिरिक्त पंजाबी, गुजराती, मद्रासी, बंगाली, पाकिस्तानी खाना भी पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र है। टैक्सी, रेस्टोरेन्ट, दुकानों के रेडियो पर स्थानीय प्रसारण में हिन्दी गाने चलते रहते हैं। यहाँ स्वामी नारायण मंदिर, गीता भवन, साईं बाबा मन्दिर हैं। नीना पॉल लिखती हैं-
“लेस्टर को असली पहचान भारतीयों ने ही दिलाई है।19वीं शती के आरंभ में लेस्टर के विषय में कोई जानता भी नहीं था। मोटर-वे पर कहीं लेस्टर का साइन तक नहीं था।. . .यूँ कहिए कि लेस्टर की पहचान भारतीयों से और भारतीयों की पहचान लेस्टर से हुई। यहाँ भारतीयों का इतना दबदबा है कि अंग्रेज़ मकान बेच बेलग्रेव रोड से दूर जाने लगते हैं।"
भाषिक प्रौढ़ता उपन्यास को विशिष्ट ऊँचाइयाँ देती है। सूत्रात्मकता भी है, जैसे- ‘आविष्कार हुये तो आकांक्षायें, जिज्ञासाएँ और भी बढ़ने लगीं।’
लेखिका नीना पॉल 1973 से लेस्टर में है। पहले वे लेस्टर के ही एक शहर लॉफ़्बरो में रहती थी। उपन्यास उन उतार-चढ़ावों को क़लमबद्ध कर रहा है, जिन्हें लेस्टर ने जिया-झेला है। वहाँ के जन जीवन का, उत्कर्ष-अपकर्ष का, रहन-सहन का, परिवर्तन-परिवर्द्धन का, एशियन्स पर उसके प्रभाव का यहाँ विस्तृत वर्णन है। तथ्य जुटाने के लिए उपन्यासकार इतिहासकारों, लेखकों से मिली, पुस्तकालयों को खंगाला, मित्रों से कड़ी मेहनत करवाई, कई लोगों से तथ्य संकलन किया, इंटरनेट देखा, नोट्स लिए, हालाँकि उनकी कोशिश उपन्यास को लेस्टर का इतिहास बनने से बचाने की भी रही है और संस्मरण अथवा रेखाचित्र विधा से अलग रखने की भी। उपन्यासकार ने अपनी धरती से उखड़े और अन्य देशों में जीवन संघर्ष कर रहे एक परिवार की लगभग आधी शती लंबी यात्रा को बड़े संतुलित और निरपेक्ष भाव से चित्रित किया है। उपन्यास पाठक के मन में एक प्रश्नचिन्ह की गूँज-अनुगूँज छोड़ जाता है- विदेश में जन्मे-पले, वहाँ के नागरिक भारतवंशियों का कौन सा देश अपना है?
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