तीर्थाटन के बाद-बेटों वाली विधवा

15-10-2024

तीर्थाटन के बाद-बेटों वाली विधवा

डॉ. मधु सन्धु (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

इक्कीसवीं शती की पूर्व संध्या, यानी मार्च 1999 की हँस पत्रिका में अमरीक सिंह दीप की कहानी ‘तीर्थाटन’ प्रकाशित हुई थी। उसी को लेखक ने ‘तीर्थाटन के बाद’ शीर्षक से औपन्यासिक आकार दिया, जो अमन प्रकाशन कानपुर से 2019 में प्रकाशित हुआ। इसी उपन्यास पर ‘ढाई आखर’ नाम की फ़ीचर फ़िल्म बनी जिसे गोवा में हुए 54वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव (आईएफ़एफ़आई) 2023 के प्रतियोगिता खंड में चुना गया है और 25 नवंबर को गोवा विश्व प्रीमियर में इसे प्रस्तुत किया गया। इसमें हिंदी और मराठी सिनेमा की मशहूर एक्ट्रेस मृणाल कुलकर्णी ने सुदेश/हर्षिता की मुख्य भूमिका निभाई और थिएटर एक्टर हरीश खन्ना तथा रोहित कोकाटे ने भी महत्त्वपूर्ण अभिनय किया। दिल्ली में चल रहे ‘हैबिटेट फ़िल्म फ़ेस्टिवल’ ने 11 मई, 2024 यानी शनिवार की शाम स्टीन ऑडिटोरियम हॉल में इसे दर्शकों के लिए भी प्रस्तुत किया गया। 

उपन्यास ‘तीर्थाटन के बाद’ में कुल 15 परिच्छेद हैं। यह सुदेश नाम की विधवा की कहानी है, जो 36 वर्षों तक घरेलू हिंसा और पति पुरुषोत्तमलाल के अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार की शिकार रही। अब विधवा माँ से बेटे चाहते हैं कि वह अनासक्त भाव से मृत्यु की प्रतीक्षा करे, लेकिन सुदेश पत्रों के माध्यम से एक संवेदनशील लेखक श्रीधर के संपर्क में आती है। उससे प्रेम करने लगती है। बेटे-बहुओं, बेटियों वाली, पोते-पोतियों वाली विधवा के पर-पुरुष सम्बन्ध पितृसत्ताक क्योंकर स्वीकार करे? 

प्रश्न यह है कि शादी होते ही, किशोरी के पत्नी बनते ही दमन चक्र शुरू हो जाता है। लाइसेंसड बलात्कार, कुटना-पिटना, दमन-शोषण, नंबर दो की हैसियत सब उस नियति में बदल जाते हैं, जिसे परिवार-ख़ानदान, देश-समाज, सभ्यता-संस्कृति, पौराणिक-धार्मिक मान्यताओं ने जबरन उसकी झोली में डाला है। यह परंपरित मूल्यों की तस्वीर बदलने वाली विधवा है, दमन-शोषण के समक्ष भी अपनी बौद्धिक आत्मिक शक्ति से तन कर खड़ी होने वाली स्त्री है। अपने अर्थाधार को संरक्षित और सुरक्षित रखने वाली प्रौढ़ा है। 

यह उस बेचारी वृद्ध विधवा की कहानी नहीं है, जिसे बेटा ‘चीफ़ की दावत’ (भीष्म साहनी) पर घर के फ़ालतू सामान की तरह शर्म के मारे इधर-उधर छिपाता फिरें। यह वह ‘बेटों वाली विधवा’ (प्रेमचंद) भी नहीं है, जिसका घर, ज़मीन, जायदाद, पैसा सब छीन कर उसे बता दिया जाये कि उसका अधिकार मात्र रोटी कपड़े पर है। यह उन्नीस वर्षीय बेटी की वह विधवा माँ भी नहीं है, जिसे उसके हाल पर छोड़ बेटी पिता का सामान ले वर्किंग वुमेन हॉस्टल ‘तलाश’ (कमलेश्वर) ले। यह उस नौ माह (निर्मल वर्मा-पिता और प्रेमी) अथवा दस वर्षीय बेटे (निर्मल वर्मा-अँधेरे में) की कहानी भी नहीं है, जो माने कि उसके होते माँ को इन अंकलनुमा खलनायकों की क्या आवश्यकता है? मैं हूँ न। 

पुरुषों के लिए परकीया, सामान्या की सुविधा तो है, लेकिन माँ परकीया या प्रेमिका नहीं हो सकती। ऐसी स्त्री को कुलटा, व्यभिचारिणी, गिरी हुई ही माना जाता है। स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को धर्म, समाज व रूढ़िवादी परम्पराएँ स्वीकार नहीं करती। मनु स्मृति कहती है कि लड़की को पहले पिता, फिर पति और बाद में बेटों के संरक्षण में रहना चाहिए। 

यह विधवा सुदेश के जीवन की ओर लौटने की कहानी है। तपते तवे पर बैठी स्त्री के राख होने और उस राख से पुनर्जीवन प्राप्त करने की कहानी है। एक स्त्री के पुनर्जन्म की कहानी है। तिरपन चौवन की उम्र में विधवा माँ सुदेश के राधा हो जाने और अपने सखा श्रीधर से मिलने की कहानी है। श्रीधर उसके जीवन में सुगंध बिखेर देता है। जिस उम्र में लोग ईश्वर, अध्यात्म और मोक्ष की ओर मुड़ते हैं, वह मॉर्निंग वॉक पर जाती है, योगा सेंटर जाती है, बाद-दोपहर रूमानी ग़ज़लें सुनती है और तीर्थाटन के नाम पर प्रेमी से मिलने वृन्दावन जाती है। सुदेश का परपुरुष से आया प्रेमपत्र बहू के हाथ लगता है, डायरी मिलती है और पता चलता है कि सास अपने आठ माह पुराने प्रेमी से मिलने वृन्दावन गई है। परिवार में भूकंप-सा आ जाता है। प्रलय मच जाती है। कमरे की तलाशी ली जाती है। वहाँ ख़ुशबूदार पौधों, सरस्वती की प्रतिमा, घुँघरूदार पर्दे, पेंटिंग, पोस्टर, रूमानी कैसेट-कवितायें-उपन्यास, ग्रीटिंग कार्ड्स, ढेरों प्रेम पत्र पा सब हैरान रह जाते हैं और छत के बीचों-बीच सब कुछ इकट्ठा करके, आग लगा मानो माँ को मुखाग्नि दे दी जाती है। जिस माँ को मुखाग्नि दे दी गई उसका वापस आना भला कौन बरदाश्त करेगा? 

लेकिन प्रेम उसे सशक्त कर देता है, वह एक दृढ़-सशक्त स्त्री की तरह उभरती है। मुखाग्नि में जलायी सारी चीज़ों को फिर से ख़रीद लाती है। बेटों बहुओं को उनकी जगह याद दिला देती है, खाना बनाने के लिए एक छोटी लड़की और पौधों के लिए माली रख लेती है। बेटे द्वारा बंद किया गया बिजली-पानी—पुलिस-ठाणे, कोर्ट-कचहरी की बात कर खुलवा लेती है। मिस्त्री मज़दूर लगा नया रसोईघर बनवा लेती है। उसने ठान लिया है कि जीना है तो साहस से जीना है, मरना है तो लड़कर मरना है। प्रेम उसे जीने का सलीक़ा सिखा देता। प्रेम का बासंती भाव अंदर की लड़की को जागृत कर देता है। वह बरसाने की कनुप्रिया हो गई है। 

स्त्री न आदिशक्ति है, न लक्ष्मी, न सरस्वती, न दुर्गा, न काली। वह पुरुष की घर नाम की इंडस्ट्री की रसोइया, धोबिन, आया, महरी, जमादारिन यानी आल इन वन वर्कर, बेदाम बँधुआ मज़दूर है। पिता के बाद बेटों ने पिता का चेहरा पहन लिया है—शंकालु स्वभाव, स्त्री के शरीर को देह गज़ से नापने की प्रवृति, पाँव की जूती समझने और डाँटने का जन्मसिद्ध अधिकार, पिता की मृत्यु पर पगड़ी पहनने और सारे पैसे, पेंशन और घर-ज़मीन पर अधिकार। बेटों के अंदर एक हिंसक और आक्रामक आग है, जिसपर माँ के प्रेम पत्र माचिस की जलती तीली का काम करते हैं। आवेग चेहरा विकृत कर देता है, आँखें दग्ध सलाखें बन जाती हैं, होंठ ड्रेकुला की तरह अनबुझ प्यास से फड़कते हैं। राहुल सोचता है कि परशुराम ने अपनी माँ का सिर फरसे से उतार कर अपने पिता के क़दमों पर रखा था। इसी को पुरुषीय आन-बान-शान कहा जाता था। वह भारत के इतिहास के उस युग को स्वर्णकाल मानता है, जब पति की मृत्यु होने पर पत्नी को उसकी चिता पर ज़िंदा जला देते थे। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। स्वातंत्रोत्तर काल में पति की सम्पत्ति, बीमा, ग्रेजुएटी, पी. एफ़. पर विधवा का अधिकार—उसकी बरदाश्त से बाहर है। छोटा राजुल भी उस रीति का समर्थक है, जब पति की मृत्यु होने पर उसकी विधवा का सिर मुँड़वा, सफ़ेद साड़ी पहनवा काशी या वृन्दावन छोड़ आते थे, जहाँ उसे भजनाश्रम में आठ घंटे बिताने के बाद दो रुपये, पाव भर चावल और छटाँक भर दाल मिलती थी। चाहता है कि माँ दो जून भोजन पाने के लिए भजन करती फिरे। राजुल अपने एक मुस्लिम मित्र से माँ की हत्या करवाना चाहता है और बहू अपर्णा मुल्ला से मूठ चलवा कर। 

बेटों का सिहासन डोलने का दूसरा प्रमुख कारण है—अर्थतन्त्र। पति की मृत्यु ने सुदेश को एक सशक्त अर्थाधार दिया है। पी.एफ़., ग्रेजुएटी, पेंशन, मकान की अपने नाम रजिस्ट्री उसे अर्थसत्ता से जोड़ते हैं। राहुल बुआ फूफा की पंचायत/खाप बैठा कहता है कि पिता के फ़ंड और हर मद का पैसा उसे चाहिए, मकान चाहिए, बस, फिर माँ को घर से निकाल दो। बेटे कहते हैं कि जाति और बिरादरी से क़ानून बड़ा कैसे हो सकता है? जबकि सुदेश देश के उस क़ानून की शुक्रगुज़ार है जिसने उसे दोबारा जीवन जीने की तौफ़ीक़ बख़्शी है। 

माँ के लिए प्रेम व्यभिचार है और ययाति के वंशज बेटों के लिए सब मौजमस्ती। सब कैरेक्टर कोड सिर्फ़ माँ के लिए ही रचे गए हैं। बेटों के कैरेक्टर कोड से किसी को कुछ नहीं लेना देना। राहुल की तरह पड़ोसिन से इश्क़ लड़ाएँ या राजुल की तरह घर में काम करने वाली युवती से। 

परामनोविज्ञान के चित्र भी उपन्यास में हैं। श्रीधर के घर पहुँच सुदेश को लगता है कि ऐसी कॉटेज तो वह अपने सपनों में निरंतर देखती रही है। 

यह मोबाइल और नेटयुग से पहले की रचना है, जब पत्राचार प्राणवायु की तरह जीवन का अनिवार्य अंग था। आज के मोबाइल युग में तो हम भूल ही चुके हैं कि पत्राचार क्या होता था। यहाँ एक अनिर्वचनीय गुनगुने सुरूर में डूबे पात्र पत्र लिखते और पढ़ते हैं और उनके मन में चाँद-सितारे खिल आते हैं। यह पत्र बारिश की तरह मन को भिगो देते हैं। श्री धर कहता है:

“जिस दिन तुम्हारा पत्र मुझे मिलता है, वह दिन नवरात्र का हो या पितृपक्ष का, उत्सव में बदल जाता है। सूरज चंद्रमा में बदल जाता है। धूप चाँदनी का चोला पहन लेती है। मन के अंदर ख़ुशियों का मेला लग जाता है। एहसासों के मुँडेर पर दिये जगमगाने लगते हैं। विचार पिचकारी लेकर एक दूसरे को रंग डालते हैं। सपने एक-दूसरे से गले मिलते हैं।”-पृष्ठ 62 

और सुदेश-

“तुम्हारे पत्र, मैंने रेशमी रुमाल में, सहेज कर रखे हैं, तुम्हारे पत्र, धर्मग्रंथ हैं मेरे लिए।”–पृष्ठ 63 

“प्रेमपत्र प्रेम का इतिहास होते हैं। इस इतिहास को जलाना दुनिया का सबसे बड़ा अपराध है— इस अपराध की दुनिया के किसी भी क़ानून में कोई सज़ा नहीं है।”- पृष्ठ 60 

उपन्यासकार कहता है कि प्रेमपत्र अमरनाथ की गुफा में भगवान शिव को अमर होने की कथा सुनाने वाले कपोत-कपोतनी के वंशज हैं। इन्हें फाड़ना, नष्ट करना या जलाना दुनिया का सबसे बड़ा पाप है। 

चिंतन सूत्र लेखकीय परिपक्वता को धार देते हैं:

छाया कभी काया का सच नहीं होती। काया का सच मन होता है, आत्मा होती है।-पृष्ठ 23

हर किताब एक अनदेखा-अनपहचाना देश होती है। बस इस देश तक पहुँचने वाले कोलंबस अब नहीं रहे।-पृष्ठ 26 

किताबों की बदौलत आदमी जानवर से आदमी बना है। किताबें न होती तो जैसे पशुओं की कई जातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं, वैसे ही इंसान की प्रजाति भी लुप्त हो गई होती।-पृष्ठ 26

प्रेम मनुष्य की अतींद्रिय शक्तियों को मुखर कर देता है।-पृष्ठ 28 

हर स्त्री में अनगढ़ हीरे जैसा कुछ होता है। मनपसंद व्यक्ति के साथ जुड़ते ही यह हीरापन तराशा जाता है। ग़लत व्यक्ति के साथ मिलते ही धूल में मिल जाता है।-पृष्ठ 32 

नदी पर पुल बाँधना आसान है, समुद्र पर पुल बाँधना नामुमकिन।-पृष्ठ 44 

प्रेम की नमी इंसान की ज़िन्दगी को हरा-भरा और जिजीविषा से भरा रखती है। इंसान कभी भी उम्र के हाथों बूढ़ा नहीं होता, प्रेम की नमी से वंचित होने पर ही इंसान मुरझाने लगता है।-पृष्ठ 24

इंसान जब तक ख़ुद को बाँटता नहीं है वह उस बंद दुकान की तरह होता है, जिसमें भरा तो सब कुछ होता है, पर वह दुकान हमेशा बंद ही रहती है।-पृष्ठ 98

संवाद का सुख ही दुनिया के सारे सुखों से श्रेष्ठ है।-पृष्ठ 106

भाषा आलंकारिक है, मुहावरों, उपमाओं, रूपकों से सजी और सधी है। शब्द-युग्म निखार भी ला रहे हैं और लेखक की भाषिक क्षमताओं से परिचित भी करा रहे हैं। खुरदुरी, मर्दानी, आतंकित करने वाली गालियों से आग उगलती भाषा भी है—मार डालो, काट डालो, फूँक डालो, कुलटा, कुलच्छणी, कुलद्रोही, हरामज़ादी, कंजरी, कमज़ात, कलमुँही, कंजरी। 

शैल्पिक दृष्टि से देखें तो यह उपन्यास नहीं, गद्य काव्य, लंबा प्रेम गीत है, महाकाव्य है, शब्द कीर्तन है—‘जिन प्रेम कियो, तिन ही प्रभु पाओ।’ जयशंकर प्रसाद का ‘प्रेमपथिक’ है, “आँसू’ है:

“इन दोनों को एकटक देखने, इन की धड़कनों का संगीत सुनने के लिए वक़्त ने अपनी सारी घड़ियाँ बंद कर दी हैं। – अपनी गोद में दो प्रेमीजनों को विराजमान देख आटोरिक्शा पुष्पक विमान हो गया।”-पृष्ठ 24 

गीत/फ़िल्मी गीत इस रागात्मकता में वृद्धि करते हैं—ऐ, क्या बोलती तू। ख़ाक को बुत, बुत को देवता करता है इश्क़, इंतिहा यह है कि बंदे को ख़ुदा करता है इश्क़। दधि बेचन राधा चली, श्याम जी को लागे भली। मैं जान्या दुख मुझमें, दुख समाया जग, कोठे चढ़ के वेख्या घर घर ऐहो अग्ग। मावां ते धीयन दी दोस्ती नी माए, किते टुटदी ऐ कहरां दे नाल। ये रात भीगी भीगी, ये मस्त फिज़ाएँ, वो चाँद धीरे धीरे, वो चाँद प्यारा प्यारा। 

पुत्र सिर्फ़ श्रवण कुमार नहीं होते। बेटों वाली विधवा का जीवन और भी दारुण हो सकता है। यह निर्मम, निरंकुश पितृसत्ताक की वहशत, दहशत की कहानी है। मानवतावाद कहता है कि स्त्री को मानवाधिकार मिलने चाहिए और इंग्लैंड में रहने वाली बेटी सुप्रज्ञा को भी नहीं लगता कि मम्मी के प्रेम में कुछ ग़लत है। यह सार्त्र और सीमोन द बाउवार जैसा प्रेम है। उपन्यास नारी उत्पीड़न से नारी सशक्तिकरण की यात्रा लिए हैं। जब तानाशाह पुरुष स्त्री को रौंदना अपना पौरुष मानता हो, समाज मर्यादा की मशीनों में डालता हो, मनु स्मृति के मानक उस पर लागू करता हो, जब आत्महत्या का प्रयास भी असफल हो जाये, तो स्त्री क्या करे। सुदेश की सोच इसी बिन्दु पर आकर नकारात्मकता से साकारात्मकता की ओर मुड़ती है। उपन्यास कहता है—जीवन है ही इस योग्य कि उसे भरपूर जिया जाये। उसके एक-एक क़तरे को आबोहयात की तरह पिया जाये। 

कह सकते हैं कि उपन्यास खुला अंत लिए है। क्या सुदेश अपने निर्णय से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर पाएगी? श्रीधर के साथ उसके रिश्ते के प्रति परिवार की नफ़रत का अंत क्या होगा? क्या इन दोनों का प्यार परवान चढ़ेगा? 

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रो. एवं अध्यक्ष, 
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब। 
madhu_sd19@yahoo.co.in

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