शहर के दो किनारे
डॉ. वेदित कुमार धीरज
सहर तेरे शहर में जब, रात-ए-परवाज़ बीतेगी
दिल में पल रही सारी, उलझनों का ठहर होगा
न मेरे आने से रुकना, न मेरे जाने के बाद
न मुझे ख़्यालों में रखना, न मेरी बातें मेरे बाद
तुम तरन्नुम का तराना हो, तो बजती रहना
मैं इश्क़-ए-मौसीक़ी हूँ, हारके फिर जीत जाऊँगा
वो ख़ुशनुमा सा मौसम, तेरे ज़ख़्म बहुत गहरे हैं
तू सब्र कर, तेरी निशाद भी बदलने को है
बज रही है घंटियाँ और अज़ान सुनाई दे रहे हैं
लग रहा है वो तेरा दौर-ए-उल्फ़त, बदलने को है
मेरे होंठों पर जो हरदम था, तेरे होंठों तक तो जायेगा
जब-जब बिसादें दिल को चूमेंगी, फिर ‘वेदित’ याद आएगा
फिर एक शामे उल्फ़त की, दो किनारे पास आएँगे
कभी दो होंठ फिर, उसी इक प्याले में टकराएँगे
कभी तेरे चाय का रंग, फिर से गुलाबी होगा
वंही दिल की सारी, उलझनों का ठहर होगा
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