कैंपस छोड़ आया हूँ

01-04-2023

कैंपस छोड़ आया हूँ

डॉ. वेदित कुमार धीरज (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

फ़िज़ायें मौज करेंगी बग़ावत में भी
मेरा दस्तूर है दरिया सा निकलता हूँ मचलते हुए
बेख़ोफ़, बेसब्र आदतें है मेरी फ़ितरत में
जो उड़े तेरी रंगत तो सम्हाले रखना। 
 
जो चल निकला हूँ कैंपस से, 
कोई मंज़िल अब दूर नहीं
समुन्दर तेरी गहराई, 
हिमालय तेरा क़द भी नहीं। 
 
ज़ुल्फ़ घटायें, आँख गिलहरी, 
होंठ मैक़दे, हुस्न, इबादत
सब छोड़ आया हूँ
चलो दिखाऊँ तुम्हें
अपना बंद बस्ता
वहीं कैंपस मेंं छोड़ आया हूँ
उसी हॉल की सीढ़ियों पर
रख दी हैं सारी यादें थककर
जो फिर भी बच गयी
उन्हें सम्हाल कर घर लाया हूँ। 
 
सब बेच दिया मैंने
दिल, दुकान, घर और ज़मीं 
तब जाके अदा कर पाया
तेरे साथ होने की क़ीमत मैंने
 
सारे ऐब छोड़ दिए, कैंपस छोड़ते-छोड़ते
बस वही मासूम ग़ुस्सा उधार लाया हूँ
उम्र के तक़ाज़े ने जवाँ कर दिया फिर भी
माँ के आँचल से कुछ पल का बचपन उधार लाया हूँ
 
इन बेरहम बारिशों मेंं भीगते भीगते
डायरी न भीग जाये कहीं, इसलिए 
चलते चलते कैंपस से
तेरा नीला छाता चुरा लाया हूँ
चलो दिखाऊँ अपना बंद बस्ता
 
वहीं कैंपस में छोड़ आया हूँ। 

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