गंउआ

डॉ. वेदित कुमार धीरज (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

सड़क बन गयी है, बचा गाँव भी शहर चला जायेगा
मेरे हिस्से का टूटा मकां, वही छुटा रह जायेगा 
शहतीरें देखती रह जाएँगी राह, घर के वारिसों की
कोई दिल्ली तो कोई कैनेडा बस जायेगा। 
 
रोयेगा दिल लेकिन ज़रूरतें हावी होंगी
मजबूरी मे उसे भी याद भुलानी होगी। 
फिर यही भूलने की आदत डालते-डालते
गुम हो जायेगा वो समय जाल मे
भूल जाना तो बुरा नहीं था लेकिन
न बताया घर का अहसास
गुमनाम कर दिया। 
  
नए परिंदों ने नीड़ नहीं देखा
भूलते भूलते इस हद तक गुज़र गये
जो बहुत ज़रूरी था उसे रुसवा कर गये
  
कैसे कह दे कोई कि नस्लें लौटेंगी
वारिस बनकर
जाने वालों ने लौटने के रास्ते
नहीं जोड़े। 

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