लुढ़कती बूँदें
डॉ. वेदित कुमार धीरजस्याही आसमानों से
लुढ़कती बूँदें और बूँदों की आवाज़ें
जो पत्तों से सरककर
खेतों में बिछ जाती हैं
और जनती हैं मिट्टी की सुंगंध
मंत्रमुग्ध करती हैं मन
और समा जाती हैं
प्रकृति की हर दिन बदलती
अनंत रंगीन किताब में
और मिटा देती हैं
अंदर की कलुषा
जैसे कवक-फफूँदें मिला देते हैं
मिट्टी में गिरी हुए हर अवशेष को
बिना परहेज़ के।
मैं और मेरा सारा वजूद
मज़हब के कुछ चंद रंगों में
उलझ के रह जाता है
शहर की दीवारों, छज्जों और इश्तिहारों में
गर कोई निकाल दे इन्हें
शायद ही पहचान पाए
आसमान का इंद्रधनुष के रंग
मेरी बदली हुई ये दुनिया है
जिसमें इतनी तपन है
ये सिर्फ़ गर्मी नहीं
अंधाधुंध बेतरतीब
दौड़ते घोड़ों के नथुनों से
निकलती भाप है
जो सारी हवाएँ सोख ले
नदिया पी गए
प्यास न बुझी
तो समुन्दर पी रहे हैं
इनके उत्सर्ग इतने विषैले
कि कवक-फफूंदें भी नहीं
मिला सकते मिट्टी में
विकास के ये पैमाने जो
गढ़े गए थे महामहिमों ने टेबल पर
थोप दी थीं सारी बेढंग क़वायदें
भर लिए नोट
बेच दी महकती साँसें
बदल दिए उसूल
काटे जंगल
ख़त्म कीं सैकड़ों नदियाँ
बाँट दिए लाखों तालाब
निगल लिए कई समूचे पहाड़
लालसा न रुकी फिर भी
महसूस किया मैंने
महीनों की कोरोना-क़ैद
बेसहारा और बेघर होना भी
हरपल मौत का साया
जब अतरिक्त विकल्प सारे हथियार
और तैयारियाँ
सारा विकास
मानो कम पड़ गए
"मैं" ही जो सर्वश्रेष्ठ
भ्रम टूटा
या अभी भी है शेष?
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