पलाश के पुष्प
डॉ. वेदित कुमार धीरजहोता नहीं पूर्ण जब श्रांत
जब क्लेश नहीं मिट पाते हैं
जो कष्टों से हों घिरे हुए
वो मनुज स्वतः डर जाते हैं
जो कष्टों से घिरी दोपहरी को
सहन नहीं कर पाते है
खोकर निज का स्वाभिमान
वो शरणागत हो जाते हैं
तपती कठोर दुपहरी में
विंध्यांचल का ज्येष्ठ मास
जब वन और उपवन सुखें हो
जल की हो सबमे अमिट प्यास
जब तप्त शिलायें लाल हुई
धरती से आग निकलती हो
ये कौन तपस्वी है वन में?
केसरिया रंग प्रभात लिए
केसरिया पुष्प शिखर उसके
कर रहे प्रकृति का श्रृंगार
प्रकृति के ये धर्म ध्वजा
तपसी कोई ज्यो साधक हो
इनकी छाया में बिछी हुई
केसरिया पुष्पों की चादर हो
गिरकर भी नहीं क्लेश कोई
ये पुष्प बड़े ही त्यागी है
प्रियतम से विच्छेदित है
पर दर्शन के अभिलाषी है
सम्बल से विच्छेद
अधर से छूटे हुए
बिलगाए से प्राण
विमोह हो रूठे हुए
तुम पतझड़
या फिर बसंत से
बेपरवाह
मुस्करा कर मृत्यु को जीते हुए
तुम पलाश के पुष्प
रंग से केसरिया
नहीं किसी से आस
मन से केसरिया
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