गुमसुम

01-08-2024

गुमसुम

डॉ. वेदित कुमार धीरज (अंक: 258, अगस्त प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

अमरूदों के दरख़्त कब से जलाये जाने लगे
ज़माने बदल गये या एहतिराम भुलाये जाने लगे
 
रातों का जागा हुआ सुबह सो जायेगा
दिल का मारा हुआ है, जागेगा तो मर जायेगा
 
वो सख़्त रिवाज़ों की पाबंदियाँ क़ुबूल करता है
इश्क़ सस्ता हो चला है, महसूस करता है
 
महँगाई ने सामानों के भाव कर दिये ऊँचे
कौड़ियों के भाव पर अब सिर्फ़ इंसानियत बची है
 
सबने कुछ न कुछ छीना है मुझसे
अब मेरे सिवा मेरा कुछ भी नहीं 
 
जहाँ-जहाँ भी गये बग़ावतें ज़िन्दा रखीं 
तक़दीर में चैन हो, भूल गया हूँ मैं
 
नफ़रत, साज़िश, ज़लालत और ज़िन्दादिली
बहुत महँगे समान हैं, सलीक़ा सिखा गए 
 
जिन्हें देखा मुख़ालिफ़ के अफ़साने सुनते हुए
बदल लिए सब सुर सत्ता सम्हलाते ही

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