गुमसुम
डॉ. वेदित कुमार धीरज
अमरूदों के दरख़्त कब से जलाये जाने लगे
ज़माने बदल गये या एहतिराम भुलाये जाने लगे
रातों का जागा हुआ सुबह सो जायेगा
दिल का मारा हुआ है, जागेगा तो मर जायेगा
वो सख़्त रिवाज़ों की पाबंदियाँ क़ुबूल करता है
इश्क़ सस्ता हो चला है, महसूस करता है
महँगाई ने सामानों के भाव कर दिये ऊँचे
कौड़ियों के भाव पर अब सिर्फ़ इंसानियत बची है
सबने कुछ न कुछ छीना है मुझसे
अब मेरे सिवा मेरा कुछ भी नहीं
जहाँ-जहाँ भी गये बग़ावतें ज़िन्दा रखीं
तक़दीर में चैन हो, भूल गया हूँ मैं
नफ़रत, साज़िश, ज़लालत और ज़िन्दादिली
बहुत महँगे समान हैं, सलीक़ा सिखा गए
जिन्हें देखा मुख़ालिफ़ के अफ़साने सुनते हुए
बदल लिए सब सुर सत्ता सम्हलाते ही
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- नज़्म
- कहानी
- कविता
-
- अनवरत - क्रांति
- अम्मा
- कविता तुम मेरी राधा हो
- कैंपस छोड़ आया हूँ
- गंउआ
- द्वितीय सेमेस्टर
- नया सफ़र
- परितोषक-त्याग
- पलाश के पुष्प
- प्रथम सेमेस्टर
- मजबूरी के हाइवे
- युवा-दर्द के अपने सपने
- राहत
- लुढ़कती बूँदें
- वेदिका
- वेदी
- शब्द जो ख़रीदे नहीं जाते
- शहादत गीत
- शिवोहम
- सत्य को स्वीकार हार
- सहायक! चलना होगा
- सालगिरह
- सेमर के लाल फूल
- विडियो
-
- ऑडियो
-