कलापी
संगीता राजपूत ‘श्यामा’
घनी धुँध और शाम का समय मौसम को और ठंडा बना रहा था कालपी एक सुनसान सड़क पर खड़ा होकर सामने बने शानदार बँगले को देख रहा था तभी खिड़की के अन्दर रोशनी हुई जिससे अन्दर कमरे का दृश्य साफ़ दिखने लगा। एक सुनहरे बालों वाली लड़की कमरे पर चहलक़दमी करती नज़र आ रही थी। कालपी की आँखें अन्दर के दृश्य को देखकर चमक उठीं उसने जेब से मोबाइल निकाला, “मैं पहुँच गया हूँ” कह कर मोबाइल को वापस जेब में रख लिया और कलापी के क़दम बँगले की ओर बढ़ने लगे।
कलापी ने बैल बजायी कुछ मिनटों बाद दरवाज़ा खुला, सामने वहीं सुनहरे बालों वाली लड़की खड़ी थी, उसने कहा, “कौन हैं आप?
“मेरा नाम कलापी है। क्या यही साइंटिस्ट अकील हुसैन का घर है।”
“जी हाँ,” लड़की ने ऊपर से नीचे तक सरसरी तौर पर कलापी पर नज़र दौड़ाई। “आप यहीं रुकिये,” कहते हुए सुनहरे बालों वाली लड़की ने दरवाज़ा बंद कर लिया।
थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला लड़की बोली, “आईये।”
कलापी लड़की के पीछे पीछे चल पड़ा।
कमरे में एक रौबीला चेहरा आँखों पर चश्मे, होंठों पर हल्की मुस्कुराहट के साथ कलापी को दिखा।
“हम्म . . . तो आप ही वो राइटर हैं जो मेरे जीवन पर किताब लिखना चाहते हैं,” अकील हुसैन ने कलापी से कहा।
कलापी ने अकील हुसैन से थोड़ी बातचीत की फिर गेस्ट हाउस में कलापी के रहने का बंदोबस्त करवा दिया गया। कलापी ने जेब से मोबाइल निकाला और किसी को अपने ठहरने की जानकारी दे दी। आख़िर कलापी क्यों अपने हर क़दम की जानकारी किसी को दे रहा था?
कलापी एक जासूस था। बलोचिस्तान की एक गुमनाम जगह पर कलापी के माता पिता की पाकिस्तानी सेना ने बेहद दरिंदगी से हत्या कर दी थी। उस समय कलापी महज़ बारह साल का था। रोते बिलखते और भूखे कलापी को जेनब ने पनाह दी। जेनब बलोचिस्तान में हो रहे ज़ुल्म के विरोध में आवाज़ बुलंद करती थी।
कुछ साल गुज़र गए कलापी नौजवान हो गया था और वह भी बलोचिस्तान में हो रहे ज़ुल्म के विरोध में बलोच नागरिकों को जागरूक करता। तभी किसी ने सूचना दी कि पाकिस्तानी साइंटिस्ट अकील हुसैन को पाकिस्तानी सेना ने किसी ख़ुफ़िया मिशन को अंजाम देने का काम सौंपा है। जेनब ने कलापी को यही पता लगाने के लिए अकील हुसैन के घर राइटर बनाकर भेजा था। कलापी को आये एक हफ़्ता बीत चुका था कुछ बेहद ज़रूरी दस्तावेज़ कलापी के हाथ लग चुके थे कलापी लगभग अपने काम में सफल हो चुका था।
धीरे-धीरे ठंड अपनी पकड़ मज़बूत कर रही थी। रात के ग्यारह बज रहे थे कलापी को एहसास हुआ कि उसे बुख़ार चढ़ रहा है। अकील हुसैन ने अपने एक नौकर को कलापी की तीमारदारी के लिए लगा रखा था। कलापी ने उसे ही फोन लगाया और बुख़ार की दवाई लाने को कहा।
दरवाज़े पर खटक हुई, कलापी ने मुड़कर देखा तो सामने वहीं सुनहरे बालों वाली लड़की खड़ी थी। कलापी ने ख़ुद को सँभालते हुए कहा, “अरे! इतनी रात को आपने क्यों तकलीफ़ की? मैंने तो नौकर से कहा था।”
लड़की ने कहा, “आप हमारे मेहमान हैं। अब्बा दो दिनों के लिए बाहर गये हैं और जाते हुए आपका ख़्याल रखने को कह गये थे।
“ये लीजिए दवाई कहते हुए लड़की ने कलापी की ओर पानी का गिलास और दवाई बढ़ा दिया।”
“माफ़ कीजिए, मुझे अभी तक आपका नाम मालूम नहीं है,” कलापी ने कहा है।
“लायला नाम है मेरा,” लड़की ने कहा और धीरे-धीरे बातों का सिलसिला शुरू हो गया। बातें करते-करते रात के दो बज चुके थे लायला ने कलापी ने माथे पर हाथ रखकर कहा, “अब आपका बुख़ार उतर गया है मैं चलती हूँ आप सो जाएँ,” कहते हुए लायला कमरे से बाहर चली गयी।
कलापी जाते हुए लायला को देखता रहा। लायला का स्पर्श कलापी के अंदर बेचैनी पैदा कर गया।
एक गहरी नींद लेने के बाद कलापी ने आँखें खोलीं, घड़ी की ओर देखा तो दिन के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। कलापी बिस्तर से उठकर चहलक़दमी करने लगा सूरज की रोशनी के बीच एक साया उभर कर सामने आ रहा था। कलापी के चेहरे पर मुस्कान आ गयी, “अब कैसी तबियत है?” लायला ने पूछा
“तबियत तो रात में ही दुरुस्त हो गयी थी जब आपने मेरे माथे पर हाथ रखा था,” कलापी ने शरारती मुस्कान बिखरते हुए कहा और फिर से बातों का सिलसिला शुरू हो गया। अब की बातें पहले से और ज़्यादा अपनापन समेटे हुए थीं। कलापी कुछ ही घंटों में लायला की ओर आकर्षित हो चुका था। कुछ देर बात करके लायला अपने कमरे में जा चुकी थी। कलापी मन ही मन सोचने लगा कि अगर वह ज़्यादा ठहरा तो लायला से मोहब्बत कर बैठेगा जो कि उसके लिए ठीक नहीं है।
शाम ढलने लगी थी। नौकर ने आकर कलापी को कॉफ़ी का कप थमा दिया। पीछे से लायला भी कॉफ़ी का घूँट भरते हुए चहलक़दमी करते हुए उसके नज़दीक आ रही थी।
“मैं कल जा रहा हूँ ,” कलापी ने लायला से कहा।
“जा रहे हैं? तो क्या आपकी किताब पूरी हो गयी?” लायला ने पूछा।
कलापी ने कहा, “अभी नहीं, लेकिन अकील हुसैन साहब के बारे में बहुत कुछ जान लिया है पहले उतना लिख लूँ फिर कुछ दिनों बाद वापस आकर आगे की जानकारी हुसैन साहब से लूँगा।”
“दो दिन और रुक जाइये। अब्बू को आने में दो दिन और लगेंगे, उन्होंने ख़बर भिजवाई हैं। आप नहीं रहेंगे तो घर वीरान लगेगा।”
कलापी हैरत से लायला की ओर देखते हुए विचार करने लगा, तो क्या इसे मुझसे मुहब्बत हो गयी है?
लायला ने कलापी की ओर देखकर कहा, “इतने ग़ौर से मेरी तरफ़ क्या देख रहे हैं?”
“कोई ग़ैर कैसे अपना बन जाता है और ख़ुद को पता भी नहीं चलता—बस यहीं सोच रहा हूँ।” लायला कलापी की बात सुनकर मुस्कुरा दी।
दोनों की आँखें कुछ देर के लिए बातें करने लगीं। बाक़ी के दो दिन और लायला की दीवानगी में बीत गये कलापी का मन जाने के लिए नहीं कह रहा था।
कल सवेरे कलापी को बलोचिस्तान के लिए रवाना होना था इसलिए कलापी ने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया। कुछ दस्तावेज़ जो अकील हुसैन के ख़ुफ़िया मिशन से जुड़े थे सब कुछ, सँभाल कर रख लिया। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई तो कलापी ने दरवाज़ा खोला, “आओ लायला कलापी बोला।”
“कल आप चलें जायेंगे फिर पता नहीं कब वापस आये और आयेंगे भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है। पता नहीं क्यों मैं एक लगाव सा महसूस कर रही हूँ आपके साथ,” लावला ने शर्माते हुए कहा ।
“मैं भी, पर मजबूर हूँ लायला,” कलापी ने कहा।
“हाँ जी, मैं समझती हूँ,” लायला ने कलापी की आँखों में झाँकते हुए कहा।
“रात बहुत हो गयी है लायला तुम अपने कमरे में लौट जाओ,” कालपी ने बुझे स्वर से कहा।
तभी पीछे से नौकर ने आकर कॉफ़ी के दो कप मेज़ पर रख दिये।
“अरे! ये क्या? मैंने तो कॉफ़ी के लिए नहीं कहा था,” कलापी ने कहा।
“मैंने कहा था। इसी बहाने आपके साथ कुछ और समय बिताने का मौक़ा मिल जायेगा,” लायला ने धीरे से कहा।
कलापी बिना कुछ कहे काफ़ी के घूँट भरने लगा। उसे डर था कि कहीं वह लायला की मुहब्बत में बिखर ना जाये। वह ख़ुद पर सख़्ती कर रहा था; काफ़ी ख़त्म हो चुकी थी।
“अच्छा मैं चलती हूँ,” और लायला चली गई।
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सवेरे के दस बज चुके थे कलापी सोकर नहीं उठा था।
अकील हुसैन किसी से बातचीत कर रहे थे कि एक फोन आया। उधर से एक लड़की की आवाज़ आयी, “सर मुर्ग़ा हलाल हो गया है। सारे दस्तावेज़ क़ब्ज़े में ले लिये गये हैं अब मुझे वापस जाने की इजाज़त दीजिये।”
“तुम वापस जा सकती हो लायला,” अकील हुसैन ने फोन काटते हुए एक कुटिल मुस्कान फेंकी।
कलापी पलंग पर आँखें मूँदकर लेटा था क्योंंकि अब उसे जागना ही नहीं था।
थोड़ी दूर पर नौकर क़ब्र खोद रहा था क्योंकि वह क़ब्र कलापी का ठिकाना बनने वाली थी।