केयूरी
संगीता राजपूत ‘श्यामा’इक्कीस वर्ष का विदर्भ आज दूल्हा बन गया। विदर्भ के पिताजी कानपुर शहर के जाने माने व्यवसायी थे। उनका इकलौता बेटा विदर्भ अंबिकानाथ जी की आँखों का तारा था। अंबिकानाथ जी की पत्नी मंगला एक समाजसेविका थी। संकट में फँसे लोगों की सहायता करना ही मंगला का ध्येय था। मंगला के बचपन की सहेली त्रिशा संकट में थी। त्रिशा ने फोन करके मंगला को अपने घर बुलाया।
“क्या हुआ त्रिशा? तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों उड़ा हुआ है?” मंगला ने त्रिशा से पूछा।
त्रिशा ने काँपते हाथों से मंगला का हाथ पकड़ा और बोली, “मंगला . . . मेरा स्वास्थ्य पिछले कुछ महीनों से ठीक नहीं था इसलिए मैंने अपना चेकअप करवाया तो पता चला कि मुझे कैंसर है।”
“क्या . . .?” मंगला ने घबरा गई।
त्रिशा ने कहा, “मंगला मेरी बेटी संविदा केवल उन्नीस साल की है इसके पिता भी इस दुनिया में नहीं है। मेरे बाद संविदा का क्या होगा? मेरा मन बड़ा बेचैन हो रहा है यह सब सोचकर।”
मंगला ने त्रिशा को समझाते हुए कहा कि तुम धैर्य से काम लो। ईश्वर ही अब राह दिखायेगे।
“तुम संविदा को अपनी बहू बना लो ताकि मैं चैन से मर सकूँ।”
और इस प्रकार विदर्भ और संविदा का विवाह हो गया। विवाह के बाद भी विदर्भ और संविदा की पढ़ाई जारी रही।
संविदा के विवाह के तीन माह पश्चात ही त्रिशा कैसर होने के कारण चल बसी।
संविदा अब अधिकतर अपने मायके में ही रहती थी। मंगला को यह बात पसंद नहीं थी। उसने कई बार संविदा को समझाया भी कि अब वहाँ तुम्हारी माँ नहीं है। तुम्हारा इस प्रकार अकेले रहना अनुचित है। तुम हमारे घर की बहू हो, अब यहीं तुम्हारा घर है परन्तु संविदा हठी थी उसने मंगला की एक ना सुनी।
विदर्भ स्वभाव से शान्त और गंभीर था। वह अपनी पढ़ाई और लेखन में ही डूबा रहता। विदर्भ को कविताएँ लिखने में बहुत रुचि थी उसने कभी भी संविदा को, अपने पति होने का अधिकार नहीं जताया। दुनिया के छल प्रपंच से दूर विदर्भ कल्पना की दुनिया में ही जीता था उसकी नज़र में सारी दुनिया अच्छी और सुन्दर थी।
व्यक्ति के दोहरे चरित्र और जीवन के झंझावातो से अनभिज्ञ विदर्भ, कविता लिखने में व्यस्त रहता।
उधर संविदा रेत की भाँति मुट्ठी से सरकती जा रही थी। अंबिकानाथ जी और मंगला संविदा के इस व्यवहार से बहुत परेशान थे। उन्होंने विदर्भ को कहा कि वह संविदा से बात करे।
विदर्भ ने अपने माता पिता की बात मानकर, संविदा को फोन करके कहा कि वह घर वापस आये लेकिन संविदा ने टका सा उत्तर दे दिया कि वह उसके साथ नहीं रह सकती। विदर्भ ने यह बात अपनी माँ को बताई कि संविदा अब मेरे साथ नहीं रहना चाहती।
मंगला क्रोधित होकर बोली, “अरे ऐसे कैसे नहीं रहना चाहती। विवाह हुआ है कोई हँसी-खेल नहींं हुआ। विदर्भ . . . तुम कल ही संविदा को लेकर आओ।”
“माँ मुझसे यह मान-मनौव्वल नहीं होगी यदि संविदा मेरे साथ प्रसन्न नहीं है तो उसके साथ ज़बरदस्ती मत करो,” विदर्भ ने अपनी माँ को उत्तर दिया।
“चुप कर, तुझे दुनियादारी की समझ नहीं है। कल तुझे संविदा को लेने जाना होगा मैंने संविदा की माँ को वचन दिया था कि, मैं संविदा का ध्यान रखूँगी।”
विदर्भ अपनी माँ के हठ से संविदा को लेने पहुँचा। दरवाज़ा खुला तो सामने संविदा खड़ी थी। विदर्भ को सामने देखकर वह ग़ुस्से से बोली, “मैंने मना किया था कि, मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना फिर क्यों आये हो यहाँ?”
तभी एक कमरे से पुरुष निकल कर संविदा के पीछे आकर खड़ा हो गया।
यह सब देखकर विदर्भ अवाक् रह गया और बोला, “यह सब क्या है संविदा? तुम्हें तनिक भी लज्जा नहीं है।”
इतना सुनते ही एक ज़ोर का तमाचा विदर्भ के चेहरे पर जड़ दिया संविदा ने और बोली, “निकल जाओ और फिर कभी यहाँ मत आना।” बग़ल में खड़े पुरुष की ओर संकेत करते हुए बोली, “मैं इनसे प्रेम करती हूँ और इन्हीं के साथ रहूँगी। मेरा और तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है।”
विदर्भ के पैरों तले धरती खिसक चुकी थी। पहली बार इतना अपमानित अनुभव कर रहा था। अभी तक किसी ने एक चपत भी नहीं लगायी और आज अपनी पत्नी ने पराये पुरुष के सामने तमाचा जड़ दिया।
विदर्भ घर आकर कमरे में लेट गया उसका दिमाग़ सुन्न हो चुका था। कवि हृदय कोमल होता है विदर्भ को आज तक किसी ने भी अपने शब्दों से भी चोट नहीं पहुँचाई लेकिन आज विदर्भ के स्वाभिमान की धज्जियाँ ही उड़ गयी थीं।
कुछ घंटे बाद मंगला ने कमरे में प्रवेश करते ही विदर्भ से पूछा, “संविदा नहीं आई क्या?” विदर्भ की आँखेंं लाल थी। मंगला ने विदर्भ के चेहरे की ओर देखा तो उसे लगा कि कुछ अनर्थ हुआ है।
“क्या हुआ विदर्भ? मंगला विदर्भ को झकझोर रही थी और विदर्भ शून्य सा बैठा था। मंगला के हृदय में ढेरों प्रश्नचिन्ह परछाइयाँ बना रहे थे। मंगला ने सारी बात अपने पति अंबिकानाथ को बतायी और कहने लगी, “पता नहीं क्या हुआ है मेरे बेटे को, मुझे कुछ नहीं बता रहा है। आप ही बात करो। आप उसके पिता हो, अपने हृदय की बात आपको अवश्य ही बतायेगा।”
अंबिकानाथ बोले, “नहीं अभी नहीं, अभी उसका मन अशांत है। कल बात करूँगा विदर्भ से।”
दूसरे दिन अंबिकानाथ ने अपने बेटे विदर्भ से पूछा, “विदर्भ . . . बहू तुम्हारे साथ क्यों नहींं आई?”
विदर्भ ने सारा क़िस्सा अपने पिता को कह दिया। यह सब सुनकर अंबिकानाथ बहुत ही क्रोधित हुए।
कुछ समय बाद संविदा और विदर्भ का तलाक़ हो गया। विदर्भ ने स्वयं को अब पूरी तरह से लेखन में डूबा दिया।
एक दिन मंगला ने अंबिकानाथ जी से कहा, “ऐसा कब तक चलेगा जी . . . हमें अब विदर्भ का दूसरा विवाह करवा देना चाहिए।” बहुत समझाने पर विदर्भ विवाह के लिए तैयार हो गया।
विदर्भ का विवाह केयूरी से हो गया। विदर्भ गोरा चिट्टा था और केयूरी साँवली सलोनी।
जहाँ केयूरी चित्रकार थी वही विदर्भ लेखक।
आरम्भ में विदर्भ केयूरी से दूरी बनाकर रखता था; उसे संविदा का तमाचा याद आता तो वह अन्दर से कुढ़ जाता। लेकिन समय बीतने के साथ केयूरी के सौम्य स्वभाव ने विदर्भ को खींच ही लिया। केयूरी ने कभी भी विदर्भ के लेखन में बाधा नहीं डाली। केयूरी चित्रकारी में व्यस्त रहती और विदर्भ लेखन में, जब भी समय मिलता तब दोनों एक साथ समय बिताते।
इसी प्रकार कुछ वर्ष बीत गये।
एक दिन केयूरी विदर्भ से हँसकर बोली, “सारा दिन बैठकर लिखने के कारण आप मोटे होते जा रहे हो। शाम को थोड़ा टहल लिया करो।” केयूरी की सलाह मानकर विदर्भ पास के एक बग़ीचे में टहलने गया। कभी-कभी केयूरी भी विदर्भ के साथ टहलने के लिए आती।
आज विदर्भ अकेला ही टहलने आया था। आसपास का वातावरण बड़ा ही सुखद हो गया था। सूर्य डूबते हुए अपना केसरिया रंग बिखेर रहा था। चिड़ियों का अपने घोंसले में लौटना एक अद्भुत दृश्य का निर्माण कर रहे थे।
सामने पत्थर पर एक सुंदर युवती एकटक विदर्भ को निहार रही थी। यकायक विदर्भ की आँखेंं युवती से टकराईं।
युवती उठकर विदर्भ के पास आयी और बोली, “आपका नाम विदर्भ है ना . . . आप कवि हैं . . . ?”
“हाँ, मैं ही विदर्भ हूँ,” विदर्भ ने उत्तर दिया।
“मुझे भी कविताएँ लिखना पसंद है। आपसे ही प्रेरित होकर कविताएँ लिखती रहती हूँ और आज आपसे भेंट हो गयी।”
“क्या नाम है तुम्हारा?” विदर्भ ने युवती से पूछा।
“दिविता . . . मेरा नाम दिविता है,” युवती ने उत्तर दिया।
विदर्भ ने दिविता से कहा कि अपनी कोई कविता सुनाओ।
दिविता ने अपनी लिखी एक कविता सुनाई। कविता सुनकर विदर्भ बहुत ही प्रभावित हुआ।
“बहुत अच्छा लिखती हो,” विदर्भ ने दिविता की प्रशंसा करते हुए कहा और फिर दोनों अपने-अपने घर की ओर लौट गये।
एक दिन केयूरी भी विदर्भ के साथ बग़ीचे में टहलने आयी वहाँ विदर्भ ने केयूरी को दिविता से मिलवाया।
घर वापस आने पर केयूरी विदर्भ से बोली, “आपकी उससे रोज़ भेंट होती है?”
“लगभग रोज़ ही,” विदर्भ ने उत्तर दिया।
केयूरी विदर्भ की आँखों में झाँकती हुई बोली, “बहुत सुन्दर है दिविता।”
“क्या तुम अपने मन में कुछ ग़लत सोच रही हो केयूरी . . . ? क्योंकि ऐसा कुछ नहीं है।”
“नहीं, नहीं, मेरा यह मतलब नहीं था। मैंने आज तक किसी अपरिचित महिला से इतना घुल-मिल कर बात करते नहीं देखा इसलिए आपसे पूछ बैठी,” केयूरी ने कहा।
विदर्भ केयूरी से कहने लगा, “देखो केयूरी . . . मेरी रुचि कविताएँ लिखना है और दिविता की भी। इसलिए मैं दिविता से खुलकर बातें कर पाता हूँ। हम दोनों केवल लेखन से सम्बन्धित बातें ही करते हैं।”
“ठीक है मैं समझ गयी,” केयूरी ने मुस्कुरा कर कहा।
विदर्भ और दिविता की बाते अब घंटों होतीं थी जिस के कारण विदर्भ घर देर से लौटता।
केयूरी के मन में आशंका के घने बादल छा रहे थे। वह विदर्भ की पत्नी थी। विदर्भ और दिविता का रोज़ मिलना केयूरी के लिए असहनीय हो गया था।
“मैं कब से आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ और आप बग़ीचे में ही घंटों बैठे रहते हो,” केयूरी चिढ़कर विदर्भ से बोली।
“आजकल तुम्हारा स्वभाव बहुत रूखा हो गया है केयूरी . . . सच सच बताओ। क्या बात है?” विदर्भ ने केयूरी की ओर देखकर कहा।
“आपको कविताओं के सिवा कुछ नहीं सूझता। कभी सोचा है मेरे बारे में,” यह कहकर केयूरी रोने लगी।
विदर्भ चकित था। केयूरी ने कभी भी विदर्भ से किसी भी बात के लिए शिकायत नहीं की। वह सदैव विदर्भ की इच्छाओं का सम्मान करती रही।
लेकिन आज केयूरी के स्वभाव में इतना परिवर्तन . . . इतना ग़ुस्सा, इतनी शिकायत।
विदर्भ को कुछ समझ नहीं आ रहा था और केयूरी खुलकर नहीं कह पा रही थी कि दिविता को लेकर उसके मन में असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो गयी है।
केयूरी अब चिड़चिड़ी-सी हो गयी थी वह किसी ना किसी बहाने से विदर्भ से झगड़ने बैठ जाती।
एक दिन विदर्भ केयूरी से कहने लगा कि तुम कुछ समय के लिए अपनी माँ के पास रह आओ। तुम्हें अच्छा लगेगा। तुम एक ही जगह रहते रहते चिड़चिड़ी हो रही हो।
“हाँ, ताकि आपको दिविता से बात करने का अधिक समय मिल सके,” केयूरी ने खिसियाकर कहा।
विदर्भ केयूरी का मुँह ताक रहा था। उसे समझ आ गया कि केयूरी के मन में असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो गयी है। विदर्भ ने अपनी दोनों हथेलियों से केयूरी के चेहरे को पकड़ा और बोला, “केयूरी मेरी ओर देखो।
“क्या मैं तुम्हें चरित्रहीन प्रतीत होता हूँ। मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ केयूरी . . . तुम्हें दिविता से ईर्ष्या करने की कोई आवश्यकता नहीं है।”
केयूरी की आँखों से मोटे-मोटे आँसू लुढ़कने लगे। रोते हुए केयूरी बोली, “दिविता कितनी गोरी है और मैं साँवली। आप कहीं दिविता की सुंदरता पर रीझ तो नहीं गये यही विचार कर के भयभीत हो रही हूँ।”
“अरे पगली, तुम्हारा साँवला किशमिशी रंग ही मुझे बहुत भाता है।
“दिविता मेरी प्रशंसक हैं और मैं केवल उसकी कविताओं को प्रोत्साहित करने के लिए ही उससे बात करता हूँ। यदि तुम्हें मेरा दिविता से बात करना नहीं भाता, तो मैं कभी भी दिविता से बात नहीं करूँगा,” विदर्भ ने यह कहते हुए, केयूरी को गले से लगा लिया।
शाम हो चली थी विदर्भ बग़ीचे में टहलने के बजाय अपने कमरे में चला गया और केयूरी विदर्भ को लिखता देखकर संतुष्टि का भाव लिये, दूसरे कमरे में जाकर चित्रकारी करने लगी।
1 टिप्पणियाँ
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स्त्री के अनेक रूप दर्शाती अच्छी कहानी संगीता जी