किन्नर
संगीता राजपूत ‘श्यामा’
“डूग्गू ओ डूग्गू कहाँ चला गया . . .?
“इस लड़के के पैर घर पर बिलकुल नहींं रुकते।
“पुत्तू जाकर अपने छोटे भाई डूग्गू को ढूँढ़ कर ले आ सवेरे घर से निकला था। साँझ होने को आई है लेकिन डूग्गू आने का नाम नहींं ले रहा है। उन्नीस साल का हो गया है लेकिन शऊर एक धेले का नहींं है,” तिनुकी खिसियाकर बोली।
पुत्तू डुग्गू को ढूँढ़ने निकल पड़ा वह ढूँढ़-ढूँढ़ कर थक गया, घर आकर माँ से बोला, “माँ! मुझे डूग्गू नहींं मिला।”
“हे ईश्वर कहाँ चला गया डूग्गू . . .” कहती हुई तिनुकी बाहर डूग्गू को ढूँढ़ने चली गई।
तीन दिन बीत चुके थे तिनुकी रो-रोकर पागल-सी हो गयी थी। पुलिस ने भी बहुत खोजबीन की लेकिन ऐसा लग रहा था कि ड्रगगू को आसमान निगल गया है।
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रात के नौ बज रहे थे अचानक कुत्तों ने ज़ोर से भौकना चालू कर दिया। तिनुकी की नींद कोसों दूर थी। कुत्तों की आवाज़ सुनकर तिनुकी खिड़की खोलकर बाहर झाँकने लगी।
बाहर बहुत अँधेरा था तिनुकी को एक परछाईं दिखी जो उसके ही घर की ओर लड़खड़ाते क़दमों से चली आ रही थी। अरे यह डूग्गू है क्या?
तिनुकी ने ख़ुशी के मारे दरवाज़ा खोला तो सामने डूग्गू खड़ा था।
“कहाँ चला गया था तू? बता, तू बोलता क्यों नहीं?” तिनुकी ने डूग्गू को झकझोरते हुए कहा।
डूग्गू बेजान सा शरीर लिए अन्दर आ गया। तभी तिनुकी की चीख निकल गई जिसे सुनकर पुत्तू नींद से जाग गया।
“डूग्गू तेरे पैरों से इतना ख़ून कैसे निकल रहा है?” पुत्तू ने पूछा।
डूग्गू पलंग पर बिना कुछ बोले ही लुढ़क गया।
“पुत्तू! डॉक्टर साहब को घर से बुला ला,” तिनुकी ने घबराकर कहा।
डूग्गू के पैरों पर ख़ून निकल कर सूख चुका था। डूग्गू पलंग पर निढाल पड़ा था। उसके चेहरे पर गहरे कष्ट की लकीरें साफ़ दिख रहीं थी। तिनुकी अपने बेटे के कष्ट को देख कर लगातार रोये जा रही थी।
तभी डॉक्टर साहब आये और डूग्गू के शरीर की जाँच करने लगे। उन्होंने तिनुकी और पुत्तू को दूसरे कमरे में जाने के लिए कहा।
थोड़ी देर बाद डॉक्टर साहब ने गंभीर स्वर में तिनुकी को बुलाकर कहा कि डूग्गू को किन्नर बनाया गया है। तिनुकी की आँखों पर अँधेरा छा गया वह गिरते गिरते बची।
डॉक्टर साहब ने कहा, “तिनुकी धीरज से काम लो पुत्तू तुम जाकर पुलिस को सूचित करो।
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पुलिस ने डूग्गू से पूछताछ की तो पता चला कि तीन दिन पहले सवेरे वह घर से बाहर घूमने निकला था तब एक सुनसान मोड़ पर कुछ लोगों ने डूग्गू को खींचकर गाड़ी में डाल लिया और उसे बेहोश कर दिया। जब डूग्गू को होश आया तब रात का समय था और वह सुनसान जगह पर पड़ा था। जैसे-तैसे वह लड़खड़ाते क़दमों से घर आया। पुलिस बयान लेकर वापस चली गई।
कई महीने बीत गये लेकिन अपराधियों का कोई पता नहीं चला। डूग्गू के साथ जो हुआ उसका पता सबको चल चुका था बात आग की तरह पूरे नगर में फैल गयी थी।
कुछ लोग डूग्गू पर दया दिखाते कुछ मुँह बिचकाते और कुछ मज़ाक़ उड़ाते, हँसता खेलता डूग्गू मौन की मूरत बन गया था।
एक दिन डूग्गू दरवाज़े पर जाकर खड़ा हो गया तभी आसपास के लोग उसे ऐसे देखने लगे मानो चिडियाघर के जानवर को देख लिया हो। अंधे और संवेदनहीन समाज को देखकर डूग्गू घर के भीतर चला गया और उसने अपने को घर की चाहरदीवारी में क़ैद कर लिया। तिनुकी अन्दर ही अन्दर घुट रही थी परन्तु डूग्गू के सामने सामान्य होने का नाटक करती ताकि डूग्गू को दुख ना पहुँचे।
पड़ोस में तालियों की चटक सुनाई दे रही थी। आख़िर बात क्या है? यह देखने के लिए तिनुकी ने दरवाज़ा खोला और आगे आकर देखने लगी।
उत्सुकतावश डूग्गू भी अपनी माँ तिनुकी के पीछे आ गया। पड़ोसी के यहाँ बेटा हुआ था। किन्नरों को इस बात की भनक लग गयी थी इसलिए वो अपना नेग लेने आये थे।
पड़ोस के लड़के भी किन्नरों का नाच-गाना देखने खड़े हो गये तभी लड़का बोला, “अरे डूग्गू तू भी अब किन्नरों की जमात में आ गया है। थोड़ा तू भी नाच दे और ले ले अपना नेग।”
तिनुकी यह सुनकर उन लड़कों की ओर ग़ुस्से से दौड़ी और डूग्गू आँसू बहाता हुआ घर के अन्दर चला गया। डूग्गू का डगमगाता हुआ आस्तित्व चूर-चूर हो चुका था। हताश और कुंठित मन डूग्गू पर हावी हो रहे थे।
“माँ . . . मैंं कब तक ऐसे ही घर में क़ैद रहूँगा? मुझे बाहर जाना है। मेरा दम घुटता है यहाँ,” डूग्गू डबडबाई आँखों से बोला।
तिनुकी डूग्गू के सर पर हाथ फेरती हुई बोली, “डूग्गू . . . ये पड़ोस के लोग तेरा मज़ाक़ बनाएँगे इसलिए मैं तुझे बाहर जाने नहीं देती। दुखी मत हो। शांत हो जा, ईश्वर कोई ना कोई रास्ता ज़रूर निकालेंगे।”
डूग्गू जब भी बाहर निकल कर खड़ा होता तो आसपास के लोग उसका मज़ाक़ उड़ाते और कहते, “तू यहाँ क्या कर रहा है? तुझे किन्नरों के साथ होना चाहिए।” डूग्गू अपमानित होकर घर के अन्दर चला जाता लेकिन कब तक? कब तक यह सब सहन करता डूग्गू? और एक दिन डूग्गू ने घर छोड़ दिया।
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तिनुकी और पुततू ने डूग्गू को बहुत ढूढ़ा लेकिन डूग्गू का कोई अता पता नहीं था।
तिनुकी अपने जवान बेटे के भाग्य को दुर्भाग्य में बदलते देख विवश और लाचार खड़ी थी
एक साल हो गया था डूग्गू को घर छोड़े हुए। एक दिन पड़ोस में फिर से किसी के घर बच्चा पैदा हुआ। किन्नरों की तालियों की थाप से पूरा मुहल्ला गूँज गया। सभी अपने अपने घरों से निकल कर बाहर आ गये थे। किन्नरों की जमात में एक चिर परिचित चेहरा भी था। वह चेहरा डूग्गू का था।
डूग्गू ने किन्नरों का वेष धारण कर रखा था। वह अपने साथी किन्नरों के साथ ढोलक बजा रहा था। दूर खड़ी तिनुकी ख़ून के आँसू रो रही थी लेकिन तिनुकी के होंठों ने मौन धारण कर रखा था।