तेजेन्द्र शर्मा जी की कहानी ‘कब्र का मुनाफा’

15-03-2024

तेजेन्द्र शर्मा जी की कहानी ‘कब्र का मुनाफा’

संगीता राजपूत ‘श्यामा’ (अंक: 249, मार्च द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)


समीक्षित रचना: कब्र का मुनाफा
कहानीकार: तेजेन्द्र शर्मा

 

जीवन की अंतिम श्वास तक जीविका चलाने की चिंता और जीविका से मुनाफ़े की लालसा इतनी प्रबल होती है कि, व्यक्ति जहाँ एक ओर अपने मरने का साज़ो–सामान तैयार करता है। वहीं दूसरी ओर ऐसा कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहता, जहाँ उसे मुनाफ़ा मिलने की सम्भावना हो। कुछ कहानियाँ इतनी पुख़्ता होती हैं कि पुस्तकों से निकल कर वास्तविक जीवन में अपनी मज़बूत पैठ बना लेती हैं। भारत में अंतिम संस्कार के लिए कुछ कंपनियाँ शुरू हो गयी हैं जहाँ लोग अपने अंतिम संस्कार के लिए बुकिंग करवा रहे हैं। विदेशों में यह चलन पहले से है, परन्तु भारत में जहाँ संतान के हाथों अंतिम क्रिया का नियम है वहाँ स्वयं के लिए अंतिम क्रिया की व्यवस्था करना, अचरज की बात है। क्या कब्र का मुनाफा कहानी आम जन के मानस को बदलाव की ओर ले गयी?

प्रसिद्ध कहानीकार तेजेंद्र शर्मा जी द्वारा लिखित कब्र का मुनाफा नौकरी के कारण इग्लैंड में बसे दो मुस्लिम परिवारों की कहानी है। कट्टरपंथी खलील, जो हिन्दुओं के प्रति घृणा का भाव रखता है जबकि नजम की मनोस्थिति शिया व सुन्नी में भेद उत्पन्न करती है परन्तु हिन्दुओं के प्रति उसका अनदेखा व्यवहार है। नादिरा व आबिदा की स्थिति बिलकुल वैसी है जैसी आम तौर पर मुस्लिम महिलाओं की होती है। आबिदा ने स्वयं को बेबस कर रखा है या परिस्थितियों के साँचे में ढल गयी है। अपने मन की हर बात नादिरा से साझा कर स्वयं को हल्का कर लेती है परन्तु नादिरा ने स्वयं के भीतर साहस पैदा किया व सामाजिक कार्यों में सहयोग देकर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने लगी। कहानी के चारों पात्रो में से नादिरा ने हमें पाठक के तौर पर प्रभावित किया।

कौन करे अब यह कुत्ता घसीटी। जैसे उज्जड शब्दों का प्रयोग संवाद को रोचक बना रहे हैं। पूरी कहानी स्वयं को बहुत ही सरल तरीक़े से व्यक्त करती है, जिसके कारण पाठक स्वयं को कहानी से जोड़ पाता है।

‘खलील भाई, मरने पर याद आया, आपने कार्पेंडर्स पार्क के क़ब्रिस्तान में अपनी और भाभी जान की क़ब्र बुक करवा ली है या नहीं? देखिये क़ब्रिस्तान की लोकेशन, उसका लुक और माहौल एकदम यूनिक है . . .।’ लोकेशन, लुक, यूनिक जैसे अंग्रेज़ी शब्दों का हिंदी के साथ प्रयोग बिलकुल वैसा ही है, जैसा कि सामान्य जीवन में पढ़े-लिखे लोग करते है।

नजम ने बीच में ही टोक दिया, “खलील भाई इनके बिना गुज़ारा भी तो नहीं। नेसेसरी ईविल है हमारे लिए और फिर इस देश में तो स्टेटस के लिए भी इनकी ज़रूरत पड़ती है।” नजम यह बात आबिदा व नादिरा के लिए कहता है। बीवी के लिए नेसेसरी ईविल, स्टेटस आदि शब्दों का प्रयोग यह बताता है कि, खलील व नजम के लिए उनकी बीवी केवल एक आवश्यक सामान के जैसे है।

“यार ये साला क़ब्रिस्तान शिया लोगों के लिए एक्सक्लूसिव नहीं हो सकता क्या?. . वर्ना मरने के बाद पता नहीं चलेगा कि पड़ोस में शिया है या सुन्नी या फिर वो गुजराती टोपी वाला। यार सोचकर ही झुरझुरी महसूस होती है। मेरा तो बस चले तो एक क़ब्रिस्तान बनाकर उस पर बोर्ड लगा दूँ-शिया मुसलमानों के लिए रिजर्व्ड।”

इंग्लैंड में कार्यरत पढ़े-लिखे नजम के मुँह से ऐसी बात सुनकर बहुत अचरज होता है परन्तु यह भी सच है व्यक्ति के संस्कार उसके परिवार व समाज से आते हैं, जो उसके व्यक्तित्व को बनाते हैं। इन वाक्यों से पता चलता है, खलील व नजम जैसे व्यक्ति हिन्दू–मुस्लिम में ही भेद नहीं करते, बल्कि उन्हें शिया और सुन्नी में भी अंतर दिखाई देता है जबकि दोनों मुस्लिम समुदाय से हैं। मरने के बाद जब अपना शरीर भी साथ नहीं जाता वहाँ किसकी क़ब्र के बग़ल में कौन दफ़न है इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? लेकिन नजम को इस बात से फ़र्क़ पड़ता है। नजम की यह सोच बचकानी तो लगती है परन्तु ऐसा लगता है कि, ऐसे पात्रों से वास्तविक जीवन में भेंट अवश्य हुई है। कहानी आगे बढ़ती है और नजम और खलील अपनी बीवियों को बिना बताये चार क़ब्रों की एडवांस बुकिंग करते है। जिसकी किश्त 10 पाउंड प्रति माह है। एक दिन नादिरा को क़ब्रों की बुकिंग का पता चलता है तो वह खलील से कहती है, “आपने अभी से यह कब्र क्यों बुक की है? यह हमारे घर से बहुत दूर है।” नादिरा को हिन्दुओं का सिस्टम ठीक लगता है जहाँ मरने के बाद जलकर राख मिट्टी में मिल जाती है और ज़मीन भी बच जाती है। खलील को नादिरा की बातें बहुत चुभती हैं। कहानी का एक हिस्सा जहाँ मियाँ-बीवी एक बिस्तर पर सोते हैं परन्तु उनके बीच अब शारीरिक सम्बन्ध नहीं है। आबिदा नादिरा को बताती है कि उसका पति बुशरा नाम की औरत के साथ चार वर्ष से सम्बन्ध में है। उसका पति और वह दो वर्षोंं से भाई-बहन की तरह साथ रह रहे हैं। नादिरा को उसकी बात सुनकर एक झटका लगता है क्यूँकि नादिरा और खलील के बीच भी पाँच वर्षोंं से शारीरिक सम्बन्ध नहीं बना है। नादिरा और आबिदा के बीच इस फोन-वार्ता के संवाद, हमें एक महिला होने के नाते संवेदनशील कर देते हैं। दांपत्य-जीवन में इस खटास की टीस साफ़-साफ़ अनुभव की जा सकती है।

क़ब्रें आरक्षित करने के बाद वो दोनों इस विषय को भूल भी गए हैं। लेकिन कार्पेंडर्स पार्क उनको नहीं भूला है। आज फिर एक चिट्ठी आई है। मुद्रा स्फीति के साथ–साथ मासिक–किश्त में पैसे बढ़ाने की चिट्ठी ने नादिरा का ख़ून फिर खौला दिया। तेजेंद्र शर्मा जी कहानी को इतने सलीक़े से व्यक्त करते हैं कि, शब्द सजीव होकर आँखोंं में तैरने लगते हैं। खलील और नजम शराब और सिगरेट के साथ इस विचार में हैं कि, अब कौन सा व्यवसाय शुरू किया जाए। नादिरा मासिक–किश्त बढ़ने से परेशान होकर क़ब्र कैंसिल करने के लिए फोन करती है तो, फोन से आवाज़ आती है। इन्फ़्लेशन के कारण क़ब्रों का मूल्य बढ़ गया है और आपको लगभग 400 पाउंड का मुनाफ़ा हो रहा है यह सुनकर खलील ने कहा, “क्या चार सौ पाउंड का फ़ायदा, बस साल भर में” उसने नजम की तरफ़ देखा। नजम की आँखों में भी वही चमक थी। नया धंधा मिल गया था।

कहानी अपनी अंतिम पंक्ति में पाठक के मन में कई प्रश्न छोड़ती है। एक ओर खलील और नजम को यह पता है कि उसे मरना है, वही दूसरी ओर जीवन की अंतिम श्वास तक पैसे की लालसा . . . कितना विरोधाभासी विचार लगता है . . . है न? कुल मिलाकर कब्र का मुनाफा मज़बूत कथानक के साथ पाठक के मन को खौलाती है। 
 

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