कौशल का त्याग
संगीता राजपूत ‘श्यामा’
चारों ओर घिरे पहाड़ और उनकी चोटियों से छन कर आती सूरज की छटा अद्भुत दृश्य को रच रही थी। तभी अंबुज पंडित ने अपनी पत्नी कौशांबी को पुकारा, “कौशांबी! थोड़ी शीघ्रता करो मंदिर में भीड़ बढ़ जाएगी।
कौशांबी ने उत्तर दिया, “मैंने तो सभी तैयारी पूरी कर ली थी लेकिन कौशल ने उठने में देर कर दी।”
अंबुज पंडित ने कहा, “चलो, अब शीघ्र गाड़ी में बैठो।”
कौशल ने गाड़ी में बैठते हुए पूछा, “पिताजी हम कहाँ जा रहे हैं?”
“बेटा! आज जेठ माह की अष्टमी है खीर भवानी मंदिर में हम लोग दर्शन के लिए जा रहे हैं पिछले वर्ष भी गए थे। क्या तुम्हेंं स्मरण नहीं?” अंबुज पंडित ने एक प्यारी सी चपत लगाते हुए कौशल से कहा।
कौशल ने हँसते हुए कहा, “मैं भूल जाता हूँ पिता जी!”
अंबुज पंडित बोले, “नहीं बेटा यह बातें भूलने की नहीं होती यह हमारी परंपरा है और हमें इस का आदर करना चाहिए। रावण माँ का बहुत बड़ा भक्त था और लंका में उसने ही माँ के मंदिर की स्थापना की थी लेकिन जब रावण का अत्याचार बढ़ने गया तो माँ रावण से रुष्ट हो गई और माँ ने हनुमान जी को आदेश दिया कि मेरी मूर्ति को यहाँ से हटा कर कहीं और स्थापित करो। तब माँ की आज्ञा के अनुसार हनुमान जी ने कश्मीर के तुलमुल गाँव में माँ की मूर्ति को स्थापित किया जिन्हें हम खीर भवानी माता कहते हैं।”
कौशल ने आश्वासन दिया, “अब मैं कभी नहीं भूलूँगा।”
अंबुज पंडित कहने लगे, “हाँ . . . कभी मत भूलना . . . जो व्यक्ति अपने संस्कारों और परंपराओं से कटता है। वह धरती पर पशु समान विचरण करता है।”
कौशांबी बीच में टोकते हुए बोली, “आप नौ वर्ष के बालक से इतनी बड़ी-बड़ी बातें क्यों कर रहे हैं? कौशल अभी बच्चा है जब बड़ा होगा तब समझ जायेगा।”
अंबुज पंडित बोले, “संस्कार जड़ की भाँति होते हैं बचपन से ही पुष्ट होने चाहिएँ।”
अंबुज पंडित ने अपने परिवार समेत माँ खीर भवानी के दर्शन किए और वापस लौट आए।
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संध्या का समय था सूरज अपनी ऊर्जा को स्वयं में समेटता हुआ बादलों की ओट में छिपने जा रहा था तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। कौशांबी ने दरवाज़ा खोला तो सामने हरिहरन अपनी पत्नी वल्लवी और विदुषी समेत खड़े थे।
“अरे हरिहरन! आओ आओ!” अंबुज पंडित ने हरिहरन को देखते ही गले लगा लिया और बोले, “आज बड़े दिनों के बाद तुम को देखकर बहुत अच्छा लगा . . . और सुनाओ सब ठीक है।”
हरिहरन विस्मित हुए, “क्या तुम्हेंं बाहर की परिस्थितियों का पता नहीं? कुपवाड़ा में आतंकियों ने आतंक मचा रखा है। बलपूर्वक लोगों को हिंदू धर्म छोड़ने को कहा जा रहा है। कई स्थानों पर तो पर्चे भी लगा दिये गए हैं कि हिंदू धर्म नहीं छोड़ा तो कश्मीर छोड़ दो। अब उन्हें कौन समझाए, अपना घर कैसे छोड़ें? हम यहाँ के मूल निवासी हैं। वातावरण बहुत भयावह हो रहा है बाहरी लोग आकर कश्मीर को देश से अलग करने का षड्यंत्र रच रहे हैं।”
अंबुज पंडित ने चिंता व्यक्त की, “थोड़ा-बहुत मैंने भी सुना था लेकिन इतना सब घट रहा है इसका मुझे अनुमान नहीं था।”
हरिहरन बोले, “अनुमान होगा कैसे? आतंक कुपवाड़ा में बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है . . . अच्छा है तुम अनंतनाग में रहते हो।”
अंबुज पंडित अभी भी चिंतित थे, “हाँ! यहाँ सब ठीक है अब तक . . . लेकिन ऐसा ही रहा तो आतंक की आग यहाँ तक भी आएगी।”
हरिहरन ने चेताया, “अंबुज! एक बात कहता हूँ ध्यान से सुनो, यदि मुझे कुछ हो जाए तो विदुषी को सँभालना तुम्हारा दायित्व है तुम मेरे बचपन के मित्र हो, मुझे और किसी पर विश्वास नहीं है।”
अंबुज ने कहा, “ऐसा मन में विचार क्यों ला रहे हो? कुछ नहीं होगा तुम्हें!”
हरिहरन ने चिंता का कारण स्पष्ट करते हुए कहा, “हमारे घर के समीप ही एक घर में आतंकी घुस गए और परिवार को बलपूर्वक दूसरा धर्म अपनाने को कहा। जब परिवार ने मना किया तो सभी को मारकर नौ साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया और बाद में उसे जाने कहाँ ले गए। क्या हुआ होगा उस बच्ची का विचार आते ही मन काँप जाता है।”
अंबुज के माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आयीं, “हे ईश्वर! घोर कलयुग आ गया है माता रूपी कन्या का बलात्कार करने वाले मानव के रूप में राक्षस ही हैं। तुम यहीं मेरे पास रहो, कुपवाड़ा छोड़ दो।”
हरिहरन बोले, “मैं भी यही विचार कर रहा हूँ मुझे वल्लवी और विदुषी की बहुत चिंता रहती है।”
तभी कौशल आकर कहने लगा, “पिताजी भोजन लग गया है।”
दूसरे दिन हरिहरन अपने परिवार सहित वापस कुपवाड़ा लौट गए।
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“मुझे कुछ आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाना है कौशांबी! आते-आते साँझ हो जाएगी,” कहते हुए अंबुज पंडित बाहर चले गए।
अभी एक घंटा ही बीता होगा कि किसी ने दरवाज़े को तेज़ी से खटखटाया, हड़बड़ा कर कौशांबी ने दरवाज़ा खोला तो देखा सामने अंबुज पंडित पसीने में भीगे हुए थे वे तेज़ी से कुर्सी पर बैठ गए।
कौशांबी आशंकित होकर बोली, “क्या हुआ है आप इतने व्याकुल क्यों हैं?”
अंबुज ने अपनी चिंता बतायी, “अनंतनाग में बाहरी लोग घुस आए हैं भारी उपद्रव मचा रखा है जम्मू में एक मंदिर को नष्ट कर दिया है।”
कौशांबी की आँखों में भय झलक आया, “यह क्या हो रहा है? हे माँ खीर भवानी! रक्षा करो।”
अंबुज अभी भी घबराए हुए थे, “आज के बाद कौशल बाहर नहीं जाएगा उसे घर पर ही रखो।”
कौशांबी बोली, “और उसकी पढ़ाई का क्या होगा?”
अंबुज ने कहा, “प्राण बचेंगे तो पढ़ भी कर लेगा।”
अनंतनाग में जहाँ सवेरे-सवेरे मंदिरों की घंटियों के पावन स्वर सुनाई देते थे वहाँ श्मशान का सन्नाटा पसर गया। सभी भय से अपने अपने घरों में दुबके हुए थे। हँसते-खिलखिलाते कश्मीर को बाहरी षडयंत्रकारियों का आतंक निगल रहा था। कुछ महीने बीत गए—कुछ और परिवारों ने भय से हिंदूधर्म का त्याग कर दिया।
अंबुज एक दिन बोले, “कौशांबी! कल तड़के ही मैं हरिहरन के घर जाऊँगा कई महीनों से हरिहरन का कोई समाचार नहीं मिला है पता नहीं वह कुशल से होगा या नहीं।”
कौशांबी घबरा कर बोली, “आप कुपवाड़ा जाएँगे? जानते हैं कि वहाँ उपद्रवी अभी भी बसे हैं मुझे तो डर लगता है।
अंबुज ने ढाढ़स बँधाया, “कुछ नहीं होगा मैं सावधानीपूर्वक जाऊँगा। कैसे जाना है, सब विचार कर लिया है।”
अंबुज सवेरे तड़के हरिहरन से मिलने चल दिया। कुपवाड़ा का सन्नाटा चीखकर आतंक की कहानी कह रहा था। अंबुज ने धीरे से दरवाज़ा खटखटाया। एक लंबी दाढ़ी वाले आदमी ने दरवाज़ा खोला।
अंबुज ने कहा, “यहाँ हरिहरन रहते हैं मुझे उनसे मिलना है।”
“मैं ही हरिहरन हूँ,” दाढ़ी वाले आदमी ने कहा।
अंबुज के पाँव तले धरती खिसक गई वह निशब्द हरिहरन को देखते रहे।
हरिहरन ने कहा, “अंदर आओ अंबुज! बाहर क्यों खड़े हो?” तभी पीछे से वल्लवी आकर खड़ी हो गई और बोली, “आइए भाई साहब!”
अंबुज ने आश्चर्य से कहा, “तुमने हिंदूधर्म त्याग दिया हरिहरन!”
“हाँ, मैं विवश हो गया था। यदि मैं आतंकियों की बात नहीं मानता तो वह मेरे परिवार को मार देते,” हरिहरन ने उत्तर दिया।
अंबुज के स्वर मे क्रोध की छाया थी, “तो तुम स्वयं को जीवित समझ रहे हो, मर तो तुम उसी समय गये थे जब तुमने अपनी सनातनी परंपरा को त्याग कर, दूसरा धर्म अपनाया था।”
हरिहरन लज्जित था, “जब बात प्राण पर आए तो मनुष्य विवश हो जाता है।”
वल्लवी ने कहा, “भाईसाहब! पानी तो पी लीजिए, इतनी दूर से चलकर आए हैं। हमने दूसरा धर्म अपना लिया इसलिए मेरे हाथ का पानी नहीं पी रहे हैं?”
अंबुज अभी भी आक्रोशित थे, “दूसरे धर्म के लोगों के हाथ का पानी पी लेता हूँ बहन! लेकिन कायरों के हाथ से पानी पीकर में पाप का भागी नहीं बनना चाहता।”
अंबुज के पाँव अनंतनाग की ओर लौटने लगे . . .
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कुछ महीने और बीत गये मारकाट के समाचार बढ़ते ही जा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो अब कश्मीर से माँ खीर भवानी वैसे ही रुष्ट हो कर चली गई जैसे रावण के अत्याचारों से क्रोधित होकर लंका छोड़कर आई थी।
एक ठिठुरती रात को दरवाज़ा खटका। अंबुज पंडित ने दरवाज़ा खोला तो सामने हरिहरन, वल्लवी और विदुषी के साथ खड़े थे।
हरिहरन ने याचना की, “अंबुज! मुझे अपने घर में शरण दे दो मित्र!”
अंबुज ने कन्धे पर हाथ रखते हुए पूछा, “क्या हुआ? आओ!”
हरिहरन ने काँपते स्वर में बताया, “आतंकियों की बुरी नज़र वल्लवी और विदुषी पर पड़ गई है। डर के मारे किसी प्रकार बचते-बचाते यहाँ तक आए हैं।”
अंबुज ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, “लेकिन मुझे तो अनंतनाग की स्थिति भी ठीक नहीं लग रही है, यहाँ पर पर्चे लगा दिए गए हैं; दो दिनों का समय दिया है कश्मीर छोड़ने के लिए और समस्या यह है कि यहाँ से जम्मू कैसे जाएँगे? राह में ही हम सबको घेर कर मार दिया तो?”
हरिहरन ने कहा, “अब तो माँ खीर भवानी ही रक्षा कर सकती है।”
कौशांबी, घायल हिरनी की भाँति भयातुर होकर उन दोनों की बातें सुन रही थी। कौशल के बारे में विचार करके वह रोने लगी। रात हो चुकी थी लेकिन किसी को नींद नहीं आ रही थी। अकस्मात् लोगों की चीखों से मौनरात्रि हूँकने लगी। कौशल और विदुषी अपनी माँ से चिपट गए।
हरिहरन और अंबुज बेचैन होकर दरवाज़े के छोटे से छेद से बाहर देखने का निष्फल प्रयास कर रहे थे फिर एक ज़ोरदार धमाका! अंबुज और हरिहरन के टुकड़े धरती पर फटे कपड़े की भाँति पड़े थे। वल्लवी और कौशांबी दूसरे कमरे की छत गिरने से दबकर मर चुकी थीं। बम के विस्फोट से धीरे-धीरे घर ढहने लगा चारपाई के नीचे से कौशल निकल कर इधर-उधर देखने का प्रयास कर रहा था। कौशल के हाथ-पाँव काँप रहे थे। तभी उसे विदुषी का छोटा-सा हाथ दिखा जो धरती पर पड़े मलबे के नीचे से दिख रहा था। कौशल ने हाथ खींचकर विदुषी को निकाला।
“विदुषी! विदुषी!” कौशल ने पुकारा। विदुषी के सर से ख़ून निकल रहा था वह अचेत पड़ी थी। कौशल उठकर अपनी माँ को खोजने लगा।
एक छोटा-सा घर भूल-भुलैया बन गया था जहाँ कोई मिल नहीं रहा था। बस चारों ओर घर से टूटकर गिरता हुआ मलबा था। कौशल के कोमल मन में विचार आया यदि वह और विदुषी थोड़ी देर और घर के अंदर रुके तो वह मलबे में दबकर रह जाएँगे। कौशल ने थोड़ा ज़ोर लगाकर अपनी गोद में विदुषी को उठा लिया और बाहर ले आया। बाहर आतंकी धमाका करके जा चुके थे। कौशल के पैर बर्फ़ पर फिसलने लगे थे लेकिन वह विदुषी को गोद में उठा ऐसे चल रहा था जैसे स्वयं विदुषी की रक्षा करने के अपने पिता के वचन का पालन करना चाहता है। वह अभी थोड़ी ही दूरी पर पहुँचा था तभी पास के एक घर से चीखें सुनाई देने लगीं। कौशल समझ गया कि इस घर में आतंकी घुसे हैं। कौशल अपने पैरों को तेज़ी से रखने का प्रयास कर रहा था। तभी कौशल को एक सेब का बग़ीचा दिखाई दिया। हाड़ कँपा देने वाली ठंड में कौशल के होंठ नीले पड़ रहे थे; वह विदुषी को गोद में लेकर बैठ गया। धीरे-धीरे कौशल के अंग ठंड से जमने लगे उसने स्वयं को कछुए की भाँति बना लिया था जिसके कवच में विदुषी लेटी हुई थी।
भयावह लंबी रात बीत चुकी थी। दोपहर में सदानंद घर से बाहर कुछ आवश्यक कार्य के लिए निकले। उन्होंने आतंकियों के भय से पहले ही इस्लाम को अपना लिया था फिर भी आतंकियों ने उनकी पत्नी और बच्चों को काट दिया था। सदानंद की लंबी दाढ़ी अब उनकी ढाल थी। उनकी दृष्टि एक बालक पर पड़ी जो हाथों को ऊपर उठाकर उन्हें बुला रहा था।
सदानंद उस बालक के समीप आए और बोले, “बेटा! कौन हो तुम?”
“मैं कौशल हूँ। वहाँ विदुषी लेटी है चल कर उसे बचा लीजिए।”
सदानंद ने पूछा, “क्या हुआ है उसे?”
कौशल ने बताया, “आतंकियों ने बम धमाके किए जिससे हमारा घर टूट गया। मेरी माँ और पिताजी का कोई पता नहीं है।”
सदानंद अवाक् होकर कौशल की बात सुन रहे थे। वह कौशल से बोले, “कहाँ है विदुषी?”
सदानंद कौशल के पीछे पीछे चल दिए। वे कौशल के पीछे-पीछे सेब के बग़ीचे तक आ पहुँचे। सामने एक लड़का बैठा था। सदानंद ने झुक कर देखा लड़का अपनी गोद में बच्ची को लेकर बैठा है उसका मुँह नीचे घुटने से टिका हुआ था। सदानंद ने उस लड़के का मुँह अपने हाथ के सहारे ऊपर उठाया। सदानंद काँप कर रह गए।
‘अरे! यह वही बच्चा है जो मुझे यहाँ बुला कर लाया है’! सदानंद ने इधर-उधर देखा लेकिन जो कौशल सदानंद को सहायता के लिए बुला कर लाया था वह गठरी बनकर विदुषी को गोद में लेकर बैठा था। सदानंद ऐसी विचित्र घटना से चकित हो गए थे फिर उनकी दृष्टि विदुषी पर पड़ी। वो विदुषी को घर ले आये और उसका उपचार कराया। सदानंद ने अपने हाथों से कौशल का अंतिम संस्कार किया।
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विदुषी अब स्वस्थ है लेकिन सदानंद ने उसका नाम बदलकर वहीदा रख दिया है विदुषी अब सयानी हो चुकी है उसे वहीदा नाम पसंद नहीं हैं। वह चाहती है कि सब उसे विदुषी कहें लेकिन कौशल का त्याग उससे कहता है, ‘कोई वहीदा कहे या विदुषी पर तू कौशल की धरोहर है।’