जेठ

संगीता राजपूत ‘श्यामा’ (अंक: 233, जुलाई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

जेठ माह की तपती दोपहरी में कुँवरी सर पर पानी का मटका रखकर एक लम्बा सा घूँघट ओढ़कर, लम्बे-लम्बे डग भरती बावड़ी की ओर चली जा रही थी। 

राजस्थान का एक छोटा सा गाँव चूरमा जहाँ महिलायें पुरुष से अधिक मेहनती थीं। गाँव के अधिकांश पुरुष दिनभर गप्प लड़ाते या फिर शराब पीकर अपनी पत्नियों को पीटते। 

चूरमा गाँव में कोई भी स्कूल नहीं था इसलिए यहाँ के लोग अनपढ़ ही थे। दूर-दूर तक केवल रेत ही रेत पानी लेने के लिए गाँव की औरतों को कई-कई किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता। कुँवरी बावड़ी की सीढ़ियों से उतरकर पानी का मटका भर रही थी तब उसको यह अनुभव हो गया था कि बावड़ी में अब ज़्यादा पानी नहीं बचा है। जेठ माह की तेज़ धूप बावड़ी के पानी को सोख रही थी। 

कुँवरी बेचैन मन से पानी भर कर घर लौटी तब तक उसकी बेटी सुगना जो अभी केवल नौ वर्ष की थी, रोटी बना चुकी थी। कुँवरी कभी नहीं चाहती थी कि उसकी बेटी उसकी तरह काम के बोझ से दब कर रह जाये। वह अपनी बेटी सुगना को पढ़ाना चाहती। कुँवरी कक्षा आठ तक पढ़ी हुई थी उसके बाद उसका विवाह हो गया था। वह शिक्षा का महत्त्व जानती थी इसलिए वह अपनी बेटी को पढ़ाना चाहती थी। लेकिन दुर्भाग्य से गाँव में दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था इसलिए चूरमा गाँव के लोग अनपढ़ और अंधविश्वासी थे। 

कुँवरी थक कर खाट पर लेट गयी और विचार करने लगी कि अब मुझे ही कुछ करना होगा जो मैंने सहा
वह मेरी बेटी नहीं सहेगी। रात हो गयी थी कुँवरी का पति शराब में धुत्त होकर घर आया कुँवरी के हाथ में एक मोटा सा लठ था जिससे उसने अपने पति की पिटाई की दी। कुँवरी का पति इतने ज़्यादा नशे में था कि वह कुँवरी का विरोध भी ना कर सका और ज़मीन पर गिर गया और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, “कोई तो बचाओ रे!” 

आसपास के घरों के आठ दस पुरुष दौड़कर आये तो देखा कुँवरी का पति दर्द से कराह रहा है और कुँवरी बेहोश पड़ी है उसके बाल बिखरे थे आँखों का काजल पूरे चेहरे पर फैला हुआ था। पहली बार कुँवरी बिना घूँघट थी। तभी गाँव की एक बुज़ुर्ग औरत ने आकर कुँवरी के चेहरे पर पानी के छींटे मारे। कुँवरी होश में आ गयी थी लेकिन उसने अजीब तरह से अपने शरीर को हिलाना शुरू कर दिया था उसकी आँखें लाल-लाल हो रहीं थीं। गाँव की बुज़ुर्ग औरत ने कहा, “अरे . . . देखो रे . . . कुँवरी पर माता सवार हो गयी है” इतना सुनते ही सभी कुँवरी के पैर छूने लगे। कुँवरी के पति का सारा नशा हिरन हो चुका था। कुँवरी पर माता सवार हो गयी है ऐसा मानकर वह डर से थर-थर काँप रहा था। वैसे भी तीन-चार लठ पड़ने से वह चकित था कि जो औरत मुँह से आवाज़ नहीं निकालती थी उसके हाथ लठ के लिए कैसे उठे? 

“तुमने मुझे क्रोधित किया है इस गाँव को मेरे कोप का भाजन बनना पड़ेगा कुँवरी ने अपने पूरे शरीर को हिलाते हुए कहा। बुज़ुर्ग कुँवरी के पैरों पर गिर गयी और कहने लगी, “हमारी ग़लतियों को माफ़ कर दो माँ . . .! हम ऐसा क्या करें जिससे आपका क्रोध शान्त हो जाये।” 

“गाँव की सभी कन्याओं से एक महीने तक मेरा मंत्र पढ़वाया जाये। कल वट अमावस्या है और कल से सभी पुरुष कुआँ खोदना आरम्भ कर देंगे जब तक कि उस कुएँ से पानी ना जाये फिर उस कुएँ का पानी पीकर मेरा क्रोध शान्त होगा अन्यथा जेठ माह के अंत तक कोई ना कोई मर जायेगा।” इतना कहने के बाद कुँवरी धड़ाम से ज़मीन पर गिर कर बेहोश हो गई गाँव के पुरुष भयभीत होकर अपने अपने घर लौट आये। 

सवेरे तक यह बात आग की तरह पूरे गाँव में फैल गई थी कि गाँव पर माता क्रोधित है। 

गाँव के सभी पुरुष मिलकर कुआँ खोदने लगे अब बारी थी कन्याओं से मंत्र उच्चारण करवाने की, पर गाँव की कोई कन्या पढ़ी-लिखी नहीं थी तो कोई मंत्र उच्चारण कैसे करती। 

दूसरी रात को कुँवरी पर फिर से माता सवार हो गयी थी उसके मुँह से शेर की तरह गुर्राने की आवाज़ आ रही थी कुँवरी का पति दौड़कर सभी को इकट्ठा करके ले आया। गाँव के सभी लोग कुँवरी के सामने भयभीत मुद्रा में खड़े थे। 

कुँवरी ने कहा, “जाओ राजपुर गाँव में एक पंडित है, वह अध्यापक है उनको मनाकर इस गाँव में ले आओ वह कन्याओं को मंत्र पढ़ना सिखायेंगे ताकि कन्याओं के मंत्र उच्चारण से मेरा क्रोध शान्त हो।” 

चूरमा गाँव के कुछ पुरुष राजपुर गाँव पहुँचे। यह कुँवरी का पीहर था। वहाँ जाकर उन्होंने पंडित जी को ढूँढ़ लिया और पंडित जी को सारी बात बतायी। पंडितजी बोले, “ना भाई ना मंत्र सिखाना हँसी खेल नहीं है काफ़ी
समय लगता है और स्कूल का मालिक मुझे इतने दिन की छुट्टी ना देगा। अगर उसने मुझे नौकरी से निकाल दिया तो मेरा क्या होगा?” 

यह सुनकर गाँव वाले परेशान हो गये और पंडित जी के पैर पकड़कर गिड़गिड़ाने लगे। 

पंडित जी बोले, “लेकिन मेरी एक शर्त है यदि तुम मुझे अध्यापक की नौकरी पर रख लो तो मुझे कोई एतराज़
नहीं है चलने में।” 

“पर हमारे यहाँ कोई स्कूल ही नहीं है पंडित जी,” चूरमा गाँव का एक पुरुष बोला। 

“मैं तो एक झोंपड़ी में भी स्कूल खोल दूँ। शिक्षा के लिए जगह महत्त्वपूर्ण नहीं है बस पढ़ने वाले लगनशील होने चाहियें,” पंडित जी ने कहा।

चूरमा गाँव के पुरुषों ने कुछ देर आपस में विचार-विमर्श किया और पडित जी से बोले, “ठीक है आप हमारे साथ चलिये गाँव में एक जगह चौपाल लगती है वह जगह स्कूल के लिए उपयुक्त रहेगी। वहाँ हम सभी मिलकर एक छोटा सा स्कूल खोल सकते हैं।” 

पंडित जी मान गये और चूरमा गाँव आकर कन्याओं को मंत्र उच्चारण सिखाने लगे। 

दो महीने बीत चुके थे गाँव के सभी बच्चे स्कूल जाने लगे थे कुएँ के पानी को पीकर कुँवरी पर सवार माता शान्त हो गयी थी और उसी कुएँ से सारा गाँव अपनी प्यास बुझा रहा था। 

गाँव के पुरुष कुछ ना कुछ काम करने लगे थे क्योंकि अब उनके बच्चे स्कूल जाने लगे थे जिसके कारण उन्हें स्कूल की फ़ीस देनी थी। 

कुँवरी के नाटक ने चूरमा गाँव के दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल दिया था। 

1 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें