भिक्षुणी

भिक्षुणी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अष्टम भाग

 

बौद्ध धर्म-दर्शन की एक प्रमुख शैक्षणिक संस्था कुशलनगर का स्वर्णमंदिर है। नामड्रेली निगोमा मठ, तिब्बतीबौद्ध-दर्शन का केंद्र। जैसे ही आप गेट पार करके मठ के परिसर में प्रवेश करते हैं, आपको हज़ारों श्रमणों का जमावड़ा दिखाई देता है। दो दिन पहले ही ‘लोसा’ का त्योहार शुरू हुआ है। तिब्बती नव वर्ष उत्सव। हज़ारों सिर मुँड़े, गेरुए वस्त्र पहने, श्रमण बुद्ध-गुरु लामा के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बैठे हुए श्रमणों की पंक्तियों से एक बड़ा आयताकार वर्ग तैयार हुआ है, जिसके मध्य स्थल को लामा नृत्य, पवित्र शोभायात्रा और बुद्ध को पारंपरिक नैवेद्य अर्पण के लिए खुला छोड़ा गया है। चारों ओर मंत्रपूत ध्वज फहरा रहे हैं। शिक्षार्थियों के पीछे आम लोग बैठे हैं। सभी, पुरुष और महिलाएँ, ख़ासकर बच्चे सभी समान रूप से, पंक्तिबद्ध बैठे हुए हैं और महामहिम लामा के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो थोड़े समय में आएँगे और बौद्ध दर्शन के सिद्धांतों पर अपना भाषण देंगे, अपने वचनों में और फिर पवन में। शिक्षा संस्थान के विशाल परिसर के पत्थर की फ़र्श पर मैं केवल दो पैरों जितनी ज़मीन पर खड़ी थी। अंतर्द्वंद्व ने मेरे पैरों को वहाँ सख़्ती से जकड़ रखा है। मुझे समझ नहीं आ रहा कि मेरी जगह कहाँ है। मैं कहाँ बैठ सकती हूँ। मेरी उचित जगह कहाँ है, इन श्रमणों के पास में या उनके पीछे बैठे आम लोगों की पंक्तियों में? 

मिनट दर मिनट बीतते गए। 

मुझे अहसास हुआ कि मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा कि मेरी जगह कहाँ है? इस अंतर्द्वंद्व से मेरी मुक्ति कहाँ? 

मैंने विनयपिटक की प्रतिज्ञाओं को अपने जीवन के साथ आत्मसात किया है, मुझे इस नियम के बारे में जानकारी है कि एक बार जब कोई भिक्षुणी विहार छोड़ देती है या उसे निष्कासित कर दिया जाता है, तो भिक्षुणी के लिए वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं होता है। हालाँकि, मैं भिक्षुणी की उस वेश में बौद्ध दर्शन और शिक्षा के केंद्र में खड़ी हूँ। क्या मैंने उन गुरु महामहिम आंदेवाला देवश्री की शिक्षाओं का अनादर कर रही हूँ? उनके द्वारा दिये गये भिक्षुणी के वस्त्र तथा भिक्षापात्र का असम्मान कर रही हूँ? बुद्ध को अस्वीकार कर रही हूँ। 

 

मेरे भीतर के ध्यानस्थ भाव और मन की शान्ति डगमगा गई। उस परिस्थिति में मुझमें ज़्यादा देर तक खड़े रहने का धैर्य नहीं था। मैं एक-एक क़दम रखते हुए आगे बढ़ती गई-एक बेचैन, अवसादग्रस्त मन और मस्तिष्क के आश्रय की तलाश में। शायद इस वजह से मैं, उधर खड़े छोटे बच्चे की ओर आकर्षित हुई। मैंने देखा, पाँच या छह साल का एक छोटा बच्चा। जिसका सिर गंजा था। श्रमणों के गेरुए कपड़े पहने हुए, लोगों के बैठने के लिए बने ऊँचे स्थान को पारकर चुपचाप खड़ा था। उसके कोमल मुख की दोनों आँखों में निष्पाप दिशाहीन दृष्टि। 

आह—मेरा दिल भर आया। ममता की आनंद धारा में डूबकर तैरने लगी हूँ। इच्छा हो रही है, बच्चे को गोदी में उठा लूँ। इसी इच्छा भावना से जुड़कर याद आने लगती है ज्ञानरंजन की। 

कोह की तरह मन में कुछ हलचल हो रही है। शान्ति को धक्का दे रही है। प्रकंपित अशान्ति के भीतर रूपांतरित हो रहा है एक परिपूर्ण प्रश्न—ज्ञानरंजन तुम कहाँ हो? 

कहाँ हो तुम ज्ञानरंजन? 

मैंने बच्चे की तरफ़ से अपनी आँखें दूसरी फेरकर ध्यान हटाया। मैं ख़ुद को ज्ञानरंजन की यादों से दूर हटाकर खड़ा होना चाहती थी। मैंने भूमि पर ध्यान केंद्रित किया। भूमि-स्पर्श पर। सचेतन और सयत्न ध्यानस्थ मुद्रा में एक-एक क़दम आगे की ओर बढ़ी। उत्सव के परिसर से आगे बढ़ते हुए, मैं संगमरमर वाले मंदिर की ओर जा रही हूँ। हर तरफ़ फूलों और हरियाली से भरा उपवन। उपवन के किनारे पर एक लोहे के खम्भे पर लटकी हुई एक विशाल लोहे की घंटी मेरा ध्यान खींचती है। जिसके लोहे के वक्ष पर फटी हुई लोहे की घंटी की दरार साफ़ दिखाई देती है। तिब्बती बुद्ध-बिहार में, अति प्राचीन परिसर के अंदर, यह घण्टी कभी शृंखला और साधना के शब्दों को प्रतिध्वनित करती रही होगी। उसी आवाज़ से हज़ारों शिक्षार्थी अपनी दिनचर्या की शुरूआत करते रहे होंगे। जबकि अब यह घंटी केवल एक दर्शनीय इतिहास मात्र है। 

 

मैंने सोचा, भिक्षुणी विहार की लोहे की घंटी की तरह, ‘मैं’ किसी अपरिहार्य कारण से फट गई हूँ और झूल रही हूँ लक्ष्यहीन रूप से। फिर भी . . . 

फिर भी मैं स्वर्ण मंदिर की मोजाइक सीढ़ियों पर चढ़ गई। 

हालाँकि, बौद्ध गुरु के अधिष्ठान में प्रवेश के लिए मैं एक-एक सीढ़ी चढ़ती गई। मैं अंदर गई और पद्मसम्भव बुद्ध की विशाल स्वर्ण प्रतिमा के सामने बैठ गई। 

विशाल स्वर्ण मंदिर की दीवारों और छतों पर बने हुए रंगीन चित्रों में उकेरे हुए थे खिलते अजस्र कमल और बुद्ध के जीवन की अनगिनत कहानियाँ। उनके जीवन की घटनावलियाँ, उनके चित्र, रंग, कला-कौशल, शिल्पी की निष्ठा और चित्रकार की निर्विघ्न तूलिका साधना मेरे लिए किसी आकर्षक से कम नहीं थी। मेरा ध्यान कहीं और नहीं जा रहा था। आँखें बंद कर प्रार्थना में डूबने से पहले मैंने देखा, क़तार में सजाकर रखे हुए थे वर्गाकार रंगीन ग़लीचे, लकड़ी की डेस्क के सामने। धूप, मोमबत्ती के धात्विक स्टैंड, कितनी सारी पूजा सामग्री और शिक्षा उपकरणों को निरासक्त दृष्टि से मैं देख रही थी और उसके बाद मैंने अपने ध्यान, मन और ज्ञान को एकाग्रकर तीन विशाल प्रतिमाओं की ओर देखा– पद्मसम्भव बुद्ध, अमिताभ और बौद्ध गुरु की। 

मैं नीरव बैठी हुई थी मेरी वेदना, तन्हाई और संसार को लेकर। मैं देख रही थी मेरी स्मृतियों को। अनुभव करने लगी, जागृत अवस्था में भी मैं अपने भीतर झाँक रही थी, खोज रही थी, खोजती जा रही थी, निरासक्त भाव में केवल देखते हुए कि मेरे मन में क्या-क्या घट रहा है। मैं चक्रासन में बैठी हुई थी ध्यानस्थ, धीर, स्थिर और अवचलित। मेरी आँखें मुँदी हुई थीं। 

“संघ मुझे ग्रहण करेगा या नहीं?” 

जैसे यह प्रश्न उठा, मेरे भीतर की निबड़ता को झकझोर दिया। 

इस विशृंखलता से फिर से निमग्नता के भीतर चली गई। ध्यान में मन को जगाते हुए भीतर निरीक्षण कर रही हूँ। कितना समय लगेगा, मालूम नहीं। लेकिन मैं फिर लौट आई पद्म सम्भव के सानिध्य की तरफ़। मैं ध्यानस्थ, नीरव, निष्पाप और आत्मस्थ। लेकिन अचानक देखा कि मेरे भीतर तैरने लगे, शिशु शिक्षार्थी का कोमल निष्पाप चेहरा, निरुद्देश्य दृष्टि और उसकी जीवंत चक्षु युगल स्थिरता। 

 

फिर ज्ञानरंजन, फिर कुशलनगर के ‘हॉलीडे होम’ का कमरा, फिर लद्दाख, लेह, युद्ध और उसके बाद इधर-उधर की भावनाएँ। चित्र-विचित्र दुर्बोध भावनाओं के मेले के भीतर एक भावना सशरीर घनीभूत होने लगी, सीमांत पर युद्ध बंद की घोषणा होने की। लौट रहा है ज्ञानरंजन सफलता के विजय उल्लास के साथ। मैं कावेरी के बोर्ड पर अंकित नारी की तरह सिल्क साड़ी पहनकर केशों में फूलों का गजरा लगाए इंतज़ार कर रही हूँ ज्ञानरंजन का। 

 

“गुड मॉर्निंग!” रुद्ध भारी स्वर में उच्चारित शब्द से चौंक गई और मैंने आँखें खोली। जो स्वर मेरे भीतर आ रहा है बाहर कहीं था उसका स्रोत। 

सामने बौद्ध गुरु की विशाल स्वर्ण प्रतिमा और पूजा, साधना शिक्षा के लिए रखी हुए आवश्यक सामग्री। ये सब देखने की तीव्र अनिच्छा ने मेरा मुँह फेर लिया, दूसरी दिशा की तरफ़। जिस दिशा में बैठा हुआ था एक शिशु शिक्षार्थी, केशविहीन सिर और चौड़े ललाट के नीचे उसकी क्लान्त आँखें मेरी तरफ़ देख रही हैं। ये आँखें किसकी हैं? 

ये क्लांत आँखें राजमहल की सीढ़ियों पर बैठे बालक ज्ञानरंजन की हैं। मेरे मुँह के प्रश्न ने बालक को उत्तर देने के लिए विवश कर दिया, बहुत समय से मेरे ध्यान में बैठने के कारण वह ख़बर वह मुझे नहीं दे पाया। स्वर्ण मंदिर गेट के पास मेरे लिए कोई प्रतीक्षा कर रहा है। 

मैंने बाहर आकर देखा, रास्ते में सब जगह स्ट्रीट बल्ब जल गए थे। गाड़ी लिए होलीडे होम का तरुण कर्मचारी राजू मेरा इंतज़ार कर रहा था। उसका चेहरा थका हुआ लग रहा था। और वह कहने लगा, “हम यहाँ पाँच-छह घंटे से आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। स्वर्ण मंदिर का गेट बंद होने के कारण हमें नियमानुसार बाहर आना पड़ा। हमने एक बच्चे को भेजा, कब से, आपको बुलाने के लिए। मगर वह भी वहीं रुक गया।”

राजू के अधीर स्वर में क्लांति और विरक्ति के भाव साफ़ झलक रहे थे। गाड़ी के भीतर से बाहर आया, आर्मी पोशाक पहने हुए एक जवान। उसने मुझे सेल्यूट किया। उसके गाड़ी के बंद होने की आवाज़ में मिल जा रही थी स्वर्ण मंदिर के छोटे गेट पर ताला लगाने की आवाज़। बड़ा गेट बहुत पहले से ही बंद हो गया था। यह छोटा गेट शायद मेरे जाने के लिए ही खुला रह गया था। 

 

जवान ने मेरी तरफ़ लिफ़ाफ़ा बढ़ाते हुए कहा—भारतीय सेना के स्वतंत्र दूत के रूप में वह जो संवाद देने आया है, वह इस लिफ़ाफ़े के भीतर चिट्ठी में लिखा हुआ है। फिर भी उसने संवाद पढ़ कर सुनाया—

युद्ध में शत्रु पक्ष के आठ अत्याधुनिक टैंक ध्वस्त करने के बाद पाँच शत्रु शिविरों को उखाड़ फेंकते हुए आगे बढ़ाने के दौरान कमांडर ज्ञानरंजन को शत्रु पक्ष की गोली लगने के कारण वह शहीद हो गए। उनके शहीद होना। मरणोत्तर . . . शहीद . . . वीर चक्र . . . मरणोत्तर। उपाधि . . . सरकार ज्ञानरंजन . . . शहीद। 

दो शब्द एक कठिन पहाड़ की तरह मेरे सामने खड़े हो गए। कुछ सुनाई नहीं दे रहा है। हाथ में लिफ़ाफ़ा पकड़ा हुआ था। मैं सीधे जवान के चेहरे की तरफ़ देखने लगी। वह क्या कह रहा है, समझने के लिए मैं देख रही थी। 

यह ख़बर भुवनेश्वर भेज दी गई है। काफ़ी विलंब हो गया है। गाड़ी से उन्हें बस स्टैंड छोड़ देने से, वह लौट जाएगा आर्मी हेडक्वार्टर। मैंने कुछ कहा या नहीं, मुझे मालूम नहीं। 

मैंने देखा कि राजू ने जवान को लेकर गाड़ी स्टार्ट की। वे दोनों चले गए। 

मेरे पीछे के तरफ़ स्वर्ण मंदिर का बंद दरवाज़ा। मेरे सामने जा रही थी गाड़ी। 

रात के रास्ते के ऊपर खड़ी हूँ मैं। लेकिन मुझे चलना होगा यह सत्य है। कभी मुझे बौद्ध-दर्शन पढ़ाकर, विनयपिटक की प्रतिज्ञा दिलाकर, भिक्षा-पात्र और भिक्षुणी का वेश पहनाकर, मुझे संघ रंगम् के ऊपर भेजा गया था, अभिनय के लिए। 

और आज? इस पल में? आज मैं वास्तविक जीवन की भिक्षुणी हूँ। मेरे हाथों में है मेरे जीवन की अवशिष्ट आयु का भिक्षापात्र। मेरे शरीर पर ओढ़ा हुआ है समाज-असमाज के सौ जगह से फटा हुआ वस्त्र। मेरी प्रार्थना में वही एकमात्र निरासक्त उच्चारण, “भिक्षां देहि”! 

मुझे मालूम नहीं, क्या मिलेगा भिक्षा में, दुख, सुख या निस्पृह स्थितप्रज्ञता? मुझे मालूम नहीं, कौनसी भिक्षा मुझे चलने देगी, जीवन, मृत्यु या निर्वाण? 

आख़िर मुझे चलना होगा। 

<< पीछे : सप्तम भाग समाप्त

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में