भिक्षुणी (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
प्रथम भाग
“जीवन की सारी कहानियाँ एक जैसी होती हैं,” ज्ञानरंजन ने हँसते हुए तेज़ आवाज़ में कहा। उसकी हँसी में एक आकर्षण शक्ति थी। अपना हँसना बंद कर फिर से कहने लगा, “नहीं तो, घटना और समय की बार-बार पुनरावृत्ति क्यों होती है?”
मैंने नहीं समझने जैसी आँखों से उसकी ओर देखा।
वह कहने लगा, “सुबह के बाद दोपहर आती है और दोपहर के बाद शाम। है न?”
“हाँ ,” मेरा छोटा-सा उत्तर सुनाई दिया।
“गर्मी के बाद वर्षा, वर्षा के बाद शीत, फिर बसंत और फिर गर्मी आती है। है ना?”
“हाँ।”
“ठीक उसी तरह जीवन के भीतर झाँकने से प्रतीत होता है कि एक जैसी घटनाओं की एक निर्दिष्ट समय अंतराल के बाद पुनरावृत्ति होती रहती है।” कहते हुए उसने मेरी हथेली को अपने मुट्ठी में इतना ज़ोर से भींचा, मानो मेरी हथेली टूट जाएगी। यद्यपि मैंने कुछ भी नहीं कहा, मगर मेरे चेहरे पर यंत्रणा के भाव साफ़ झलक रहे थे। वह मेरे चेहरे की ओर देखने लगा और मेरी उँगलियों को सहलाते हुए अपने सीने से चिपका लिया। उसके हृदय की धड़कन मेरे स्नायु-तंत्र से होती हुई मस्तिष्क तक पहुँच गई और सारे शरीर पर खेलने लगी।
आज से बहुत पुरानी घटना है।
ज्ञानरंजन और मैं पति-पत्नी नहीं है। प्रेमी-प्रेमिका भी नहीं है। एक-दूसरे के लिए कुछ भी नहीं है। यहाँ तक कि दोनों दोस्त भी नहीं है। प्रबल बाढ़ में बह जाने दो प्राणी हो सकते हैं, जिन्होंने किसी पेड़ की एक शाखा को पकड़कर सहारा लिया हो, हो सकता है कि एक साँप हो और दूसरा कोई मनुष्य। हो सकता है, एक उड़ती चिड़िया और दूसरा छाया देने वाला बादल भी हो। सालों-साल अकेले रहते-रहते मैं डिप्रेशन का शिकार हो गई थी, जिसे आप अवसाद कह सकते हैं।
ज्ञानरंजन का गतानुगतिक जीवन था। कई सालों से ऐसा नीरस जीवन के कारण शायद बोर हो गया होगा। जीवन को जीवन की तरह जीने का तरीक़ा खोज रहा होगा। हमारी मुलाक़ात, सम्बन्ध, सहृदयता, संपर्क में दोनों की ख़ुशी के लिए अपने आपको न्योछावर का देने का भाव होता तो उसे ‘सामाजिक समस्या’, ‘धर्म उल्लंघन’, ‘व्यवस्था के विरोध में विद्रोह’ या ‘पाप’ कुछ भी कहा जा सकता है, किन्तु हम दोनों के बीच ऐसा कुछ भी नहीं था। आज मुझे अच्छी तरह याद नहीं है कि वह समय क्या रहा होगा? हो सकता है मेरी पहले वृत्ति का समय था या और कुछ, जिस मय मेरे चारों ओर बहुत सारे लोग पूछा करते थे, “जीवन ऐसे क्यों?”
किसी-किसी के कोह-कंपित स्वर में अपर्याप्त पीड़ा झलकती थी। कोई-कोई उत्तर देता था, “यह सब तुम्हारे पूर्व जन्मों का फल है।”
ऐसे बहुत सारे लोग थे, जिन्होंने सुख को ढक कर रखा था जैसे कि पके बेरों की बोरी को प्लास्टिक की जरी से ढककर रखा हो। क्या होगा उससे?
गर्मी से टोकरी के अंदर के बेर सड़ नहीं जाएँगे? इस तरह सारे सुख नष्ट हो जा रहे थे। एक-दो लोग ऐसे भी थे, जो ‘सुख’ से डरते थे। चारों तरफ़ बिछे हुए सुखों के उपादानों की इच्छा किए बग़ैर वे आँखें बंद कर जाप करते थे, “सुख कहाँ? सुख कहाँ?।” सबसे विचित्र बात थी, जिससे वास्तव में सुख नहीं मिलते थे, उन्हीं को आधार बनाकर जीवन यापन कर देते थे कुछ लोग।
ज्ञानरंजन कहने लगा, “तुम्हारे पास रहने से जैसा सुख मुझे मिलता हैं, वैसा सुख और कहीं नहीं मिलता है।”
मैंने उत्तर दिया, “यह स्वाभाविक है। कभी मैं दुखी मनुष्य के लिए सुख का ठिकाना खोज रही थी और उन्हें लेकर सही जगह पहुँचा दिया करती थी। उन जगहों का प्रभाव मेरे मन-मस्तिष्क पर हो सकता है। नहीं तो, और किसी प्राकृतिक नियम से सम्भव हो सकता है।”
ज्ञानरंजन मेरे चेहरे की तरफ़ देखने लगा, प्रश्न करने वाले या उत्तर सुनने वाले की तरह। मैं समझाने लगी, “जो कोई कोढ़ या चेचक रोगी के पास रहकर उसकी सेवा करता है, उसके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।”
इस उत्तर से या मेरे उत्तर देने के ढंग से ज्ञानरंजन इतना ख़ुश हो गया कि उसकी आँखों, कान, होंठ, दाँत हाथ-पैर-यहाँ तक कि सारे शरीर में मुझे लाड़-प्यार नज़र आने लगा। मैंने कहा, “अपने ऊपर के नियंत्रण को खोने से शायद सर्वाधिक ख़ुशी मिलती है, क्योंकि उस समय हम केवल एक ही प्रकृति में होते है—निरावरण प्रकृति। प्रकृति से पैदा होने वाले हम जिस कृत्रिम खोल में रात-दिन जीते हैं, उस समय हमारे ऊपर से वही खोल खिसक कर गिर जाता है। हम पूरी तरह से प्रकृति के भीतर लीन हो जाते हैं।”
ज्ञानरंजन कहने लगा, “दिमाग़ का इतना ज़्यादा उपयोग करने से क्या हम पूरी तरह प्राकृतिक हो सकते हैं? उस दिमाग़ के प्रयोग से तुम ख़ुश कैसे हो पाओगी? सुख कहाँ से मिलेगा?”
मैंने कहा, “तुम मेरे दिमाग़ के प्रयोग को देखकर विस्मित हो रहे हो, मेरे मुख से निकले उत्तर सुनकर ख़ुश हो रहे हो, प्रशंसा कर रहे हो, इसका मतलब ही . . .”
मैंने अपना वाक्य पूरा नहीं किया। मुझे लगा कि ज्ञानरंजन के भीतर अपना सामाजिक अहंकार जाग गया है। मेरा सिर उसके लिए एक बड़ा आह्वान हो गया था, इसलिए भीतर-भीतर उसे ग़ुस्सा आ रहा था। उसके क्रोध का कारण समझने पर मैं बच्ची जैसी हो गई और उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया, जैसे कि वह मेरे ज़िद्दी क्रंदन को देखकर मुझे गले लगा लेगा।
यह सारे कथोपकथन समझने, न समझने, अहंकार और ज़िद्दी, एक आवरण के भीतर चल रहे थे। बाहर पूरी तरह अलग।
ज्ञानरंजन था भारतीय सेना का एक कमांडर। मैं बुद्धविहार की एक भिक्षुणी। जैसे युद्ध और शान्ति आमने-सामने खड़े होकर एक-दूसरे को देख रहे हो एक तरफ़ जैसे बंदूक, गोला, बारूद, टैंक, युद्ध विमान, बम वर्षक उपकरण जैसी मनुष्य को मारने वाली अजस्र मशीनें प्रतिपल सजग होकर शत्रु-सेना पर आक्रमण के लिए तैयार हो और ठीक वे सब बुद्ध विहार के धर्मचक्र की ओर देख रहे हो। और दूसरी तरफ़ बुद्ध की विशाल प्रतिमा से फैल रही हो करुणा, पवन में संचरित हो रही हो शान्ति, अहिंसा, अपरिग्रह, ठीक उसी सीमांत अंचल में हमारा आमना-सामना होता है।
वह अंचल है लद्दाख। इस अंचल में जहाँ भारत-पाकिस्तान की सीमा है, वहीं भारत और चीन की भी सीमा है। भारतीय साहित्य-संस्कृति इस सीमा को पार करते हुए चीन में पहुँची थी। और चीन से सारे एशिया में और फिर एशिया से सारे विश्व में, अभी भी वही सीमा है। विश्व में सीमा जैसी कोई चीज़ है? प्रत्येक सीमा को तो मनुष्य बनाता है और उसे असीम होने पर्यंत देखता रहता है कि सारी सीमाओं में असीम व्याप्ति की प्रचोदना है। फिर भी मनुष्य सीमाओं को कसकर पकड़े रहता है। सच में, वह सीमा नहीं रहने से कोई चिंता नहीं। चिंता नहीं करने से मनुष्य कैसा?
‘आई थिंक दियरफ़ोर आई एक्जिस्ट’
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