भिक्षुणी (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
सप्तम भाग
उस दिन मैं साड़ी के शोरूम कावेरी के रंगीन बोर्ड की तरफ़ देखते हुए बालकनी में खड़ी हुई थी तो राजू ने पूछा, “आप इस शोरूम से साड़ी खरीदेंगे, मैडम? दाम थोड़ा ज़्यादा है तो क्या हुआ? अच्छा सामान मिलता है। थोक में सामान यहाँ आता हैं।”
मेरे भीतर कुंठा अस्वस्ति पैदा कर रही थी। अपने मन की बात को छुपाते हुए पूछने लगी, “पास में और क्या-क्या है? कौन-कौन सी जगह है, जहाँ घूमने जाया जा सकता है?”
“इससे थोड़ी दूर है गोल्डन टेंपल।”
“गोल्डन टेंपल?”
“हाँ! बुद्ध की तीन सोने की मूर्तियाँ यहाँ रखी हुई हैं। बहुत बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ है। मंदिर की दीवारों पर रंगीन चित्र भी हैं। हर दिन लोग यहाँ आते हैं। इतनी बड़ी बुद्ध की मूर्ति और कहीं देखने को नहीं मिलेगी, मैडम?”
स्वतःस्फूर्त भाव से मेरे भीतर पैदा हो गया एक प्रश्न, “किसी को बुला सकते हो, जो मेरे केश काट देगा।”
एक दुर्बोध निगाहों से मेरी तरफ़ देखने लगा राजू। शायद बाद में वह मन-ही-मन समझ गया, जहाँ-तहाँ बड़े केशों को सजाने के लिए किसी आदमी की ज़रूरत है।
वह कहने लगा, “हाँ, ठीक है। तुरंत बुला लेता हूँ। थोड़ी दूर पर थोड़ी दूर सैलून है।”
जो आदमी अपने छोटे से बॉक्स में बाल काटने की कैंची, उस्तरा आदि सामान रखकर केश साइज़ करने आया था। उससे मैंने कहा, “मुझे पूरी तरह गंजा कर दीजिए।”
पल-दो पल इधर-उधर देखकर वह सोचने लगा। उसके बाद उसने मुझे कुर्सी पर बैठाकर उस्तरे से मेरा सिर पूरी तरह गंजा कर दिया और सारे बालों को अख़बार में समेट कर सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे चला गया। उसके जाने के बाद मैंने देखा कि मेरा फोन रिंग कर रहा था।
मैंने फोन पकड़ा तो उधर से ज्ञानरंजन की आवाज़ थी, “कैसी हो सोनम? बहुत दिन बीत गए, तुम्हें देखे हुए। अच्छी तरह खाना-पीना करना। अपना ध्यान रखना। कुशलनगर से बहुत-से फल-काजू और मसाले मिलते हैं। राजू को कह दिया है कि तुम्हें हर दिन फल खिलाए और फलों का रस पिलाए। हर दिन फलों का रस पीना, सोनम। तुम्हारे गाल फलों की तरफ़ फूले हुए होने चाहिए। मेरे लौट आने के बाद उनका सद्व्यवहार होगा।”
और यह कहते हुए वह फोन पर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
समुद्री लहरों की तरह मेरे भीतर कोह उमड़ने लगा। याद आने लगी लद्दाख में ज्ञानरंजन के साथ गुज़ारी, उस अंतिम सुबह की स्मृतियाँ। इससे पूर्व रात उसने मेरे बिछौने के पास बैठकर मेरे हाथ को खींचा था, अपने सख़्त हाथों से और अपने शारीरिक भूख को मिटाने की अनुमति माँगी थी। संकुचित होकर मैं अपने भीतर घुस गई थी तो वह लौट गया था। उसके दूसरे दिन संपूर्ण आर्मी की पोशाक पहनकर मेरे बिस्तर के पास खड़े होकर जिस समय उसने ‘गुड मॉर्निंग’ कहा तो मैं चौंक गई। उसका गला भर गया था।
रुद्ध गले से भारी स्वर में उसने कहा, “मैं लौटकर आऊँगा। फिर आने पर इन सबका सदुपयोग होगा।” उसने मेरे गालों को थोड़ा छूकर हँसते-हँसते रूम के भीतर से बाहर चला गया।
उस सुबह की स्मृतियों को पोंछने की तरह मैंने अपने आँसुओं को पोंछा और खड़ी होकर दूर की तरफ़ देखा तो मेरी आँखों के सामने नज़र आया—कावेरी शोरूम का बड़ा विज्ञापन—जिसमें मैसूर सिल्क की साड़ी पहने हुए एक सुंदर महिला के अपने लंबे बालों में फूलों का गजरा लगाया हुआ था। मेरे भीतर होने लगा असह्य कम्पन।
बुख़ार से पीड़ित मनुष्य के प्रकंपमान वाचाल अवस्था से अपने को मुक्ति दिलाना ज़रूरी है, मैंने सोचा। बौद्ध दर्शन के तत्वों की पंक्ति-पंक्ति मैं गुनगुनाती जा रही थी। मनुष्य की प्रत्येक भावना, अभिव्यक्ति और कर्म उसके हस्ताक्षर होते हैं। इससे उसको मुक्ति नहीं मिलती हैं। जब हम अपने भीतर लौट आते हैं, हम जानते हैं कि हमारे भीतर क्या-क्या घट रहा है। उस समय हम समझ जाते है कि हमारे भीतर अपने को गढ़ने की शक्ति होती है। अपनी क्रमानुवृति को आकृति देने की शक्ति हमारे भीतर होती है।
जबकि दुख के साथ मनुष्य का जीवन जुड़ा हुआ है। अज्ञानता के दुख की तरफ़ बारह क़दम यात्रा के बाद दुख के निदान के लिए वे ही बारह क़दम। अविद्या-संसार-विज्ञाननामरुप-षड्यातना-स्पर्श-वेदना-तन्मात्रा-उपादान-भव-जाति जरा+व्याधि+स्मरण+शोक की तरह देव। उस बारह शृंखला को खोल-खोलकर फेंकना ही दुख का निदान है। दुख से मुक्ति। रूप, वेदना, संज्ञा, आसक्ति-इन सभी अनित्यताओं पर इतना ज्ञान-आहरण कर वास्तव मैं दुख भोग रही हूँ। क्यों भोग रही हूँ? उस दिन माता-पिता के आथित्य में मेरे भीतर शील-समाधि-प्रज्ञा क्या दोहल उठी थी? इस शरीर को बलात्कार होने के बाद, संघ से परिष्कृत होने के बाद मेरी शील-समाधि-प्रज्ञा विचलित हो गई थी? विनयपिटक की सैकड़ों प्रतिज्ञा लेने और हज़ारों बार परम कारुणिक बुद्ध के निकट अपनी मुक्ति के लिए दोष स्वीकार करने के बाद सीधे आसक्ति का हलाहल किस गली से मेरे अंदर प्रवेश कर गया, जहाँ से उठकर बार-बार मेरे मन को परिसर को प्रकंपित कर रहा था।
“तृष्णा, फिर भी बनी है?”
“नहीं।”
“तृष्णा, फिर भी बनी है?”
“नहीं।”
“तृष्णा, फिर भी बनी है?”
“नहीं।”
अब तक बालकनी में खड़ी थी, जहाँ से ऊपर की ओर दिखता है सुपारी के जंगल, फिर कावेरी शोरूम का बड़ा बोर्ड, जहाँ से स्पष्ट स्वर सुनाई दे रहे हैं गोद में शिशु को लेकर पहाड़ पर चढ़ने वाले बच्चे के पैरों की आवाज़ या राजू के प्रश्न, उस बालकनी से हटकर में कमरे के भीतर आ गई।
मैं मन-ही-मन विनयपिटक की प्रतिज्ञा का उच्चारण करने लगी। अपने दोष स्वीकार कर मुक्त होना चाहती थी। मैं उच्चारण करती चली गई—
मैं हत्या से दूर रहूँगी।
मैं चोरी नहीं करूँगी।
मैं झूठ नहीं बोलूँगी।
मैं व्यभिचार नहीं करूँगी।
मैं नशीले द्रव्यों का सेवन नहीं करूँगी।
रात में सोते हुए केवल युद्ध क्षेत्र के सपने देखने लगी और उठने पर सुपारी के जंगलों में रह-रहकर सुनाई दे रही थी, अकेली पक्षी की पुकार।
दूसरे दिन स्नान करते समय मैंने अनुभव किया, मेरे लुंठित सिर पर बहती शीतल जलधारा को। स्नान के बाद बैग खोलकर दो-चार भारतीय पोशाकों के नीचे रखी भिक्षुणी का चीवर बाहर निकाला। पहन ली—गेरुए रंग की पूरी हाथों और शरीर को ढकने वाली पोशाक और उसके ऊपर डाल दिया कमला रंग का दीर्घ उत्तरीय। मैंने अपने आपको दर्पण में नहीं देखा। अपने आप पर संदेह भी नहीं किया, प्रश्न भी नहीं कर रही थी कि मैं भिक्षुणी हूँ या नहीं। कमरे से बाहर आकर सीढ़ियाँ उतरने लगी। भूमि-स्पर्श करते ही मन के भीतर उच्चारण करने लगी, “बुद्ध के क़दमों पर चलूँगी।”
भूमि को स्पर्श करती हूँ, भूमि से आरोग्य प्राप्त करती हूँ
मैं आरोग्य प्राप्त करती हूँ
समग्र मनुष्य जाति आरोग्य करती हूँ
सोचा और मन-ही-मन कहने लगी—
मन हज़ारों दिशाओं में भटक सकता है
लेकिन इस सुंदर पथ पर मैं शान्ति से चलती हूँ
हर क़दम पर धीमी पवन बह रही है
क़दम-क़दम पर खिले हैं फूल
इस सुंदर पथ रास्ते पर मैं शान्ति से चलती हूँ
यह भूमि–भूमि पर मेरा हर क़दम-भूमि पर मेरा सचेतन स्पर्श—मुझे मेरे घर ले जाता है—मैं मुक्त हूँ। मैं मुक्त हूँ।
मैं धरती छूकर अपने पूर्वजों को प्रणाम कर रही हूँ।
मैं अपने आध्यात्मिक समाज के सभी पूर्वजों को प्रणाम करती हूँ, भूमि को स्पर्श करते हुए।
मैं इस धरती को नमन करती हूँ
मैं अपनी ऊर्जा उन लोगों तक पहुँचा रही हूँ, जिन्हें मैं प्यार करती हूँ।
मैं उन लोगों को भी प्रणाम करती हूँ और भूमि स्पर्श करती हूँ, जिन्होंने मुझे पीड़ा दी है।
मैं भूमि से जुड़ रही हूँ—पूरी दुनिया से जुड़ रही हूँ।
मैं मुक्त हो रही हूँ।
मैं अपने सीमित शरीर और सीमित जीवन काल की इस धारणा से मुक्त हो गई हूँ।
मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ।
सम्पूर्ण ध्यान से उस पथ पर क़दम-क़दम नापकर रखते हुए, मैं धीरे-धीरे शान्ति से चलती हुई स्वर्ण मंदिर तक पहुँच गई।
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