भिक्षुणी

भिक्षुणी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

षष्ठम भाग

 

मैं जीव हत्या से बचूँगी। 

मैं चोरी करने से बचूँगी। 

मैं झूठ बोलने से बचूँगी। 

मैं यौन आचरण से परहेज़ करूँगी। 

मैं नशीले द्रव्यों के सेवन से परहेज़ करूँगी। 

सभी मोक्षार्थी उच्चारण कर रहे हैं। पंचशील की शपथ। उपासकों के स्वर-निष्ठा, साधना और शपथ के शब्द गूँज रहे हैं। हवा कंपित हो रही है। वातावरण कंपित हो रहा है। मैं कंपित हो रही हूँ। इस कम्पन से मेरी नींद टूट रही है। समाप्त हो गया वह स्वप्न और स्वप्न की उस शपथ के वे उच्चारण। स्वप्न से बाहर आते ही खुली खिड़की से मैं देखती हूँ, बाहर केवल ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के जंगल–हरे-हरे-गगनचुंबी-दिग्वलयहीन जंगल। सुपारी के जंगल से थोड़ी दूर दाहिनी ओर पाँच छोटी-छोटी झोपड़ियाँ हैं। एक झोपड़ी की टाइल वाली छत पर हल्के भूरे मिश्रित सफ़ेद रंग वाली बिल्ली सो रही है। कभी-कभी उसके कान हिलते हैं। झोपड़ियों की क़तार के बग़ल में नारियल के पेड़ों की क़तार सिर उठाए खड़ी है। नारियल की शाखा पर बैठी है चूल वाली चिड़िया। इधर उधर हिल रही है। 

इतने सारे दृश्य देखने के बाद मुझे अहसास हुआ कि यह ज्ञानरंजन का हॉलिडे रिज़ॉर्ट है। तीन मंज़िली इमारत के एक कमरे में बैठी हूँ। एक दिन कभी यहाँ ज्ञानरंजन रहता था। अब वह सीमा पर है, युद्ध के मैदान में। और मैं उसके ख़ाली कमरे में। 

यहाँ ज्ञानरंजन नहीं है, कमरा ख़ाली है और मैं? 

यह एक कुशल नगर है, इस कुशल नगर में सभी लोग, सभी पशु पक्षी, सभी प्राणी क्या कुशल रहते हैं? इस स्थान का नाम कुशलनगर क्यों रखा है? 

“How are you?” 

“कैसी हो, सोनम?” इतनी जल्दी, सुबह ज्ञानरंजन का फोन आया? पूछ रहा था, मैं कैसी हूँ? मेरा गला रुद्ध हो गया। उत्तर देने से ज्ञानरंजन को मेरा रुआँसा स्वर सुनाई देता। मैं नीरवता में कोह को ढँकने का प्रयास करने लगी। 

“जल्दी ब्रश करो। राजू ने चाय बना ली है। जल्द ही तुम्हें दरवाज़े पर दस्तक सुनाई देगी,” कहते ही ज्ञानरंजन के फ़ोन का कनेक्शन कट गया। 

चाय पीने के बाद मैं बालकनी में खड़ा हो गई। मैंने सुपारी के बग़ीचे की ठीक विपरीत दिशा में देखा। उस दिशा में, पहाड़ियों पर अलग ही हरियाली छाई हुई है—हज़ारों सिल्वर ओक के पेड़ पहाड़ियों पर नतमस्तक झुके हुए खड़े हैं—ठीक वैसे ही जैसे सोनम अपने सपनों के सामने सिर झुकाए खड़ी है, पूरी तरह नत मस्तक। 

मैं सपना देखती हूँ—उग्र, उद्धत, स्वेच्छाचारी या विनम्र सपना। समाज से निकल कर संघ में मिलने का सपना। जीवन से भागकर निर्वाण पाने का सपना। मैं स्वप्न से जागकर कुशलनगर के घर से हरी-भरी धरती को देखने लगी। पर यह क्या? और उस सपने का उत्पात शुरू हो गया? ऐसे ही एक दिन, मैंने घर छोड़ दिया, अपने माता-पिता को छोड़ दिया, अपना कैरियर और सफल जीवन को छिन्न-भिन्न करते हुए भिक्षुणी बनने के बारे में सोचा था। संघ में रहने की चाहत ने मेरे जैसी कई महिलाओं को सारनाथ के बौद्ध क्षेत्र में खड़ा कर दिया। अब सारनाथ में हमारे निशब्द पदों की आहट सुनाई देती है। मुझे याद आ रहा है भारतीय महाबोधी सोसाइटी के अध्यक्ष बिपुल सार का गंभीर और सम्मोहक भाषण। सारनाथ में हमने बौद्ध गुरु अंदेवाला देवश्री से दो साल तक प्रशिक्षण लिया। दो दीर्घ वर्षों से, श्रीलंकाई भिक्षु, बौद्ध गुरु देवश्री महोदय, हमारे जीवन, हमारे साधना, हमारी प्रतिज्ञाओं और पंचशील मार्ग पर हमारी यात्रा के क़दम-क़दम पर अपनी शुभदृष्टि से मार्गदर्शन कर रहे थे। उपासिका की प्रतिज्ञा लेकर परिव्राजक के रूप में भिक्षुणी के वस्त्र-परिधान पहनकर जीने लगी श्रमण जीवन। फिर नवदीक्षिता और अंत में पूर्ण भिक्षुणी के रूप में संघ से जुड़ना, इन चार चरणों की स्मृतियाँ मेरे भीतर और अधिक तीव्र होती जा रही है। मानो भीतर से कोई कह रहा हो कि सारनाथ वापस चला जाए। भीतर कोई मुझे व्याकुल करता है और मुझे कुरेदता है—सिर मुँड़ाए भिक्षुणी के परिधान में, संघ के अन्तरवासियों के साथ खड़ा होना चाहती हूँ। वहीं शान्ति है।

मुझे याद है, जब मैं सारनाथ में प्रशिक्षण ले रही थी, दीक्षा से लगभग तीन महीने पहले मुझे कोरिया के ओबामयूँसा के पास भेजा गया था। कोरियाई मुख्य गुरु दूँसुकू, जिस समय विनय पिटक की प्रतिज्ञा बोल रहे थे, उनके साथ हम सभी शिष्यों को प्रतिज्ञा लेनी पड़ती थी। ऐसा लगता था जैसे कि हम सचमुच सभी मानवीय विकृतियों से मुक्त हो गये हैं। हिंसा, चौर्य, झूठ और अशान्ति से मुक्त होकर हम धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे हैं। ओबामयूँसा की धरती और आकाश आलोक से, ज्ञान से और करुणा से चमक रहे हैं। साकार हो रहे हैं बुद्ध, मिल रहा है उनका आशीर्वाद। शांत और निरासक्त मन की स्थिति में उस समय मैंने बुद्ध को प्रणिपात किया। उसी श्रद्धा और उसी सम्मान से मैंने गुरु को प्रणाम किया। यह शायद मुक्ति की ओर पहला क़दम है। 

सीढ़ियों पर किसी के क़दमों की आहट सुनाई देती है। 

न मेरी साधना की सीढ़ियाँ, न यादों की सीढ़ियाँ या सपनों की सीढ़ियाँ। अब मैं सचेतन होकर सुन रही हूँ, ‘हॉलिडे होम’ की सीढ़ियों से कोई ऊपर की ओर जा रहा है। लेकिन ऊपरी मंज़िल पर पहुँचने से पहले ही बीच में उसके क़दमों की आहट बंद हो जाती है। कुछ देर बाद शायद राजू सुबह का नाश्ता लेकर आएगा, नहीं तो मुझसे पूछने आएगा कि क्या आप डाइनिंग हॉल में जाकर खाना खाएगी या नहीं? लेकिन ऐसा लग रहा था कि राजू की जगह कोई और आगे तेज़ी से क़दम बढ़ाते हुए ऊपर आ रहा हो। मैं वहीं खड़ी होकर सीढ़ियों की ओर देखती रही। ऊपर आ रहा वह लड़का आख़िरी सीढ़ी पर रुक गया और मेरी तरफ़ देखने लगा। उसकी भरी अंजुलियों को देखते हुए, मैंने पूछा, “तुमने क्या पकड़ रखा है?” 

“ कसकस बेर” लड़के ने उत्तर दिया। 

“हाँ। आओ। ऊपर आओ।”

बहुत धीरे से ऊपर आकर मेरे हाथों में थोड़े से बेर देते हुए कहने लगा, “ये पक गई है। बहुत मीठी। और दूँ?” 

“नहीं। उतनी रहने हो,” मेरा उत्तर सुनते ही वह सीढ़ियों की ओर मुड़ गया। लौट गया। मैंने जीवन में अकस्मात्‌ बहुत कुछ पाया है। लेकिन वह जीवन का सार या संपूर्ण जीवन नहीं है। वह क्या है? क्यों? कैसे? मैं यह भी नहीं जानती कि किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए वे सब-कुछ मुझे मिलती है। और अब लाल पकी हुई कसकस बेर मेरे हाथ में हैं–मीठे बेर। 

अगर मैं अब पीछे मुड़कर देखूँ तो मुझे कसकस का पेड़ और उसकी पत्तियों पर उगते एक-एक घी रंग के फूल दिखाई देंगे। मैं पीछे की ओर देखे बिना आगे की ओर देखती हूँ तो दिखाई देता है एक सुदृश्य बोर्ड पर ‘कावेरी’ लिखा हुआ। भारत सरकार द्वारा खोला गया सबसे बड़ा शोरूम। हाथ की बनी रेशम साड़ियाँ और हस्तशिल्प की बड़ी दुकान। उसके ऊपर साड़ी पहनी महिला की एक रंगीन तस्वीर। 

क्या साड़ी पहनी महिला की रंगीन तस्वीर के पीछे कोई जीवन है? शायद हो सकता है। जैसे युद्ध के पीछे जीवन है, वैसे ही मृत्यु के पीछे भी जीवन है, जिसे मैं आज तक नहीं समझ पाई, जबकि ज्ञानरंजन समझता है। वैसे ही एक साड़ी पहनी नारी . . . 

राजू ऊपर आकर पूछता है कि रात के खाने में क्या बनेगा। 

“आमिष या निरामिष?” 

“निरामिष।” जवाब देने के बाद मैंने कहा, “मेरे लिए कभी भी आमिष मत बनाना।”

“कभी भी नहीं? क्या आपने कभी आमिष नहीं खाया है? हमारे सर के आमिष के बिना कभी खाना नहीं खाते हैं।” 

इच्छा हो रही थी कि मैं ज्ञानरंजन के बारे में राजू से कुछ और पूछ लूँ। ज्ञानरंजन को क्या पसंद है, क्या पसंद नहीं है। लेकिन कुंठा से मेरा दम घुट रहा है। मैं यह प्रश्न क्यों पूछूँ? किस अधिकार से? 

यहाँ मैं बिना किसी अधिकार के रह रही हूँ, खा रही हूँ, पी रही हूँ, पूरी ज़िन्दगी गुज़ार रही हूँ। कुछ और पूछने में इतनी कुंठा क्यों? 

वास्तविक कुंठा होने से कष्ट बढ़ जाता और कभी बन जाते सपने। उस रात मैंने सपना देखा कि ज्ञानरंजन युद्ध के मैदान में लड़ रहा है। सिर पर लोहे की टोपी, शरीर पर बुलेट प्रूफ़ जैकेट और सेना के कपड़े, पैरों में मोटे जूते, हाथ में मज़बूत बंदूक और विभिन्न मारक हथियारों से लैस वह फ़ौजी पोशाक। वह बंकर के अंदर है। उसकी आँखें भयंकर हिंस्र लग रही हैं। उसकी बंदूकें गरज रही हैं और दुश्मन के टैंक जल रहे हैं। रक्तरंजित मानव शरीर निष्क्रिय हो रहा है। चारों ओर गोलियों की आवाज़, चारों ओर हथियारों का भयानक विस्फोट, सामने गोली लगी एक आदमी का शव। फिर भी ज्ञानरंजन रुक नहीं रहा है। वह अपनी सेना के साथ आगे बढ़ रहा है। विध्वंस की लीला-खेल में हिमालय की शांत मिट्टी उद्भ्रांत हो गई हैं। पहाड़ का वह शांत वक्ष, जो धारण कर सकता है सफ़ेद बर्फ़ या जीवन देने वाली नदियों को जन्म दे सकता है, जो नीले आकाश में उड़ने वाले नीले पक्षियों को मंत्रमुग्ध कर सकता है, अब वह थर्रा उठेगी हिंसा से-हथियारों की गड़गड़ाहट से-बारूद की गंध और मनुष्य की आर्त्त चीखों से। और मेरे सिर में हो रहे एक अजीब दर्द ने मेरी नींद तोड़ दी। 

और ऐसा क्यों हुआ? 

मुझे लद्दाख की वे शांत सुबहें याद हैं, जब ज्ञानरंजन की ‘गुड मॉर्निंग’ की आवाज़ से मेरी नींद खुलती थी। जैसे ही मैंने अपनी आँखें खोलीं, न केवल काँच के शीशों से होकर आती हुई नरम धूप मुझे छू रही थी, बल्कि ज्ञानरंजन की कोमल प्रेम भरी दृष्टि का आलोक भी मुझे छू रहा था और पोंछ रहे थे मेरे दुख, मेरी पीड़ा, मेरे सभी अमर्यादाजनित दर्दनाक अनुभवों को। 

मैं बिस्तर से उठी और सोचने लगी, “ज्ञानरंजन! आप आज कहाँ हो?” भगवान में विश्वास नहीं करने वाली मैं तुम्हें भगवान कहती हूँ। तुम जिस समय आ रहे हो, उसे भगवान का समय कहा जाता है। जब मैं बच्ची थी तो मैंने किसी किताब में पढ़ा था, श्रीअरबिंद और उनके भक्त भोर की इस वेला को ‘ईश्वर का समय’ कहते हैं। उस दिव्य घड़ी में, मैं बुद्ध के बारे में सोचती हूँ, मैं तुम्हारे बारे में सोचती हूँ। क्या तुम बुद्ध हो या भगवान? भगवान के अस्तित्व के बारे में बुद्ध चुप थे। मैं भी ईश्वर में विश्वास नहीं करती हूँ। लेकिन मैं तुम्हें ईश्वर के सिवाय किसी और रूप में नहीं सोच सकती . . .” 

अपनी भावनाओं में, मैंने महसूस किया कि मेरी आँखों से तेज़ आँसू बह रहे हैं और मुझे सिहरित कर रहे हैं। कुछ देर तक मैं उस अँधेरे कमरे में वैसे ही खड़ी रही। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं। प्रार्थना की। 

कल सारी रात मैंने जिस पक्षी को, सुपारी के जंगलों से बार-बार कुहूक करते हुए सुना था, अब भी उसकी पुकार सुनाई दे रही है। 

<< पीछे : पंचम भाग आगे : सप्तम भाग >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में