भिक्षुणी (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
कथारम्भ
सबसे पहले यह कहना चाहूँगी कि मेरी भाषा भिक्षुणी की भाषा नहीं है; लेकिन मेरा यह अनुभव किसी और का नहीं हो सकता। नाटक की विषय-वस्तु और भावनाओं को हृदयंगम कराके, संवाद कंठस्थ कराके, पात्र-उपयोगी वेशभूषा पहनाकर कलाकारों को मंच पर छोड़ने की तरह, एक दिन मुझे बौद्ध-दर्शन पढ़ाकर, विनयपिटक की शपथ दिलवाकर, भिक्षुणी की वेशभूषा में, भिक्षा-पात्र पकड़ाकर मुझे रंग-मंच पर भेजा गया था।
किन्तु आज मैं वास्तविक ज़िन्दगी में भिक्षुणी हूँ।
मेरे हाथ में मेरे शेष जीवन का भिक्षापात्र है।
मेरे शरीर पर समाज-असमाज का सौ जगह से फटा हुआ वस्त्र है।
मेरे आवेदन में यही एकमात्र निरासक्त शब्द है–“भिक्षां देही।”
मुझे नहीं पता कि मुझे क्या मिलेगा, दुःख या सुख या स्थितप्रज्ञता?
मैं नहीं जानती कि मैं किस भिक्षा की तलाश में हूँ, जीवन या मृत्यु या निर्वाण या कुछ और . . . और कुछ???
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