भिक्षुणी

भिक्षुणी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

पंचम भाग

 

“महारानी की नींद टूटी?” ज्ञानरंजन की आवाज़ सुनाई पड़ी। अपनी आँखें खोलकर देखा कि धूप खिड़की के शीशे से होकर मेरे चेहरे पर गिर रही है। 

फिर? 

क्या ज्ञानरंजन के स्वर से सुबह आई, या सुबह के बाद उसका स्वर सुनाई दिया? बिस्तर के पास बग़ल वाली कुर्सी पर बैठे ज्ञानरंजन मेरी ओर देख रहे हैं और कहते हैं, “आज तो कहा था कि मुझे खारदुंगला घूमने ले जायेंगे। मैं जल्दी उठकर तैयार हो गया हूँ। बेचारा तासी ठीक समय पर गाड़ी लाकर इंतज़ार कर रहा है। इधर महारानी का पहर ख़त्म नहीं हो रहा है। ठंडी सुबह में महारानी रजाई के अंदर आराम कर रही है।” 

कई दिनों से बर्फ़बारी झेल रहे लद्दाख में जैसे अचानक सूरज के दर्शन होते हैं वैसे ही मैं ज्ञानरंजन की ओर देखने लगी। उसने मेरी आँखों से आ रहे आँसुओं को अपनी उँगलियों से पोंछा और मेरे होंठों तक ओढ़ी हुई रजाई को थोड़ी नीचे खींच लिया। कहने लगे, “उठो, खारदुंगला नहीं तो, और कहीं जाएँगे? उठो, ब्रश कर लो।” 

खारदुंगला हिमालय पर है, जहाँ गाड़ी से पहुँचने वाली सबसे अधिक ऊँचाई पर स्थित सड़क है। 

हमारे साबू ओराकल जाने के दौरान बीच रास्ते में अचानक ज्ञानरंजन ने पूछा, “साबू पहुँचकर अपने देवता से क्या पूछोगी?” 

उस समय मुझे लगा कि ज़िन्दगी ने मुझे केवल नर्तकी बनाकर छोड़ दिया है। मैं नाच रही हूँ, किसी अतृप्त आत्मा का खेम्टा नृत्य। न लय है, न छंद है, न सुर है, न भाव-भंगिमा और न माधुर्य? मैं हवा में नाच रही हूँ, बिना यह जाने कि पैर रखने लायक़ मिट्टी है भी या नहीं। संघ से निकाले जाने के बाद न तो परम दयालु बुद्ध का आशीर्वाद, न ही मेरे माता-पिता का सम्मान या अनादर मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। अब मैं भविष्यद्रष्टा देवता से क्या पूछूँगी? 

ज्ञानरंजन ने फिर अपना प्रश्न दोहराया। 

मैं चुप रही। 

ज्ञानरंजन ने कहा, “तासी, इधर गाड़ी घूमा लो। पीछे ले जाओ और किसी अच्छे रेस्टोरेंट पर रोक दो। पहले अच्छे से खाना खा लेते हैं, फिर सोचेंगे।”

खाने के बाद, जैसे ही हम चुंबक पहाड़ के पास वापस आये, मुझे पुराने महल की छत पर खड़े होने की इच्छा हुई। छत पर जाने से पहले सड़क के किनारे किसी भूतिया घर की तरह दिखने वाली अजीब पत्तेदार और कँटीली झाड़ियों के पास एक पल के लिए रुकने की भी। और शायद मेरे क़दमों की आवाज़, या मेरी अंगुलियों के स्पर्श, या साँस या किसी आदमी की गंध से उसके अंदर से एक काली राक्षसी बाहर निकलेगी, जिसकी लंबी नाक, लंबे कान, लंबे पके बाल और हाथ-पैर की उँगलियों पर लंबे नाखून होंगे। 

तभी मेरी हथेली पर ज्ञानरंजन ने स्पर्श किया। उस सान्त्वना के स्पर्श से कितनी-कितनी इच्छाओं के बुलबुले उठकर फूटने लगे। ज्ञानरंजन के सीने पर यदि मेरे सिर को थोड़ा-सा आश्रय मिल जाए तो शायद मुझे सबसे अधिक शान्ति मिलेगी। 

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। होने वाला भी नहीं। लेकिन दुनिया में असहाय होकर मरने वाले जीवित प्राणियों की तरह कुछ ऐसे भी जीव हैं, जो किसी न किसी के बिना माँगे संरक्षण में जीवित रहते हैं। 

अगले दिन हम खरदुंगला गये। 

हिमालय पर 18 हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर सेना का एक कैंप। टैंक के चक्कों के तले बर्फ़ के टूटने कटकट शब्द, लोगों का शोर, ट्रैफ़िक की आवाज़ पूरे वातावरण में गूँज रही है। हम डेरे के अंदर लोगों की भीड़ में मेज़ पर बैठे हुए हैं। गरम-गरम नूडल्स और दो कप चाय सामने रखी हुई है। मैं चुपचाप बैठी अपनी नई ड्रेस के किनार को देख रही हूँ। मैंने अपने शरीर पर हल्के नारंगी रंग की पंजाबी सलवार और उसके ऊपर गहरे रंग का ओवरकोट पहना हुआ था। आज जब मैं नए कपड़े पहन कर आईने के सामने खड़ी हुई तो ख़ुद को पहचान नहीं पाई। 

मैं बहुत रोई। 

मेरे सिर पर उग आए थे छोटे-छोटे बाल और फिर मैं अपने नए परिधान में बदसूरत दिख रही थी। क्या लौट जाऊँगी भिक्षुणी के उत्तरीय के भीतर? 

लेकिन मुझे इतना मोह क्यों? संघ ने मुझे बाहर निकाल दिया है। 

टेबल पर हल्की सी आवाज़ हुई। मैं सचेतन हो गई। देखने लगी, ज्ञानरंजन मुझे झाँक रहे हैं। मैं समझती हूँ कि इन कपड़ों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा लग रहा था जैसे वह कपड़ों के अंदर मनुष्य को देख रहा हो। मनुष्य के भीतर के उस सत्ता को पहचानता हो। ज्ञानरंजन देखता है, मेरी स्मृति को स्मृति कहने का मतलब चेतन मन के भीतर क्या घट रहा है, उसे जानना, केवल उसे जानना। कोई पर्दा, कोई परिधान स्मृति को ढक नहीं सकता। और इसी धर्महीन, आस्थाहीन, साधनाहीन, प्रज्ञाहीन हिंसा के मनुष्य की ‘स्मृति’ को वह पहचानता है। वह देख रहा है उस ‘स्मृति’ को। चेतन मन को? 

राजमहल की सीढ़ियों पर बैठकर हम दोनों एक-दूसरे ऐसे देख रहे थे, जैसे थके हुए दो लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे को देख रहे हों। 

आह! 

क्या कहेगा, “चलो, छत पर चलते हैं?” 

इससे पहले कि वह कुछ कह पाता, उसका फोन बज उठा। 

फोन पर क्या बातचीत हुई, पता नहीं, वह अचानक अन्यमनस्क हो गया। 

खारदुंगला से वापस नीचे आते समय वह ख़ुद को मेरे पास वापस लाने की कोशिश करता रहा। कार की खिड़की से वह बार-बार बर्फ़ से ढकी सफ़ेद पहाड़ियों को देख रहा था, जैसे कोई उसे वहाँ से बुला रहा हो। मैं चाह कर भी उसे नहीं पूछ सकी कि उसे कौन बुला रहा है। यह एक अनधिकृत प्रश्न बन जायेगा। मैंने उन सफ़ेद पहाड़ियों की तरफ़ देखा। ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति ने उस जगह को बर्फ़ की मोटी सफ़ेद रजाई की तरह ढक दिया हो। सफ़ेद पहाड़ियों पर सफ़ेद रजाई पर किसी लड़की के इधर-उधर बिखरे लंबे बालों की तरह मानव निर्मित रास्ते आड़े-तिरछे दिखाई दे रहे है। उन सड़कों पर उठ रही, फिर नीचे गिर रही हैं गाड़ियों की क़तारें। मैंने कार की खिड़की से बाहर देखा। 

ज्ञानरंजन ने अपने हाथ से मेरी हथेली को छुआ। 

उस स्पर्श में ऐसा क्या है? अंतर्द्वंद्व? दुविधा? या कुछ और? 

उस दिन घर पहुँचने के बाद, ज्ञाननरंजन ने मेरे सामने तीन चाबियाँ रख दीं। कहने लगे, “यह लेह स्थित मेरे घर की चाबी है। यह चाबी भुवनेश्वर वाले घर की है और तीसरी चाबी कर्नाटक के कुशलनगर स्थित घर की है। आप जहाँ भी रहना चाहें चाबी ले लीजिए।”

मैंने अचानक पूछा, “कहाँ जा रहे हो?” 

यह प्रश्न स्वेच्छा से प्रकट हुआ था। लेकिन सीने के भीतर झंझावात को व्यक्त नहीं किया जा सका। मैं कहना चाहती थी, “मैं कहीं भी रहना पसंद नहीं करूँगी, ज्ञानरंजन, जहाँ आप नहीं हो। ख़ाली आपके साथ रहना चाहती हूँ।” 

मैं कह नहीं पाई। 

मैं एक भिक्षुणी हूँ। एक मुट्ठी चावल मेरी ज़िन्दगी है। मैं एक दुनिया माँग लूँगी ज्ञानरंजन से? कैसे? में वामन अवतार नहीं ले पाऊँगी। 

ज्ञानरंजन के चेहरे पर आनंद की तरंग खेल रही थी। उन्होंने कहा, “मुझे कल सुबह युद्ध के मैदान में जाना है। मुख्यालय से आदेश आ गए हैं। जासूसों ने ख़बर दी है कि पाकिस्तान भारत पर हमला करेगा। इसलिए हमें सतर्क रहना होगा।” 

मैंने सोचा, “ओह! हिंसा और युद्ध का आकर्षण तुम्हारे लिए बहुत बड़ा है?” 

उस ठंडी रात में, तुम मेरे कमरे के दरवाज़े पर खड़े थे। तुमने कहा था, “मुझे तुम्हारी बहुत भूख है, सोनम। क्या तुम मेरी भूख मिटा सकती हो?” मैं हड़बड़ा कर उठी और महसूस किया कि मेरा पूरा शरीर और मन सिकुड़ रहा है। तुम फिर से वह वाक्य दोबारा कहो, इतनी विनम्रता से, मानो मुझसे भिक्षा माँग रहे हो! 

मैं चुपचाप बैठी हूँ। मुझे नहीं पता क्या करना है। तुम कुर्सी पर बैठ गए और मेरे हाथ रजाई के भीतर से खींचकर अपने मज़बूत हाथ में पकड़ लिया। तुम्हारी आँखें, चेहरा और पूरा शरीर मानो उस एक ही गुहार से जलता हुआ प्रतीत हो रहा हो। मैं और अधिक अपने आप में सिमटती जा रही हूँ। मैं तुम्हारे चेहरे की देख रही हूँ कि तुम्हारी दोनों आँखें जल रही हैं। मुझे याद आने लगी विनयपिटक की प्रत्येक प्रतिज्ञा, जिसे मैं एक उपासिका के रूप में बार-बार दोहराती हूँ—

मैं यौन व्यवहार से दूर रहूँगी।

मैं नशीली दवाएँ लेने से परहेज़ करूँगी। 

मैं झूठ बोलने से बचूँगी। 

मैंने वर्षों से यह शपथ खाई है, जो मेरे रक्त में, मेरी जीवित कोशिकाओं में, मेरी स्मृति में, मेरी साधना में बैठ गई है। मुझे सुनाई देते है। उस शपथ के हर शब्द, हर उच्चारण। 

मैं यौन आचरण से दूर रहूँगी . . . 

तुमने मेरा हाथ छोड़ दिया। वह खड़ा हो गया। कहने लगा, “सॉरी, शुभरात्रि।” 

कमरे से बाहर जाकर, बाहर से ही मेरे कमरे का दरवाज़ा लगाकर वह चला गया। 

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