भिक्षुणी

भिक्षुणी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

तृतीय भाग

 

ज्ञानरंजन कहता है कि जीवन की सारी कहानियाँ समान होती हैं। मैं अपनी मार्मिक उपलब्धि के आधार पर जहाँ तक पहुँची हूँ, वहाँ से देखती हूँ कि प्रत्येक घटना दूसरी घटना से पूरी तरह स्वतंत्र और भिन्न है। प्रत्येक अनुभव बदलने के लिए बाध्य है। परिवर्तन ही सत्य है। भिन्नता ही सत्य है। गति ही सत्य है। जीवन का प्रतिफल दूसरे फल से भिन्न होने के लिए विवश है। एक जीवन का परिसर, निर्यास और व्याप्ति एक दूसरे से अलग है। 

कभी हम दोनों आकाश और पृथ्वी के बीच विशाल छत पर खड़े हुए थे, मगर देखिए, ज्ञानरंजन को हिंसा खींच ले गई एक दिशा में, जहाँ शृंखला, सत्ता, बंदूक, कमान और युद्ध हैं। दूसरे को नियंत्रित करने की अदम्य अभिलाषा में वह ख़ुद ही क़ाबू में आ गया। सेना के कमांडर के रूप में सीमा पर देश के शत्रु को चेतावनी देते हुए खड़ा होकर कहने लगा, “तुम्हारा जीवन और मृत्यु मेरे हाथों में है।” हिंसा और युद्ध के विशाल ऐहित्य के भीतर ज्ञानरंजन बदल गया, म्यूज़ियम की एक मोम की मूर्ति में। 

ठीक दूसरी दिशा में मुझे शान्ति पुकारने लगी। प्रज्ञा, करुणा, शील और धर्म चक्र, एक-एक कर मुझे आकर्षित करने लगे। दो हज़ार आठ सौ साल पूर्व ‘धर्म चक्र प्रवर्तन सूत्र’ रात-दिन घूम रहा था—समय में, पवन में, घटनाओं में और विवर्तनीय प्राकृतिक प्रवाह में। आकर्षित कर रहा था मेरे जैसे एक-एक अनाम प्राणियों को। जिस दिन परम कारुणिक बुद्ध ने अपने पाँच परिव्राजकों सहित साधारण जनमानस को ज्ञानवाणी सुनाई थी, वह दिन ही था ‘धर्म चक्र प्रवर्तन’ का। हज़ारों साल पहले वह ज्ञान लाभ आलोक प्राप्ति की घटना से निर्मित उस परंपरा के स्रोत में बह गए अनेक मनुष्य और उनके साथ मैं भी। आनंद या उपाली, सारीपुत्र या मुग्गुलानी, जिस रास्ते पर परिव्राजक गए, मैं भी उसे रास्ते का अनुसरण करने लगी। मेरा भी सर मुंडन करवा लिया गया। मेरा मन भी निर्माया, निरासक्त, प्रज्ञादीप्त और निश्चिंत हो गया। मेरा शरीर बौद्ध संन्यासिनी की तरह उज्जवल गेरुए वस्त्रों से ढक गया। मनुष्य को रास्ता दिखाने के लिए मैंने अपने आप को तैयार कर लिया। विश्व के सारे मनुष्य को सांत्वना देते हुए मैं कहने लगी, “जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने का उपाय निश्चित है।” 

और ठीक उस समय हमारी फिर से मुलाक़ात हो गई। पृथ्वी गोल है। रास्ते जितने भी अलग-थलग हो, मगर फिर भी कहीं-न-कहीं मिलने की सम्भावना हमेशा बनी रहती है। 

हमारी मुलाक़ात का दिन ऐसा ही था। उस दिन आकाश में नील पक्षी उड़ रहे थे। नील पक्षी उड़ने का मतलब माकंपाई, मैसेंजर पक्षी। रात-दिन कोई-न-कोई ख़बर पहुँचाने के लिए उनकी उड़ान? आधे आकाश या ज़्यादा ऊँचाई तक उड़कर फिर वे नीचे आ जाते हैं। ज़मीन पर या किसी चट्टान पर या पड़ोसी घर की टाइल्स लगी छत के किसी कोने पर बैठ जाते हैं वे पक्षी। पड़ोसी घर के ऊपर उड़ रही थी पंक्तिबद्ध रंगीन पताकाएँ। नील, श्वेत, लाल, हरी, पीली–पंच पवित्र रंगों की पताकाएँ, जिन पर लिखे हुए थे मंत्र। ऐसा माना जाता है कि जिन घरों के ऊपर मंत्र लिखित पताका हवा के झोंकों से उड़ती हैं उस घर पर बुरी आत्माओं की अशुभ दृष्टि नहीं पड़ती है। ये पताकाएँ उन्हें रोग, शोक, दुःख, दुर्दशा और दुर्घटनाओं से सुरक्षित रखती हैं। मैं देख रही थी, उन सारी पताकाओं को उड़ते हुए और मुझे सुनाई दे रहे थे पवन घंटी के टिंग-टिंग शब्द। जल प्रवाह की शक्ति के सदृश व्यवधान में अनवरत बजती जा रही थी पवन घंटी की टिंग, टिंग, टिंग, टिंग। घर आँगन में स्थापित घंटी के शब्दों के साथ ताल मिलाकर चलता जा रहा था कालचक्र, रात-दिन। ऐसा लग रहा था मानो पवन में उच्चारण हो रहा था—ॐ मणि पद्मे हूँ, ॐ मणि पद्मे हूँ, ॐ मणि पद्मे हूँ, लग रहा था धर्म चक्र के आवर्तन की तरह, बीच में हमारे मिलने की सम्भावना बार-बार बढ़ती जा रही थी। आवर्तित हो रही थी और होगी भी। 

हवा के झोंकों में बर्फ़ गिरने की शीतलता। शीशे के बंद झरोखों के भीतर से आतिथ्य की उष्म कोठरी। अष्टांग मार्ग के अनुसार सत्य जीवन प्रणाली में विश्वास रखने वाले मेरे पिताजी ने विशुद्ध आतिथ्य भाव, सम्मान और श्रद्धा से आमंत्रित किया था तुम्हें और मुझे। और मेरे माँ ने सद्गृहिणी के तौर पर श्रद्धा से बनाए थे तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन। तुम्हारे लिए बनाए थे मसाला चिकन, देसी प्याज़, हरडदाल, प्याज़ और प्याज़ फ़्राई। तीन प्रकार के व्यंजन सॉस मिश्रित सलाद और कितने पकवान। मेरे सामने परोसे थे सब्ज़ी मिश्रित हक्का नूडल्स, घी से छनी पूरी, शिमला मिर्च से बनी परवल की सब्ज़ी और काँच के बरतन से इलायची पावडर मिश्रित ख़ुशबूदार गुजराती खीर। 

मुझे याद आ रहा है बचपन से जब मैं तुम्हारे घर गई थी, काजू किशमिश मिश्रित ख़ुशबूदार खीर, मसाला, मिश्रित रंगीन दाल खाने को परोसा था मौसी ने। 

आज मैं उसी घर में अतिथि हूँ, जहाँ कभी आधा दर्जन काँच के गिलास तोड़ देने के कारण पिता ने मुझे पीटा था। याद आ रहा है एक-एक छोटी-छोटी चीज़, जिसके बारे में माँ मुझसे पूछती थी जैसे कहाँ रखे हैं तेजपत्ता? गरम मसाला किस डिब्बे में है? कहाँ है सीमेई? मेरे बिना माँ खोज नहीं पाती थी तेज पत्ते, मसाला या किसी डिब्बे के भीतर रखी गई सीमेई। और आज? आज माँ ने ख़ुद ही मुझे अतिथि के रूप में आमंत्रित कितने सारे व्यंजन बनाए हैं मेरे सत्कार के लिए? एक बौद्ध भिक्षुणी और एक आर्मी ऑफ़िसर उनके घर अतिथि के रूप में आज उपस्थित? 

तुम नरम-गरम रोटी मसाला चिकन खा रहे थे। खाते-खाते बहुत बोलते जा रहे थे। तुम कह रहे थे उड्डीयान या ओड़िशा . . . कभी हुआ करता था बौद्ध-धर्म का केंद्र, एक बुद्ध-पीठ। उड्डीयान के राजा इंद्रभूति, कंवलपाद, अनंगवज्र के शिष्य थे। उनके जीवन में बहुत दुख थे। उनके दुखद जीवन के बारे में उस समय प्रचार के आलोक में पता चला, जब ध्यानकोष झील में शाक्य मुनि एक बालक रूप में पद्मफूल के बीच आर्विभूत हुए। तिब्बतीय परंपरा के अनुसार पद्मसंभव बुद्ध होते हैं इंद्रभूति के पुत्र। इतिहास, साहित्य और पौराणिक कहानियों में पद्मसंभव के अजस्र प्रमाण देखने को मिलते हैं। 

माँ तुम्हारी बात ध्यानपूर्वक सुन रही था, फिर भी वह तुम्हारी सब्ज़ी ख़त्म होने वाली कटोरी को देख रही थी। उसमें उड़ेल रही है चिकन सब्ज़ी। फिर मेरी थाली, कटोरी और प्लेट की ओर निगाहें घूमते हुए वह पूछने लगती है, “और कुछ लोगी नहीं?” 

शायद मुझे और किसी चीज़ की आवश्यकता ही नहीं है। 

मैं एक चम्मच हक्का नूडल्स मुँह में डाल लेती हूँ और ‘नहीं’ कहती हूँ। तुम फिर कहने लगते हो, “बुद्ध ने अपने पहले उपदेश में परिव्राजकों को मानवीय नैतिकता के बारे में प्रकाश डाला था। मनुष्य के भीतर उत्कृष्टता होती है, शील, दान, उपेक्षा, निष्काम, वीर्य, करुणा, मैत्री . . .”

मैं समझ सकती हूँ इनमें से तुमने तीन नैतिकताओं को छोड़ दिया है। शायद तुम भूल गए हो या जानबूझकर उसके बारे में नहीं कहते हो, इसलिए उस आधे वाक्य को मैं पूरा कर देती हूँ। लेकिन मैंने कुछ भी नहीं कहा। मैं चुपचाप खाना खाने लगी। मैं जानती हूँ कि खाना खाते वक़्त नीरवता कितनी ज़रूरी है, कितनी स्पृहणीय है। मगर तुम समुद्र की उत्ताल तरंगों की तरह चल रहे हो। फिर कह रहे हो, “ओड़िशा के चंद्रगिरि के आस-पास गुरु पद्मसंभव के नाम से महाविहार है।”

तुम ओड़िशा की बौद्ध परंपरा के बारे में अनर्गल बोले जा रहे थे—ओड़िशा का बौद्ध ज़िला, रत्नगिरि में ख़ुदाई में मिला बौद्ध विश्वविद्यालय, जाजपुर के कोने-कोने में बने सैंकड़ों बौद्ध मंदिर, स्तूप-चैत्य, विहार, बौद्ध संघ के ध्वंसावशेष, कहीं पर बोधित्सव अवलोकितेश्वर मंदिर, कहीं पर भूमि स्पर्श और धर्म चक्र मुद्रा में बैठे बुद्ध, वज्रासन बुद्ध, सिंहासन अवलोकितेश्वर, ध्यानी बुद्ध अमिताभ, प्रज्ञा पारमिता, मैत्रेय, मंजूश्री, तारोद्भव कुरू कल्लोल की मूर्ति—इस तरह-तरह की कहानियाँ। 

मैं आश्चर्यपूर्वक सुन रही थी। सोच रही थी कि इस दौरान क्या तुमने ओड़िशा के बौद्ध धर्म के भग्नावशेष से नया इतिहास लिखने के लिए शोध किया है? तुम क्या हो? एक आर्मी अफ़सर या इतिहास गवेषक? क्यों और किस निष्ठा के साथ तुमने बौद्ध धर्म के बारे में इतना ज्ञान प्राप्त किया है? 

अब तुमने ओड़िशा के बौद्ध-धर्म बौद्ध-संस्कृति पर बातें करना शुरू कर दिया। लोगों की साधारण जीवन-प्रणाली, उदारता, सहिष्णुता के बारे में कहने लगे। मैं सोच रही थी कि मैं लद्दाख में व्याप्त बौद्ध संस्कृति के बारे में बताऊँगी। जहाँ मनुष्य के भीतर है विश्वास, श्रद्धा और निबिड़ आत्मीयता के सम्बन्ध। जिस संस्कृति में व्यवसाय का मूल लक्ष्य लाभ नहीं है, बल्कि उपयुक्त सामान के लिए उपयुक्त मूल्य है। जहाँ लोभ, लालसा, असहिष्णुता और शत्रुता सभी पराहत हो जाते हैं। इसके बदले में वहाँ देखने को मिलते हैं समानता के भाव और शान्ति। पशु हो या पक्षी—कोई कभी उन्हें कष्ट देने के बारे में सोच नहीं सकते हैं। इस वजह से उनमें एक निरीह अहिंसा का स्वभाव देखा जा सकता है। ठगना, चोरी करना, लोभ करना या किसी को हानि पहुँचाना या परिवेश को प्रदूषित करना—ये सारे अवगुण हमारी संस्कृति में नहीं देखे जा सकते हैं। 

लेकिन मैं इतनी सारी बातें क्यों कहूँगी? तुम्हारे बचपन के दिन तो लेह में बीते हैं। तुम्हारे पिताजी वहाँ क्या कर रहे थे? व्यवसाय या सेना में नौकरी? मुझे मालूम नहीं। इन सारे प्रश्नों का अब कोई मतलब नहीं है। आज तुम्हें यह पूछने से मुझे कुंठा अनुभव हो रही है। 

मेरे अन्यमनस्क चेहरे पर मैंने महसूस किया कि मेरी माँ की निगाहें पड़ रही थीं। मैं लौट आई थी अपने खाने की थाली की ओर। तुम्हारी बातें फिर भी सुनाई दे रही थीं। तुम शील और करुणा की बातें कर रहे थे। विपश्यना औऱ ध्यान के सम्बन्ध में भाषण दे रहे थे। तुम गंभीर स्वर में कह रहे थे—बौद्ध सत्य, यह है कि इस पृथ्वी पर कुछ भी स्थिर नहीं है। सब-कुछ हर पल बदलता रहता है। यू कैन नेवर स्टेप इनटू द सेम रिवर टवाइस। 

तुम्हारा वक्तव्य अभी भी ख़त्म नहीं हुआ था। 

मेरा खाना ख़त्म हो गया था। मैं हाथ धोने के लिए उठी। मेरे साथ पिताजी भी उठकर खड़े हो गए, बेसिन के पास। मेरे भीतर कोह जाग गया। मैं संन्यासिनी, मैं अतिथि और मेरा ही सत्कार कर रहे हैं मेरे पिता! ममता का स्थान क्या ले सकता है सम्मान? मैं सन्यासिनी, कोह-मोह से मेरा क्या लेना-देना! गर्म पानी से हाथ धोने के बाद मैं टर्किश टॉवल से पोंछ दिए। मेरे सत्कार के लिए आगे जाकर पिताजी खड़े हो गए, विश्राम कक्ष के पास। कभी इस कक्ष को मैं साफ़ करती थी, सजाती थी, खिड़की खोलकर रोशनी, पवन और धूप का चल-प्रचलन करती थी और फिर भी खिड़की बंद करके शीतल, पवन और बर्फ़ के उत्पात को रोक देती थी। और आज? मेरे विश्राम के लिए सजाई गई है कोठरी? 

पिताजी खड़े हुए हैं कोठरी के पास में। मुझे कितना असहज लग रहा है। पिताजी से छुपने के उद्देश्य से मैं इतनी दूर चली आई कि मैं दूसरी कोठरी के भीतर चली गई। जिसकी दीवार पर लटक रहे थे इंदिरा गाँधी, अब्दुल हमीद और कलाम के फोटो। टेबल के ऊपर गुलदस्ते में एक-दो फूलों के साथ शहीद स्तंभ और तिरंगे का मॉडल रखा हुआ था। खाट पर बिछी चादर पर जैतून की डाल के चित्र बने हुए थे। 

खाट से उठकर मैं दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी तो देखा पिताजी अभी भी खड़े थे। इंतज़ार में। यह कोठरी ज्ञानरंजन के विश्राम के लिए सजाई गई थी, जिसके भीतर में घुस आई थी। दीवार पर तीन मुद्राओं में बहुत बुद्ध के तैल चित्र लगे हुए थे। एक किनारे परम करुणा भाव वाली बुद्ध की मूर्ति के पास जल रहा था दीप-धूप। हवा में महक रही थी ख़ुश्बू। बड़े टेबल पर टेबल लैंप के निकट फूलों के चित्र वाला सेरेमिक पत्र रखा हुआ था। खाट पर बिछौने की चादर और रजाई कवर पर पंख जोड़े साथ-साथ उड़ने वाले युगल पक्षी की तस्वीर बनी हुई थी। 

मैं तुम्हारी कौन हूँ? तुम कौन हो वास्तव में? तुमने अपने हाथों से दो कक्ष सजा दिए थे! वह भी अपूर्व तरीक़े से। 

मैंने घूम-घूम कर देखा। मेरी कोठरी के सामने कोई नहीं था। पिताजी मुझे मेरे विश्राम घर में छोड़कर चले गए थे। पिताजी और माताजी अब खाना खा रहे होंगे। 

मैं विश्राम क्या लूँगी, उस जगह खड़े होने की ताक़त नहीं थी। मेरे भीतर पूंजीभूत हो गया था कोह और आवेग। कोठरी से बाहर आई। सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ती हुई पहुँच गई ऊपर मंज़िल की बालकनी में। आँखों से आँसू पोंछने के बाद साफ़ आँखों से निगाहें इधर-उधर घुमाई तो दिखाई दिया बालकनी के पास खड़ा ज्ञानरंजन। वह देख रहा था बर्फ़ आच्छादित पहाड़ी चोटी की ओर, और मैं बालकनी के पास खड़ी होकर दूसरी दिशा में देखने लगी। मेरी आँखों के सामने भी पहाड़ थे उन पहाड़ों पर क्या किसी ने बालू बिछा दिया था? सच में, दिख रहा था जैसे बालू के पहाड़ हों। उसके ऊपर पाँव रखने से मानो पाँव फिसल जाएँगे। आदमी फिसल कर नीचे गिर जाएगा। 

अचानक मैंने पाया कि मेरे पास में ज्ञानरंजन मौजूद है। कुछ भी सोचने का समय नहीं मिला मुझे। ज्ञानरंजन ने मेरी हथेली को उठाकर अपने मुट्ठी में ले लिया। कुछ सोचने से पहले ही ज्ञानरंजन ने अपनी बाँहों से मुझे भींचकर सख़्त आलिंगन किया। उसके बाद उसके अस्थिर, उत्तप्त होंठ बार-बार मेरे चेहरे, होंठ, गाल, कंधा, गर्दन, छाती और यहाँ तक कि पेट को चूम रहे थे। जबकि मैं उत्तप्त होंठों से अपने आप को मुक्त करने की अवस्था में नहीं पहुँच पाई। मैं थी नीरव और प्रतिक्रियाशून्य। 

वह अस्थिर और ज़्यादा अस्थिर। 

कुछ क्षण बाद उसने मुझे अपने आप ही मुक्त कर दिया। फिर ज्ञानरंजन मेरे चेहरे की ओर देखने लगा। उसका चेहरा मैं नहीं देख पाई। मेरे दोनों आँखों में वाष्प या कोहरा या आँसू—पता नहीं क्या था? कुछ समय पहले खाने की थाली के पास बैठते समय मैं देख रही थी ज्ञानरंजन की ओर, मैंने देखा, वह मेरी तरफ़ ही देख रहा था। किन्तु वह चेहरा, वे आँखें इतनी अजनबी लग रही थी कि शायद मैं पूछ लेती, “कौन हो तुम?” 

अब? अब मैं अपनी आँखें पोंछकर सीधा देखने लगी। अब ज्ञानरंजन हिंसक, उग्र और उद्भ्रांत दिखाई दे रहा था, जबकि मैं अहिंसक, निर्विरोध और स्थिर। 

हिंसा मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है। शायद लाखों साल पहले सृष्टि की उत्पत्ति के समय आदिमानव के भीतर केवल हिंसा ही रही होगी। नहीं तो, वह आज तक कैसे जीवित रह पाता? और अहिंसा की उम्र कितनी होती है? यही केवल ढाई-तीन हज़ार वर्ष। हिंसा ही प्रकृति है। 

अहिंसा क्या अप्राकृतिक है? 

मैं अपने आप से प्रश्न पूछने लगी, “मैं फिर प्रकृति के प्रतिकूल स्रोत की तरह जा रही हूँ? तब मैं प्रवृत्ति का विरोध करते हुए जीवित हूँ? वही आदिम, अनिवार्य, जैविक कामना सभी मेरे देह, मन के भीतर के प्रतिकोष में सजीव है।”

मेरे अपने प्रश्न ने मुझे अपनी मुकुल अभिलाषा के प्रति स्पंदित कर दिया। जो इच्छाएँ मर गई थीं, वे सब पुनर्जीवित होकर राख से निकलकर उड़ने लगी मेरे चारों ओर। इतने समय से देखती आ रही थी मैं ज्ञानरंजन को। पहली बार अनुभव किया कि उसे और नहीं देख पाऊँगी। मैंने मुँह नीचे झुका दिया। आँसुओं की कुछ बूँदें फ़र्श पर गिर पड़ीं। 

अभी शून्य बालकनी में अकेली मैं? और मेरे चारों तरफ़ मेरी अजस्र कामनाओं का असह्य नृत्य। जिसे मैंने त्याग दिया था, जिसका दमन कर दिया था, जिसे मार दिया था, जिसे नियंत्रण में रखा था। वे सारी जैविक प्रवृत्तियाँ उद्दंड नृत्य से प्रकम्पित हो रही थीं और मैं? भ्रांति के भीतर प्रवेश कर रही थी या भ्रांति से मुक्त हो रही थी—समझ में नहीं आ रहा था। 

अनगिनत सवालों के भीतर अचानक जैसे उपलब्धि प्राप्त हो गई हो। 

मैं समझ गई, मनुष्य जिन-जिन परिस्थितियों के भीतर गति करता है, ये सब उसके मन की ही सर्जना है। 
मनुष्य जैसे जीवन बचाता है, वही उसका निर्णय है, वही उसका उपार्जन है, वही उसकी अभीप्सा है, और वही उसका लक्ष्य है। 

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