भिक्षुणी (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
द्वितीय भाग
जब हमारी पहली बार मुलाक़ात हुई थी, उस समय ज्ञानरंजन सेना के किसी विभाग का कमांडर नहीं था और न ही मैं किसी बौद्धविहार में रहने वाले भिक्षुणी।
मुलाक़ात हुई थी उस जगह, जहाँ आकाश और धरती के बीच बिना किसी वार्तालाप के बर्फ़ गिर रही थी। पवन इतने शांत भाव से बह रही थी, मानो यह संभ्रमता किसी प्रिय आराध्य के लिए उद्दिष्ट हो। मिट्टी से मुँह उठाकर आकाश तक शाखाएँ फैलाने का प्रयास कर रहे थे चूली पेड़ों की शाखाओं पर फूलों के गुच्छे। उनका गुलाबी रंग इतना हल्का था, जैसे संपूर्ण सफ़ेद के भीतर से प्रकट हो रही हो सामान्य आभा। रास्ते के किनारे घास, फिर ऊँचे-ऊँचे सिर उठाए पेड़, जिनके छोटे-छोटे पत्ते उठे हुए थे सूर्यालोक को ओर। और ऐसे भी सूर्य का प्रकाश बहुत कम, बहुत दुष्प्राप्य। कोमल हरे रंग वाली लताओं की तरह वे सारी शाखाएँ मानो छूने से टूट जाएँगी!
ज्ञानरंजन मेरी तरफ़ देखकर हँसने लगा और मैं उसकी तरफ़ देखती रही। मुझे लग रहा था जैसे ज्ञानरंजन ‘विलो’ पेड़ की फीकी, शागुआ शाखा की तरह नरम और लचीला है। वह हँसते-हँसते जैसे कह रहा हो, “तुम तो उन छोटे-छोटे पत्तों की तरह एक शाखा का अवलंबन चाह रही हो, जो तुम्हें उठाकर रखेगा सूर्य रश्मियों के आने तक।”
हम हँसने लगे।
तेज़ ढलान वाला ऊबड़-खाबड़ रास्ता ऊपर जाकर मिलता है राजप्रसाद के मुख्य द्वार तक। वहाँ “शे” राज प्रसाद के मुख्य द्वार की सीढ़ियों पर बैठकर वह ज़ोर-ज़ोर से साँस लेने लगा।
लंबी सीढ़ी के पादान के एक तरफ़ मैं, तो ठीक उसके दूसरी तरफ़ बैठ गया था ज्ञानरंजन। हमारे बीच में से होते हुए चले जा रहे थे कई यात्री। उनके रंगीन ऊनी पोशाकें, उनके रंगीन बैग, कंधे पर लटकते कैमरे, हाथों में पकड़ी हुई पानी की बोतलें, टोपी, लाठी या किसी बच्चे के हाथ हमें दिखाई दे रहे थे पर्यटकों की आँखें, चेहरे के हाव-भाव, बातचीत के स्वर, उनकी क्लांति या आग्रह या आनंद सब-कुछ हमें दिखाई दे रहा था, पर किसी अनदेखे की तरह। हम इतने थक गए थे कि जो कुछ देख रहे थे ख़ाली आँखों से देख रहे थे, मन के भीतर कुछ भी नहीं घुस रहा था। मन के भीतर कहीं कुछ न तो अंकित हो रहा था और न ही उनका परीक्षण-निरीक्षण हो रहा था। हमें कुछ भी मालूम नहीं चल पा रहा था। हम केवल ख़ाली आँखों से देख रहे थे, रिक्त आकाश को देखने की तरह। कुछ समय बाद बाहर से या भीतर से, पता नहीं कैसे, हमारे हाथ-पैरों में शक्ति का संचार होने लगा। शरीर और सिर ठीक होने के बाद फिर से हमने चलना प्रारंभ कर दिया। लंबी-लंबी सीढ़ियों के दोनों किनारों से हम ऊपर की ओर उठने लगे। एक तरफ़ से मैं और दूसरी तरफ़ ज्ञानरंजन। हमारे बीचों-बीच रंग-बिरंगे पर्यटक लोग।
बहुत जल्दी-जल्दी ऊपर जाएँगे, सोचते-सोचते हम धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, लंबी सीढ़ियाँ ख़त्म होने के बाद राजा के अँधेरे अलंदु भरे कोठरी से होते हुए, जैसे-तैसे छोटी-छोटी सीढ़ियों की शृंखला से होते हुए राजा के शयन-कक्ष, बैठक-कक्ष और दरबार-कक्ष में चले गए। कई बार दौड़ते-भागते कोठरी के भीतर, दीवार के पीछे, राजा के बिस्तर पर बैठकर पिंडी के पास लुकाछुपी खेलना आरंभ किया ही था, तो सचेत करते हुए रोक दिया था, हमारे माता-पिता ने या न ही तो शायद महल के प्रहरी ने। उसके लंबे पुराने कोट के लंबे हाथों से अपना हाथ निकालकर कई बार हाथों को पकड़ लिया था प्रहरी ने। आँखें बड़ी-बड़ी करते हुए वह मेरी तरफ़ देखने लगा था और अपने होंठों पर उँगली रखकर चिल्लाने के लिए मना कर रहा था। भागदौड़ करने के लिए हमें मना कर दिया था। दूसरे पर्यटकों की तरह चुपचाप जाने के लिए वह कह रहा था।
कितनी बार भय से उसकी तरफ़ देख रही थी मैं, काँच की अलमारी, काँच की शेल्फ़ आदि देखकर सोच रही थी कि उसके भीतर झूल रही राज पोशाक को पहनकर कहीं राजा बाहर तो नहीं आ जाएगा? हाथ बढ़ाकर काँच के भीतर से उठाकर ले आएगा बड़ी तलवार या कटार। राजा की तलवार या कटार की चोट से मेरा हाथ या कान कट जाएगा या सिर क़लम होकर ज़मीन पर नीचे गिर जाएगा और चारों तरफ़ फैल जाएगा ख़ून ही ख़ून। इस तरह भय आशंका से मैं भी पत्थर होती जा रही थी, उसी समय कई बार ज्ञानरंजन ने मेरा हाथ खींच लिया। हम दोनों सीढ़ी के बाद सीढ़ी चढ़ते हुए ऊपर मंज़िल की ओर दौड़ पड़े।
बिल्कुल नीचे घुड़साल और उसके ऊपर म्यूज़ियम में सुरक्षित राजा की पोशाक, अस्त्र-शस्त्र, अलंकार और सिल और पता नहीं कितनी चीज़ें! उसके ऊपरी मंज़िल में राजा के सोने का घर, बैठक घर, ध्यान घर–कितनी सारी व्यवस्थाएँ और साज-सज्जा के भीतर घूमते-घूमते ज्ञानरंजन फुसफुसाते हुए कहने लगा, “चलो, चलो, छत के ऊपर चलते हैं।”
राजा की छत, विस्तृत छत। वहाँ से पूरा विश्व, ब्रह्मांड दिखाई देता, अगर चारों तरफ़ पहाड़ घिरे हुए नहीं होते।
एक तरफ़ यंगसर पर्वतमाला के कंग्री पर्वत के पंक्तिबद्ध शिखर और दूसरी तरफ़ लद्दाख पर्वतमाला के बर्फ़ से ढके तुंग। जहाँ तक दृष्टि जाती थी वहाँ तक पहाड़ ही पहाड़। और उसके ऊपर आकाश ही आकाश। आकाश को भेद कर पहाड़ों की तरफ़ देखते समय मन में नहीं आ रहा था कि यह विशाल महल मिट्टी और लकड़ी से बना हुआ है। मिट्टी की ईंटें, मिट्टी का प्लास्टर, मोटे-मोटे काठ गोले से तैयार किए हुए स्तंभों से बना हुआ था यह महल। उस छत के ऊपर अनेक पर्यटकों के बीच हम खड़े हो गए थे और देख रहे थे आकाश की ओर, न ही तो पैरापेट की ओर। हमने यह सुन रखा था कि सात मंज़िलें इस महल की पैरापेट पर, एक लामा आँखें बंद कर, एक किनारे से दूसरे किनारे तक पैदल चला था, साबुओराकल का आशीर्वाद पाने के लिए। साबुओरेकल केवल भविष्यवाणी ही नहीं करते थे, वे होते हैं देवता। उनका आशीर्वाद मिलने से असम्भव भी सम्भव हो जाता है।
देवता का आशीर्वाद हमारे लिए क्यों कम हुआ?
ज्ञानरंजन उसके माता-पिता के साथ ओड़िशा चला गया। वहाँ उसका अपना घर है, अपना गाँव है। लद्दाख में उसके पिताजी क्या कर रहे थे, ठीक से याद नहीं आ रहा है। और हाँ, इस बारे में ज्ञानरंजन से पूछने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। शायद वे व्यापारी रहे होंगे, न ही तो उसके पिताजी सेवा में जवान रहे होंगे। ज्ञानरंजन के जाने के बाद इस शीतल मरुभूमि में आलोक के अभाव में दुर्बल पेड़ की तरह खड़ी होकर रह रही थी मैं। मेरे शरीर पर सच में फूल पत्ते खिले, मगर प्रकृति की कंजूसी से वे सीमित थे। सिहरन की कुंठित आकांक्षाएँ नारियल की तरह नीचे गिर पड़ी थी। बचपन के दिनों में जब मैंने और ज्ञानरंजन ने महल की छत पर खड़े होकर आकाश की ओर देखा था, तो लग रहा था जैसे पवन स्थिर, आकाश अपहुँच और पृथ्वी अस्पृश्य। उसके बाद ज्ञानरंजन के बिना इस पहाड़ी शहर में मेरे लिए जीवन जैसे पहुँच से परे हो गया था, उसी तरह मृत्यु भी अस्पृश्य, जबकि इन दोनों नकारात्मकता के भीतर अपने आप एक स्वर्ण सरिता की तरह खुल गया था मेरे लिए साधना-पथ। उम्र बढ़ने लगी, यौवन आकर फिर लौटने लगा। जीवन छंद में बिल्कुल नहीं फँसकर में बौद्ध विहार के प्रशस्त आँगन में बैठकर निःशब्द आकाश को देखने लगी। कभी-कभी सोचती थी कि नील पक्षी आज नीरव क्यों है? ठीक दूसरे ही पल, मैं उच्चारण करने लगी:
बुद्धम् शरणम् गच्छामि
धर्मम् शरणम् गच्छामि
संघम् शरणम् गच्छामि
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