सौन्दर्य जल में नर्मदा (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
8. आलोचकों की दृष्टि में “सौन्दर्य जल में नर्मदा”
प्रोफ़ेसर आनंद सिंह के “सौन्दर्य जल में नर्मदा” काव्य-संग्रह को ध्यान से पढ़ने के बाद मेरे मन में यह ख़्याल आया कि उन्होंने पर्यावरणीय कविताएँ लिखी तो ज़रूर हैं, उन पर आलोचनाएँ भी बहुत हुई हैं, पुस्तक बहुचर्चित भी रही है, समाज को कुछ नए विचार भी मिले हैं, मगर क्या आज के ज़माने में, जहाँ संवेदनहीनता सिरमौर पर है, कलयुग का मुकुट हर मनुष्य पहने हुए भटक रहा है, उस अवस्था में उनकी कविताएँ नर्मदा नदी के सौन्दर्य को फिर से लौटा सकती हैं? उनकी इन कविताओं का यथार्थ में कोई योगदान रहेगा? आर्थर रिमबॉड ने 20 वर्ष की उम्र में कविता लिखना बंद कर दिया, यह कहते हुए, “l gave up that tom-foolery long ago।” आज की कविता पर सबसे गंभीर आक्षेप लगाया जाता है कि वह लोक से अलगाव का शिकार है। मगर आनंद सिंह जी की कविताएँ इस आलोचनीय मिथक को लगातार तोड़ती हैं।
पांडेय शशि भूषण शीतांशु अपने आलेख “समकालीन हिन्दी कविता का महान कवि: आनंद कुमार सिंह” में कवि आनंद सिंह को नदी के कवि यानी ‘नद्य कवि’ की उपमा देते हैं। उनके अनुसार इस संग्रह की सारी कविताएँ उनकी आत्मा से पैदा हुई हैं, भारतीय संस्कृति से ओत-प्रोत। केवल नर्मदा ही नहीं, बल्कि विश्व की प्रत्येक नदी के घाट पर आनंद जी की आकुल राग सुनाई देगी। वे पर्यावरण की पूजा करते हैं, चाहे वे वन हो या नदी, पहाड़, धरती ही क्यों न हो। स्वामी दयानंद सरस्वती के ‘बैक टू वेदाज़’, पाश्चात्य आदिवासी चिंतक रूसो के ‘बैक टू नेचर’ की तरह वे ‘बैक टू रिवर’ का आह्वान करते हैं। स्मृति और कल्पना की उड़ान का अद्वितीय उदाहरण है “सौन्दर्य जल में नर्मदा।”
इस संग्रह में जल कवि के लिए केवल पदार्थ न होकर चेतन-स्वरूप है और नर्मदा की परिक्रमा मूलाधार से सहस्रार की यात्रा। वास्तव में कवि आनंद ने अपने इस काव्य में और इस काव्य के द्वारा नर्मदा का समुज्जवल यशोगान किया है। “सौंदर्य जल में नर्मदा” में नर्मदा पर आधारित 40 कविताओं का समुच्चय, दूसरे शब्दों में उनकी इस नर्मदा-चालीसा को शीतांशुजी हृदय-लिपि से लिखा हुआ मानते हैं। एक प्रकार से ‘मंत्रों की उर्मिमाला’। उनके अनुसार कवि नर्मदा की लहरों में शंकराचार्य की ‘सौंदर्य-लहरी’ खोजते हैंऔर लहरों की अठखेलियों से उत्पन्न संगीत पर मंत्र-मुग्ध होते हैं। वे लिखते हैं, “समकालीन हिन्दी कविता में आनन्द पर्यावरण का सबसे-बड़ा चितेरा और श्रवणशील कवि है। उससे बड़ा होना तो दूर, उसके बराबर आ सकने वाला भी कोई दूसरा कवि मुझे समकालीन हिन्दी कविता में नहीं दीखता है। जहाँ तक इस काव्यकृति पर आनन्द के आचार्यत्व और कवित्व के अविनाभाव और उनके परस्पर अन्योन्याश्रित होने की बात है, यहाँ कवि अपने ज्ञान और आचार्यत्व को कुछ समय के लिए पृष्ठभूमि में डालकर कवित्व को अग्रप्रस्तुत करने वाली काव्यधारा प्रवाहित करता है। यही कारण है कि इस काव्य-कृति में आनंद आरंभ से ही अपने आपको एक प्रबुद्ध और परिपक्व कवि के रूप में स्थापित कर लेता है।”
आलोचक शीतांशुजी के इस मत से मैं सहमत हूँ, मगर उनका ध्यान अनन्तराम मिश्र की ‘नर्मदा’ (आत्मचारितात्मक काव्य) की ओर नहीं गया, अन्यथा इस दिशा में उनके काव्य को भी कुछ अंक मिल जाते।
कविता में हमेशा ख़ुद और दूसरे के बीच गहरा अंतर्द्वद्व रहता है। जहाँ कोई साधु-संत अन्नमय, प्राणमय, ज्ञानमय, विज्ञानमय कोष से आनंदमय कोष की ओर बढ़ता है, वहाँ कोई भी कवि इन पात्रों में से किसी को छोड़ना नहीं चाहता है। इस अवस्था में, क्या आधुनिक कवि की कविताएँ जन-समुदाय को प्रभावित कर सकेगी? उनका लिखना मात्र उनके अहम की तुष्टि है या उनकी कविताओं का और भी कोई मक़सद है? सही अर्थों में, कविता कच्ची अनुभूति नहीं हो सकती है। जब कोई कवि भीड़ में जाना पसंद नहीं करेगा और चाहेगा कि उसकी कविता लोगों की ज़ुबान बन जाए, क्या यह सम्भव है? सच्चा कवि तो वह है जो हर समय अपने कमरे में रहता है और गली-नुक्कड़-कोने में भी। 'कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी माँगे ख़ैर’—कबीर बाज़ार में खड़ा होकर सभी की सही सलामती चाहता है। आज भी कवियों के शब्दों में पारस की शक्ति है, जो पल-भर में अपने इर्द-गिर्द के अनुभवों को सोने में परिवर्तित कर सकती है। बस, उसे ज़्यादा से ज़्यादा समझने वाले लोगों की भाषा का संप्रेषण करना होता है, अपनी भाषा का निवेश करना होता है। फ्रांज काफ्का ने भी यही कहा है:
“सच्चा लेखक या कवि वह नहीं होता, जो सर्दी से ठिठुरते हुए बच्चे की तरह गुनगुना रहा हो और न ही धार्मिक उन्माद से भरे श्रद्धालुओं की तरह किसी मूर्ति के सामने, जिसे वे जानते नहीं हैं, अलग-अलग भंगिमा में आरोह-अवरोह के साथ अपने शब्दों का उच्चारण कर रहे हों।”
इस दिशा में प्रख्यात आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह सरल, सहज-लोकसंबोधी भाषा वाले साहित्य को सामान्य जन के लिए आनंद देने वाला लोकप्रिय साहित्य मानते हैं। उसे दृष्टि में कवि आनंद सिंह का यह काव्य भले ही खरा नहीं उतरता है, मगर भाषा-समृद्धि और बौद्धिक मनीषा के जागरण हेतु उनका काव्य भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर है, जिसमें सांस्कृतिक बौद्धिक प्रज्ञा पक्ष जीवित है। इस बारे में आलोचक रमेश दवे का कहना हैं:
“आनंद कुमार सिंह का संस्कृति बोध इतना व्यापक है कि वे नर्मदा के अनेक नामों के संज्ञापद रचते हैं, उसकी धारा के क्रियापद है, उसके संबोधन के अनेक सर्वनाम और विशेषण है, इतिहास है, भूगोल है, वन-उपवन है, ऋषि-मुनि हैं, साधना परम्परा है, पौराणिक प्रसंग हैं, देव-प्रतिमाओं के संदर्भ है एवं साथ ही नर्मदा के प्रति एक कवि का नदी-संवेदन है, जल सौंदर्य है और काव्य रूप है।”
यही नहीं, आलोचक रमेश दवे इस काव्य-संग्रह के द्वितीय भाग ‘नदी सूक्त’ में वर्णित में पौराणिक संदर्भों के अतिशय और ज्ञान मोहित कल्पना-शक्ति की तेज उड़ान के कारण उनकी कविताओं में काव्य-रूप की क्षति मानते हैं। वे कहते हैं:
“कवि का नदी-बोध इतना व्यापक है कि गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, सिंधु, सरस्वती और नर्मदा के साथ वे क्षिप्रा, तमसा, काली सिंध आदि छोटी आंचलिक एवं ग्राम्य नदियों के सौंदर्य की भी रचना करते हैं। आनंद ने ऋषियों, स्थानों, नदियों, पौराणिक संदर्भों की अति के कारण कविता की जो स्वाभाविक कल्पनाशीलता है उसे ज्ञान-मोह में विलीन कर दिया है। इस कारण कविता के काव्य रूप की क्षति भी हुई है।”
मुझे नहीं मालूम कि उन्हें काव्य-रूप में कहाँ क्षति नज़र आई या केवल लिखने के लिए लिख दिया, जबकि सत्य यह है कि कवि ने भारतीय नदियों के अनेक रूपक गढ़े हैं; लोक-कथाओं से, इतिहास से और सांस्कृतिक विरासत के अनवरत मंथन से, जिस वजह से पहली बार में ये कविताएँ साधारण पाठकों को रास नहीं आती है, मगर जब उन्हें बीज-शब्द पकड़ में आ जाते हैं तो उन्हें काव्य-रसानंद की अनुभूति होने लगती है।
रामायण, महाभारत, भागवत पुराण में भी कवियों का स्थान सुरक्षित है। ऐसे काव्य के लिए किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती है। क्या कबीर, सूरदास, संत तुकाराम इसके उदाहरण नहीं हैं? उन कवियों को नमन करने की इच्छा होती है, मगर जब बाहरी स्वार्थी दुनिया उन्हें ईर्ष्या, घृणा और नफ़रत के भाव से देखने लगती है। उन्हें लगता है कि इससे तो अच्छा अकेले रहना ही उचित है। मगर भारतीय दर्शन इसका विरोध करता है और ‘हाट मध्ये ब्रह्मज्ञान’ की उक्ति में विश्वास रखता है। बोदलेयर के अनुसार आधुनिक कविता/कला की विचारधारा यह है कि उसकी कृति/ कविता के कवि के भीतर और बाहरी दुनिया में दोनों में एक साथ उसी अनुपात में परिवर्तन हो। इस संदर्भ में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि कवि आनंद जी ने जो जिया, जो देखा और जो भोगा, उसी को अपनी कविताओं में स्थान दिया तथा उनके भीतर जो अनुभूतियाँ हुई, उन अनुभूतियों को ही दूसरों के भीतर अनुभव करने की कामना की। वे ऐसे कवि नहीं हैं, जो कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। उनके जीवन और लेखन में फाँक नहीं है। कथनी और करनी में अंतर नहीं है। वे ‘मुँह में राम और बग़ल में छुरी’ वाले मिथ्या भक्त जन भी नहीं है, वरन् नृसिंह अवतार की तरह मस्तमौला होकर अक्खड़ मार्केंडेय की भाषा में समाज को पर्यावरण अक्षुण्ण रखने की सलाह देने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं।
नर्मदा के समग्र अनुभवों को अपने काव्य में उँड़ेलने पर जहाँ वरिष्ठ साहित्यकार रमेश चंद्र शाह उनकी संवेदनशील भाव-ऊर्जा, अध्ययन-मननशीलता और शोध पूरक बुद्धि की उन्मुक्त मन से तारीफ़ करते हैं, वहीं नर्मदा पुत्र अमृतलाल वेगड़ कवि आनंद की काव्य-अनुभूतियों को अतीन्द्रिय मानते हैं, जिससे दोनों प्रेम और प्रार्थनाएँ प्रस्फुटित हुई है, भोर-भोर के भैरवी राग की तरह कर्ण-प्रिय, और भाषा मानो वाल्मीकि रामायण की तरह इन कविताओं में ऊपर से उतरी हों। भाषा-शैली की दृष्टि से आलोचक रमेश दवे इस काव्य-संग्रह के मंगलाचरण में निराला के मंत्र-छंद की अभिव्यक्ति पाते हैं, लेकिन अगले ही पल यह कहने से नहीं चूकते कि निराला के छंद की उन्होंने नक़ल नहीं की है, यह उनका अपना छंद है। यहाँ हम उनके निराला और आनंद के छंदों की तुलना करेंगे:
अपसरित सरित करती बन्धन
आलोकित करती तिमिरांगन
ज्योतिर्धन संस्कृति का कुन्दर छन्दाकुल
भव-ज्वर पीड़ित दिग्देश काल
चैतन्य-चूर्ण जड़ चक्रवाल
कलिमल संज्ञाहत दुःख कराल जालांगुल (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-11)
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘तुलसीदास’ से:
शत-शत शब्दों का सांध्य काल
यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल
छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;
आया पहले पंजाब प्रान्त,
कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,
क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।
दोनों की तुलना करने पर छंद ‘AABAAB’ की लय प्रदान करता है।
कवि आनंद की कविताएँ आधुनिक भले ही हैं, मगर सांप्रदायिक और कर्मकांडी तो बिल्कुल नहीं और जाति-धर्म से तो कोसों दूर। हमारी संस्कृति नदी की संस्कृति है, अपरिग्रह वाली, असंचय वाली, मगर विदेशी संस्कृतियों में समुद्र की संस्कृति का पुट होता है, केवल इकट्ठा करना धन-यश-मान-सम्मान, साथ ही साथ भोग-लोभ-लालच और लिप्सा से भरपूर। निस्संदेह इस काव्य-संग्रह के बिम्ब अत्यंत ही जटिल हैं क्योंकि सूक्ष्म स्तर पर कवि ने अपनी कुंडलिनी जागरण की यात्रा को नर्मदा की बाहरी यात्रा के रूप में पिरोया है जैसे महर्षि अरविंद ने अपने महाकाव्य ‘सती सावित्री’ में सावित्री मिथक के माध्यम से आत्मा की लोक-लोकातंरों की यात्रा में दर्शाया है।
यह काव्य हमारे जैसे आम पाठकों के लिए भले ही दुरूह हो जाते हैं, मगर आँखों के सामने बिम्ब पहले-पहले धुँधले और फिर धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगते हैं। ऐसे ही कुछ बिंबो का उदाहरण रमेश दवे देते हैं:
कामनाएँ सिरजती हैं/ अधखिले कुसुम के पारिजात पत्थर।
अलम्बुष की पीठ पर पड़े हैं। पत्थरों के अण्डे।
चारों ओर चारों खड़े हैं जंगल एकांत/ मौन अमुखर शिलाओं में।
छायावी ध्वनियों को छूकर तोड़ती है देहगीत। उच्छल लहरों को पीती है लहरें।
विषैली कामनाओं के दर्पस्वी रूप/ तृषित इतिहास का रसायन लिए हुए कंठ में।
इतिहासों को सीखना। तुमसे समन्वय।
पत्थर कर सकता है प्रेम। धरा में घुलकर।
तुम एक नीग्रो लड़की की तरह/ नियाग्रा में गिर रही हो।
प्रख्यात आलोचक शिवदयाल के अनुसार समकालीन हिंदी कविताओं में आजकल ऐसी कविताएँ नहीं लिखी जाती है, जिसमें जटिल मिथकीय बिम्ब हो, वैदिक शब्दावली का भरपूर प्रयोग हो, संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों की भरमार हो और सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग बहुत कम हुआ हो। उनकी कविताएँ यद्यपि विवरणात्मक है, मगर सौन्दर्यपरकता के साथ। प्रियंका की तरह शिवदयाल जी भी इस काव्य-रचना को जटिल मानते हैं, काव्य, भाषा, रूप-विन्यास और प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से। कविताओं में छंद, मुक्त छंद और पारंपरिक मंगलाचरण भी है। छंदों में अनुशासन भी हैं। उनके शब्दों में:
“कवि आनंद ने इन कविताओं में विवरणों का ख़ूब उपयोग किया है, वह भी पूरी सौन्दर्यपरकता के साथ नदी की उच्छल लहरें, किनारे की बालू और चट्टानें, खेल-खलिहान, जीव-जंतु-कीट-पतंग, जलचर और पादप-वनस्पति, जीवाश्म वनवासी ग्रामवासी तपस्वी, साधक गृहस्थ-योगी-फकीर, प्रार्थनाएँ और लोकगीत, क़िस्म-क़िस्म की ध्वनियाँ और छायाएँ, देवालय प्रागैतिहासिक चिह्न, जंगल-घाटियाँ, पगडंडियाँ, पहाड़, संगम और नावें . . .!”
मगर मैं तो इस काव्य-संग्रह में अभिधा (विवरण) कम, बल्कि लक्षणा और व्यंजना शक्ति को ज़्यादा पाता हूँ। भाषा को लेकर प्रियंका नारायण भी कुछ हद तक ऊहापोह की स्थिति में है। दुरूह, क्लिष्ट और तत्सम-प्रधान शब्दावली के प्रयोग को आपत्ति-विपत्ति न मानकर पाठकों को अपनी भाषिक कमज़ोरी को स्वीकार कर लेने की सलाह देती है और वह स्वयं इस बात से संतुष्ट है कि कम से कम कवि आनंद ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ या जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ की भारी-भरकम शब्दावली का तो प्रयोग नहीं किया है। वह लिखती है:
“कई बार समकालीन पाठक इस संग्रह पर भाषा व अभिव्यक्ति को लेकर दुरुहता का प्रश्न खड़ा कर सकते हैं। एक तो भाषा तत्सम प्रधान है तो कई स्थानों पर यह क्लिष्ट हो गई है, लेकिन देखने वाली बात यह है कि यहाँ निर्वाह किस विषय का किया जा रहा है—एक आदिम संस्कृति प्रधान नदी नर्मदा का वास्तव में यहाँ आपत्ति-विपत्ति के स्थान पर हमें अपनी भाषिक कमज़ोरी को मान लेनी होगी क्योंकि कम से कम यहाँ भाषा हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ या प्रसाद की ‘कामायनी’ को नहीं छू रही है।”
शब्दों का सामर्थ्य कल्पना से परे है। यह होता है संयोग के सेतु की तरह। एक जीवनकाल में शब्दों की खोज समाप्त नहीं होती है, जन्मों-जन्मों तक उसका इंतज़ार करना पड़ता है। कभी-कभी मिल जाता है, तो कभी नहीं मिलता है। यह अन्वेषण की कथा कहते समय मेरे मन में प्रबुद्ध ओड़िया कवि सीताकान्त महापात्र की कविता की कुछ पंक्तियाँ याद हो उठती है:
“एक शब्द को गढ़ने में
जिस तरह आकाश हज़ारों रंग बदलता है
हवा कितने तरीक़ों से गीत गाती है
समुद्र रोता है, हँसता है गूँगी बालू पर टकराता है
सर्वासह वसुंधरा चातक की तरह ताकती है
कि कब एक शब्द का निर्माण होगा?
इसके लिए सौ जन्म, सौ मृत्यु की आवश्यकता होती है।”
शब्दों के इस घने जंजाल में हज़ारों स्मृतियाँ, स्नेह, चंचलता—सब कुछ होने के बाद भी कवि सीताकांत जी का मानना है कि चाहे स्मृतियाँ कितनी भी गहरी और सुदीर्घ क्यों न हों, किसी भी हालत में निर्जनता को मिटाया नहीं जा सकता। ‘समय का शेष नाम’ कविता की पंक्तियाँ:
"निर्जनता जो हमारा भाग्य, शेष दशा
निर्जनता जो हमारा साक्षी और साक्ष्य, हमारी शेष भाषा
समय के सहस्त्रनाम के भीतर शेष नाम ही निर्जनता
अंत में हम सभी पहुँचते हैं नहीं
और बनाते हैं मित्र उसे ही।"
साधना की ऐसी ही निर्जनता ने कवि आनंद को ‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ लिखने के लिए प्रेरित किया है। अल्बर्ट आईंस्टाइन ने कहा था कि जिस मानसिकता ने आज के समय को विकृत कर डाला है, उसी के सहारे इस समाज को बदल पाना लगभग असंभव है। प्रोफ़ेसर आनंद कविता के पर्यावरण जैसे नए इलाक़े में इसी वैज्ञानिक सोच के क़ायल होकर दाख़िल हुए और दुनिया के बदलाव हेतु अपने लोगों के लिए मानसिकता-परिवर्तन की मुहिम में रहकर लिखते रहे हैं। विवेकानंद का कथन याद आता है—‘मैं उस प्रभु का सेवक हूँ, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं।’ और आनंद जी विवेकानंद से बेहद प्रभावित हैं, तभी तो उन्होंने ‘विवेकानंद’ पर सौ पदों वाली छंदमय कविता लिख डाली। यह कविता साबित करती है कि आनंद उसी मनुष्य और मनुष्यता की रक्षा करने वाले कवि हैं। हम कह सकते हैं कि कवि आनंद अपने काव्य-सृजन के तुंग पर, चेतना के उच्च धरातल पर स्थापित होते हुए नर्मदा में सौन्दर्य जैसी अमूर्त संज्ञा में विशेषण खोजते हैं और अपने दार्शनिक विचारधारा से उन्हें पकड़ने का प्रयास करते हैं। उनकी कविताओं में अध्यात्म का पुट मिलता है, दार्शनिकता के स्वर मिलते हैं तथा परम चेतना तत्त्व को खोजने की जिज्ञासा जाग्रत होती है। इसलिए कवि आनंद को प्रकृति का पूर्णांग कवि कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आलोचक शिवदयाल कवि आनंद सिंह जी के नर्मदा नदी के प्रति समग्र अनुभवों पर अपने आलेख “वह जल की अपार करुणा है, नर्मदा” में टिप्पणी करते हैं कि इस काव्य-संग्रह में कवि ने भूगोल, अपवाही तंत्र, आस्था, परंपरा, कर्मकांड, शास्त्र-पुराण सब-कुछ छान मारे हैं। नर्मदा के बहाने कवि ने वर्तमान पीढ़ी को नदियों की वर्तमान अवस्था और पर्यावरण-सुरक्षा की आवश्यकता के बारे में जानने का आह्वान किया है। उनके शब्दों में:
“‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ में नदी को देखने की दृष्टि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है जो केवल वस्तुनिष्ठ नहीं है, भावदीप्त और रागनिबद्ध भी है, जिसमें लघुतम से लेकर महत्तम तक समाया है बूँद से लेकर ब्रह्माण्ड तक यह दृष्टि अत्यंत गहन है, और व्यापक उस सीमा तक जबकि उससे अधिक गहनता और व्यापकता की कल्पना शायद एक नदी के लिए नहीं की जा सकती। यह पर्यावरणवेत्ता की दृष्टि नहीं है, न ही इतिहासज्ञ की, यह न भूवेत्ता की दृष्टि है, न जल विज्ञानी की, न धार्मिक की, न यात्री की, न ही आध्यात्मिक-तत्त्वज्ञ की। एक कवि ने नदी को देखा है–इस देखने में वे सारी विद्याएँ एवं क्रियाएँ, वे समस्त अनुभव और कल्पनाएँ शामिल हैं जो एक नदी, यहाँ शिवतनया नर्मदा के साथ जुड़ी हो सकती हैं।”
शिवदयाल उनके ‘नदी-सूक्त’ की कविताओं में मनुष्य केंद्रित मानकर छिछली इकोलॉजी वाली कविताएँ मानते हैं, जबकि ‘नर्मदा सूक्त’ की कविताओं को गहरी इकोलॉजी वाली, जिसमें पृथ्वी और पृथ्वी का जीवन केंद्रित है। मगर मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ क्योंकि ये सारी कविताएँ उनकी अंतरात्मा से प्रकट हुई हैं, वैश्विक चिंतन लेकर। फिर क्या छिछली इकोलॉजी और क्या गहरी इकोलॉजी! यहाँ कवि किसी ख़ास नदियों की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसके माध्यम से सृष्टि की समग्र नदियों पर विश्व का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं। आलोचक शिवदयाल जी लिखते हैं कि:
“वास्तव में ‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ प्रकृति-संवेदी जीवन दृष्टि का संधान है। इसमें एक नई नैतिकता का आहवान सम्मिलित है, जो उन लोगों को विशेष रूप से प्रयोज्य है जो शुद्ध रूप से बुद्धिचालित है, जिनमें आत्म-तत्व की दरिद्रता है, जो ध्वंस के प्रयोगों में ही अपने ज्ञान की और शक्ति की सिद्धि देखते हैं वैज्ञानिक, शासक, योजनाकार आदि।”
आगे वे लिखते हैं:
“‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ वास्तव में सभ्यता का कलुष धोने का एक कवि का तपःशील और उतना ही और भावयात्रिक उद्यम है। अपनी स्थापनाओं ने यह प्रकृति हितैषी, बहुसत्तावादी, विविधतामयी, विकेन्द्रित, मातृशक्तिमूलक संस्कृति का अग्रह रखता है। द्वन्द्व और विभक्ति की युक्ति और औज़ार से ये कविताएँ नहीं समझी जा सकती, उनके मर्म तक नहीं पहुँचा जा सकता क्योंकि नर्मदा समन्वय और संगमन का पाठ पढ़ाती है और कवि मानता है कि ‘वर्गसंघर्ष नहीं वर्गस्फीत मन ही इतिहास का नियंता है’। मनुष्य की चेतना हर चौखटे का अतिक्रमण करती है। नर्मदा का सौन्दर्य बचाना होगा, तभी जीवन में सौन्दर्य बचेगा, फिर नर्मदा तो भीतर भी बहती है, इस अंतरधारा को भी निर्मल रखना है, तभी बाहर का सौन्दर्य आँखें देख सकेंगी।”
युवा लेखिका प्रियंका नारायण ने “सौंदर्य जल में नर्मदा” की पड़ताल करने पर पाया कि इस कृति में न केवल पर्यावरणीय विषय-वस्तु को उजागर किया गया है, बल्कि हमारे गौरवशाली अतीत को भी याद दिलाया है। इस कृति में लोक-कथाएँ, पौराणिक कथाएँ, शंकराचार्य की सौंदर्य-लहरी, वेगड़ जी की स्थूल परिक्रमा आदि सभी विषयों पर कवि ने क़लम चलाई है, मगर कवि से एक जगह चूक हुई है। प्रियंका के हिसाब से जब मार्कंडेय ऋषि नर्मदा की कथा सुना रहे हैं तो अवश्य यह अतीत की बात रही होगी, जब नदी पर बाँधों का निर्माण नहीं हुआ होगा। ऐसी अवस्था में उनके द्वारा नदी पर बाँध बनाने की बात करना अतीत और वर्तमान सभ्यता का मिश्रित रूप दर्शाता है। वह कहना चाहती है:
“मार्कण्डेय महर्षि के ज्ञानमय उत्तर से शुरू होती हुई कविता कब डैम प्रोजेक्ट पर आकर अचंभे में डाल जाती है, पता नहीं चलता।”
नदियों पर भारत में बहुत कम साहित्य लिखा गया है, मगर यूरोप में ऐसी कविताओं का एक दौर रहा है। इंग्लैंड में तो ऐसे कवियों की भरमार थी, जो भावावेश में आकर बहुत-कुछ भी लिख लेते थे, मगर जब उनके कंधों पर विकास का भार आया तो वे वहाँ से पतली गली से खिसक गए। आख़िर विकास का मुद्दा भी कुछ होता है! प्रियंका नारायण जे। बी। प्रीस्टले के कथन का उदाहरण देते हुए कहती है:
“कोलिन विलसन की 'आउट साइडर’ पर जे.बी. प्रिस्टले ने यूँ ही नहीं कहा ही था कि ‘यदि आउट साइडर अहंभाव के ज़हर से इतना ज़हरीला हो उठा है, यदि यह केवल घाव करना जानता है, मरहम लगाना नहीं जानता, यदि उसके भीतर घृणा अधिक है और प्रेम कम है, तो हम यह आशा कैसे कर सकते हैं कि वह हमें समाधान के पास पहुँचाएगा।”
कवि आनंद की कविताएँ केवल आनंद के लिए नहीं होती हैं, केवल शब्दों के साथ कलाबाजी, मुक्केबाज़ी या हवाई चिंतन भी नहीं होती हैं। बल्कि उनकी कविताएँ विश्व को अपनी आँखों से देखने का एक व्यापक नज़रिया हैं तथा उनकी वैचारिकता और रचनाशीलता का एक आधार यह भी है कि वे पुराण, इतिहास, अपने इर्द-गिर्द समाज और परिवार से भी कविता के बीज खोजते हैं, जिन पर अपनी क़लम चलाकर विश्व का बेहतर मार्गदर्शन कर सकें। यह बात सही है कि कवि जैसे जीता है, वैसे ही लिखता है। दूसरों के अनुभवों को अपनी लेखनी का आधार बनाकर कोई भी कवि प्रभावी सर्जन नहीं कर सकता है। एक बार रवीन्द्रनाथ को गाँधीजी ने चिट्ठी (यंगइंडिया, 13 अक्टूबर, 1921) लिखी थी है कि कष्ट भोगते रोगियों को कबीर के दोहे या गीत सुनाकर दिलासा नहीं दिया जा सकता। इसी तरह हमें पूरे संसार की मूलभूत समस्याओं का समाधान करने के बजाय सफ़ेद हाथी की नीतियों का निर्धारण करना क्या हमारे विकास का प्रमुख उद्देश्य हो सकता है? दूसरे शब्दों में, यह काव्य केवल मनोरंजक रचना नहीं है, बल्कि एक प्रकार का शोध-पत्र भी है। पढ़ते-पढ़ते भूत-वर्तमान-भविष्य का सारा नज़ारा आँखों के सामने से गुज़रने लगता है।
शोधार्थी गौरव गौतम ने अपने आलेख “‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ में निहित वैश्विक व व्यापक इतिहास दृष्टि“ में सिंधु घाटी की सभ्यता का ज़िक्र करते हुए नर्मदा घाटी के प्रागैतिहासिक सभ्यता की अवहेलना की तरफ़ ध्यान आकर्षित करते हैं। भले ही, नर्मदा घाटी में आदि-मानव सभ्यता के बारे में कोई संकेत नहीं मिले हों, मगर डायनासोरों के जीवाश्मों का मिलना यह इंगित करते हैं कि कभी नर्मदा घाटी भी अपने जल-थल-नभ वाले प्राणियों से भरी रही होगी। नर्मदा नदी का अपना इतिहास है। अशोक के शिलालेख, अमरकंटक का कर्ण मंदिर, कलचुरी कला एवं संस्कृति, गोंड वंश में विवाहित रानी दुर्गावती, वनवासियों की जीवन-शैली आदि नर्मदा के ऐतिहासिक पहलुओं को उजागर करते हैं और वे कवि की इस बात से पूरी तरह सहमत भी है कि नर्मदा विश्व की सारी नदियों को अध्यक्षा हैं, इस वजह से वह संपूर्ण विश्व में शान्ति का संदेश दे सकती है। जिस नदी के परिवेश ने जगद्गुरु शंकराचार्य का निर्माण किया हो, वह क्या विश्व की सारी नदियों में येरूशलम, मिसीसिपी, नील, दजला-फरात में शान्ति-स्थापना का संदेश नहीं दे सकती? जिसके दोनों किनारों पर अध्यात्म रसा-बसा हो, क्या वह अन्य नदियों के उद्योगों से लबरेज़ भौतिकवादी किनारों पर शान्ति की पताका नहीं फहरा सकती? एक जगह गौरव गौतम लिखते हैं कि न्यूज़ीलैंड की वांगानुई नदी की तरह सन 2017 में नर्मदा नदी को जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया गया। जीवित व्यक्ति का दर्जा देने का मतलब मेरी समझ में नहीं आया। भारतीय परंपरा तो प्रकृति के कण-कण में चेतना के अस्तित्व को स्वीकार करती है, फिर जीवित व्यक्ति के दर्जा देने से क्या लाभ, क्या उपलब्धि? अमृतलाल वेगड़ ने 1977 में नर्मदा की पहली बार परिक्रमा की थी। उस समय नर्मदा नदी पर बाँध नहीं बने थे। यह दूसरी बात है कि बाँध बनने की परियोजनाएँ जन्म ले रही थीं। उनकी यात्राओं के समय नर्मदा में किसी भी प्रकार की कृत्रिमता दिखाई नहीं दे रही थी। लाखों वर्ष पुरानी नर्मदा वैसे ही दिखाई दे रही थी। किनारे का एक भी गाँव नहीं डूबा था। उन्हें लग रहा था कि भावी पीढ़ी को उस सौंदर्य के दर्शन और नहीं होंगे तो उन्होंने अपनी तूलिका से अपनी यात्राओं के दौरान नर्मदा-घाटी की कई तस्वीरें बना डालीं, ताकि कम से कम उन तस्वीरों को देखकर भावी पीढ़ी उस सौन्दर्य-पान के लिए अपनी कल्पना की उड़ान भर सके। अमृत लाल जी भारतीय संस्कृति को गंगा की देन मानते हैं अर्थात् गंगा श्रेष्ठ, मगर नर्मदा ज्येष्ठ। उनके इस दृष्टिकोण से कवि आनंद भी सहमत है, तभी तो वे साल में एक बार गंगा को नर्मदा में डुबकी लगवाते हैं और उसे बड़ी दीदी की संज्ञा भी देते हैं।
आज आधुनिक रचनाकारों का यह दायित्व है कि डर, नफ़रत तथा निराशा जैसे नकारात्मक शक्तियों को आशा, प्रेम और शान्ति जैसी सकारात्मक शक्तियों से जीता जाए। आनंद जी के अनुसार अगर हम समय रहते जलवायु परिवर्तन की रोकथाम हेतु पर्यावरण सुरक्षा की तरफ़ ध्यान नहीं देंगे तो हम भविष्य में अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन नहीं कर सकेंगे। इस कठोर यथार्थता को देखते हुए उनका मानना है कि आधुनिक कवियों को मानव-प्रेम के साथ-साथ प्रकृति-प्रेम पर अपनी कविताएँ अधिक से अधिक लिखनी चाहिएँ। वे प्रकृति-प्रेम को अध्यात्म का मार्ग मानते हैं, जिससे एक आत्मा पूर्णता की ओर अग्रसर होनी शुरू होती है और वही प्रेम उसे सुप्रीम पॉवर से मिलाता है। मध्यकालीन भक्त कवि नरसी मेहता, ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, कबीर, सूरदास, शुकदेव, माधव देव, ओड़िशा के पंच सखा और जगन्नाथ दास इस प्रेम के विस्तारित फलक हैं। प्रेम तो अमूर्त है। अंत में, ‘सभ्यताओं के मरने की बारी’ शीर्षक कविता में जसिन्ता करेकट्टा की ये पंक्तियाँ उद्धृत करना मुझे प्रासंगिक लगता है।
“ऑक्सीजन की कमी से/बहुत-सी नदियाँ मर गईं/पर किसी ने ध्यान नहीं दिया/ कि उनकी लाशें तैर रही हैं/ मरे हुए पानी में अब भी/ एक दिन जब सारी नदियाँ/ मर जाएँगी ऑक्सीजन की कमी से/तब मरी हुई नदियों में तैरती मिलेंगी/ सभ्यताओं की लाशें भी”
गौरव का मानना है कि जिस तरह अज्ञेय के लिए प्रकृति उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा थी, वे फूलों को सजाने की वस्तु नहीं मानकर उनमें परिवार की तरह रचे-बसे रहना चाहते थे। इस तरह कवि आनंद सिंह भी नदी को केवल जलधारा नहीं मानते हैं, बल्कि उसमें चेतना के अंश को अनुभूत कर गहन पर्यावरण बोध अपनाने का संदेश देना चाहते हैं। इस तरह उनके इस काव्य-संग्रह में विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय है। न्यूटन, डेकार्ट और यूक्लिड की तरह उनके लिए पृथ्वी काल-पुर्जों वाली मशीन नहीं है, बल्कि चेतना का जीता जागता स्वरूप है। बांद्रा भान होशंगाबाद में नर्मदा पर फरवरी 2007 में सम्पन्न अंतरराष्ट्रीय महोत्सव नर्मदा समग्र में दिए गए व्याख्यान में कवि आनंद कहते हैं:
“वस्तुत: विश्व यंत्र नहीं है जिसके पुर्जों में आपसी संवेदना और सम्प्रेषण भी नहीं, बल्कि, वह जीवंत घटनाओं का महातंत्र है जिसके पीछे चेतना के अपरिमित और अज्ञात मंत्र हैं जिनसे घटनाएँ सूक्ष्मातिसूक्ष्म तौर पर नियंत्रित हो रही हैं।” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-124)
अंत में, इतना ही कहा जा सकता है कि हिन्दी के प्रतिष्ठित आलोचकों ने प्रोफ़ेसर आनंद सिंह की इस कृति को पूरी गंभीरता से लिया है और पर्यावरणीय आलोचना जैसे नए क्षेत्र में भी क़दम रखने का सार्थक प्रयास किया है, ताकि भावी पीढ़ी का चिंतन वैश्विक हो और वे पूरी वसुधा को अपना परिवार समझ सकें, तभी जाकर यह सृष्टि असामयिक जलवायु परिवर्तन के भंयकर परिणामों से बच सकेगी।
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