सौन्दर्य जल में नर्मदा (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
साहित्य नीति जैवनीति है
प्रोफ़ेसर आनंद की काव्य-कृति “सौंदर्य जल में नर्मदा” पर दिनेश कुमार मालीजी द्वारा लिखित आलोचना से गुज़रते वक़्त मुझे लगा कि साहित्य नीति जैवनीति है। यह औपनिषदीय सवाल भी यहाँ प्रासंगिक लगा कि यह रचना भूमि एवं इतिहास के लिए क्या प्रदान करती है? यह रचना हमें यह उम्दा संदेश देती है कि भूमि का शोषण नहीं करना है। उस शोषण से उत्पन्न होने वाली महाविपत्ति की अतिदारूण स्थिति को अत्यंत भयानकता के साथ यहाँ उकेरा गया है। इसके लिए भारतीय एवं पाश्चात्य इतिहास के व्यापक परिप्रेक्ष्य का सहारा लिया गया है। यानी यह कृति भूमि के पोषण और इतिहास के अन्वेषण के द्वारा सही रचनाधर्मिता को निभाती है।
इतिहास में आस्था एक प्रकार से जीवन और साहित्य की परस्पर संबद्धता में आस्था है। वह साहित्य की विकासशीलता की आस्था है। इतिहास-विवेक रचना की व्याख्या में भी सहायक होता है, क्योंकि इतिहास ही रचना का संदर्भ प्रस्तुत करता है और संदर्भ के बिना रचना की प्रामाणिक व्याख्या नहीं हो सकती। आलोचना रचना से निर्मित मूल्यों की सार्थकता और प्रासंगिकता की परख करती है, जिससे नए मूल्यबोध और नई मूल्यदृष्टि का विकास होता है। ऐतिहासिक चेतना से शून्य आलोचक रचनागत मूल्यों की सार्थकता और प्रासंगिकता की पहचान नहीं कर सकता। ऐतिहासिक चेतना से रचनाकारों की राष्ट्रीय, वर्गीय और मानवीय चेतना का बोध होता है। यहाँ ऐतिहासिक चेतना से संपन्न आनंद जी की सही आलोचना मालीजी इसलिए कर पाए कि वे उन रचनाकार की ऐतिहासिक चेतना को पूर्णतः ग्रहण कर उसके सही मूल्यांकन एवं व्याख्या करने में सहायक इतिहास की गह्वरों के तलाशने की क्षमता रखते हैं। इसलिए वे रचना और रचनाकार के जीवन की खोज करने में कामयाब हुए। उन्होंने रचनात्मक प्रवृत्ति एवं साहित्यिक दृष्टिकोण एवं रचना सम्बन्धी रीतियों की व्याख्या की थी। इस प्रक्रिया से गुज़रकर आलोचक ने रचना के सामूहिक विकास का इतिहास निर्मित किया। नदियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को प्रस्तुत करने के साथ नर्मदा नदी के गरिमामय इतिहास पर कितने दृष्टांतों के सहारे प्रमाण सहित आलोचक ने प्रकाश डाला। उनका इतिहास बोध इस परिप्रेक्ष्य में विचारणीय है। भारत के प्रथम इतिहास कश्मीर के कन्हण द्वारा लिखित ‘राजतरंगिणी’ से लेकर नेहरूवियन इतिहासग्रंथों एवं वेद, उपनिषद तथा शंकराचार्य के ‘नर्मदाष्टकम’ तक का उल्लेख किया गया है। असल में नदी सम्बन्धी मान्यताओं को कभी-कभी समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में देखने रखने की कोशिश आलोचक करते हैं तो कभी-कभी दार्शनिकता की उच्चता छू लेते हैं।
ठीक है कि सारी की सारी सभ्यताओं ने नदी तट में जन्म लिया है। सारे विकास के हेतु नदियाँ ही हैं। प्राणी मात्र के लिए नहीं समस्त चराचरों के अस्तित्व और विकास भी नदी या पानी केंद्रित हैं। उन नदियों की अथवा पानी की संकटग्रस्त स्थिति आज की उपभोग संस्कृति की अति का दुष्परिणाम है। बग़ैर दूरदर्शिता की विकास-योजनाएँ विश्व भर में जो संपन्न हो रही हैं, उसका नतीजा समस्त जीवजंतुओं को भोगना पड़ता है। इसलिए पर्यावरण के संरक्षण हेतु, जो भौतिक प्रयत्न हो रहे हैं, उसके समान मुख्य है साहित्य के द्वारा प्रतिबिंबित पारिस्थितिक संवेदनाएँ एवं अध्ययन। ये मनुष्य मन की पुनर्सृष्टि के लिए बहुत सहायक सिद्ध होते हैं।
आधुनिकता औद्योगिक संस्कृति का सौंदर्यशास्त्र है। वह प्रकृति से मनुष्य का अलगाव है। यानी कि वह मनुष्य केन्द्रित मानववाद है। इस अलगाव को इस पुस्तक में यत्र-तत्र अंकित किया गया है। इसके लिए पारिस्थितिक सौंदर्यशास्त्र का उपयोग करने की कोशिश आलोचक ने की है। पारिस्थितिक सौंदर्यशास्त्र की बुनियादी संकल्पनाएँ भौम सदाचार, साकल्यता एवं हरित आध्यात्मिकता है। भौम सदाचार पारिस्थितिक चिंतन की आधारशिला है। भूमि का यथार्थ अधिकारी कौन है, क्या यह भूमि मनुष्य मात्र के लिए है, भूमि के जैव एवं अजैव सत्ता को भी यहाँ अधिकार है या नहीं, इन सभी पर केंद्रित है भौम सदाचार। मनुष्य ही भूमि की दया पर निर्भर है, भौम सदाचार का स्रोत इसे पहचानने में है। लेकिन आज मनुष्य तक सीमित सदाचार संकल्पना ने प्रकृति और मनुष्य के बीच के सम्बन्धों की खाई को बढ़ाया। लेकिन विकासशील देशों में मनुष्य और प्रकृति के अधिकार समान हैं। नर्मदा, साइलेंटवैली, बालियापाल, प्लाच्चिमटा, लात्तूर जगहों पर जो प्रतिरोधी स्वर प्रकट हुए वे इसके लिए पर्याप्त उदाहरण हैं। प्रौद्योगिकी के अतिप्रसरण से साकल्यता नष्ट हो गई। समय केंद्रित मनुष्य अपनी शक्ति पर अहंकार करता है। उन्होंने राजनीति को सदाचार से मुक्त कर दिया। प्रौद्योगिकी को विज्ञान से काटकर अलग किया गया। पर विकास और इकोलॉजी को अलग करने में वे असमर्थ निकले। करोड़ों मनुष्य जल-जलकर मर रहे हैं तब भी विकास के नाम पर प्रशोभित हज़ारों सूरजों को देखकर वे अचंभित होते जा रहे हैं। कई दुर्घटनाओं में हज़ारों की ज़िन्दगी नष्ट हो गई, तब भी लाशों के ऊपर उठने वाले यंत्रों की क्षमता को देखकर वे रोमांचित हो उठते हैं। प्रौद्योगिकी के अक्षय प्रकाश में आज के लोग की बुद्धि, संवेग एवं आध्यात्मिकता का भ्रंश हो गया है। लेकिन पारिस्थितिक दर्शन के केंद्र में जो हरित आध्यात्मिकता है, वह मनुष्य को केंद्र में प्रतिष्ठित करनेवाले मानववाद की जगह प्रपंच सत्ता में, जो अचेतन एवं चेतन हैं, उन सबके अस्तित्व को माननेवाला मानवतावाद है। यह मानवीयता की उदारता है। आजकल का हिंसात्मक भौतिकवाद अभिन्नता के बोध, प्रकृति से रागमय सम्बन्ध और प्रेम तथा सौंदर्य के अवसर नहीं देता है। इसलिए इस रचना में लड़ाई औपनिवेशिक संरक्षण-प्राप्त हिंसक भौतिकवाद से है। वह आनंद जी के काव्य का मूल स्वर लगा। यह भौतिकवाद असल में पूँजीवादी बर्बरता की उपज है।
निष्कर्षतः आज हमारी पृथ्वी भेदभाव, कृत्रिम इच्छाओं और हिंसा से भरी है। मनुष्य और मनुष्य के बीच हृदय का वह सम्बन्ध नहीं बचा है, जो एक समय पनप रहा था। विश्व का पर्यावरण बिगड़ रहा है। लेकिन प्रकृति लूटने का माल नहीं है, विशेषकर नदियों पर मनुष्य का अस्तित्व निर्भर है। जैसे जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में कहा है: “तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन!” तात्पर्य यह है कि हमारे लिए अहिंसा, सादगी, न्याय और सार्वभौम सौहार्द बड़े मूल्य हैं। दिनेश कुमार माली जी की यह रचना हमें यह चेतावनी देती है कि प्रपंच के केंद्र में मानवीयता की प्रतिष्ठा कर, प्रकृति, पेड़-पौधे, पहाड़-नदियाँ, पशु-पक्षी और संपूर्ण सृष्टि का पोषण आज के विश्व की अनिवार्यता है, अन्यथा निकट भविष्य में धरती तपते गोल में परिणत हो जाएगी।
प्रोफ़ेसर के. वनजा
कोच्चि
(प्रसिद्ध भारतीय परिस्थितिक नारीवादी आलोचक)
मोबाइल: 9495839796
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