सौन्दर्य जल में नर्मदा

 

इदन्तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव यदा पठन्ति ते निरन्तरं न यान्ति दुर्गतिं कदा। 
सुलभ्य देहदुर्लभं महेशधाम गौरवं पुनर्भवा नरान वै विलोकयन्ति रौरवम्॥9॥

 

निसन्देह जो मनुष्य नर्मदाष्टाक का तीनों समय सदैव पाठ करते हैं, वे कभी भी दुर्गति को प्राप्त नहीं होते अर्थात् पुनर्जन्म से रहित हुए रौरव नरक नहीं देखते। किन्तु अन्य प्राणियों को दुर्लभ देह भी उन्हें सुलभ होकर शिवलोक का गौरव प्रदान होता है॥9॥

मेरी नज़रों में मानव-सभ्यता के विकास में नर्मदा नदी का अगर सबसे बड़ा योगदान है, तो वह है जगद्‌गुरु शंकराचार्य का अद्वैतवाद। हमारे पास उनके जन्म के बारे में छुट-पुट जानकारियाँ वैसे ही उपलब्ध हैं, जैसे कालिदास, तुलसीदास, जयदेव और अन्य हमारे महान संतों के जन्म के समय और स्थान के बारे में मिलती हैं। न जन्म-स्थान की सही जानकारी होती है और न ही जन्म-वर्ष की। सब जगह वैसा ही विवाद आज भी मौजूद है! महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक आदि शंकराचार्य के जीवन पर आधारित लोक भारती प्रकाशन, प्रयागराज से प्रकाशित सुधाकर अदीब के उपन्यास ‘महापथ’ (आदि शंकराचार्य की दिग्विजय)  के अनुसार आचार्य शंकर के काल निर्धारण की जब बात आती है तो उनके जन्म और निर्वाण के समय एक अच्छा ख़ासा मतभेद सामने आता है। अधिकाश पाश्चात्य लेखक और उनके अनुयायी भारतीय इतिहासकार आद्य शंकराचार्य को सातवीं अथवा आठवीं शताब्दी का ईसवी का व्यक्तित्व मानते हैं। तदनुसार वे 1200 साल पुराने इतिहास पुरुष हैं। जबकि व्यापक अनुसंधान और विस्तृत अध्ययन यह विनिश्चित करता है कि इस ऐतिहासिक विभूति का जन्म वास्तव में आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ था। सुधाकर अदीब के अनुसार उनका जन्म 507 ईसा पूर्व तथा सदेह शिवलोक गमन 475 ईसा पूर्व में हुआ था। मात्र 32 साल की अल्पायु में उन्होंने सम्पूर्ण भारत भूमि को अनेक बार लंबी-लंबी पदयात्राओं द्वारा नाप डाला। 

वर्तमान इतिहासकार जिन शंकराचार्य को 788-820 ई. का बताते हैं, वे वस्तुतः कामकोटि पीठ के 38वें आचार्य श्री अभिनवशंकर जी थे। इस तरह अँग्रेज़ शोधार्थी और उनके अनुयायी भारतीय इतिहासकार उनके कालखंड को लगभग 1300 वर्ष आगे खींच लाए! और इतने बड़े अंतराल में जन्म लेते हैं, तत्कालीन युग-प्रवर्तक जैसे महावीर जैन, ईसा मसीह, मोहम्मद पैगंबर, सिकंदर, गौतम बुद्ध आदि। सच में देखा जाए तो आज भी हम इतिहास-बोध और उसके संरक्षण में बहुत पीछे है। जब भारत में शिक्षा ग्रहण करने आए घुमंतू हवेनसांग पर सारी जानकारियाँ जुटाकर चीनी भाषा में विश्व स्तरीय उपन्यास लिखा जा सकता है, मगर भारत में आदि शंकराचार्य जैसे बड़े संत, कवि, अध्यात्मवेत्ता, अद्वैतवाद के प्रतिपादक की जीवन-गाथा के बारे में आज भी प्रमाणिकता का अभाव बुरी तरह खलता है। 

वे केरल से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ पहुँचते है, जहाँ गुरु गोविंदपाद से योग, अद्वैत, ब्रह्म-ज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर तीन वर्ष तक आचार्य शंकर वहाँ अद्वैत तत्त्व की साधना करने लगते है। कवि आनंद के काव्य-संग्रह “सौन्दर्य जल में नर्मदा” में शंकराचार्य के ‘नर्मदाष्टकम्’ के हिन्दी अनुवाद पढ़ने और दो-तीन कविताओं में उनकी ओर अमूर्तरूप से किए गए संकेतों से प्रभावित होने की वजह से यह आलेख लिखने का मेरे मन में विचार आया। उदाहरण के तौर पर:

“क्या सह लिए जिनने आघात/ जीवन के किमाकार पथ के/ सक्षम हो जाते हैं करुणाक्षम आत्म-सजग चैतन्य के वाहन! शायद इसीलिए शिवोऽहम् के स्थाणु/ प्राणान्वित करते हैं/ नर्मदा के जल को” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-30) में ‘शिवोऽहम् के स्थाणु’ पंक्ति ने और दूसरी कविता से उद्धृत पंक्तियों “एक छूटे हुए मन वाला कवि जो/ सुमिरता तुम्हारा नाम/खोजता है परानुरक्ति/ पड़ा हुआ विवश संग/भाषा की बालू लहर में/लेटी हुई है कविता!” में कवि और कविता शब्दों ने मेरा ध्यान शंकराचार्य की ओर आकर्षित किया, क्योंकि ‘अहम ब्रह्मास्मि’, ‘तत्वमसि’, ‘शिवोऽहम्’, ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ आदि की सर्वप्रथम घोषणा करने वाले जगद्गुरु शंकराचार्य के सिवाय और कोई नहीं था, और सरस्वती के वरदान से कविता तो हर समय उनकी जिह्वा की नोक पर रहती थी। ओंकारेश्वर में गुरु गोविंद पाद को देखते ही ‘गुरु अष्टकम्‌’, शिवलिंग के सामने ध्यान में बैठे ही ‘शिव पंचाक्षर स्तोत्रम्‌’, नर्मदा, गंगा और यमुना आदि नदियों को देखते ही ‘नर्मदाष्टकम्’, ‘गंगाष्टकम्‌’, ‘यमुनाष्टकम्‌’, शव के सामने रोती स्त्री में माँ पार्वती के दर्शन कर उनके सम्मान में ‘शक्ति-स्तुति’ ऐसी अनगिन उनके मुख से निःसृत स्फुट अनमोल रचनाएँ हैं। उनके द्वारा रचित ‘सौन्दर्य-लहरी’ में उल्लेख आता है कि माता पार्वती ने द्रविडशिशु शंकराचार्य को दुग्धपान कराया था, जिससे उनका कवित्व जागा और वे प्रौढ़ कवियों की तरह कविताएँ करने लगे। प्रोफ़ेसर आनंद कुमार सिंह द्वारा ‘सौन्दर्य-लहरी’ के हिन्दी अनुवाद ‘शक्ति ऑकल्ट’ की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य है:
“दूध तुम्हारा हिमगिरिसुते हृदय से झरकर पारावार मचलता मानो सारस्वत यह दयावती से प्राप्त द्रविड़शिशु पीकर जिसको कवियों में भी प्रौढ़ काव्य का सृजन कर रहा!” (‘शक्ति ऑकल्ट’, श्लोक-) 

यह ठीक ऐसा ही उदाहरण था, जैसे मूर्ख कालिदास के जीभ की नोक पर सरस्वती बैठने लगी। कहते हैं कि योजनाबद्ध ढंग से गड़रिए कालिदास ने राजकुमारी को शास्त्रार्थ में पराजित किया, मगर उस रहस्य से पर्दा हटने पर राजकुमारी से अपमानित होकर उसने एक जलाशय में डूबकर आत्म-हत्या करनी चाही तो देवी सरस्वती ने प्रकट होकर उसे बचाया और उनके आशीष से उनमें कवित्व का संचार हुआ, तभी तो वे ‘मेघदूत’, ‘अभिज्ञान शाकुंतलं’, ‘कुमारसंभवं’, ‘रघुवंशं’ जैसी वैश्विक कालजयी कृतियाँ लिख पाए। 

आर्यावर्त में बड़े-बड़े कवियों के साथ हमेशा ऐसा कुछ-न-कुछ चमत्कारिक घटित होता ही रहा है! 

शंकराचार्य के ‘नर्मदाष्टकम्’ के हिन्दी अनुवाद में प्रोफ़ेसर आनंद लिखते हैं यह देह भी नदी है, नर्मदा की तरह, जहाँ सारे तीर्थ है, जहाँ सारे पाप-तापों के पर्वत हैं, जहाँ सारे देवी-देवता, किन्नर-असुर हैं, जहाँ सारे ऋषि-मुनि गुणी-ज्ञानी है, जहाँ जीव-जंतुओं के प्रति करुणा-उदारता है, जहाँ आसक्ति हैं। जिस तरह नर्मदा नदी उन्हें शरण देती हैं, उनकी रक्षा करती हैं, उन्हें सुख देती हैं, आह्लादित करती हैं और सारे पहाड़-पर्वत, नदी-नाले, मैदान, घाट पार करते हुए असीम समुद्र में विलीन हो जाती है, उसी तरह यह देह नदी भी आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक ताप-घाटों वाले छह चक्रों को पार करते हुए ‘हर्मदे-शर्मदे-वर्मदे-नर्मदे’ की परिपाटी पर ही असीम सत्ता सहस्रार में विलीन हो जाती है। सच में ‘नर्मदाष्टकम्’ गहन पर्यावरण की कविता है, जो न केवल नर्मदा नदी पर ही लागू होती हैं, वरन् विश्व की हर नदी के लिए उनका एक-एक शब्द खरा उतरता है। आगे विवेचन करने से पूर्व, पाठकों के लिए यहाँ कवि आनंद का ‘नर्मदाष्टकम्’ का हिन्दी अनुवाद ‘नर्मदा के लिए आठ छन्द’ प्रस्तुत करना सुसंगत प्रतीत हो रहा है: 

“देह नदी/ जो पावन जल बूँदों से शोभित/ जल-तरंग के अंग-भंग पर खेल रही है॥वह पवित्र जल जिसमें क्षमता/ पापजात लोगों का विध्वंसन करने की/ मृत्यु लिए जो संग घूमते/ यमदूतों से रक्षा करती/ शरण दे रही/ नमन तुम्हारे चरण-कमल में देवि, नर्मदे!”

“जल के भीतर लीन हो रही/ दीन मछलियों को देती हो/ दिव्य छुवन अपनी ममता का/ कलि के पापों के ढूहों को ढाह रही हो/ सब तीर्थों में अग्रगण्य/ ओ तीर्थनायिके!। देती हो सुख/ मच्छों, कछुओं, ग्राहों, हंसों, चक्रवाक को/ नमन तुम्हारे चरण-कमल में देवि, नर्मदे! 

“तल जिसका गंभीर नीरपूरित, भूतल के/ पापों-तापों के पहाड़ को तोड़-फोड़कर/ ध्वनित हो रही/ प्रलय काल में महाभयों से/रक्षा करती है/ मृकण्ड के सुत को देती/ सुख जीवन का/ नमन तुम्हारे चरण-कमल में देवि, नर्मदे! 

“देख लिया है जबसे मैंने/ तेरे जल को/ अभय हुआ मैं छूट गयी आसक्ति जगत की/ वह जल जिसकी अर्चा की है सदा सर्वदा/ सुतमृकण्ड, शौनक, देवों ने/ पुनर्जन्म औ भवसागर के/ दुखदावों से रक्षा करती/ ढाल सदृश जो/ नमन तुम्हारे चरण कमल में देवि, नर्मदे! 

“जो अदृश्य अनगिन/किन्नर, देवों, असुरों आदिक से पूजित/ सुन्दर जल के स्वच्छ तटों पर/ कूज रहे हैं लाखों पन्छी/ तुम बसिष्ठ ऋषि, शिष्ट, पिप्पलाद, कर्दम सम/ जाने कितने ही ऋषियों को/ देती हो आनन्द/ नमन तुम्हारे चरण कमल में देवि, नर्मदे! 

“सनत्कुमार जो ब्रह्मपुत्र, नचिकेता, कश्यप, /अत्रि भ्रमर-ऋषियों से वंदित/ नारदादि षट्पद समान जो भक्तिमान हैं॥निज मानस में/जिनने तेरे चरण गहे हैं/ आह्लादित कर देती है जो/ सूर्य, चन्द्रमा रन्तिदेव को/ देवराज के कर्मों को जो सफल कर रही/ नमन तुम्हारे चरण कमल में देवि, नर्मदे! 

“जिसके तट पर/ लाखों सारस कूज रहे हैं/ जल वह पापमुक्त कर देता/ अनगिन औ असंख्य लाखों पापों को धोकर/ भुक्ति-मुक्ति देती सबको/ जीव-जन्तुओं को अपने जल/ विधि-हरि-हर देने लगते हैं/अपना-अपना धाम दिव्य फिर/ नमन तुम्हारे चरण-कमल में देवि, नर्मदे! 

“सुनता हूँ मैं/ केवल धुन अमरत्व भाव की/ इस महेशकेशजा तट पर/ क्योंकि शीघ्र ही पापमुक्त करती जाती तुम/ हो किरात, सूत, वाडव, पंडित, शठ, नट हो/ हरण कर रही पाप-ताप सब/ सुख देती तुम/ जीवमात्र को/ नमन तुम्हारे चरण-कमल में देवि, नर्मदे!”

“ये हैं जो/ नर्मदा नदी के लिए आठ पद/ जो त्रिकाल में पढ़ते इनको/ उनको दुर्गति नहीं व्यापती/ कभी कहीं भी/ जो दुर्लभ है वह महेश का महाधाम भी/ हो जाता है सुलभ उन्हें फिर/ उनका जन्म नहीं होता, वे रौरव नरक नहीं जाते हैं! 

 (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-97 से 100) 

उपर्युक्त कविता से न केवल हम शंकराचार्य की गहन पर्यावरण चेतना, अध्यात्म, नदी के जीव-जन्तु, तट के किनारे रहने वाले लोगों की जीवन-शैली, प्राकृतिक सुषमा और नदी के देवीकरण के द्वारा अद्वैतवाद की ओर खींचे चले जाते हैं, बल्कि भारत के अतीत के गौरव को भी याद करने लगते हैं। 

शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों के अतिरिक्त आज शंकराचार्य पर कुछ उपन्यास, ग्रंथ और जीवनी अवश्य मिलेगी, पर लेखकों ने उनमें भी उन्हें मिथकीय पात्र बनाने वाली घटनावलियों को प्रस्तुत कर उनकी मानवीय पक्ष पर न केवल प्रश्न चिह्न लगा दिया, वरन् उन्हें अलौकिक घोषित कर हमारी पहुँच से परे कर दिया। उदाहरण के तौर पर उन्हें शिव के अवतार घोषित करना, संन्यास लेने के लिए अपनी माता आर्यम्बा के सामने नदी के किनारे एक मगरमच्छ द्वारा पैर पकड़वाने का नाटक करना, उनकी ध्यानवस्था में एक कापालिक के उन पर जानलेवा हमला करने पर उनके शिष्य पद्मपाद द्वारा नृसिंह का रूप ग्रहण कर उसे चीरकर फाड़ डालना और ध्यान-भंग होने पर नृसिंह को शांत करने के लिए उनके मुख से “नृसिंह करावलंब (करुणरस) स्तोत्रम्‌” की रचना, राजा अमरूक की मृत काया में परकाया प्रवेश कर उनकी सौ रानियों से रतिक्रिया के बाद में ‘अमरुक शतक’ लिखकर अपने से शास्त्रार्थ में पराजित मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती को सुपुर्द करना, सदेह शिवलोक गमन करना, बौद्ध तांत्रिक अभिनव गुप्त के तंत्र-मंत्र से उन्हें भगन्दर की बीमारी होना, अपने अधोवस्त्र को धोने वाले अनपढ़ सेवक के मुख से संस्कृत के कठिनतम छंद त्रेटक में त्रिपुर सुंदरी की प्रार्थना सुनाना आदि ऐसी विवादास्पद घटनाएँ हैं, जो उन्हें साधारण जन-मानस से पृथक् करती है। तत्कालीन भारत भौगोलिक दृष्टिकोण से बहुत बड़ा देश था। उस समय भी आज की भाँति तरह-तरह की भाषाएँ बोली जाती होगी। हो सकता है, संस्कृत संपर्क भाषा के रूप में काम आ रही होगी। इस वजह से संस्कृत भाषा में उनके अनूठे कवित्व ने पूरे देश को जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, जैसे विगत सदी में महात्मा गाँधी के समय में हिन्दी ने। शंकराचार्य के विषय में कहा गया है-

अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित् षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्

अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्य तथा बत्तीस वर्ष की आयु में केदारनाथ के समीप पहाड़ी से सशरीर शिवलोक चले गए। सुधाकर अदीब के अनुसार उनकी भारत-दिग्विजय का महापथ इस प्रकार था: 

“कलाड़ी (केरल)—शृंगेरी—ओंकारेश्वर–-काशी—देवप्रयाग—रुद्रप्रयाग-कर्णप्रयाग—नन्द प्रयाग—ज्योतिर्धाम—विष्णुप्रयाग—बद्रीनाथ–केदारनाथ—सोनप्रयाग—गौरीकुंड—रामबाड़ा-गंगोत्री-गोमुख-उत्तरकाशी—प्रयागराज-शृंगेरीमठ (कर्नाटक) –-गोवर्धन मठ (ओड़िशा) –-शारदा मठ (द्वारिका, गुजरात)—तक्षशिला–कश्मीर-नैमिषारण्य—अयोध्या—गौड़-कामरूप–-काठमांडू—ज्योतिर्मठ—बद्रीनाथ–-केदारनाथ–सदेह शिवलोक गमन” 

आठ वर्ष की अवस्था में ओंकारेश्वर पहुँचकर श्री गोविन्द पाद के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुनः वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुँच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, महिष्मती में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना-इत्यादि कार्य इनके महत्त्व को और बढ़ा देता है। दशनाम गोस्वामी समाज (सरस्वती, गिरि, पुरी, बन, भारती, तीर्थ, सागर, अरण्य, पर्वत और आश्रम) की स्थापना कर, हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार-प्रसार व रक्षा का कार्य सौंपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्य की रचना कर विश्व को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वे प्रकांड आध्यात्मिक वैश्विक महाकवि थे और उनकी अंतर्वस्तु थी ईश्वरीय अद्वैतवादी विषय। केरल के मालाबार प्रांत के कालपी अथवा 'काषल' गाँव के रहने वाले उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी भट्ट ब्राह्मण थे, जिनका उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। 

सतयुग की अपेक्षा त्रेता में, त्रेता की अपेक्षा द्वापर में तथा द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किय‍ा। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की रचना कर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षित कर धर्म-आध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त हो रहा था वैदिक ज्ञान। उस वाङ्मय को फिर से दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट स्थापित करने वाले शंकराचार्य ने भाष्य, प्रकरण तथा स्तोत्र-ग्रन्थों की रचना कर, विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ के अहर्निश अथक परिश्रम द्वारा धर्म-अध्यात्म को प्रतिष्ठित किया। 

मुझे शंकराचार्य-साहित्य के कुछ ग्रंथों को पढ़ने के बाद इतना अहसास ज़रूर हुआ कि वे निराकरवादी थे और जातिविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। कहते हैं, जब वे काशी जा रहे थे कि एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला, “हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जायें।” चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा, “आपने मुझे ज्ञान दिया है, अतः आप मेरे गुरु हुए।”

यही है उनके अद्वैतवाद की पृष्ठभूमि, दृष्टिकोण और जातिविहीन समाज का सपना। बाहरी कर्मकांड, पूजा-पाठ, तिलक-चंदन, यज्ञ-हवं, धूप-अगरबत्ती आदि में उनका क़तई विश्वास नहीं था। ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमें जो भी अंतर नज़र आता है उसका कारण अज्ञान है। जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है। जीव की मुक्ति ब्रह्म-लीन होने में है। अगर उन्हें सिंधु-घाटी के सभ्यता की बात की जाए तो उस सभ्यता में कहीं कोई मंदिर नज़र नहीं आता है। आर्य लोग मूर्ति-पूजा नहीं करते थे। आर्य नर्मदा लाँघकर दक्षिण में घुस आए और अपनी कृतियों का प्रचार करने लगे, ख़ासकर चारों वेदों का, तभी तो द्रविड़ शिशु शंकर, दक्षिण में उत्पन्न होकर भी उत्तर के आर्यों की रचनाओं का अध्ययन करते हैं, उनकी भाषा में और उन पर अपनी टीकाएं, भाष्य आदि लिखते हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि अज्ञानवश हम शंकराचार्य-दर्शन को अपनी मन-मर्ज़ी से सगुण-निर्गुण दोनों में बदल देते हैं। निराकार ईश्वर मानने वाले में भी सगुण ब्रह्म के बीज खोजते हैं। ‘तत्त्‍‌वमसि’ (तुम ही ब्रह्म हो); ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ही ब्रह्म हूं) ’; 'अयामात्मा ब्रह्म' (यह आत्मा ही ब्रह्म है); बृहदारण्यकोपनिषद् और छान्दोग्योपनिषद की इन उक्तियों द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्‍‌न शंकराचार्य जी ने किया है, मगर कहाँ तक सफल हुए? आज भी समाज में अनेक जातियाँ मौजूद है, आज भी चांडाल अस्पृश्य है, चांडाल के रूप में उन्हें शिव-दर्शन होने का कोई ख़ास फ़ायदा नहीं निकला। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है। आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म सहित अपने समय के विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं से धार्मिक वाद-विवाद किया और शास्त्रार्थ में कुछ उल्लेखनीय लोगों को सार्वजनिक रूप से हराया। हो सकता हैं, उन्हें मोक्ष मिल गया होगा, लेकिन बाक़ी तो अभी भी मायाजाल में न केवल फँसे हुए हैं, बल्कि उनके दर्शन को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने वाले आने वाली पीढ़ी को और ज़्यादा अँधेरे गर्त में धकेला जा रहा हैं, यह कहकर कि ऐसा शंकराचार्य ने कहा है, और अंध-भक्त उन पर विश्वास कर लेते हैं। शंकराचार्य ने कहा है, ब्रह्म एक है, दो नहीं। ब्रह्म ही परमात्मा है और ब्रह्म ही जीवात्मा है यानी परमात्मा=जीवात्मा। अगर ब्रह्म सत्-चित्त-आनंद है तो जीवात्मा भी। यह जीवात्मा ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, कुछ भी हो सकती है, ढोल, गँवार, पशु, शूद्र, नारी, भी तब तो सभी परमात्मा हैं। फिर ऐसा वर्ण के आधार पर समाज में वर्गीकरण क्यों? अद्वैत तो मनुस्मृति को महान मानने वाले देश भारत में पूरी तरह विफल है। यहाँ द्वैत तो क्या, त्रवेत, चतुर्वैत, पंचवैत सब-कुछ हैं। ज़रा विचार कीजिए, उस समय दक्षिण के लोगों को अनार्य बोला जाता था, उत्तर के लोगों का आर्य। तब किसी अनार्य संत को आर्य संस्कृति के प्रचार की क्या ज़रूरत पड़ी? इसका मतलब यह हो सकता है कि शिव अनार्य देवता है और कालांतर में शंकराचार्य ने उन्हें आर्य-संस्कृति में स्थापित कर देश को एकता के सूत्र में बाँध दिया। आर्य-अनार्य में झगड़े-झंझट ख़त्म हो जाए, क्योंकि राम के समय से चलते ही आ रहे थे, दंडकारण्य में आर्य नरेश राम द्वारा अनार्य ताड़का का वध करना इस बात की ओर संकेत करता है। शंकराचार्य वेदों के ज्ञान पक्ष को मानने वाले हैं न कि मूर्ति-पूजा, बाह्य-आडंबर, और अन्य कर्मकांडों को, इस वजह से वे भारत के चारों कोनों में शिव मंदिरों की स्थापना तो कभी नहीं करेंगे। जो कुछ शंकराचार्य कहना चाहते थे, 2500 साल के अंतराल में उनके मठाधीश शिष्यों ने उन्हें ईश्वर का अवतार घोषित उनके भाष्यों में अपनी मनगढ़ंत कहानियाँ मिलाकर आज तक उनके सपनों को साकार होने नहीं दिया। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं, इस हेतु उन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखे। निराकार ईश्वर का प्रचार-प्रसार पूरे भारतवर्ष में किया। विन्सेंट स्मिथ सहित कई विद्वानों का भी तर्क है कि उस कालखंड में वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, शृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की, केवल इसलिए कि इन चारों मठों में चार वेदों पर शोध होगा, विमर्श होगा, अध्ययन होगा। प्रत्येक मठ एक वेद के अध्ययन हेतु समर्पित किया गया था, लेकिन हुआ क्या, परवर्ती काल में वेद-शोध-केंद्र न बनकर मठाधीशों का अड्डा बन गया और सदैव राजनैतिक सरगर्मियों का शिकार बना। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व-कृतित्व के मूल्यांकन से हम कह सकते हैं कि हर प्रकार से राष्ट्र को एकता सूत्र में बाँधने का कार्य शंकराचार्य जी ने किया। भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है, लेकिन वैसा योगदान नहीं, जैसा उन्होंने सोचा था। अब आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें उनका अद्वैतवाद धीरे-धीरे संक्रमित होकर शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद अर्थात् निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। ज्ञान-भक्ति के संगम पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही, सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। तत्कालीन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में स्वामी दयानंद सरस्वती अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के एकादशसमुल्लास में लिखते हैं:

“कुछ जैनियों और कुछ शङ्कराचार्य के अनुयायी लोगों के उपदेश के संस्कार आर्यावर्त्त में फैले थे और आपस में खण्डन-मण्डन भी चलता था। शङ्कराचार्य के तीन सौ वर्ष के पश्चात् उज्जैन नगरी में विक्रमादित्य राजा प्रतापी हुआ, जिसने सब राजाओं के मध्य प्रवृत्त हुई लड़ाई को मिटाकर शान्ति स्थापन की। तत्पश्चात् भतृहरि राजा काव्यादि शास्त्र और अन्य विषयों में भी कुछ-कुछ विद्वान हुआ। उसने वैराग्यवान् होकर राज्य को छोड़ दिया। विक्रमादित्य के पाँच सौ वर्ष के पश्चात् राजा भोज हुआ। उसने थोड़ा-सा व्याकरण और काव्यालङ्कारादि का इतना प्रचार किया कि जिसके राज्य में कालिदास बकरी चराने वाला भी रघुवंश काव्य का कर्त्ता हुआ। राजा भोज के पास जो कोई अच्छा श्लोक बनाकर ले जाता था उसको बहुत-सा धन देते थे और प्रतिष्ठा होती थी। उसके पश्चात् राजाओं और श्रीमानों ने पढ़ना ही छोड़ दिया। 

यद्यपि शङ्कराचार्य के पूर्व वाममार्गियों के पश्चात् शैव आदि सम्प्रदायस्थ मतवादी भी हुए थे, परन्तु उनका बहुत बल नहीं हुआ था, महाराजा विक्रमादित्य से लेके शैवों का बल बढ़ता आया। शैवों में पाशुपतादि बहुत-सी शाखा हुई थीं, जैसी वाममार्गियों में दश महाविद्यादि की शाखा हैं। लोगों ने शङ्कराचार्य को शिव का अवतार ठहराया। उनके अनुयायी संन्यासी भी शैवमत में प्रवृत्त हो गये और वाममार्गियों को भी मिलाते रहे। वाममार्गी, देवी जो शिव की पत्नी है, उसके उपासक और शैव महादेव के उपासक हुए। ये दोनों रुद्राक्ष और भस्म अद्यावधि धारण करते हैं, परन्तु जितने वाममार्गी वेदविरोधी हैं वैसे शैव नहीं हैं। 
इन लोगों ने–

धिक् धिक् कपालं भस्मरुद्राक्षविहीनम्॥1॥
रुद्राक्षान् कण्ठदेशे दशनपरिमितान्मस्तके विंशति द्वे, 
षट् षट् कर्णप्रदेशे करयुगलगतान् द्वादशान्द्वादशैव। 
बाह्रोरिन्दोः कलाभिः पृथगिति गदितमेकमेवं शिखायाम्, 
 वक्षस्यष्टाऽधिकं यः कलयति शतकं स स्वयं नीलकण्ठः॥2॥

इत्यादि बहुत प्रकार के श्लोक बनाये और कहने लगे कि जिस के कपाल में भस्म और कण्ठ में रुद्राक्ष नहीं है उसको धिक्कार है। “तं त्यजेदन्त्यजं यथा” उसको चांडाल के तुल्य त्याग करना चाहिए॥1॥

जो कण्ठ में 32, शिर में 40, छह-छह कानों में, बारह-बारह करो में, सोलह-सोलह भुजाओं में, 1 शिखा में और हृदय में 108 रुद्राक्ष धारण करता है वह साक्षात्‌ महादेव के सदृश है॥2॥

ऐसा ही शाक्त भी मानते हैं। पश्चात् इन वाममार्गियों और शैवों ने सम्मति करके भग लिङ्ग का स्थापन किया, जिसको जलाधारी और लिङ्ग कहते हैं और उसकी पूजा करने लगे। उन निर्लज्जों को तनिक भी लज्जा न आई कि यह पामरपन का काम हम क्यों करते हैं? किसी कवि ने कहा है कि “स्वार्थी दोषं न पश्यति” स्वार्थी लोग अपने स्वार्थसिद्धि करने में दुष्ट कामों को भी श्रेष्ठ मान दोष को नहीं देखते है। उसी पाषणादि मूर्ति और भग-लिङ्ग की पूजा में सारे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि सिद्धियाँ मानने लगे॥“ (सत्यार्थप्रकाशः, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ-246) 

जबकि शंकराचार्य ने समस्त मानव जाति के लिए जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया था: 

दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शान्तिमाप्नुयात्। 
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥

अर्थात् दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शान्ति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। 

शंकराचार्य के समय में समाज में वेदों के अध्ययन क्षीण होने लगा था तो उन्होंने सोचा कि कम से कम वेदों के सार– उपनिषदों का ही सही अध्ययन हो, अगर उपनिषद भी नहीं तो कम से गीता और ब्रह्म-सूत्र ही सही, अखिल विश्व के जन-मानस में प्रचार-प्रसार हो। यह उनके प्रस्थान-त्रयी का उद्देश्य था। अगर वेदों को पढ़ने के लिए समय नहीं है तो कम से कम वेदों के अंत (सारांश) को ही सही पढ़ा जाए, यानी वेदांती बने। लेकिन यह सफ़र इतना सरल नहीं था, इसलिए हो सकता है कि शंकराचार्य ने समन्वयवादी विचारधारा के विशिष्ट प्रवर्तक बनकर उभरे या उन्हें किसी साज़िश के तहत उभारा गया। शंकराचार्य को जहाँ जो मिला, शायद की उन्होंने उनके देवी-देवताओं की स्तुति की, लेकिन कुटिल लोगों ने उनके नाम का प्रचार कर लिया और उनके एकत्व का उदाहरण प्रस्तुत किया कि यदि कही उन्हें शैव मिले तो शैव की तरफ़, कही वैष्णव मिले तो उनकी ओर और कही शाक्त मिले तो उन्हें भी अपना माना, यह कहकर कि सभी तो एक ही है। किसी में कोई फ़र्क़ नहीं है, यहाँ तक कि जैन, बौद्ध, तंत्र, यवन, हूण, कुषाण-सभी के पंथों में एक ही अमिट-अटूट सत्य है कि आत्मा ही परमात्मा है। केवल अनुभव नहीं होता है, अज्ञान के कारण। अज्ञान का पर्दा होने के कारण से आत्मा और परमात्मा अलग-अलग नज़र आते हैं। समझने में दिक़्क़त फिर भी इस बात में आती हैं, जहाँ परमात्मा त्रय:तापों द्वारा जैसे आधिदैविक आपदाओं जैसे आँधी-तूफ़ान, भूकंप, सुनामी, कॉविड जैसी वैश्विक महामारी, वृष्टि-अनावृष्टि आदि की सृष्टि कर सकते हैं, परन्तु क्या कोई जीवात्मा ऐसा कर सकता है? जीवात्मा की क्या औक़ात है? इतने सारे कार्यों को निष्पादित करने के जीव को सर्वव्यापी होना पड़ेगा, जबकि वह ख़ुद तो किसी न किसी शरीर के भीतर सीमित है और आजीवन उस शरीर के भीतर ही घूमती रहती है। केवल शारीरिक यात्रा में उसका सहयोग है, मगर परमात्मा के कार्यों में कैसे हस्तक्षेप कर सकती है। लेकिन शंकराचार्य की दलील है कि ‘आत्मा ही परमात्मा है’, ‘मैं शिव हूँ,, ‘तुम वही हो’, ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ आदि इतनी बड़ी-बड़ी घोषणाों के पीछे कोई-न-कोई रहस्य तो अवश्य छुपा होगा! जब हर कोई जीव अपने आपको शिव या ब्रह्म या परमात्मा समझने लगे तो फिर परमात्मा द्वारा परमात्मा के लिए किए जाने वाले किसी कर्मकांड की आवश्यकता ही नहीं है। जो भी काम आत्मा कर रही है, वह काम परमात्मा द्वारा ही करवाया जा रहा है यानी चिंतन यही रहेगा कि परमात्मा ही वह काम कर रहा है, तो जान-बूझकर कोई भी बुरा काम नहीं करेगा। लेकिन यह कटु सत्य है कि अज्ञान के कारण हम आत्मा को पूर्ण परमात्मा तो क्या, परमात्मा का लघुत्तम अंश तक भी नहीं मान पाते और जब तक हम उस स्तर तक नहीं पहुँच पाते हैं, तब तक विश्व की सारी समस्याओं का समाधान असंभव है। 

हम अपनी आत्मा को केवल अपने शरीर का आवरण समझने लगते हैं और वही से होता है ग़लतियों का दौर शुरू। शरीर तो विनाशी तत्त्व है, इसलिए अगर प्रत्येक जीव अपने आपको परमात्मा मानना शुरू कर देता है तो न कोई किसी का वध करेगा और न ही किसी के साथ कोई छल-कपट। न राम-रावण का युद्ध होगा, न महाभारत के षड्यन्त्र। अपने हृदय पर हाथ रखकर पूछिए कि आज लगभग 2500 साल बीत गए, क्या हम शंकराचार्य को ‘एज़ ही वाज़’ रूप में समझ पाए? नहीं, यही कारण है कि आज भी सम्पूर्ण विश्व में तरह-तरह के संकट मँडरा रहे है। शंकराचार्य को यथार्थ रूप में नहीं समझ पाना हमारी सबसे बड़ी मानवीय भूल है। जब भी कोई विचार किसी आत्मा में जन्म लेता है तो तुरंत ही दूसरी आत्मा में विरोधी विचार पैदा होता है। यह नैसर्गिक प्रवृत्ति रही है। मिथकीय सीमाओं से परे जाकर अगर हम शंकराचार्य का आकलन करते है तो आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के निम्न गद्यांश से सहमत होंगे:

“बाईस सौ वर्ष हुए कि एक शङ्कराचार्य द्रविड़ देशोत्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मचर्य से व्याकरणादि सब शास्त्रों को पढ़कर सोचने लगे कि अहह! सत्य आस्तिक वेदमत का घटना और जैन नास्तिक मत का चलना बड़ी हानि की बात हुई है, इनको किसी प्रकार हटाना चाहिये। शङ्कराचार्य शास्त्र तो पढ़े ही थे परन्तु जैन मत के भी पुस्तक पढ़े थे और उनकी युक्ति भी बहुत प्रबल थीं। उन्होंने विचारा कि इनको किस प्रकार हटावें? निश्चय हुआ कि उपदेश और शास्त्रार्थ करने से ये लोग हटेंगे। ऐसा विचार कर उज्जैन नगरी में आये। वहाँ उस समय सुधन्वा राजा था, जो जैनियों के ग्रन्थ और कुछ संस्कृत भी पढ़ा था। वहाँ जाकर वेद का उपदेश करने लगे और राजा से मिलकर कहा कि आप संस्कृत और जैनियों के भी ग्रन्थों को पढ़े हो और जैन मत को मानते हो, इसलिये आपको जैनियों के पंडितों के साथ मेरा शास्त्रार्थ कराइये, इस प्रतिज्ञा जो हारे सो जीतने वाले का मत स्वीकार कर ले और आप भी जीतने वाले का मत स्वीकार कीजियेगा|

यद्यपि सुधन्वा जैनमत में थे तथापि संस्कृत ग्रन्थ पढ़ने से उनकी बुद्धि में कुछ विद्या का प्रकाश था। इससे उनके मन में अत्यन्त पशुता नहीं छाई थी। क्योंकि जो विद्वान् होता है वह सत्याऽसत्य की परीक्षा करके सत्य ग्रहण और असत्य को छोड़ देता है। जब तक सुधन्वा राजा को बड़ा विद्वान् उपदेशक नहीं मिला था तब तक संदेह में थे कि इनमें कौनसा सत्य और कौनसा असत्य है? जब शङ्कराचार्य की यह बात सुनी और बड़ी प्रसन्नता के साथ बोले कि हम शास्त्रार्थ कराके सत्याऽसत्य का निर्णय अवश्य करावेंगे॥ 

जैनियों के पण्डितों को दूर-२ से बुलाकर सभा कराई। उसमें शङ्कराचार्य का वेदमत और जैनियों का वेदविरुद्ध मत था। अर्थात् शङ्कराचार्य का पक्ष ‘वेदमत का स्थापन और जैनियों का खण्डन’ और जैनियों का पक्ष ‘अपने मत का स्थापन और वेद का खण्डन’ था। शास्त्रार्थ कई दिनों तक हुआ। जैनियों का मत यह था कि सृष्टि का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं, यह जगत् और जीव अनादि हैं, इन दोनों की उत्पत्ति और नाश कभी नहीं होता। इससे विरुद्ध शङ्कराचार्य का मत था कि अनादि सिद्ध परमात्मा ही जगत का कर्त्ता है। यह जगत् और जीव झूठा है, क्योंकि उस परमेश्वर ने अपनी माया से जगत् बनाया, वही धारण और प्रलय  करता है, और यह जीव और प्रपञ्च स्वप्नवत् है। परमेश्वर आप ही सब रूप होकर लीला कर रहा है। बहुत दिन तक शास्त्रार्थ  होता रहा। युक्ति और प्रमाण से जैनियों का मत खंडित और शङ्कराचार्य का मत अखंडित रहा। तब उन जैनियों के पण्डित और सुधन्वा राजा ने उस मत को स्वीकार लिया, जैन मत को छोड़ दिया। पुनः बड़ा हल्ला-गुल्ला हुआ और सुंधवा राजा ने अन्य अपने इष्ट मित्र राजाओं को लिखकर शङ्कराचार्य से शास्त्रार्थ करवाया। परन्तु जैनमत का पराजय समय होने से पराजित होते गये, पश्चात शङ्कराचार्य के सर्वत्र आर्यावर्त देश में घूमने का प्रबन्ध सुधन्वा राजाओं ने कर दिया और उनकी रक्षा के लिये साथ में नौकर चाकर भी रख दिये। 

उसी समय से सबके यज्ञोपवीत होने लगे और वेदों का पठन-पाठन भी चला। दश वर्ष के भीतर सर्वत्र आर्यावर्त देश में घूमकर जैनियों का खंडन और वेदों का मण्डन किया, परन्तु शङ्कराचार्य के समय में जैन विध्वंस अर्थात् जितनी मूर्त्तियाँ जैनियों की निकलती हैं, वे शङ्कराचार्य के समय में टूटी थी और बिना टूटी निकलती हैं वे जैनियों ने भूमि में गाढ़ दी थीं कि तोड़ी न जाये। वे अब तक कहीं २ भूमि में निकलती है।शङ्कराचार्य के पूर्व शैवमत भी थोड़ा-सा प्रचलित था उसका भी खण्डन किया। वाममार्ग का खण्डन किया। 
उस समय इस देश में धन बहुत था और स्वदेश भक्ति भी थी। जैनियों के मन्दिर शङ्कराचार्य और सुधन्वा राजा ने नहीं तुड़वाये थे, क्योंकि उनमें वेदादि की पाठशाला करने की इच्छा थी। जब वेदमत का स्थापन हो चुका और विद्या प्रचार करने का विचार करते ही थे उतने में दो जैन ऊपर से कथनमात्र वेदमत और भीतर से कट्टर जैन अर्थात् कपटमुनि थे, शङ्कराचार्य उन पर अति प्रसन्न थे। उन दोनों ने अवसर पाकर शङ्कराचार्य को ऐसी विषयुक्त वस्तु खिलाई कि उनकी क्षुधा मन्द हो गई। पश्चात् शरीर में फोड़े फुन्सी होकर छः महीने के भीतर शरीर छूट गया। तब सब निरुत्साही हो गये और जो विद्या का प्रचार होने वाला था वह भी न होने पाया। जो-जो उन्होंने शारीरिक भाष्यादि बनाये उनका प्रचार शङ्कराचार्य के शिष्य करने लगे। अर्थात् जो जैनियों के खण्डन के लिये ब्रह्म सत्य जगत् मिथ्या और जीव ब्रह्म की एकता कथन की थी उसका उपदेश करने लगे॥ 
 दक्षिण में शृङ्गेरी, पूर्व में भूगोवर्द्धन, उत्तर में जोशी और द्वारिका शारदामठ बांधकर शङ्कराचार्य के शिष्य महन्त बन और श्रीमान् होकर करने लगे क्योंकि शङ्कराचार्य के पश्चात् उनके शिष्यों की बड़ी प्रतिष्ठा होने लगी अब इसमें विचारना चाहिये कि जो जीव ब्रह्म की एकता जगत् शङ्कराचार्य का निज मत था।” (सत्यार्थप्रकाशः, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ-237-38)

स्वामी दयानंद सरस्वती के एकादशसमुल्लास के इस आलेख से ऐसा प्रतीत होता है कि जब शंकराचार्य का नाम हो गया तो अन्य धर्म के ठेकेदारों ने उनकी प्रसिद्धि का फ़ायदा उठाया और मठों की स्थापना के लिए राजाओं से मिली अकूत-संपत्ति का दुरुपयोग किया। वेदों की स्कूलें नहीं खुली, अद्वैतवाद आगे नहीं फैला, उल्टा केवल भ्रांतियों के भँवर-जाल में फँसकर रह गया। सौ रानियों वाले मृतक राजा के शरीर में परकाया प्रवेश कर कामशास्त्र की निपुणता उनके ब्रह्मचारी जीवन पर प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा करती है! यद्यपि सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, हानि-लाभ, मान-अपमान आदि अंतर्द्वंद्वों से परे है सूक्ष्म शरीर, फिर भी ज्ञानेंद्रियों में जीव की प्रत्येक क्रियाएँ संस्कार बिंदु के रूप में चिपक जाती है, जैसे किसी फ़िल्म की नेगेटिव पर छायाचित्र अंकित हो जाता है और उसे डेवलप करने के बाद वह तस्वीर उभरकर सामने आती है, ठीक उसी तरह प्रकृति के सान्निध्य में वह संस्कार-बिन्दु मौक़ा पाकर उभरकर उस घटना को स्मृति-पटल पर सामने ला सकता है या यथार्थ के धरातल पर भी। “सौन्दर्य लहरी” जैसी किताब पर उनके नाम लिख दिए गए, जिसमें शिवपत्नी उमा के शिख-नख तक सौन्दर्य का वर्णन है। प्रोफ़ेसर आनंद कुमार सिंह ने अपनी पुस्तक “सौन्दर्य जल में नर्मदा” के परिशिष्ट ‘नर्मदा के घाट पर प्रार्थना’ में लिखा है कि नर्मदा के ओंकारेश्वर के तट पर किसी शिला पर सौन्दर्य लहरी के प्रारम्भिक 41 पद प्राप्त हुए थे जिसे शंकराचार्य ने पूरा किया था। कुछ गवेषकों का मानना है ये पद कालिदास के लिखे हुए थे, तो कुछ का मानना है कि शंकराचार्य के दादागुरु गौड़ पाद द्वारा रचित थे। कुछ तो शिव भगवान द्वारा रचित मानते हैं। इस बारे में बहुत सारी दंतकथाएँ भी प्रचलित हैं, मगर गौरी शंकर गुम्मा द्वारा लिखित ‘श्री आदि शंकराचार्य’ज़ सौन्दर्य लहरी: साधना निधि-ब्लूप्रिन्ट ऑफ़ मेडिटेशन’ में कुछ विद्वानों द्वारा शंकराचार्य के ‘सौन्दर्य लहरी’ के रचियता होने पर शंका ज़ाहिर की है। उनकी दलील है कि शंकराचार्य योग-विद्या में पारंगत थे, इसलिए वे जानते है कि कुंडलिनी द्वारा चक्र-भेदन मूलाधार से सहस्रार की ओर होता है, न कि सहस्रार से मूलाधार की ओर, जैसा की ‘सौन्दर्य लहरी’ में वर्णित है। यही नहीं, चक्रों में पाँच भूतों का स्थान भी इधर-उधर है। उदाहरण के तौर पर, कवि आनंद‘सौन्दर्य-लहरी’ के हिन्दी अनुवाद ‘शक्ति ऑकल्ट’ की निम्न पंक्तियाँ देखें:

“मूलाधार मही को, जल को स्वाधिष्ठाने/ मणिपुर अनल, मरुत को हृदि में,/ ऊपर नभ को मानस को भ्रूमध्य भेदती/ सकल तत्त्व को कुलपथ पर चल रही सखी संग सहस्रार तक!”

‘सौन्दर्य लहरी’ के अनुसार सृष्टि के पंचमहाभूतों की उत्पत्ति का क्रम होता है: ‘पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु-गगन’, जबकि शंकराचार्य के अद्वैत-दर्शन में यह क्रम इस प्रकार है: ‘पृथ्वी-अग्नि-जल-वायु-गगन’। 

इसी तरह शंकराचार्य जैसा प्रकांड पंडित अपनी कृति में अपनी तारीफ़ में यह कथन लिखेगा कि माँ पार्वती के दुग्धपान से वह बचपन से ही प्रोढ़ कवियों की तरह कविताएँ लिखने लगा! कभी नहीं, और न ही वे शिव-पार्वती की रतिश्लध भाव-भंगिमाओं का वर्णन करेंगे या लिखेंगे कि देवी कृपा से जर्जर बूढ़े के पीछे भी सैकड़ों युवतियाँ जान छिड़केंगी और उसे पाने के लिए निर्वस्त्र ही दौड़ने लगेंगी। कवि आनंद कुमार सिंह द्वारा ‘सौन्दर्य-लहरी’ के हिन्दी अनुवाद ‘शक्ति ऑकल्ट’ की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य है: 

“नयनविरस जड़ नर्म वृद्ध नर पर/ हो जाती कृपाकटाक्ष तुम्हारी। तो सैकड़ों युवतियाँ वेणी बन्धविहीन कलश कुच सस्तकंचुकी/ कांचीत्रुटित हठात्‌ दुकूलविहीन दौड़तीं!” 

इस तरह अनेक भ्रांतियाँ जोड़कर उनके अद्वैतवाद को विशिष्ट अद्वैतवाद, शुद्ध अद्वैतवाद, द्वैताद्वैत के कायांतरण से जन-साधारण को इस तरह गुमराह किया गया, कि आज तक पथभ्रष्ट समाज अपने मार्ग की खोज में भटक रहा है। इस संदर्भ में ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा देने वाले स्वामी दयानंद की टिप्पणी देखें: 

“रामानुज ब्राह्मणकुल में उत्पन्न होकर चक्राङ्कित हुआ। उसके पूर्व कुछ भाषा के ग्रन्थ बनाये थे। रामानुज न कुछ संस्कृत पढ़ के संस्कृत में लोकबद्ध ग्रन्थ और शारीरिक सूत्र और उपनिषदों की टीका शङ्कराचार्य की टीका से विरुद्ध बनाई और शङ्कराचार्य की बहुत सी निन्दा की। जैसा शङ्कराचार्य का मत है कि अद्वैत अर्थात् जीव ब्रह्म एक ही हैं दूसरी कोई वस्तु वास्तविक नहीं, जगत प्रपञ्च सब मिथ्या मायारूप अनित्य है। इससे विरुद्ध तो में रामानुज का जीव, ब्रह्म और माया तीनों नित्य हैं। 

यहाँ शङ्कराचार्य का मत ब्रह्म से अतिरिक्त जीव और कारण वस्तु का न मानना अच्छा नहीं और रामानुज का इस अंश में, जो कि विशिष्टाद्वैत जीव और मायासहित परमेश्वर एक है यह तीन का मानना और अद्वैत का कहना सर्वथा व्यर्थ है और सर्वथा ईश्वर के अधीन परतन्त्र जीव को मानना, कण्ठी, तिलक, माला, मूर्तिपूजनादि पाखण्ड मत चलाने आदि बुरी बातें चक्राति आदि में हैं। जैसे चक्राङ्कित आदि वेदविरोधी हैं वैसे शङ्कराचार्य के मत के नहीं।” (सत्यार्थप्रकाशः, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ-254) 

सुधाकर अदीब के उपन्यास ‘महापथ’ में शक्ति की महत्ता के दो उदाहरण सामने आए हैं, पहले में, एक स्त्री अपने पति के शव को शंकराचार्य के रास्ते से हटाने के लिए इंकार कर देती है और कहती है कि बिना शक्ति के क्या यह शव यहाँ से जा सकता है? जिससे वे समझ जाते हैं कि शक्ति के बिना शिव भी शव बन जाते हैं। इसी तरह एक स्त्री पत्थरों को आपस में रगड़ कर चिंगारी पैदा करती है और कहती है कि इन पत्थरों में अग्निरूपा शक्ति छुपी हुई है। इसी तरह जिसे तुम ईश्वर मानते हो, उसके भीतर भी शक्ति छुपी हुई है, ऐसे उदाहरणों के माध्यम से शंकराचार्य को शक्ति-आराधना करने वाले लोग भ्रमित करने से नहीं चूकते हैं। जब वे कहते हैं कि जगत में कुछ भी नहीं है, सब मिथ्या है, केवल एक शक्ति ही विद्यमान है, जिसे परमात्मा कहते है, और उसका एक हिस्सा आत्मा के नाम से हर प्राणी में है। बाक़ी दुनिया कहो या प्रकृति कहो, सब मिथ्या है। जिसमें विकार आता है, वह झूठ है और जो अविकारी रहता है, वह सत्य है। जो सनातन बना रहता है चेतना के स्तर पर, वही केवल सत्य है, वही एक है। इस तरह अद्वैतवाद काफ़ी चर्चा में रहा और चला भी, लेकिन परवर्ती काल में शंकराचार्य के मत को भी अन्य मनीषा ने चुनौती देना शुरू कर दिया। विचारों की यह अनवरत प्रक्रिया चलती रही और अंत में उन सभी विचारों में ख़तरनाक घालमेल होना शुरू हो गया, फिर से वही ढाक के तीन पात और दूसरे शब्दों में ‘पुनः मूषक भव’ की स्थिति आ गई। 

भारत एक ऐसा आध्यात्मिक देश है, जहाँ जल-तरंगों की तरह हरदम कोई-न-कोई वैचारिक विप्लव होता ही रहता है। तरंग के पीछे तरंग। अच्छे विचार भी हमेशा के लिए प्रभावी नहीं रहे। जिस तरह लोकतंत्र में भीड़तंत्र का वर्चस्व होता है, उसी तरह कभी उथले विचारों के समूहों की ऐसी बाढ़ आती रहती है, जिसमें सच्चे विचारों को भी दफ़न होना पड़ता है। ऐसा ही हुआ शंकराचार्य के अद्वैतवाद साथ! निराकार मन्तव्य वाले शंकर का झुकाव भी शायद साकार की ओर उतना ही झुकने लगा, जितना निराकार के प्रति था। क्योंकि हमारा इतिहास-लेखन की प्रथा तो शुरू से ही उतनी प्रभावी नहीं थी, कि हम नीर-क्षीर-विवेक से उनके दर्शन को समझ सके। 

मार्कण्डेय, शंकराचार्य, विवेकानंद सभी तो यायावरी संत थे, इस वजह से समन्वयकारिता के गुण स्वतः दौड़े चले आते हैं, धर्म में, चिंतन में, जीवन में; उसी तरह प्रोफ़ेसर आनंद, अमृतलाल वेगड़ पूरे भारत की न सही, नर्मदा नदी की परिक्रमा कर उनके सिद्धांतों को आत्मसात करने की कोशिश करते हैं, ताकि भोली-भाली जनता को ईश्वर के नाम पर, उनकी आस्था के नाम पर फल-फूल रहे व्यवसाय से बचाया जा सके और उन्हें यथार्थ भक्ति की तरफ़ खींचा जा सके। सच्चे साहित्यकारों का तो वही काम है, प्रेमचंद हो या महर्षि अरविन्द हो या ईश्वर की अर्थी निकालने वाले नीत्शे हो, सभी ने धर्म के नाम पर होने वाली कुरीतियों को अपने साहित्य में सामने लाया। कुछ धन-पशु बड़े संतों और लेखकों के जीते जी या उनके मरने के बाद उनकी ख्याति को भुनाकर अपना व्यवसाय चलाते हैं। 

शंकराचार्य मेरे लिए बहुत प्रिय हैं, मगर उनके साहित्य को विकृत करने वाले साहित्यकार और मठाधीश तो बिल्कुल ही नहीं। ज़रा सोचिए, जब शंकर अपनी माँ की अंत्येष्टि के लिए अपने गाँव काल्पी जाते हैं तो उनके जाति वाले नंबूदरीपाद (नांबी ऋषि को मनाने वाले) ब्राह्मण उनकी ज़मीन हड़पना चाहते हैं, जिसे वह ज़मीन अपनी माँ की आजीवन सेविका रही चिन्नमा को देने के प्रस्ताव पर अडिग रहते हैं तो उनकी बस्ती का कोई भी ब्राह्मण उनकी माँ को कंधा नहीं देता है। आख़िर उन्हें अपने घर के दरवाज़े के सामने ही अपनी माँ की लाश को जलाना पड़ता है। आप सहजता से समझ सकते है कि उनका अपना समाज कितना क्रूर, निष्ठुर और संवेदनहीन रहा होगा! 

इतनी सारी सामाजिक विद्रूपताओं से जूझते हुए भी शंकराचार्य अपने मत पर अडिग रहे। उनका तो एक ही मत था पूरी दुनिया को जातिविहीन और वर्णविहीन बनाना, अद्वैत के नाम पर, ताकि दुनिया की सारी समस्याएँ अपने आप समाप्त हो जाए। क्या कभी इस धरती पर ऐसा समय आएगा, भौगोलिक सीमाओं से परे जाकर मनुष्य को मनुष्य समझा जाएगा, ईश्वर के देवल के रूप में? 

और अगर कोई मुझसे पूछे कि शंकराचार्य के व्यक्तित्व-कृतित्व से भारतीय समाज कितना प्रभावित हुआ तो मेरा सीधा-सादा उत्तर यह होगा कि उनके द्वारा देश को एकता-सूत्र में बाँधने वाली रणनीति तो शुरूआती अवस्था में कामयाब अवश्य रही, लेकिन परवर्ती काल में उनके द्वारा स्थापित सारे मठ अपनी यथोचित सार्थकता खोकर फिर से जातियुक्त संकुचित समाज की वकालत करने लगे। 

शंकराचार्य ने सम्पूर्ण वैश्विक समाज के उत्थान के लिए बहुत कुछ करने का प्रयास किया, मगर लोग उन्हें समझ नहीं पाएँ, उलटे उनके नाम पर धाँधली करने लगे, फिर भी वे मेरे लिए अत्यंत प्रिय है, वे नर्मदा के पाद-पंकजों को प्रणाम करते हैं और मैं उनके चरण-कमलों को जुहार करता हूँ। 

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