सौन्दर्य जल में नर्मदा (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
2. नर्मदा नदी का प्रवाह
सविन्दु सिन्धु सुस्खलत्तरंगभंगरञ्जितं,
द्विषत्सुपापजात-जातकारि-वारिसंयुतम्।
कृतान्त दूतकालभूत-भीतिहारि वर्मदे,
त्वदीयपादपंकजंमजं नमामि देवि नर्मदे॥1॥
अपने जल बिन्दुओं से सिन्धु की उछालती हुई तरंगों में मनोहरता लाने वाले तथा शत्रुओं के भी पाप समूह के विरोधी और कालरूप यमदूतों के भय को हरने वाले, अतएव सब भाँति रक्षा करने वाली हे देवि नर्मदे! तुम्हारे जलयुत चरण कमलों को मैं प्रणाम करता हूँ॥1॥
भारत की नदियों का देश है। गंगा ध्यान की, यमुना भक्ति की, सरस्वती ज्ञान की, ब्रह्मपुत्रा तेज की, गोदावरी ऐश्वर्य की, कृष्णा कामना की और नर्मदा सौन्दर्य की नदियाँ मानी जाती हैं। हिमालय से ग्लेशियर पिघलने पर बारहमासी नदियाँ बहती हैं, मैदान, घाटी, जंगल पार करते हुए समुद्र के मुहाने के पास डेल्टा बनाती हैं और देखते-देखते समुद्र में मिल जाती हैं। उत्तराखंड में गंगा गंगोत्री से निकालकर पूरब की ओर बहती है तो कैलाश पर्वत-शृंखला में तिब्बती क्षेत्र के बोखर चू पहाड़ से सिंधु नदी पश्चिम की ओर प्रस्थान करती है। गंगा की सहायक नदियों में यमुना, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, कोसी और महानंदा है तो सिंधु की सहायक नदियाँ सतलज, रावी, झेलम, चिनाब और व्यास हैं। इसी तरह ब्रह्मपुत्र का उद्गम मानसरोवर झील के पास चेमा-युंगडुंग ग्लेशियर है तो प्रायद्वीपीय क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी नर्मदा अमरकंटक के पास मैकाल पर्वत से धरती के भीतर से धारा के रूप में बाहर निकलती है, फिर विंध्य-सतपुड़ा की रेंज के बीच एक भ्रंश घाटी से होकर बहती है। ऐसी ही एक नदी ताप्ती मध्य प्रदेश के बैतूल ज़िले के सतपुड़ा पर्वत माला से निकलती है, नर्मदा के समानांतर खंबात की खाड़ी तक जाती है, जबकि महानदी छत्तीसगढ़ के रायपुर ज़िले से निकलती है बंगाल की खाड़ी में विसर्जित होने के लिए। इसी तरह गोदावरी महाराष्ट्र के नासिक ज़िले से, तो कृष्णा सहयाद्री में महाबलेश्वर के पास से और कावेरी कर्नाटक के कोडागु ज़िले की ब्रह्मगिरि पहाड़ियों से निकालकर पांडिचेरी से होते हुए बंगाल की खाड़ी की ओर से बहती है।
सहायक नदियों के वर्णन से आलेख का कलेवर बढ़ने की चिंता है, इसलिए इस आलेख में हम प्रोफ़ेसर आनंद सिंह की काव्य-कृति ‘सौंदर्य जल में नर्मदा’ पर ही विमर्श करेंगे। इस कविता-संग्रह में उन्होंने मंगलाचरण से प्रारंभ करते हुए नर्मदासूक्त की 40 कविताएँ, उपसंहार और फिर नदी सूक्त की 10 कविताएँ की रचना की है। इसके अतिरिक्त, नर्मदाष्टकम्, नर्मदा घाट पर प्रार्थना और अपनी सर्जन-प्रक्रिया का सविस्तार वर्णन किया है।
प्रोफ़ेसर आनंद सिंह सदैव विश्व के समस्त मानव-कल्याण के उद्देश्य से प्रेरित कृतियों की रचना करते हैं। जहाँ एक तरफ़ उनकी कविताओं में अध्यात्म झलकता है, वहीं दूसरी तरफ़ पर्यावरण-चेतना का आह्वान, जिसे वे ‘डीप एकोलॉजी’ कहना पसंद करते हैं। एक तरफ़ विश्व-नियंता शिव-शक्ति पर उनकी क़लम चलती है तो दूसरी तरफ़ ‘अथर्वा: मैं वही वन हूँ’ और ‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ जैसी कृतियों के माध्यम से पर्यावरण-संरक्षण का महत्त्व बताते हुए विश्व की रक्षा पर। दूसरे शब्दों में अगर कहा जाए कि वे मिस्टिक कवि है और साथ-ही-साथ प्रखर प्रकृति-प्रेमी भी, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्हें एक तरफ़ अज्ञेय का सन्नाटा लुभाता है तो दूसरी तरफ़ जग्द्गुरु शंकराचार्य की ‘सौंदर्य लहरी’ के स्वर। वे पानी, पर्वत, प्रकृति, प्रेम, प्रार्थना और परमात्मा में सौंदर्य की तलाश करते हैं।
उनकी ‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ पढ़ते समय मेरे मन में पहला प्रश्न अवश्य उठा था कि उन्होंने जल के आगे सौन्दर्य शब्द का प्रयोग क्यों किया, सुंदर का क्यों नहीं? सौंदर्य संज्ञा शब्द है न कि विशेषण। जल संज्ञा, सौन्दर्य संज्ञा, संज्ञा-संज्ञा! क्या कवि ने जल के आगे विशेषण का प्रयोग करने की बजाय संज्ञा का प्रयोग करना उचित समझा? अवश्य ही इस अभिनव प्रयोग के पीछे उनका कोई-न-कोई विशिष्ट उद्देश्य अवश्य रहा होगा। उनकी इस किताब ने मुझे नर्मदा पर अनेक पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित किया, जिसकी तालिका अगर बनाई जाए तो काफ़ी लंबी होगी। लेकिन इस दिशा में जिस किताब ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था, वह थी जबलपुर के निवासी ख्याति-लब्ध लेखक-चित्रकार अमृतलाल वेगड़ की पुस्तक ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’। इस पुस्तक का शीर्षक देखकर मेरी जिज्ञासा का उत्तर मुझे अपने भीतर ही मिल गया। अमृतलाल वेगड़ जैसे महान लेखक की परंपरा को आगे बढ़ाने और अपने से उम्र में बड़े होने के कारण उन्हें उचित सम्मान देने के लिए ‘द वेस्टलैंड’ जैसी विश्व-विश्रुत कविता के रचयिता नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी कवि एवं परंपरावादी आलोचक टी.एस. इलियट की लेखकीय परंपरा को ध्यान में रखते हुए निस्संदेह कवि आनंद ने उनकी पुस्तक के शीर्षक का प्रथम शब्द ‘सौंदर्य’ का चयन किया होगा। उनके एक आलेख की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं, जिसमें उन्होंने लिखा था, “काव्य का विषय अपने व्यक्तित्व का वर्णन नहीं है, बल्कि उससे मुक्त होकर अपने चिंतन के अंतर्वेग या भावना की अभिव्यक्ति करना है।” कवि आनंद की कविताएँ में इस अमूर्त सौन्दर्य बोध को देखा जा सकता है।
प्रोफ़ेसर आनंद सिंह की कविताओं में जहाँ वैश्विक दर्शन होता है, भारतीय अध्यात्म होता है, वहाँ पर्यावरण-चेतना भी उतनी ही प्रखर होती है। उनकी कविताओं में शोध के अनेक विषय छुपे हुए होते हैं, जो कि उनकी कविताओं में उनकी आत्मा का प्रतिबिंब बनकर सामने आते हैं। जिस तरह कबीर की उलटबाँसी समझना इतना सहज नहीं होता है, उसी तरह कवि आनंद की कविताओं के गूढ़ार्थ भी। यद्यपि वे अपनी कविताओं के सरलार्थ के लिए परिशिष्ट में सर्जन-प्रक्रिया, संदर्भ और संकेत अवश्य देते हैं, फिर उनकी कविताओं को बार-बार मनन करना ज़्यादा ज़रूरी है। उनके व्यक्तित्व-कृतित्व से परिचित होने के बावजूद उनकी कविताओं के मर्म तक पहुँचने और काव्य-पुरुष की पृष्ठभूमि का अन्वेषण करने के लिए मैंने अनेक लेखकों की नर्मदा पर आधारित कृतियों का गहन अध्ययन किया, जिसमें ‘नर्मदा पुराण’, अमृतलाल वेगड़ की ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’, ‘तीरे तीरे नर्मदा’, ‘अमृतस्य नर्मदा’, सुरेश पटवा की ‘नर्मदा: सौन्दर्य, समृद्धि और वैराग्य की नदी’, मनोज दुबे श्रीकांत की ‘नर्मदा के घाट पर’ (कविता-संग्रह), उदय नागनाथ की ‘नर्मदायन’, नंदिनी ओझा की ‘संघर्ष नर्मदा का’, ओम प्रकाश शर्मा की ‘नर्मदा के पथिक’, सुनील उपाध्याय की ‘नर्मदे हर: नर्मदा एक कहानी’ के अतिरिक्त अन्य अंग्रेज़ी पुस्तकों में हरतोष सिंह बल की ‘वाटर क्लॉज ओवर अस (ए जर्नी एलॉन्ग नर्मदा), गीता मेहता का उपन्यास ‘रिवर सूत्र’, पी. दामोदरन की ‘इन द लैंड ऑफ़ नर्मदा’, डॉ. प्रियंका घोष की ‘डिस्कवरी ऑफ़ डायनासोर फॉसिल्स एंड नेचुरल हिस्ट्री ऑफ़ डिंडोरी’, रविस्कर अमिता की ‘द बेली ऑफ़ रिवर: ट्राइबल कान्फ्लिक्ट ओवर डेवलपमेंट इन द नर्मदा वैली’, रामचन्द्र गुहा की ‘सेवेजिंग द सिविलाइज़्ड: वेरियर एलविन, हिज़ ट्राइबल एंड इंडिया’, जेफ्री वरिंग माव्स की ‘नर्मदा: द लाइफ़ ऑफ़ ए रिवर’ प्रमुख हैं। श्री वेगड़ की पुस्तकें हिन्दी साहित्य के प्रेमियों और नर्मदा अनुरागियों के लिए सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर जैसी हैं। यद्यपि ये सभी पुस्तकें नर्मदा पर निर्मित बाँध से बने जलाशयों के कारण परिक्रमा पथ के कुछ हिस्सों के बारे में आज केवल ऐतिहासिक महत्त्व की ही रह गई है, फिर भी नर्मदा परिक्रमा के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्य परन्तु पठनीय है। नर्मदा की पहली वायु परिक्रमा संपन्न करके श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘अमरकण्टक से अमरकण्टक तक’ भी आज के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है।
इस संग्रह में आनंद जी की कविताएँ भले ही छोटी-छोटी हैं, मगर हैं गूढ़ार्थ वाली, संप्रेषणीय और हृदय-स्पर्शी। अमृतलाल वेगड़ जी के शब्दों में उनकी कविताएँ उनके अतीन्द्रिय आनंद से उपजी हैं और अगर उन्हें ज़ोर-ज़ोर से पढ़ा जाए तो उन्हें सुनना भोर में भैरवी सुनने से कम मोहक़ नहीं होगा। कवि आनंद ने इस पुस्तक के स्वगत में स्वीकार किया है कि सुसनेर, बाबई और होशंगाबाद में अपने अध्यापन-कार्य के लिए प्रवास के दौरान नर्मदा उन्हें आड़ोलित करती रही है।
जिस तरह नर्मदा अमरकंटक-डिंडोरी-बूढ़नेर-रामनगर-मंडला-जबलपुर (भेड़ाघाट, तिलवाड़ा, ग्वारीघाट)-नरसिंहपुर-होशंगाबाद-हरदा-खंडवा-हंडिया-नेमावर-अर्धेश्वर-मंडलेश्वर-बड़ोदरा-भरूच पार करते हुए समुद्रगामिनी होकर सहस्र धाराओं में बाँटकर महामिलन के लिए खंभात की खाड़ी में गिरती है, उसी तरह साधना के दौरान मूलाधार, जिसे भीतरी नर्मदा परिक्रमा का अमरकंटक कह सकते हैं, से शुरू होकर बाक़ी छह चक्रों को पार करता हुआ साधक सहस्रार में पहुँचकर ईश्वर से महामिलन हेतु अग्रगामी होता है। जिस तरह के नर्मदा के समानांतर दाएँ-बाएँ ताप्ती और माही चलती हैं, उसी तरह सुषुम्ना के दोनों तरफ़ इड़ा और पिंगला चलती हैं। जिस तरह विदेशों के विद्वान ही नहीं, बल्कि हमारे देश की महान हस्तियाँ जैसे श्री श्री परमहंस योगानंद महाराज अपनी पुस्तक ‘गॉड टाक्स विद अर्जुन’, प्रजापिता ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले अपने ग्रंथ ‘महाभारत और गीता का सच्चा स्वरूप और सार’ तथा आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती अपनी युगांतरकारी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में महाभारत युद्ध के संदर्भ में कई सवालिया निशान उठाते हैं। उनके अनुसार महाभारत का युद्ध पृथ्वी के किसी भूभाग पर नहीं होकर प्राणी के भीतर सत-असत का अनवरत युद्ध है। रचनाकरों ने अमूर्त भावनाओं की समष्टि अभिव्यक्ति के लिए बाहरी उपमानों की सहायता ली है और प्रभावशाली ढंग से सामूहिक स्मृति पर गहरी अमिट छाप छोड़ने के लिए उन्होंने मिथकीय पात्रों को चुना है। श्री श्री परमहंस योगानंद महाराज ने महाभारत के पात्रों का मनोवैज्ञानिक अर्थ लिया है। जैसे पांडु का अर्थ बुद्धि, पाँचों पांडव युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव को क्रमशः सृष्टि के पाँचों महाभूतों अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि जल और पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक माना है। हठ योग उन्हें चक्रों का स्थान देता है। नीचे के दो चक्र स्वाधिष्ठान, मूलाधार नकुल और सहदेव; ऊपरी तीन चक्र विशुद्धि, अनाहत, मणिपुर क्रमशः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के द्योतक हैं और कुंडलिनी है द्रौपदी। अगर इन प्रतीकात्मक अर्थों को सही मान लिया जाए तो महाभारत वास्तव में हर प्राणी की अंतर्यात्रा है। इसी तरह कवि आनंद की नर्मदा परिक्रमा भीतरी है, न कि बाहरी। तभी वे अपनी ‘नर्मदा-सूक्त’ की अलग-अलग कविताओं में कहते हैं कि:
ब्रह्माण्डीय बलों का अतिविराट कम्पन
करुणावश मानव की धरती पर बहता है
नदियों के जल में! (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 23),
इसी तरह:
नदी यह चैतन्य भाषा है
स्फुट मुखर शब्दागम की
सुनने को मिटना होगा
कभी नहीं या फिर
अभी, बस, अभी यहीं! (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 31)
या फिर:
उनकी लहरों में छिपी हैं उनकी आँखें
उनके बहाव में छिपी है उनकी ऊर्जा
उनके जल में छिपा है विश्वात्मा!
समस्त प्रणाम हैं उसी को एक निराकार अन्धकार में! (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 41)
या:
नदी तो भीतर से बहती है
पर, बिना शब्द के
बाहर आयेगी तो कैसे? (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 85)
कवि आनंद भी कबीर की तरह हैं। वे मानते हैं कि जिस तरह हरिद्वार और अन्य तीर्थ स्थान में मरने से जीव स्वर्ग नहीं जाता, वैसे ही किसी नदी की बाहरी परिक्रमा करने से ईश्वर प्राप्ति नहीं हो सकती। इतना ज़रूर है कि भ्रमण के दौरान रास्ते में आने वाले प्राकृतिक दृश्य आपका मन मोहें, आपको अपनी शारीरक शक्ति का अंदाज़ हो सके और साथ ही साथ, बाहरी दुनिया के लोगों, उनके रहन-सहन, भाषा, साहित्य, संस्कृति के बारे में जानकारी हो सके। महर्षि अरविन्द की तरह कवि आनंद का मानना है कि हमाराई यात्रा मानव से अतिमानव की ओर अग्रसर हो रही है। वैज्ञानिक सुविधाएँ प्राप्त होना मानव के अतिमानव की ओर बढ़ता हुआ एक क़दम है, क्या ज़रूरत है प्रागैतिहासिक काल से हमेशा चिपके रहने की। आज जब हमारे पास बस, गाड़ी, ट्रेन, हवाई जहाज़ सभी की सुविधा है तो पैदल चलकर शरीर को कष्ट देना कहाँ तक उचित है? कभी समय था जब विनोबा भावे ने पूरे भारत में पैदल यात्रा कर भूदान आंदोलन को जन्म दिया था, मगर आज वह समय नहीं है कि आपको पैदल चलकर देशवासियों को एकता के सूत्र में बाँधना पड़े। सूचना तकनीकी की अनेक विधाएँ यू-ट्यूब, इंटरनेट, नेटफ़लिक्स आदि से आप पल भर में बाहरी दुनिया में होने वाली घटनाओं से अवगत हो सकते हैं।
इसी तरह अमृत लाल वेगड़ जी का समय अलग था, वह कुछ नया करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने नर्मदा की पैदल-यात्रा कर अपने संस्मरण लिखे। उन्हीं के शब्दों में:
“नर्मदा मैंने शुरू से ही तय किया था कि मुझे नर्मदा-पुराण या रेवा-माहात्म्य नहीं लिखना है। इस युग में उसकी आवश्यकता भी नहीं। मुझे नर्मदा की जीवनी लिखनी है—सचित्र, प्रामाणिक जीवनी। इसके लिए मैंने वही तरीक़ा अपनाया जो मिलना साक्षात्कार लेना, बातों को संक्षेप में लिख लेना; सम्बन्धित स्थानों की आमतौर से जीवनी लेखक अपनाते हैं जिनकी जीवनी लिखनी हो, उनसे बार-बार यात्राएँ करना, चित्र लेना, तब इन तथ्यों पर आधारित जीवनी लिखना। मैंने ठीक यही किया है। नर्मदा से बार-बार मिला हूँ उसके संग-संग चला हूँ, उससे बातें की हैं, स्केच किए हैं, उसके सौन्दर्य को अपनी आँखों से देखा है और तब यह पुस्तक लिखी है। मेरी नर्मदा ‘आँखिन देखी’ नर्मदा है। नर्मदा के किनारे-किनारे 1977 से 1988 के दौरान मैं 1800 कि.मी. पैदल चला था। इसका वृत्तान्त मैंने अपनी पुस्तक ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ में दिया हैं। नर्मदा की लम्बाई 1312 कि.मी. है। दोनों तट मिलाकर परकम्मावासी को 2624 कि.मी. चलना चाहिए। मैं 1800 कि.मी. चला था। किन्तु उत्तर तट के प्रायः 800 कि.मी. बाक़ी रह गये थे। नौ बरस बीत गये। नौ वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद 1996 से 1999 के दौरान मैंने नर्मदा के उत्तर तट की बाक़ी बची परिक्रमा भी पूरी की। मेरी नर्मदा परिक्रमा पूरी हो चुकी थी। किन्तु 2002 में ज्यों ही मुझे 75वाँ वर्ष लगा, नर्मदा परिक्रमा मैंने दोबारा शुरू कर दी! मानो नर्मदा पदयात्री के रूप में मेरा पुनर्जन्म हुआ। इस बार कान्ता भी साथ चली। सवा हज़ार कि.मी. वह भी चली। मैं कुल चार हज़ार कि.मी. चला। विशाल आकार की मूर्तियों की ढलाई खंडों में की जाती है। फिर उन्हें सफ़ाई से जोड़ दिया जाता है। मेरे लिए नर्मदा परिक्रमा के ढाई हज़ार से भी अधिक किलोमीटर एक साथ चलना सम्भव नहीं था। इसलिए मैंने ये यात्राएँ खंडों में कीं। टुकड़ों में बँटी इस लम्बी यात्रा को मैंने इन पुस्तकों में जोड़ दिया है। वैसे खंड यात्राओं का यह तरीक़ा मेरे लिए बिलकुल सही था। घर आकर मैं यात्रा-वृत्तान्त लिख लेता, कोलाज (चित्र) बना लेता, विश्राम पाकर तरोताज़ा हो जाता और आगे की यात्रा के लिए नई शक्ति पा लेता। इन यात्राओं में मैंने अकूत सौन्दर्य बटोरा। उसी को व्यक्त करने का मेरा प्रयास रहा है—कभी रेखाओं में, कभी रंगों में, तो कभी शब्दों में। यह ठीक है कि मैं चित्रकार हूँ और लेखक भी हूँ, लेकिन मैं साधारण चित्रकार हूँ और लेखक भी साधारण ही हूँ। पहले मैं प्रायः सोचता था कि क्या ही अच्छा होता, भगवान मुझे केवल चित्रकार बनाता, लेकिन उच्च कोटि का चित्रकार। या सिर्फ़ लेखक बनाता, लेकिन मूर्द्धन्य कोटि का लेखक। भगवान ने मुझे आधा इधर आधा उधर, आधा तीतर आधा बटेर क्यों बनाया। किन्तु आज सोचता हूँ कि यदि भगवान ने मुझे केवल चित्रकार बनाया होता भले ही श्रेष्ठ चित्रकार, तो नर्मदा के बारे में लिखता कौन? और केवल लेखक बनाया होता-भले ही प्रकांड लेखक, तो नर्मदा के चित्र कौन बनाता?” (तीरे तीरे नर्मदा, नर्मदा मेरी प्रेरणास्रोत: 343 & 344)
वेगड़ जी की तीरे-तीरे नर्मदा पढ़ने पर मुझे महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन याद आ गए, जिनके द्वारा रचित ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ के अनुसार घुमक्कड़ी सबसे बड़ा धर्म है, न कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या अन्य कोई संप्रदाय—ये सब तो जीवन के सही मूल्यों को ठगने की विद्या है। इन पारंपरिक धर्मों के माध्यम से मनुष्य जीवन पाशबद्ध हो जाता है, जबकि घुमक्कड़ धर्म मानव के पाशमुक्त करते हुए विश्व नियंता के आशीर्वाद को प्रतिपल अनुभव करता है। राहुल जी सही कहते हैं, जो कहीं नहीं घूमा अपने घर द्वार को छोड़कर, वह जीवन रूपी पुस्तक के एक अध्याय का एक पन्ना ही पढ़ता है, जबकि यत्र-तत्र-सर्वत्र परिभ्रमण करने वाला उस पुस्तक के अनेक पृष्ठों का गहन अध्ययन करता है। उसका जीवन सार्थक है। वह जीवन और जिजीविषा के उद्देश्य को अच्छी तरह जानता है। यही कारण है कि हमारे देश के हर बड़े प्रकृति प्रेमी कवि नदियों से अवश्य आकर्षित होते हैं। महापंडित राहुल संस्कृताययन की मेरी जीवन यात्रा के चारों खंडों में उनके जीवन की समूची यात्रा का वर्णन है। उन्हें भी नदियाँ पसंद थी, ‘वोल्गा से लेकर गंगा तक’ इसका उदाहरण है, उसी तरह अमृत लाल वेगड़ की अमरकंटक से लेकर मीठी तलाई तक नर्मदा परिभ्रमण। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित पद्मविभूषण ओड़िया कवि डॉ. सीताकांत महापात्र को चित्रोत्पला नदी से बहुत लगाव है, वे कहते हैं कि दुनिया में जहाँ भी मैं जाता हूँ, चित्रोत्पला नदी अपनी जेब में लेकर घूमता हूँ, और उसे प्रेम भरी चिट्ठी भी लिखता हूँ। वैसे ही कवि आनंद भी नर्मदा के प्रेम से अछूते नहीं रहे, जहाँ-जहाँ उनका प्रवास रहा, चाहे होशंगाबाद, सुसनेर, बाबई या भोपाल ही क्यों नहीं हो, नर्मदा सदैव उनके साथ रही और आज भी उनके स्मृति-पटल पर वह चिरंतन बह रही है। एक बार ओड़िया भाषा के प्रसिद्ध समालोचक डॉ. प्रसन्न कुमार बराल ने कवि सीताकान्त महापात्र से एक साक्षात्कार में पूछा था कि आपने अपनी कविताओं में नदी, प्रकृति, विशेषकर चित्रोत्पला पर चित्रांकन किया है, इन सभी चीज़ों ने आपको किस तरह प्रभावित किया है? उन्होंने उत्तर दिया था, “गाँव, परिवेश, प्रकृति और चित्रोत्पला नदी के प्रति मैं अपने मोह को भाषा में अच्छी तरह व्यक्त नहीं कर सकता। मैं जीवन भर प्रकृति प्रेमी रहा हूँ। पेड़-पौधे, जंगल, नदी, पहाड़, पर्वत जिस तरह मुझे आकर्षित कर पागल कर देते है, उन्हें शब्दों में व्यक्त करने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है। इस प्रकृति के भीतर नीरस जीवन जीने वाले आदिवासी शायद इसलिए मेरे लिए इतने प्रिय है। बाक़ी रह गई बात निर्दिष्ट नदी चित्रोत्पला की। जिस दिन से मैं समझने लगा हूँ, चित्रोत्पला मेरे जीवन में इस तरह अंतरंग हो गई मानो मेरे भीतर लहू बनकर बह रही हो और मेरे मन मस्तिष्क की समस्त स्नायु-ग्रंथियों पर अपनी उपस्थिति का गहरा प्रभाव छोड़ते हुए जा रही हो। मैंने सारी दुनिया भ्रमण किया है। देश-विदेश के नदी, समुद्र, जल-प्रपात सभी को जब-जब मैं देखता हूँ तब-तब चित्रोत्पला को मैं अपने हृदय में पाता हूँ। मुझे याद नहीं पड़ता कि बिना मैं अपने गाँव और चित्रोत्पला को लिए कभी कहीं समय बिताया हो। परिवेश और आस-पास के मनुष्यों के प्रभाव से क्या कभी मुक्त होना सम्भव है?
इसी तरह कवि आनंद इस काव्य-संग्रह की ‘सृजन-प्रक्रिया’ की पृष्ठभूमि के बारे में बताते हैं, “नदियों के प्रति आकर्षण दुर्निवार रहा, आसक्ति की हद तक। अनेक नदियों ने अनेक मोड़ों पर साथ दिया और चुपचाप कविताओं में समा गयीं। कविताएँ भी कई लिखी गयीं पर, सब की सब बचायी नहीं जा सकीं। कुछ इसी प्रकार की शेष कविताएँ ‘नदी सूक्त’ में हैं जिनमें मैंने तमसा, गंगा, यमुना, क्षिप्रा, तवा और गोमती को याद किया है। नर्मदा को याद करना मेरे लिए पिछले पन्द्रह वर्षों में फैले एक युग को याद करने जैसा है। उसके जिस अगाध सौन्दर्य को मैं पीता रहा और आँखें नहीं भरीं, उसका पाट बहुत दूर तक फैला है। सन् 2000 में सुसनेर से होशंगाबाद प्रवास का निर्णय मेरे प्रिय मित्र पं. सुधीर नागर (कोटा) के कारण था। हम दोनों के बीच इस निर्णय में नर्मदा ही मूल कारण थीं। सुधीर जी ने मुझे होशंगाबाद भेजा था और मुझे याद है कि पहली बार बुधनी के जंगलों से गुज़रते हुए मैं आत्म-विस्मरण में किस तरह क़ैद हो गया था। वहीं से यह खंड प्रारंभ होता है।” (सौन्दर्य जल में नर्मदा पृष्ठ-129)
जब भी कोई घुमक्कड़ या यायावर लेखक के रूप में अपने अनुभवों को समाज के समक्ष साझा करता है तो उससे बड़ी क्या सेवा हो सकती है! विश्व का कोई भी बड़े से बड़ा लेखक, किसी भी भाषा का क्यों न हो, अपनी कहानी, कविताओं की क्लिष्ट काल्पनिक दुनिया से ऊपर उठकर इस सृष्टि के यथार्थ धरातल को स्पष्ट करते हुए यात्रा-संस्मरण अवश्य लिखता है। हमारे पूर्वजों के इतिहास, भौगोलिक विरासत उनके योगदान का स्मरण करते हुए समकालीन मानव जाति, प्रकृति, चराचर, स्थावर-जंगल सभी को साक्षी मानते हुए जीवन चतुष्ट्य (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की पूर्ति करता है।
अगर वास्को-डी-गामा और कोलंबस जैसे जुझारू घुमक्कड़ नहीं होते तो क्या पश्चिमी देशों के आगे बढ़ने का रास्ता खुल पाता? क्या अलग-अलग संस्कृतियों का समन्वय हो पाता? दुनिया में जितने भी बड़े-बड़े धर्मनायक हुए हैं सभी तो घुमक्कड़ थे अर्थात् घूमने से ही तो धर्म की उत्पत्ति होती है। बुद्ध ने तो यहाँ तक कहा था—‘चरण भिक्खावै’ अर्थात् भिक्षुओं घुमक्कड़ी करो। वही यही वजह थी देखते-देखते बुद्ध धर्म पश्चिम में मकदूनिया तथा मिस्र से पूरब में जापान तक, उत्तर में मंगोलिया से लेकर दक्षिण में बाली, जावा और सुमात्रा के देशों तक फैल गया। क्या महावीर जैन घुमक्कड़ राजकुमार नहीं थे? उन्होंने तो घुमक्कड़ी के लिए सर्वोच्च त्याग दिया था। ‘करतल भिक्षा तरुतल वास’ सिद्धांत को अपना लिया था। यहाँ तक कि दिगंबर बन गए, ताकि निर्द्वन्द्व विचरण करने में कोई बाधा न पड़े। शंकराचार्य ने भगवान भरोसे किसी गुफा या कोठरी में बैठकर सिद्धि पाने की लिप्सा का अतिक्रमण कर भारत के चारों कोनों की ख़ाक छान मारी। रामानुज, माधवाचार्य और दूसरे वैष्णवाचार्य भारत में धर्म के नाम पर कूपमंडूकता फैला रहे थे तो उस समय रामानंद और चैतन्य महाप्रभु ने घुमक्कड़ी धर्म का प्रचार किया। ईरान, ईराक़, अफ़ग़ानिस्तान, पता नहीं, कहाँ से कहाँ तक—गुरु नानक भी भटकते रहे। स्वामी दयानंद अपनी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के कारण ही ऋषि दयानंद बने। जगह-जगह शास्त्रों में भाग लेते हुए और अपने अनुभवों को ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखते हुए भारत के अधिकांश भागों का भ्रमण किया। कुमारजीव, गुणावर्मा, दिवाकर, शान्ति रक्षित, दीपंकर श्रीज्ञान शाक्य श्रीभद्र आदि सच में, ये सब प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ थे। अतः मेरा यह मानना है कि घुमक्कड़ी सनातन धर्म है। यही सबसे बड़ा योग है और उन पर संस्मरण लिखना तो उससे भी ज़्यादा संयोग और सौभाग्य की बात है। ये तो थी हिंदू धर्म की बात, अब इसाई धर्म की चर्चा कर लेते हैं। जैसे ईसा घुमक्कड़ थे, वैसे ही उनके अनुयायी भी। इसी घुमक्कड़ी के कारण ही पूरे विश्व में ईसाई धर्म फैला हुआ है। हमें समझना चाहिए कि हम काल्पनिक स्वर्ग के प्रलोभन में नहीं फँसे, बल्कि चिंता रहित भाव से यथासम्भव घूमें। किसी कवि की दो पंक्तियाँ:
“सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल, ज़िंदगानी फिर कहाँ?
ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?”
घुमक्कड़ एक प्रकार का साधु-सन्यासी होता है। वह भी उनकी तरह ‘गृह कारज नाना जंजाला’ के कारण गृहस्थी में फँसना नहीं चाहता है। उसके लिए तो ना तो केवल अपनी जन्मभूमि, वरन् समस्त वसुधा पूज्य होती है। तभी उसकी आत्मा कह उठती है, ‘जन्मभूमि ममपुरी सुहावनि’।
डॉ. प्रसन्न कुमार बराल ने सीताकान्त महापात्र का चित्रोत्पला नदी के प्रति विशेष प्रेम दर्शाने के लिए गोधूलि लग्न में दो ओड़िया कविताओं “पुनर्जन्म” तथा “चित्रोत्पला: प्रेम की एक चिट्ठी” का समावेश किया है, जिसका मेरे द्वारा किया गया अनुवाद हिन्दी पाठकों के लिए निम्न हैं:
पुनर्जन्म
चित्रोत्पला के किनारे
कदंब-पेड़ की छाँव में
बैठे-बैठे, कभी-कभी
जाने-अनजाने, अपने-आप
नींद आ जाती।
और
नींद में नौका विहार करते
चित्रोत्पला के गीत सुनते-सुनते
समुद्र की सैर करने लगता।
समुद्र को प्रणिपात कर
फिर से चित्रोत्पला के उल्टे स्रोत को
लौट आता उस नाव में बैठ
अपने परिचित तट पर
अपने गाँव के कदंब पेड़ की छाँव में।
नींद टूट जाती कबूतर के गुटर-गूँ से
उस आवाज़ में बचपन के दिन
यौवन, वार्धक्य, दिन-रात, सुबह-शाम
सब एक साथ तरोताज़ा हो जाते
जैसे नारियल से खेलते
तालाब में तैरते,
ऑफ़िस में किसी को आवाज़ देते,
माता-पिता के खोने का भीषण क्रंदन
जैसे चित्रोत्पला से शिकायत करते हुए
क्यों मुझे लौटा लाई समुद्र के वक्ष-स्थल से
फिर मेरे गाँव और कदंब-पेड़ को
अगर मैं न होता तो
क्या यह सारी होनी-अनहोनी मुझे मिलती
मेरे दुर्बल सीने में ख़ंजर घोंपने जैसे?
नदी उसके कान में चुपचाप कहती
“ये देखो! यह तो अनंत है
अरे पगले! हमेशा से तू इतना ही खोज रहा है
पाने को अनंत-क्षण को
क्षण के असीम अनंत को”
इतना कहते हुए खो जाता वह स्वर
उदास शाम की नदी की तरंगों,
कोमल घास के मैदानों में चरती गायों
और मायावी मल्हार पवन में।
उसके बाद और कैसी पृथ्वी
और कैसे गृह, तारे निहारिका?
कैसी भाषा, कैसे शब्द
कैसी कविता और कैसा जन्मांतर?
चित्रोत्पला: प्रेम की एक चिट्ठी
जानती हो तुम्हें अपने जेब में रखकर
सारी दुनिया का भ्रमण करता हूँ मैं।
देखा है मैंने तुम्हें बहते हुए ईउफ़्रेटिस में
गंगा, डैन्यूब, सिन नदी में।
उन्हें छूते ही
तुम मिल जाती हो।
मैंने सपना देखा है
नौका से पार होते हुए
चप्पू चलाते
मगर किनारा दूर-दूर होता जाता
और रह जाती नाव मझधार में।
समय की धारा ने मुझे
बच्चे से बूढ़ा बना दिया
तुम्हें पता नहीं
अभी भी मेरे पॉकेट में
तुम प्रेम-चिट्ठी की तरह हो।
जिस तरह डॉ. सीताकान्त महापात्र चित्रोत्पला का सारी दुनिया का भ्रमण करते समय ईउफ़्रेटिस, गंगा, डैन्यूब, सिन नदी में दर्शन करते हैं, उसी तरह कवि आनंद नर्मदा नदी के जल को विश्व-शान्ति के लिए नील और दजला-फरात के जल में मिलाना चाहते हैं। उन्हीं के शब्दों में:
“चाहता हूँ नर्मदा तुम्हारे जल को ले जाऊँ
मिला दूँ
नील और दज़ला-फ़रात के जल में
जिनके किनारे-किनारे बेबीलोन में लिखी गयी थी हम्मूराबी की संहिता,
अब जहाँ तेल के कुओं में
लगी है वैमनस्य की आग
जो भूल गये हैं अपने अमर पथ
जम गयी है धूल और आसमानी राख क्षुद्र ग्रहों की
बगदाद जल रहा है
यरूशलम उबल रहा है (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 64)
इस तरह कवि आनंद नर्मदा के जल की एक बूँद में विश्व-शान्ति स्थापित करने का सामर्थ्य देखते हैं। यह सम्भव है, अगर विश्व की सारी नदियों पर नर्मदा की तरह आध्यात्मिक परिक्रमाएँ शुरू हो जाएँ। बाहर भी पर्यावरण शुचिता के लिए और भीतर भी आत्मा की शुद्धि के लिए। कवि की पंक्तियों में:
“तुम्हारे जल में डूबी हैं
पृथ्वी की सारी नदियाँ
तुम स्वयं अपनी परिक्रमा हो:
निरन्तर धावमान चंचला” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 76)
इसी तरह, कवि आनंद नर्मदा को विश्व की सारी नदियों का अध्यक्ष मानते हैं:
“तुम्हें देखता हूँ विश्व की नदियों में अध्यक्ष बनी
समुद्रों से उनके हक़ के लिए लड़ रही हो!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 66)
जिस तरह कवि आनंद तमसा, गंगा, यमुना, क्षिप्रा, तवा और गोमती को याद कर ‘नदी-सूक्त’ की रचना करते हैं, उसी तरह डॉ. सीताकान्त महापात्र का ध्यान भी ओड़िशा की चित्रोत्पला, दया, चंद्रभागा, वैतरणी आदि नदियों की तरफ़ जाता हैं। ‘दया नदी’ भुवनेश्वर के पास बहने वाली एक नदी है। धौलगिरि पहाड़ के नीचे, जहाँ कलिंग युद्ध हुआ था, जिसमें सम्राट अशोक द्वारा लाखों निरीह लोगों की हत्या कर दी गई थी और ‘दया नदी’ का जल रक्ताक्त हो गया था। इसी मार्मिक ऐतिहासिक घटना को कवि महापात्र ने अपनी संवेदनशीलकविता ‘दया नदी’ में उतारा है। जो नदी कभी अमराई, नारियल, धान, गन्ने और मूँग के खेतों से होकर बहती जा रही थी, जिस पर चंद्रमा की ज्योत्स्ना में नौका विहार होते थे। अचानक उस पवित्र नदी को दुर्दिन देखने पड़ते हैं, असंख्य चेहरे उस नदी में जल-समाधि ले लेते हैं। लाखों आत्माएँ आज भी विलाप करती हुई इतिहास के पन्नों में या हमारे जीवन की गहरी अँधेरी रात में दयानदी से पूछती हैं:
“दयानदी, दयानदी
लाखों विधवाओं की लंबी उसांसें
छोटी-छोटी नाव बन
तैर रही है तेरे ख़ून की लहरों में
किनारा भरा ख़ून सनी मिट्टी से
फिर भी धुल नहीं गया है
सम्राट का पश्चाताप, उपगुप्त की ताज़ी
श्रमण के मंत्र उच्चारण
सालोंसाल के बरसात और बाढ़ में।”
ऐसा ही सूनापन कवि आनंद भी नर्मदा तट अपर अनुभव करते हैं, जिसे वे अपने शब्दों में पिरोते हैं:
“नर्मदा की धारा के दोनों तट
शताब्दियों से ढोते रहे हैं
आदिम मनुष्यों की इच्छाएँ,
संघर्ष, कोलाहल, किटकिटाहटें, आदिम भय
वह बेपरवाह अकेलापन
जहाँ लेटी है अब भी पहाड़ियों में जंगली गुफ़ाएं” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 76)
विश्व के बड़े-बड़े नेता ने भी नदियों से शिक्षा ग्रहण की है। मेरी पुस्तक ‘चीन में सात दिन’ में माओत्से तुंग की अंग्रेज़ी में अनूदित कविताओं का मैंने हिन्दी में अनुवाद किया। एक कविता नदी पर आधारित थी, ‘चांगशा’। चांगशा हूनान की राजधानी थी और माओ का मूल-स्थान। यह शहर जियांग नदी के पूर्वी तट पर था और नारंगी प्रायद्वीप में वह अपने दोस्तों के साथ अक्सर तैरने जाया करते थे। उस नदी के किनारे बैठकर देश की राजनीति में हलचल पैदा करने के लिए ‘विद्यार्थी आंदोलन’ की शुरूआत होने जा रही थी। उनकी कविता “चांगशा” में यह प्रतिध्वनि साफ़ सुनाई देती है:
“शरद पतझड़ में अकेले खड़े
जियांग नदी के उत्तर में
नारंगी प्रायद्वीप के अंतरीप के चारों ओर
जब मैं देखता हूँ हज़ारों पहाड़ों की लाली
धब्बेदार जंगलों की क़तारें
इस महान नदी के पारदर्शी हरिताश्म में
सौ-सौ नावें
बादलों में मँडराते बाज़
स्वच्छ तल पर तैरती मछलियाँ
सर्द हवा में ठिठुरते संघर्षरत लाखों प्राणी
मुक्ति के लिए
इस विराट में
मैं विशाल हरी नीली धरती से पूछता,
इस प्रकृति का मालिक कौन है?
मैं यहाँ बहुत दोस्तों के साथ आया
और अभी तक पढ़ी हुई वे कहानियाँ भूल
नहीं पाया
हम युवा थे,
फूलों की हवा की तरह तेज़, परिपक्व
स्कॉलर की तेज़ धार की तरह पवित्र
और निडर
हमने चीन की ओर उँगली उठाई
और काग़ज़ों में लिख कर प्रशंसा या
भर्त्सना की
कि अतीत के योद्धा गोबर थे
क्या तुम्हें याद है?
नदी के बीचों-बीच
हमने पानी उछाला, छप-छप किया
और किस तरह हमारी तरंगों ने
तेज नौकाओं को धीमा कर दिया। (1925)”
भारतीय राजनीति में भी नदियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। कुछ वर्ष पूर्व ही मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सत्तर वर्षीय दिग्विजय सिंह ने नर्मदा की छह महीने पैदल परिक्रमा की, ताकि आने वाले चुनावों में कुछ सकारात्मक प्रभाव पड़ सकें।
मगर कवि आनंद की यात्रा इन सभी तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठकर केवल अंतर्यात्रा है, अपने संचित आध्यात्मिक ऊर्जा से विश्व में शान्ति की कामना करना है। कवि आनंद का ‘नर्मदा सूक्त’ पढ़ते समय एक कविता में नियाग्रा प्रपात का उल्लेख आता है, जबलपुर के भेड़ाघाट के धुआँधार प्रपात में उन्हें नियाग्रा प्रपात की स्मृति ताज़ा हो जाती है, मगर नर्मदा नदी को ही वे विश्वशान्ति का दूत मानते हैं। कवि सुधीर सक्सेना की कविता ‘नियाग्रा प्रपात’ में उनका दृष्टिकोण इन पंक्तियों में झलकता हैं:
“कमजोर होते हैं तो
लुढ़कते चले जाते हैं पत्थर
मीलों मील नीचे गहरे खड्ड में
शोर मचाते हुए दिशाओं के दसों कोनों में
मज़बूत होते हैं तो
सदियों टिके रहते हैं
पैर पर पैर टिकाए
किसी वीतरागी की तरह
निश्चल निस्पंद।
मगर, जहाँ बहुत कठोर होते हैं
पत्थर वहीं से फूटता है एक दिन
निर्मल ख़ूबसूरत
नियाग्रा प्रपात।”
कवि आनंद की नियाग्रा में नर्मदा की उपस्थिति की कल्पना कर उसे विश्वशान्ति के दूत के रूप में समझते हैं, जो दूसरी नदियों की नेता हैं और उसकी अध्यक्षता में ही विश्वशान्ति की कल्पना की जा सकती हैं:
“तुम एक नीग्रो लड़की की तरह
उठे चिबुक और मांसल पीन होंठों वाली
नियाग्रा में गिर रही हो
नदी जल में धुआँधार
मेरे टूटने लगते हैं सपने
और जागा हुआ भी मैं
तुम्हें देखता हूँ विश्व की नदियों में अध्यक्ष बनी
समुद्रों से उनके हक़ के लिए लड़ रही हो! (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 66)
जिस तरह अमृत लाल वेगड़ जी ने ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ में नर्मदा को गद्य में बाँधा, उसी तरह सीताकान्त महापात्र जी ने अपने संस्मरण ‘स्मृतियों में हार्वर्ड’ में नियाग्रा प्रपात को गद्य का रूप दिया। यह पुस्तक ओड़िया में लिखी गई थी, जिसका मैंने हिन्दी अनुवाद किया था। उसके कुछ अंश पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं:
“अनेक युग पहले नियाग्रा का रूप देखकर, ध्वनि सुनकर, अमेरिका के मूल निवासियों ने इसे ‘थंडर ऑफ़ द वाटर्स’ की संज्ञा दी है। 167 फ़ीट की ऊँचाई से गिरती जलराशि वाष्प बनकर आकाश में बादलों की तरह उड़ती हुई नज़र आती है। नियाग्रा में प्रति मिनट 35 मिलियन गैलन पानी गिरता है। मैंने कैनेडा के टोरोंटो से पहले नियाग्रा देखा था। इस बार मैंने इसे अमेरिका के बफ़लो शहर की तरफ़ से देखा। नियाग्रा प्रपात तीन भागों में विभाजित किया गया है: अश्वखुर अर्थात् घोड़े के खुर के आकार का बड़ा हिस्सा (लगभग 90 प्रतिशत) कैनेडा में है। शेष अमेरिका में है। मध्य में एक बहुत ही संकीर्ण पट्टी आती है, जिसे ‘ब्राइडल वेल’ अर्थात् कन्या का घूँघट कहा जाता है। नियाग्रा प्रपात नदी में गिरने से पहले दो भागों में बँट जाता है। बीच में एक छोटा द्वीप है, जिसे गोट आइलैंड अर्थात् ‘बकरी द्वीप’ कहा जाता है। हम तीनों दोस्त (हम अपने आपको ‘द थ्री मस्केटीयर’ कहते थे) एक ही पल में रॉक हाउस प्लाज़ा एलेवेटर द्वारा 125 फ़ीट नीचे चले गए और जल-स्तर तक पहुँच गए। अधिकारियों ने हम प्रत्येक को एक-एक रेनकोट दिया था। लिफ़्ट से उतरने के बाद जल-वाष्प ने हमें गीला कर दिया। ऊपर से भयंकर गर्जन के साथ गिरने वाला पानी हमें कुछ डरा रहा था। फिर भी यह दृश्यावली देखने में आनंद आ रहा था। कैनेडा और अमेरिका के दोनों तरफ़ ऐसी लिफ़्टों की व्यवस्था है। इसके बाद हम एक स्टीम बोट में बैठे जिसका नाम था ‘द मेड ऑफ़ द मिस्ट’। उससे हम वहाँ तक गए, जहाँ पानी गिर रहा था। मैंने पहले ‘आईमैक्स फ़िल्म’ में नियाग्रा को देखा था। इस फ़िल्म की कहानी में मिथक, चमत्कार और जादू दिखाया गया है। मिथक इस प्रकार है: बहुत समय पहले, एक अमेरिकन इंडियन गाँव (जो नियाग्रा प्रपात से दूर नहीं था) की सुंदर युवती लेलावाला की एक बूढ़े से शादी करवा दी गई। उस लड़की को उस आदमी से बिलकुल प्यार नहीं था। वह किसी और से प्यार करती थी। दुःखी, पीड़ित और असहाय लड़की ने रात में नियाग्रा में कूदकर आत्महत्या कर ली। वह बन गई ‘द मेड ऑफ़ द मिस्ट’ अर्थात् कोहरे की कन्या। इस प्रकार यह परिचित मिथक बन गया। अमेरिकन इंडियन मिथक में यह कहा जाता है कि जलप्रपात के कोहरे के अंदर उस लड़की का रूप दिखाई देता है। उसकी आवाज़ जल की गर्जन में सुनाई देती है। कई सत्य घटनाएँ समय के साथ मिथकों में बदल जाती हैं। फ़िल्म में कुछ अन्य घटनाओं का भी वर्णन है। ऐनी टेलर, एक शिक्षिका ने 1901 में लकड़ी का एक बड़ा बैरल बनाया और उसके अंदर उसने अपनी प्रिय बिल्ली के साथ प्रवेश किया और अपने दोस्तों से कहा कि वे इसे नियाग्रा में डाल दे। बैरल 167 फ़ीट की ऊँचाई से नीचे गिरा और नदी के किनारे पहुँचने तक पानी पर तैरता रहा। जब उन्हें बैरल से बाहर निकाला गया, श्रीमती ऐनी और उनकी बिल्ली सकुशल जीवित थीं। उन्नीसवीं शताब्दी में एक और दुस्साहसी व्यक्ति ने बाँस पकड़कर रस्सी पर चलकर नियाग्रा प्रपात पार किया था। इस दृश्य को देखने वाले सैकड़ों दर्शकों ने उसकी सुरक्षा के लिए भगवान से प्रार्थना की थी। दोनों श्रीमती ऐनी और ब्लोंडिन बच गए थे, मगर कई लोग नियाग्रा में अपनी जान गँवा चुके हैं। मुझे ये सब याद आने लगा, जब मैं ‘द मेड ऑफ़ द मिस्ट’ बोट और स्पैनिश एयरो-कार से गर्जन वाली जगह पर पहुँचा। मेरे जैसा डरपोक आदमी मेरे दो निडर मित्रों के बलबूते के बिना यह यात्रा नहीं कर सकता था। नियाग्रा प्रपात से पानी का उद्दाम स्तंभ सीधे बहुत ऊँचाई से नीचे गिरता है। क्या पानी में तैरती हुई मछलियाँ नीचे गिर जाएँगी? आम तौर पर, मछली अपने सुलभ ज्ञान के कारण प्रपात तक पहुँचने से पहले ख़तरे को भाँप लेती हैं। इसलिए वे प्रपात के विपरीत दिशा में तैरते हुए वापस चली जाती हैं। मगर जैसे कि हर जगह कुछ बेवुक़ूफ़ लोग होते हैं, वैसे ही कुछ बेवुक़ूफ़ मछलियाँ भी होती हैं। वे बेवुक़ूफ़ मछलियाँ ख़ुद की तरफ़ ध्यान दिए बग़ैर विपरीत दिशा में लौट नहीं पाती हैं। झरने के प्रखर वेग से कुछ मछलियाँ नीचे गिर जाती हैं। एक विद्वान व्यक्ति ने इस विषय पर शोध किया था, उसका कहना है कि मछली गिरते ही तुरंत नहीं मरती। लेकिन उनमें से ज़्यादातर थोड़ी देर के लिए बेहोश हो जाती हैं और पानी की सतह पर असहाय रूप से तैरने लगती हैं। उस समय नीचे उड़ने वाले सारसों का आसानी से भोजन बन जाती हैं। इस शोधकर्ता के पास कुछ रोचक जानकारी भी है। कुछ वर्ष पहले प्रपात के निम्नतम स्तर पर बने पैदल मार्ग पर एक पर्यटक चल रहा था। एक बड़ी मछली ऊँचाई से गिरी और पानी से टकराकर उस आदमी के पीठ से टकराई। उस आदमी को थोड़ी चोट लगी, लेकिन वह उस मछली को अपने घर ले गया और ख़ुशी से उसे खाया होगा। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए नियाग्रा के नज़दीक कई ख़ूबसूरत उद्यान, संग्रहालय, गोल्फ़ कोर्स, कैसीनो, बार, हॉल ऑफ़ हॉरर आदि बनाये गए हैं। नियाग्रा इन चीज़ों की तरफ़ भ्रूक्षेप किए बिना निरंतर बह रहा है। यह नीचे की ओर ऐसे ही बह रहा है जैसे कि यह बारह हज़ार साल पहले बहा करता था। ‘अवश्य, यह डेढ़ करोड़ दर्शकों का हर साल यहाँ सम्मान करता हैं। लेकिन इसके अधीर पानी को इनकी वाणिज्यिक मनोवृत्ति समझ में नहीं आती हैं।’ मानो नियाग्रा अपने वज्र निर्घोष से यह बात बता रहा हो। इस तरह हम नियाग्रा की यात्रा समाप्त कर देर रात वाशिंगटन लौट आए।”
उपर्युक्त संस्मरण यहाँ उद्धृत करने का एक ही कारण था कि पाठक यह जान सकें कि किस तरह बड़े लेखक, कवि, चाहे वह अमृत लाल वेगड़ हो, या सीताकान्त महापात्र हो, या कवि आनंद क्यों न हो, प्रकृति, नदी, झरने, जंगल से गहन प्रभावित होते हैं। कवि आनंद ने नर्मदा नदी में कहीं प्रेम का सूक्ष्म-निरीक्षण किया है और कहीं प्रार्थनाओं का अन्वेषण-आवेदन। उनकी चेतना बार-बार उन्हें अखिल विश्व के मानव-संस्कृति के विकास की तरफ़ ले जाती है। वे सांस्कृतिक पतन को देखने के लिए कभी भी तैयार नहीं हैं। सांस्कृतिक पतन और मूल्यों का ह्रास उन्हें विषादग्रस्त और व्यथित करता है। उनकी आस्था मानवीय मूल्यों में है। वे धार्मिक सौहाद्रता, ऐतिहासिक धरोहरों और सांस्कृतिक विरासत के प्रति अगाध प्रेम, अटूट श्रद्धा का संदेश देते हैं। जब मैं एक बार कवि आनंद को पढ़ता हूँ, दूसरी तरफ़ सीताकांत जी को पढ़ता हूँ और तीसरी बार सुधीर सक्सेना को, तीनों में एक-दूसरे की परछाईं नज़र आने लगती है। ऐसा लगता है मानो अलग-अलग परिवेश में जन्म लेने और रहने के बाद भी उनकी आत्माएँ एक हैं। जो चेतना कवि आनंद को आकर्षित करती है, वही चेतना सुधीर सक्सेना और सीताकांत महापात्र को भी। इस तरह तीनों कवियों के लक्ष्य-बिंदु, प्रेरणास्रोत और अभिव्यक्ति की शैली में काफ़ी समानता नज़र आती है और समवेत स्वर में वे आधुनिक मानव से गुहार लगाते है पृथ्वी के पर्यावरण की रक्षा और यह तभी सम्भव है जब आप अपने भीतर की यात्रा करेंगे।
मगर आज का मानव कहता कुछ और है, करता कुछ और है। उसकी कथनी-करनी में रात-दिन का अंतर है। एक तरफ़ नर्मदा नदी के सुसज्जित घाटों पर दिखावे के लिए पूजा करते हैं तो पीछे से उसी नदी को अपने गटर के नालों से जोड़ देते हैं। ऐसी अवस्था में कैसे होगी नदी की रक्षा? पूजा का प्रावधान तो इसलिए रखा गया था कि इसी बहाने जल में ईश्वरीय चेतना को मनुष्य अनुभव कर सके, लेकिन वर्तमान में तो ऐसा होता दिख नहीं रहा है। पूजा पैसे कमाने का माध्यम बन गया है। जितने ज़्यादा पैसे, उतनी ही अच्छी पूजा। अवश्य, नदी के बाहरी परिभ्रमण से परिवर्तित वातावरण के कम्पन आप अनुभव करेंगे, आपके मन में बदलाव आएगा, वैराग्य की भावना पैदा होगी, लोगों का आपके प्रति दृष्टिकोण बदलेगा। मगर आपको कौन-सी नेतागिरी करनी है! आपको अपनी ही नेतागिरी करनी है। अपने भीतर के अँधेरे को उजाले में बदलना है। यह कार्य कोई दूसरा नहीं कर सकता है, आपको ही करना होगा। यही तो है वास्तविक नर्मदा की यात्रा!
दूसरे शब्दों में, अमृतलाल वेगड़ जी की नर्मदा यात्रा अगर मूर्त है तो आनंद जी की यात्रा अमूर्त। वेगड़ जी की नर्मदा बाहर बहती है और आनंद जी की नर्मदा भीतर। वेगड़ जी बाहरी तीर्थ स्थलों और सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों का सौन्दर्य-पान करते हैं तो आनंद जी अपने भीतर के सूक्ष्म-तीर्थों की अनुभूति का रसास्वादन।
यात्राएँ दोनों ही कर रहे हैं। मगर एक की यात्रा स्कंदी है तो दूसरे की गणेशी। एक पूरे ब्रह्मांड के लोक-लोकांतरों में घूमते हैं तो दूसरे सृष्टिकर्ता के इर्द-गिर्द घूम कर यात्रा को और ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बना देते हैं।
अगर अमृतलाल वेगड़ जी कार्तिकेयन हैं तो आनंद जी गणेश जी। दोनों की यात्रा में कोई प्रतिस्पर्धा या प्रतियोगिता नहीं है। बाहर से भीतर उतरना जितना कष्टकारी है, उतना भीतर से बाहर आने में नहीं। अंतर्मुखी होना इतना सहज नहीं है, जबकि बहिर्मुखी होने में कोई समय नहीं लगता है।
<< पीछे : 1. नर्मदा नदी की प्राचीनता क्रमशःविषय सूची
लेखक की कृतियाँ
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