सौन्दर्य जल में नर्मदा

सौन्दर्य जल में नर्मदा  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

6. नर्मदा नदी की पारिस्थितिकी

 

शंकराचार्य के नर्मदाष्टकम् की ‘नीरतीर-धीरपक्षि-लक्षकूजितम्’ और ‘सुमत्स्य-कच्छ-नक्र-चक्रवाक-शर्मदे’ पंक्तियों ने मुझे नर्मदा की इकोलॉजी पढ़ने के लिए प्रेरित किया। नर्मदा का कल-कल करता जल, जल में कूदते-फाँदते जीव, उसके तटों पर चहचहाते पक्षी, आस-पास के जंगलों, क़स्बों, शहरों में रहने वाले मनुष्यों, पालतू एवं जंगली जंतुओं के सह-अस्तित्व पर विमर्श करना ही तो पारिस्थितिकी विमर्श है, पर्यावरणीय आलोचना का एक अभिन्न अंग। 

सौरमंडल में एकमात्र ग्रह है पृथ्वी, जहाँ जल है और जल है इसलिए यहाँ जीवन है। पृथ्वी पर 70% जल और 30% स्थल। इस जल का 97% भाग महासागरों और ग्लेशियरों में फँसा हुआ है, केवल 3% मुक्त है पेय-जल। यह जल गुरुत्वाकर्षण के कारण बहते हुए नदी का रूप लेता है, ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य के शरीर की शिराओं और धमनियों में बहता हुआ रक्त। ऐसी ही सबसे पुरानी नदी नर्मदा के लिए हम प्रोफ़ेसर आनंद सिंह के काव्य-संग्रह “सौन्दर्य जल में नर्मदा” के भौगोलिक, भौगर्भिक और पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य में विवेचन करेंगे। 

वैदिकोत्तर साहित्य में नर्मदा के लिए बीस से ज़्यादा पर्यायवाची शब्द आते है जैसे रेवा, मैकाल-सूता, सोमोद्भवा, दक्षिण-गंगा, सप्त-गंगा, वेदगर्भा, चित्रकूटा/त्रिकूटा, शांकरी, मुरला, महार्णवा, करभा, मुना, विमला, उमारूद्रांगसंभूता, ऋक्षपादप्रसूता, दशार्णा, मुरन्दला, इन्दुभवा, तमसा, विदशा, चित्रोत्पला, विपाशा, रंजना, बालुवाहिनी, कृपा, विपापा, अमृता, शोण, महानद, सरसा/सुरसा, मन्दाकिनी आदि। 

पर्यावरणविद के. संकर्षण उन्नी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘ईकोलॉजी ऑफ़ रिवर नर्मदा’ में भी इन नामों पर विस्तार से चर्चा हुई है। इस पुस्तक के अनुसार नर्मदा घाटी के चट्टानों की उम्र प्रीकैंब्रियन एवं पेलिओजोइक कालखंड की है, यानी गंगा नदी से लगभग 15 करोड़ साल और हिमालय से 5 से 7 करोड़ साल पुरानी। पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों वाली जगह है यह। विद्यांचल 140 करोड़ वर्ष पहले और सतपुड़ा उससे 40 करोड़ वर्ष बाद में बना। हिमालय की तो बात छोड़िए, वह तो उनसे बहुत बाद में अस्तित्व में आया। टेथीज सागर गोंडवाना लैण्ड और लौरेशिया के मध्य स्थित एक सागर के रूप में कल्पित किया जाता है, जो एक छिछला और सँकरा सागर था और इसी में जमा अवसादों के प्लेट विवर्तनिकी के परिणामस्वरूप अफ़्रीकी और भारतीय प्लेटों के यूरेशियन प्लेट से टकराने के कारण हिमालय और आल्प्स जैसे पहाड़ों की रचना हुई। आज जहाँ हिमालय है, पाँच करोड़ साल पहले वहाँ टेथिस सागर हुआ करता था। ‘लफथल’ वह इलाक़ा है, जो उस वक़्त टेथिस सागर की तलहटी में था। टेथिस से हिमालय बनने की प्रक्रिया में तब प्रागैतिहासिक काल की नदियों द्वारा तात्कालिक महाद्वीपों से लाई गई मिट्टी की तहों में समुद्री जीव दब गए। पृथ्वी की गर्मी और दबाव से वे धूल की परतें चट्टानों में बदल गईं। पृथ्वी के लगातार पड़ते बलों ने इन चट्टानों को पहाड़ की चोटी तक पहुँचा दिया। यही कारण है कि इन चट्टानों में दबे समुद्री जीवों के जीवाश्म लफथल की चोटी पर शान से विराजमान हैं। यह काम मायोसीन ज़माने 2.5 करोड़ वर्ष पहले से शुरू हुआ और प्लेसटोसीन (0.5 करोड़ वर्ष पहले) में समाप्त। लगभग दो करोड़ वर्ष का अंतराल रहा होगा। 

जब विद्यांचल बना, तब नर्मदा अरब सागर का हिस्सा हुआ करती थी और वेगनर के सिद्धांत के अनुसार गोंडवाना के सारे अपवाही तंत्र उस समय अरब सागर में गिरते थे। फिर भौगर्भिक हलचल के कारण 12-13 करोड़ वर्ष पहले विंध्याचल और सतपुड़ा की पहाड़ियाँ ऊपर उठने लगीं, तो इस घाटी में भ्रंश (जिसे भूगर्भ विज्ञान में ‘फ़ॉल्ट’ कहा जाता है) पैदा होने के कारण नर्मदा का बहाव पश्चिम की तरफ़ हुआ, जबकि सोन और जोहिला के पूर्व की तरफ़ बहने लगी। भूगर्भ विज्ञान के अनुसार यह एक प्राकृतिक घटना है, न कि सोन, नर्मदा और जोहिला के असफल प्रेम-त्रिकोण की लोक-कथा। यही कारण है मध्य भारतीय पठार में बड़े-बड़े दर्रे, प्रपात, गहरे नाले और पुल आदि देखने को मिलते हैं। विद्यांचल बनने की भौगोलिक प्रक्रिया पर कवि आनंद लिखते हैं:

“नदी तट का भूगोल है/स्वयमेव चलता/चेतना से मिलकर/स्वयं को बदलता/भौगोलिक यात्राएं/ बनाती है दक्षिण पथ/लेकिन उत्तरोत्तर/ विकास की विकलता” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-21) 

नर्मदा के पथानुगामी अमरकंटक से खंबात तक कुल दूरी 1312 किलोमीटर है, वह उसमें से 1079 किलोमीटर (88%) मध्य प्रदेश में, 161 किलोमीटर (8.5%) गुजरात में और 72 किलोमीटर (1.7%) महाराष्ट्र में तय करती है। 45 ज़िलों में से 20 ज़िले मध्य-प्रदेश के आते हैं। कर्क रेखा यानी ट्रॉपिक ऑफ़ कैंसर विंध्याचल और सतपुड़ा के ऊपर से गुज़रती है। नर्मदा नदी का कुल कैचमेंट एरिया 98796 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से 64000 वर्ग किलोमीटर मध्यप्रदेश में है। नर्मदा मध्यप्रदेश के मुख्य ज़िलों में मंडला, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, रायसेन, ईस्ट निमाड, वेस्ट निमाड, देवास और धार; महाराष्ट्र का धुलिया ज़िला और गुजरात के बड़ौदा एवं भरूच को स्पर्श करती हुई समुद्र में विलीन हो जाती है। 

अमरकंटक, 1087 मीटर ऊँचाई, नदी घाटी संकीर्ण, मगर गहरी। मैकाल घाटी बहुत सुंदर है, पेंड्रारोड से लेकर बिलासपुर तक। मंडला में बंजर नदी के ऊपरी भाग में क्रिस्टलीय चट्टानें हैं और मंडला से सहस्त्रधारा तक काला ग्रेनाइट अद्भुत नज़ारा प्रस्तुत करता है। जबलपुर जाते-जाते ये क्रिस्टलीय चट्टाने क्षरित होने लगती हैं, जिसमें ग्रेनाइट, जेनेसिस, सिस्ट एवं क्वॉर्टजाइट प्रमुख है। इस वजह से वहाँ की धरती कम उपजाऊ है। बंजर नदी के इर्द-गिर्द मैग्नीज के भंडार है, जबकि जबलपुर के आस-पास माइका, सिस्ट, कैल्साइट, डोलोमाइट, मार्बल और धारीदार क्वॉर्टजाइट के समृद्ध भंडार है। भेड़ाघाट आते-आते नर्मदा घाटी का ऊपरी हिस्सा समाप्त होता है। फिर शुरू होती है नर्मदा घाटी। 

जबलपुर से राजपिपला तक नदी घाटी का मध्य भाग है। विंध्याचल और सतपुड़ा के बीच यह घाटी ढाई सौ किलोमीटर फैली हुई है। घाटी में दक्कन ट्रैप का लावा मेसेजोइक कालखंड यानी 25 करोड़ वर्ष पहले का है, जिसमें क्ले, ग्रेवल, कंकर मिलते हैं। नर्मदा घाटी की औसतन ऊँचाई 300 मीटर है। समुद्र तल से जबलपुर 396 मी और हंडिया 260 मीटर ऊपर। यहाँ नदी मांधाता दर्रे से बहती है। विंध्याचल की सेंड स्टोन की चट्टानों से होते हुए हंडिया (ज़िला: होशंगाबाद) पूर्व से पश्चिम तक 320 किलोमीटर की यात्रा करती है, 80 किलोमीटर की चौड़ाई लिए, और वहाँ से 65 किलोमीटर चट्टानी रास्ते के बाद नर्मदा घाटी के दूसरे भाग में निमाड़ के मैदान या कहें कि मंडलेश्वर के मैदान आ जाते हैं। जिसके बीच में आता है महेश्वर, जहाँ सहस्त्र-धारा प्रपात से नदी की ऊँचाई 6.7 मीटर कम हो जाती है। 

राजपिपला से भरूच के मैदानों तक कम ढलान है, यहाँ नदी 15 मीटर गहरी और 135 किलोमीटर लंबी चलती है, मगर खंभात की खाड़ी में गिरने के पहले दो भागों में बढ़ जाती है। यही है नर्मदा का असली मुहाना। 

नर्मदा के उत्तर वाले विंध्य पहाड़, समुद्र तल से 450 से 600 मीटर ऊँचे और ढलान नदी की तरफ़, जिसमें आगे जाकर भंडार और कैमूर पहाड़ियाँ मिलती हैं और वहाँ से सहायक नदी बहती है हिरन। यह शृंखला इटारसी के पास टूट जाती है और होशंगाबाद के आते-आते तो बिल्कुल ही ख़त्म हो जाती है। 

नर्मदा के दक्षिण में सात पहाड़ हैं, जिसे सतपुड़ा कहते हैं। पूर्व में राजमहल हिल से पश्चिम में राजपिपला तक। मैकाल, महादेव, कालीभीत, असीरगढ़, बीजागढ़, बड़वानी और अरवानी। मैकाल पर्वत का शिखर है अमरकंटक (1097 मीटर) और पचमढ़ी में महादेव पर्वत पर धूपगढ़ (1350 मीटर), कालीभीत में भावगढ (891 मीटर), असीरगढ़ में असीरगढ़ (667 मीटर) और अरवानी में अस्थाम्बा डूंगरी (1325 मीटर)। महादेव हिल्स गोंडवाना का हिस्सा है, जिसके बैतूल, छिंदवाड़ा, नरसिंहपुर ज़िलों में कोयला निकलता है। नर्मदा के उत्तर वाले विंध्य और दक्षिण वाले सतपुड़ा पहाड़ों एवं उनके बीच में गुज़रती हुई नर्मदा का शानदार चित्रण कवि आनंद ने निम्न पंक्तियों में किया है: 

“शान्त मानचित्रों के बर्फ़ीले पहाड़ों से/अटके हैं सतपुड़ा और विन्ध्य के पहाड़/ अकथनीय काली धुमैली हरीतिमा में/ बहती है यौवन की प्राणदा नदी यह/ गुप्त वनराजियों को उबुद्ध करती/ रचती हुई पथ अपने संकल्प बल से/ न जाने/ उतरी है कब यह महानता!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा::पृष्ठ-28) 

नर्मदा की प्रमुख सहायक नदियाँ 22 बाएँ किनारे से मिलती है और 19 दाएँ किनारे से, जिनमें से अधिकांश का कैचमेंट एरिया 500 किलोमीटर से ज़्यादा है और उनकी कुल लंबाई 8773 किलोमीटर है। कर्जन और ऑरसेंग को छोड़कर सारी सहायक नदियाँ मध्य-प्रदेश की हैं। ऐसे देखा जाए तो छोटी सहायक नदियों की संख्या 50 से कम नहीं होगी। नदी का वार्षिक प्रवाह 4113 घन मीटर है, जो सिंधु घाटी की सारी नदियों की जोड़ से काफ़ी ज़्यादा है। 

बाएँ किनारे से खारमेर, बंजर, बुढ़नेर, तैमूर, सोनार, शेर, शक्कर, दूधी, सुकरी, तवा, जात्जेर, गंजल, अजनाल, मचक, छोटा तवा, कावेरी, खुरकिया, कुंडी, मोरंड, देवा, गोई और कर्जन है और दाईं ओर से सिल्गी, बलाल, ग़ौर, हिरण, बिरंज, टेंडोनी, बरना, कोलार, सीप, जामनेर, चंद्रकेश्वर, खरी, कमर, कोराल, करम, मन, यूरी हथिनी और ऑरसॉन्ग है। 

अमरकंटक से नर्मदा कपिलधारा से गिरते हुए 20 से 25 मीटर नीचे आती है, आगे जाकर और 5 मीटर नीचे गिरती है, फिर साँप की तरह टेड़ी-मेड़ी बहती हुई मंडला पहुँचती है। यह पहला बड़ा क़स्बा है, जहाँ बाईं ओर से उसका बुढ़नेर से संगम होता है और दाईं ओर से मिलती है बंजर नदी। सारे क़स्बे की परिक्रमा करते हुए यह नदी मंडला के सहस्त्र धारा में फिर 30 मीटर नीचे गिरती है, आगे धुआँधार से फिर 15 मीटर और नीचे गिरकर जबलपुर के भेड़ाघाट के 3 किलोमीटर लंबे मार्बल दर्रे से बहती चली जाती है। इस दृश्य को कवि आनंद ने अमूर्त रूप प्रदान किया है: 

“धारान्वित जल में भँवर बनाती उमंगें/ गिरती हैं छररर-झरररर छरर-झरररर/ अपने से नम्र ढले पथरीले पथ पर/ शोर से ढँकती हुई किशोर कामनाओं को/ शून्य निःस्वनता के वनैले सन्नाटे को चीरती/ बहती है नर्मदा! /बहाव यह जल की निश्चेतन त्वरा का है/ खींचता मनोमय तमिस्र को हृदय के/ पटकता है धाँय-धाँय रेतीले तट पर” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: पृष्ठ-26) 

जबलपुर के बाद राजपिपला तक रेतीला मैदानी भाग। जबलपुर से थोड़ी दूरी पर हिरन सहायक नदी से संगम। और होशंगाबाद आने से पहले उत्तर से टेंडोनी, बरना, कोलार, तैमूर और नरसिंहपुर में शेर, शक्कर, दूधी, तवा, देवा दक्षिण से मिलती है। नर्मदा के प्रमुख प्रपातों में कपिलधारा (240 मीटर), दूधधारा (4-6 मीटर), ढोलाधार (15 मीटर), मंदार (12 मीटर), धारडी (12 मीटर) और सहस्त्रधारा (6-7 मीटर) है। होशंगाबाद के बाद दाईं ओर से गंजल, अजनाल, मचक, पलकमाटी, इंद्र एवं बाईं ओर से फिर धार से निमाड़ के मैदानों में छोटा तवा, कुंती और गोई प्रमुख नदियाँ मिलती है, जबकि दक्षिण से चंद्रकेश्वर, मन, यूरी, हथिनी, कर्जन, कावेरी, अमरावती बाईं ओर से, जबकि ऑरसॉन्ग और भूखी दायीं ओर से मिलती है। नदियाँ ही नदियाँ! नदियों का विराट समूह। नर्मदा घाटी की मिट्टी काली है, कहीं गहरी काली तो कहीं मध्यम काली तो कहीं छिछली काली मिट्टी। इस मिट्टी में क्ले और लोम पाए जाते हैं। मध्यम काली मिट्टी निमाड़, सागर, जबलपुर और नरसिंहपुर में पाई जाती है, जबकि गहरी काली मिट्टी भरूच और बड़ौदा की तरफ़ मिलती है। मंडला, बैतूल, झाबुआ और अमरवाड़ा की मिट्टी में कंकड़ों की मात्रा ज़्यादा है, इसलिए अनुपजाऊ है और यह मिट्टी अम्लीय भी है। 

घाटी के पहाड़ी इलाक़ों में ढलान और ख़राब मिट्टी होने के कारण खेती नहीं होती है। मंडला, मैकाल पर्वत, विंध्य पर्वत, महादेव, धार और छोटा उदयपुर, राजपुर में घने जंगल है। मंडला से जबलपुर के बीच उर्वर भूमि है। भरूच के मैदानों और निमाड़ के पठारों में जंगल नहीं के बराबर है। महादेव पर्वत पर ज़्यादा बारिश वाली जगहों पर सदाबहार घने जंगल है, जबकि निमाड़, भरूच और बड़ौदा में कम बारिश होने के कारण काँटेदार जंगली बबूल और थूहर का प्राचुर्य है। पंचमढ़ी के आसपास जामुन (इयुगेनिया जाम्बूलोना) और आम (मैग्नीफेरा इंडिका) सामान्यतया पाए जाते हैं। मंडला, अमरकंटक, डिंडोरी में शाल (shorea Robusta) के जंगल, सतपुड़ा राजपिपला में टीक के जंगल। 

अमरकंटक में लगभग बारह महीने बारिश होती है, इसलिए वहाँ उपोष्णकटिबंधीय वन (सब-ट्रॉपिकल फॉरेस्ट) देखने को मिलते है। बेसाल्ट की चट्टानें, मिट्टी की पीएच एसिडिक से न्यूट्रल। इन जंगलों में शाल के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं, मगर आजकल बॉक्साइट माइनिंग के कारण जंगल काटे जा रहे हैं, रेल लाइन बिछाई जा रही हैं, इसलिए ये पेड़ भी कम होते जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में उत्तर प्रदेश की तुलना में चार गुना, महाराष्ट्र की तुलना में तीन गुना और ओड़िशा की तुलना में ढाई गुना ज़्यादा जंगल है। ओड़िशा और मध्य प्रदेश में लगभग भौगोलिक दृष्टिकोण से 30% जंगल है। विंध्याचल और सतपुड़ा के दोनों ओर भारत के कुल जंगलों का पाँचवाँ हिस्सा आता है। फ़िलहाल मध्यप्रदेश का जंगल बहुत तेज़ी से कम होता जा रहा है। इस तरफ़ कवि आनंद ने बड़ी चतुराई से पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया हैं: 

“जंगलों के बीच-बीच रेल पथ/ छुई-मुई सी गुम लो हुई सड़क/ सीटियों में बज रही हैं घण्टियाँ/नर्मदा की आरती में बेधड़क” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: पृष्ठ-60) 

कभी विंध्याचल-सतपुड़ा के जंगलों में चंपा, कनेर, नागकेसर, पुन्ना सुल्ताना, चंपा मोरश्री, कचनार, अनार, पुष्पित धवल, बिल्व, गुलाब, केतकी, कदम्ब, आम, महुआ, नीम, नींबू, नारियल, केला, खजूर, कटहल, धावड़ा, पाटल, जंबीर, अर्जुन, कुब्जशमी, केसर, किशंकु, पुन्नांग नारियल, ख़ैर, कल्पवृक्ष आदि और नर्मदा के आस-पास बने जलाशयों में नील, पीत, श्वेत, लाल कमल और कुमुदिनी और उपवनों में तरह-तरह के कीट-पतंग-पिपीलिकादि पाए जाते थे, जबकि जीव-जंतुओं में हँस, कारण्डव, चकवा-चकवी, काक, बगुले,कोयल, मयूर, सिंह, बाघ, शूकर, हाथी, वनभैंस, सारंग, भालू, मृग,बिलाव, रीछ, चीते पाए जाते थे और अब कहाँ गए वे दिन? विंध्याचल-सतपुड़ा के जंगलों के दुख भरे गीतों के मर्म को आत्मसात करते हुए लिखा है: 

“चारों ओर खड़े हैं जंगल एकांत/ मौन अमुखर शिलाओं में/ जम गए है गीत अंधकार के। रूप से तिरछे अज़ान नैन/ फैले हुए कान तक संभ्रम में/ चितवते है सारे अस्तित्व को” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-26) 

अनेक जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ जैसे सारस, तीतर, कबूतर, कछुआ, लंगूर, मृग, जेब्रा, चमगादड़, तितलियाँ, शेर, चीता, साँप, मकड़ियाँ, बंदर, हिरण, बैंगनी मेंढक, गिद्ध, पैंगोलिन, भेड़िया, भालू सभी वन्य-प्राणी विलुप्ति की लाल-सूची में आ गए हैं। यही नहीं, आईयूसीएन के अनुसार भारत में 172 प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर है, जो दुनिया का 2.9% हिस्सा है। जिसमें एशियाटिक लायन, बंगाल टाइगर, इंडियन वल्चर शामिल है। वेस्टर्न घाट के 77% एम्फिबिया, 62% रेप्टिलिया लुप्त हो चुके हैं। नॉरमन मेयर्स के आलेख “हॉटस्पॉट: अर्थ बायोलॉजिकली रिचेस्ट एंड मोस्ट इंडेन्जर टेरेस्टीयल इकोरीजन” के अनुसार 34 हॉटस्पॉट में 70% नेचुरल वेजिटेशन ख़त्म हो चुका है और दुनिया के 50% पौधे और और 42% कोशिकीय जीव समाप्ति के कगार पर हैं। कवि के अवचेतन मन में इस तरफ़ ध्यान गया है, तभी तो उन्होंने लिखा हैं: 

“तुमसे करते हुए प्रेम रचनामय सृजनरत/ गहरे अवचेतन में पशु-पक्षी-पेड़-पौधे/ सो गये हैं कई हज़ार वर्षों की नींद” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-66) 

नर्मदा घाटी में अतिक्रमणकारियों के लिए 277000 हेक्टेयर जंगल, सिंचाई विभाग के रिजर्वायर बनाने के लिए 50000 हेक्टेयर जंगल, तवा नदी पर बाँध बनाने के लिए 1964 से 66 के बीच 24000 हेक्टेयर जंगल काटे गए और सरदार सरोवर के कारण 50000 हेक्टेयर जंगल डूबा और विस्थापितों के पुनर्वास के लिए 100, 000 हेक्टेयर जंगल काटे गए। इंद्रावती बाँध के लिए 11000 हेक्टेयर जंगल और बस्तर में आयरन माइनिंग के लिए 100 हेक्टेयर जंगल भूमि बर्बाद हुई। इसलिए नर्मदा नदी काफ़ी उदास है और उसे अपने अंधकारमय अस्तित्व का पूर्वाभास हो गया है:

“तुम वसन्त की लपट हो/ धुँधुआती/ कभी-कभी चितवती कामना के अधूरे शिखर से/ उदास और अकेली/ तरसती हो आत्मा की ज्वाला पहनकर। निर्धूम निराकार/ एक बहुरंगे अन्धकार में रास्ता निकालती/ अनजान जंगलों के बीच से” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 62) 

नर्मदा पूरी तरह गंगा और सिंधु से हटकर अलग तरह की नदी है। जिसमें उनकी तरह बाढ़ नहीं आती है क्योंकि नदी के दोनों किनारे जंगल होने के कारण फ़िलहाल स्थायी है। और ज़्यादा जंगल काटने से नर्मदा नदी में बाढ़ आएगी। बाढ़ ही नहीं, नर्मदा नदी हमेशा के लिए मर जाएगी, जिस पर लाखों लोगों का रोज़गार टिका हुआ है, सब-कुछ ख़त्म हो जाएगा। जंगल के बिना यह नदी मूसलाधार बारिश में उफनेगी और गर्मियों में सूख जाएगी। कृत्रिम तौर पर बाँधी गई नर्मदा जंगलों के अभाव में अपने साथ सिल्ट बहाकर ले जाएगी, जिससे सारी घाटी भर जाएगी और नर्मदा बीमार हो जाएगी। नर्मदा मध्यप्रदेश का स्वास्थ्य है, अगर यह बीमार हो गई तो मध्यप्रदेश बीमार हो जाएगा। नर्मदा के प्राण उसके जंगलों में बसते हैं। बिना जंगलों के नर्मदा मृत और बिना नर्मदा के मध्यप्रदेश मृत। इसलिए मध्य-प्रदेश को जीवित रखने के लिए अमृत लाल वेगड़ की ‘अमृतस्य नर्मदा’ भी जीवित रहनी चाहिए। उसके लिए जंगलों की कटाई तत्क्षण बंद करनी होगी और उसकी अतुलनीय वन-संपदा को अक्षुण्ण रखना होगा। उसके लिए भले ही, हमें अपने प्राणों की आहुति क्यों न देनी पड़े! कभी ज़माना था, जब भारत की महिलाएँ पेड़ों को राखी बाँधती थी और उसे बचाने के लिए अपनी जान तक दे देती थी। सन्‌ 1730 में जोधपुर के राजा अभय सिंह ने अपने मंत्री गिरधारी दास भंडारी को अपने महल के निर्माण हेतु चूना-भट्टी जलाने के लिए कुछ लकड़ियाँ मँगवाई। इस हेतु वह खेजड़ी के पेड़ काटना चाहता था, मगर उन पेड़ों को बचाने के लिए सामने आई 42 वर्षीय अमृता देवी और उसका पति रामू खोड़ और उनकी तीन पुत्रियाँ आसु, रतनी, भागु। “सिर साटे रुख रहे तो भी सस्तों जान” कहते हुए वे सभी खेजड़ी के पेड़ों से चिपक गए। मंत्री पेड़ों समेत उन्हें काट डाला। देखते-देखते आस-पास के 83 गाँवों में पेड़ों को बचाने की मुहिम चल पड़ी, जिसमें 363 लोगों ने अपनी जान दी। परवर्ती काल में सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में चिपको आंदोलन, दक्षिण भारत के कर्नाटक में अप्पिकों आंदोलन, केरल का साइलेंट वैली आंदोलन, चिलिका बचाओ आंदोलन और नर्मदा बचाओ आंदोलन जन-मानस की पर्यावरण जागरूकता का परिचय देते हैं। नॉर्वे के अर्ने नेस ने ‘जैसे जी रहे हैं, वैसे ही जिएँ’ जैसी थोथी अवधारणा को उथली पारिस्थितिकी कहा है, भले ही आप कम प्रदूषण वाले वाहन और बिना सीएफसी वाले एयर कंडीशनर का प्रयोग क्यों न करें। यह व्यक्ति-केंद्रित है। जबकि गहरी पारिस्थितिकी में मनुष्य प्रकृति के साथ मौलिक सम्बन्ध बनाना है, वनों का संरक्षण करना है और पूरी पृथ्वी के बारे में सोचना है। 

यूएनडीपी 2010 की रिपोर्ट के अनुसार 2 बिलीयन टन ह्यूमन और एनिमल वेस्ट और औद्योगिक उत्सर्जन प्रतिदिन दुनिया के वाटरवेज में गिराया जा रहा है, जिसका ज़हर जानवरों और पेड़-पौधों में पहुँचता है। विकासशील देशों के 20 लाख से ज़्यादा जनसंख्या वाले शहरों में रहने वाले लोग नदियों और झीलों के प्रदूषण का मुख्य कारण है, और उसका ख़म्याज़ा उठाते है बेचारे ग़रीब लोग, जो वहाँ से पानी पीते हैं। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 8000 क़स्बों में से केवल 160 क़स्बों में ट्रीटमेंट प्लांट लगे हुए है, जबकि भारत की 14 बड़ी नदियों नदी घाटियों में 223 क्लास-वन सिटी आते हैं, जिससे 40000 मिलियन लीटर सेवेज प्रतिदिन बनता है, जिसमें केवल 24% ट्रीटेड सेवेज की व्यवस्था है, जबकि बाक़ी 76% अनट्रीटेड सीवेज स्वच्छ जल-स्रोतों में सीधे मिलता है। क्लास-टू सीटियों की बात ही छोड़िए। अक्सर नदी के ऊपरी भाग वाले लोग ब्लू वाटर इकोनामी का आनंद उठाते हैं, जबकि निचले हिस्से वाले ग्रे वॉटर का प्रयोग कर जानलेवा बीमारियों को आमंत्रित करते हैं। 

अमरकंटक से बरगी बाँध तक नर्मदा घाटी का 27 फ़ीसदी हिस्सा आता है, जिसमें कुछ ही जगहों पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लान जुड़े हुए हैं, बाक़ी जगह सीवेज सीधे ही नदी में मिलता है। ऐसे भी नर्मदा कुंड में नहाने के लिए लाखों तीर्थ यात्री आते हैं और प्रतिदिन हज़ारों श्रद्धालु नारियल, चावल, सिंदूर सब चढ़ाते हैं, जिससे उद्गम प्रदूषित हो रहा है। अमरकंटक से 91 किलोमीटर दूर डिंडोरी है, वहाँ चार-पाँच लाख लोग रहते हैं, जिनका मल-मूत्र सीधे ही नदी में गिरता है और पास के गाँव में मानोट का भी, मंडला का तो कहना ही क्या! 

नर्मदा के मध्य भाग में रासायनिक उर्वरकों के स्राव से 8600 टन नाइट्रोजन, 5000 टन फॉस्फोरस और 1200 टन पोटेशियम नर्मदा के पानी को पोषक तत्वों से समृद्ध कर सुपोषण (eutrophication) करता है। इस प्रक्रिया में नदी में पौधों तथा शैवाल (algae) का विकास होता है। इसके अलावा, जल में बायोमास की उपस्थिति के कारण उस जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है यानी बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (BOD) बढ़ जाती है और साथ ही साथ, MPN कॉलीफॉर्म भी। वर्तमान 2023 में जबलपुर की जनसंख्या 30 लाख है, जो 2041 में 50 लाख हो जाएगी। फिर उनका मल-मूत्र नदी के कितना ज़्यादा बढ़ जाएगा! यही नहीं, ग्वारीघाट, तिलवारा घाट, भेड़ाघाट पर दशहरे में लाखों श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है। इसके अतिरिक्त, वार्षिक मेलों और उत्सवों की धूम! बर्मन फ़ेयर, बांद्रभान फ़ेयर, मकर-संक्रांति और शिव-रात्रि आदि के आयोजन से प्रदूषण बढ़ता जाता है। इस वजह संप्रति बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड 18900 किलोग्राम प्रतिदिन से बढ़कर 2031 में 1,70,000 किलोग्राम प्रतिदिन बढ़ जाएगा। आख़िर यह नदी कितना मैल ढोएगी? कितनी मैली होगी? कितनी विषाक्त होगी? कहाँ बचा रहेगा नर्मदा का सौन्दर्य? अपने काव्य-संग्रह की शीर्षक वाली पंक्ति वाली कविता में कवि आनंद ने नर्मदा के श्री-हरण और विषग्रस्त वातावरण पर आक्रोश प्रकट किया है:

“इतिहास के भीगे चरण/ श्री ले गए/ वन-प्रान्त की/ भूगोल की महिमा मिटी/ विषग्रस्त है वातावरण/ यह विश्व बेकल ज्ञान से अतिभोग से/ पर छिन्न उसके जन सहज उपभोग से/ यह शान्ति शव की है अशुभ/ जीवन प्रखर उद्दाम का/ है श्रेष्ठ कोलाहल, मगर ओ यक्षिणी। भाग्य में है क्या बदा? यह रूप बिखरा राशि जल में सर्वदा/ क्या सो रही/ सौन्दर्य जल में नर्मदा?” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 73) 

आज 2023 में होशंगाबाद की जनसंख्या 15 लाख है और बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड 1140 किलो प्रति दिन। यह बढ़कर 2031 में 10 गुना हो जाएगी। जबलपुर से होशंगाबाद के बीच औद्योगिक उत्सर्जन भी कुछ कम नहीं है। परफ़ेक्ट पॉटरी लिमिटेड, व्हीकल फ़ैक्ट्री, ऑर्डिनेंस फ़ैक्ट्री, बर्न एंड कंपनी लिमिटेड, गन कैरिज फ़ैक्ट्री, शॉ वैलेस जिलेटिन फ़ैक्ट्री, SAE और SPM आदि अनेक औद्योगिक संयंत्र हैं, जो नर्मदा से 52126 किलोलीटर प्रतिदिन पानी लेते हैं और गंदा पानी छोड़ते हैं 28290 किलोलीटर प्रतिदिन। BOD का लेवल 26535 किलोग्राम प्रतिदिन है। आज भी कई जगह स्नान-मंत्र बोला जाता है: 

गंगा च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। 
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन संनिधिम कुरु। 

इस मंत्र में नर्मदा नदी का भी उल्लेख हैं। मगर क्या इन सात नदियों का पानी अब नहाने योग्य रह गया है? यूएनडीपी की ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2006 के अनुसार 20 लीटर स्वच्छ जल प्रतिदिन प्राप्त करना हर मानव का जन्म-सिद्ध अधिकार है। इसलिए आज “मोर क्रॉप पर ड्रॉप” की अवधारणा बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि सन 2025 में पानी की माँग और आपूर्ति में 26। 20 मिलियन हेक्टेयर मीटर का अंतर आ जाएगा और पानी की ख़तरनाक क़िल्लत होने लगेगी। यही नहीं, केवल 11% भूमिगत जल 700 मीटर तक है, जबकि बाक़ी 89% भूमिगत जल 700 से 3800 मीटर गहराई तक, जिसे पाना हमारी पहुँच से परे है। सेंट्रल वाटर कमीशन के अनुसार हमारे देश में कुल भू-जल 42 मिलियन हेक्टर मीटर है और हमारी डिमांड 3 मिलियन हेक्टेयर मीटर प्रतिवर्ष है। भारत की 70% आबादी ग्राउंडवाटर पर निर्भर करती है और 70% सिंचाई ग्राउंड वाटर से होती है। 

आज खंभात की खाड़ी सिल्ट और मलबे से भर गई है, अति मत्स्य-दोहन, तेल का रिसाव, चारागाहों की कटाई, बांध-निर्माण, भारी धातुओं, उर्वरक और अन्य प्रदूषकोँ की ज़्यादा मात्रा से मिलने से नदी का मुहाना ख़राब हो रहा है। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम का स्तर बढ़ने से जलीय पौधों और सूक्ष्म जीवाणुओं में वृद्धि होने से काई बढ़ती जा रही हैं, जिससे सूरज की किरणें पानी के भीतर नहीं जा पाती और ऑक्सीजन की कमी के कारण दम घुटने से मछलियाँ मरने लगी हैं। हमारे देश में मछलियों का पौराणिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व रहा है। मत्स्य-पुराण के अनुसार सृष्टि प्रलय के दौरान भगवान विष्णु ने मत्स्यावतार ग्रहण किया था, आज भी बंगाल में मछली की पूजा की जाती है, बिहार में मछलियों को सोने के बड़े-बड़े कर्णफूल पहनाए जाते हैं, पर्वों के समय मीन-दर्शन शुभ माना जाता है, अशोक के अभिलेखों में मछली पकड़ने के काँटों के संकेत मिलते हैं, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राहु, ईल आदि मछलियों का उल्लेख है, रामचरितमानस में कई बार मीन और मत्स्य शब्द आता है, और महाभारत में मछली की आँख का निशाना बनाकर अर्जुन ने द्रोपदी को स्वयंवर में जीता था। 

मछलियाँ मानव सभ्यता का प्रथम भोजन है। भारतीयों का संपूरक भोजन, जो प्रोटीन, वसा, विटामिन, कैल्शियम, फास्फोरस और आयरन जैसे खनिजों की पूर्ति करती है। ये मछलियाँ पानी में घुलित ऑक्सीजन को गलफड़ों के द्वारा पानी के माध्यम से रुधिर वाहिनियों में अवशोषित करती है और पानी में अपवर्ज्य पदार्थ व कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ती है। स्वच्छ जल पारिस्थितिकी में नदी, झीलें, तालाब और जलधाराएँ आती है। विश्व के कुल कशेरुकी प्राणियों की जनसंख्या 54711 में मछलियों का योगदान लगभग आधा है यानी मछलियों की 27977 प्रजातियाँ है, 28% मछलियाँ समुद्री, 41 % स्वच्छ जल वाली और 1% लवणीय जल वाली। 

हमारे देश में 2500 मछलियों की प्रजातियाँ उपलब्ध है, 930 स्वच्छ जल वाली और 1570 समुद्री जल वाली। मछलियों पर नेल्सन, हैंडलिंग, पूसी, पावलिंग, बेरी, हुसैन आदि वैज्ञानिकों ने प्रमुखता से कार्य किया हैं। होरा और नायर ने नर्मदा नदी में होशंगाबाद से 40 मत्स्य प्रजातियाँ, एनोन ने जबलपुर के खलघाट क्षेत्र में 44 प्रजातियाँ तो राव ने नर्मदा के पुनासा, ओंकारेश्वर, मंडलेश्वर, महेश्वर, बड़वाह क्षेत्र में 84 मत्स्य प्रजातियाँ, 45 वंश, 20 कुल और 6 गण प्राप्त किए थे। बालापुर ने नर्मदा और ताप्ती नदी की मत्स्य जैव-विविधता का तुलनात्मक अध्ययन किया। इस हेतु खेड़ी घाट, बड़वाह, सेठानी घाट, होशंगाबाद, जबलपुर, धर्मपुरी, खलघाट, महेश्वर, मंडलेश्वर और बड़वाह जैसे स्थल चयनित किए। उच्च कशेरुकी से निम्न कशेरुकी प्राणियों के वर्गीकरण में मैमेलिया वर्ग में स्तनधारी, एवीज वर्ग में पक्षी, रेप्टेलिया में सरीसृप, एंफीबिया वर्ग में मेंढक और अंत में पीसीज वर्ग में मत्स्य आती हैं। आईयूसीएन की लाल सूची उष्ण कटिबंधीय जलवायु में मछलियों की अनेक भारतीय प्रजातियों समेत तंबू (टेंट) कछुआ नर्मदा नदी में अवैध खनन के कारण विलुप्त हो रहा है। 
नर्मदा नदी में सेप्टिक सिस्टम के लीक होने के कारण वायरस, बैक्टीरिया और परजीवी जीवाणुओं में बढ़ोतरी होने से तरह-तरह की बीमारियाँ फैलने लगी हैं। ज्वार-भाटे के कारण समुद्र का पानी नदी के ताज़े पानी के साथ मिलकर जलीय जीवन को प्रभावित करता है। एक ओर घरेलू और धात्विक उत्सर्जन से PH कम होता है जबकि टेक्सटाइल इंडस्ट्री से यह बढ़ता है, जो कि पानी के कार्बन डाई-आक्साइड, कार्बोनेट और साल्ट कंटेंट को नियंत्रित करता है। जहाँ पानी में घुली ऑक्सीजन से जलीय जीव-जंतु ज़िन्दा रहते हैं, वहाँ कार्बनिक पदार्थ डालने से और जलीय पौधों के श्वसन से घुली ऑक्सीजन की कमी होती जाती है। जिससे पानी या तो हिपॉक्सिक यानी कम ऑक्सीजन वाला या फिर अनाक्सिक यानी बिना ऑक्सीजन वाला हो जाता है। इस वजह से फाइटोप्लैक्टोन बायोमास गहरे पानी में अपघटित होने लगते हैं, जिसके फलस्वरूप पैदा होती है बदबूदार मीथेन गैस। यह गैस ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट अर्थात् वायुमंडल में तापमान बढ़ाएगी, जिससे उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव पिघलने का ख़तरा हमेशा सिर पर मँडराता रहेगा। जहाँ नर्मदा और तापी के कारण दक्षिणी गुजरात में सामाजिक और आर्थिक विकास हुआ है, वहाँ केमिकल, फर्टिलाइजर और पेट्रोकेमिकल उद्योग-धंधों में ज़बरदस्त बढ़ोतरी होने से नदियों के जल-प्रदूषण से विनाश का रास्ता भी खोला है। 

भारत में प्रख्यात पर्यावरणविद कासिम ने अनेक नदी मुहानों का अध्ययन किया, जिसमें साबरमती, माही, नर्मदा, तापी, मिंडोला, पूर्णा, पार, अंबिका, औरंगा, कोलाक, दमनगंगा, उल्हास, महिम, सावित्री, कुंडलिका, वशिष्ठी, अष्टमुदी और कोचीन का बैकवॉटर शामिल है। जूलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, कोलकाता एवं अन्नामलाई यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विभाग ने उन पर रिपोर्ट जारी की, पर्यावरण के प्राचलों में तापमान, क्षारीयता, घुलनशील ऑक्सीजन, फास्फेट, नाइट्रेट, सिलीकेट, हाइड्रोकेमिकल और जियोकेमिकल फीचर्स को ध्यान में रखते हुए। वैज्ञानिकों के अनुसार टोटल ऑर्गेनिक कार्बन, टोटल नाइट्रोजन, टोटल फास्फोरस, मर्करी, अल्युमिनियम, फेरस, मैग्नीज में वृद्धि के कारण अरब सागर में मार्श गैस की मात्रा काफ़ी बढ़ चुकी है, कोचीन और गोदावरी नदियों का भी वही हाल है, सुंदरवन, केरल के बैक वाटर, कावेरी में पानी में घुली ऑक्सीजन कम हुई है, कुडलोर हुगली नदी के सेडिमेंट में भी अच्छी ख़ासी वृद्धि हुई है। भरूच में जीआईडीसी इंडस्ट्रियल सेटअप और जीएनएफसी फर्टिलाइजर कॉम्प्लेक्स, मेघम में खुली शौच, शॉफ्ट शिपयार्ड प्राइवेट लिमिटेड, दहेज़, भरूच एवं भड़भूत के इंडस्ट्रियल कंपलेक्स, सागेश्वर में रिलायंस पेट्रोल केमिकल लिमिटेड, गुजरात फ़्लोरो केमिकल लिमिटेड, एबीजी शिपयार्ड, बिरला कॉपर, ओएनजीसी के कारण नर्मदा मुहाने की वेटलैंड बुरी तरह प्रदूषित हुई है। उसी तरह कच्छ का रन, कच्छ की खड़ी, खंभात की खाड़ी, सौराष्ट्र तट, केरल की पुनथुरा नदी, गोदावरी मुहाना, मुंबई हार्बर, गुजरात के दक्षिणी हिस्से में लगभग छोटी-बड़ी 66 नदिया अरब सागर में गिरती है, सभी की हालत चिंतनीय है। भारत में नदियों की यह उदास हालत देखकर कवि आनंद का मन खिन्न हो उठा है, इसलिए ‘नदी-सूक्त’ में लिखते हैं: 

“मैं/अब यों ही पछता रहा हूँ। कि नदी के निर्जन एकान्त में/ पुल पर क्यों आया/ उसे इतना/ उदास क्यों पाया?” (सौन्दर्य जल में नर्मदा::92) 

14000 करोड़ रुपए के सरदार सरोवर प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य था सिंचाई, पीने का पानी उपलब्ध करना, विद्युत पैदा करना और बाढ़ से सुरक्षा। 1200 मीटर लंबा कंक्रीट की दीवार, 138 मीटर ऊँचा, 200 किलोमीटर लंबा रिजर्वायर, 75000 किलोमीटर नहरों के जाल बिछाने से पूरी हुई यह परियोजना, जिसमें 37000 हेक्टेयर ज़मीन डूबी, 245 गाँव प्रभावित हुए। 193 गाँव मध्य प्रदेश के, 33 गाँव महाराष्ट्र के और 19 गाँव गुजरात के। मिनिस्ट्री ऑफ़ फाइनेंस, मिनिस्ट्री ऑफ़ एनवायरनमेंट एंड फॉरेस्ट और मिनिस्ट्री ऑफ़ वाटर रिसोर्सेज को यह कार्यभार सौंपा गया और बनाई गई एक अलग कंपनी, जिसका नाम था सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड के निर्देशन में। मगर नेशनल एनवायरमेंट पॉलिसी 2006 के अनुसार हर रिफॉर्म की स्वाट (SWOT)-एनालिसिस होनी चाहिए, ताकि सस्पेंड इकोनामिक ग्रोथ की एनवायरमेंट क्वालिटी (SEGEQ) से इको फ़्रेंडली डेवलप्ड नेशन (EDN) के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक चिंतन किया जा सके। 

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