सौन्दर्य जल में नर्मदा (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
4. नर्मदा नदी का जनारण्य
अहोऽमतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे, किरात-सूत वाडवेषु पण्डिते शठे नटे।
पाप-ताप-हारि-सर्वजन्तु-शर्मदे। त्वदीय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे॥
हम लोगों ने शिवजी की जटाओं से प्रकट हुई रेवा के किनारे भील भाट ब्राह्मण विद्वान् और धूर्त नटों के बीच घोर पाप ताप हरने वाली अहह! अमृतमय यशोगान सुना, अतः प्राणीमात्र को सुख देने वाली हे देवि नर्मदे! तुम्हारे चरण कमलों को में प्रणाम करता हूँ॥8॥
भूगर्भ-ज्ञान के अनुसार आज से 55 करोड़ वर्ष पूर्व विश्व के सारे महाद्वीप एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, जिसे पैन्जिया कहा जाता था। उसके उत्तरी भाग को लॉरेशिया और दक्षिण भाग को गोंडवाना कहते थे। दोनों के बीच टीथिस नामक एक सँकरा सागर था। पृथ्वी की यह स्थिति जुरासिक काल (आज से 18 करोड़ वर्ष पूर्व) तक बरक़रार रही। उस समय भारत की नर्मदा नदी के दक्षिण स्थित प्राचीन गोंड राज्य प्रसिद्ध था, इसलिए अँग्रेज़ भू-वैज्ञानिक एडुअरड सुएस ने वृहतमहाद्वीप के दक्षिण भाग का नाम गोंडवाना क्षेत्र रखा था, जिसमें आज के समस्त दक्षिणी गोलार्ध के अलावा भारतीय उपमहाद्वीप और अरब प्रायद्वीप आता है। कुछ भूगर्भवेत्ताओं मत है कि यह प्रदेश एक विशाल भूखंड न होकर अनेक भू-भागों का समूह था जो सँकरे भू-संयोजकों अथवा स्थल-सेतुओं द्वारा एक दूसरे से संबद्ध थे। इसके अंतर्गत भारत तथा समीपवर्ती देश आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमरीका, अंटार्कटिका, दक्षिणी अफ़्रीका और मैडागास्कर आते थे।
अचानक एक दिन एक विशाल ज्वालामुखी फूटा या फिर उल्का-पिंड पृथ्वी से टकराया, जो संभवतः इस विखंडन-क्रिया का पूर्व संकेत था। यह परिवर्तन संभवतः अंतर्गत भूखंडों के तटस्थ भागों अथव स्थल-सेतुओं के निमज्जन से या इन भू-भागों के एक-दूसरे से दूर खिसक जाने से संपन्न हुआ। इसी के साथ-साथ बंगाल की खाड़ी, अरब सागर, दक्षिण अटलांटिक सागर इत्यादि का जन्म हुआ। कभी गोंडवाना प्रदेश की जलवायु हिमानीय (Glacial) थी, जिसकी पुष्टि इस युग के बोल्डर तहों (Boldar Beds) की उपस्थिति से होती है, जो सभी अंतर्गत भागों पर मिलते हैं। भारत की तालचेर, दक्षिणी अफ़्रीका की ड्वाईका, दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया की मुरी तथा दक्षिणी अमरीका की रियो टुबारो समुदायों की शिलाएँ इन्हीं बोल्डर तहों पर स्थित हैं। इस काल में ग्लासैपटेरिस (Glossopteris) एवं गंगमौपटेरिस वनस्पतियों की प्रचुरता थी तथा उभयचर जीवों का भूतल पर प्रथम बार आगमन हुआ था। तत्पश्चात् पर्मिएन कार्बन युग में कोयले की सीम मिलने लगी, जो उष्ण एवं नम जलवायु में ही बन सकती थी, क्योंकि प्रचुर वनस्पति की उपज के लिये, जिसके द्वारा कालांतर में कोयले का निर्माण हुआ, इसी प्रकार की जलवायु की आवश्यकता होती है। कोयले की ये सीम इस काल में निर्मित भारत की दामुदा समुदाय, दक्षिणी अफ़्रीका की इक्का तथा दक्षिणपूर्व आस्ट्रेलिया की मेटलैंड उपसमुदायों की शिलाओं में मिलते हैं।
आंरभिक ट्राइऐसिक (Triassic) युग में यहाँ की जलवायु शीतल होने लगी, चट्टानें फटने लगी। इस काल की शिलाएँ भारत के पंचत् समुदाय, दक्षिणी अफ़्रीका के व्यूफर्ट तथा दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलिया के हाक्सबरी उपसमुदायों के अंतर्गत मिलती हैं। इसके पश्चात् अंतिम ट्राइएसिक युग में जलवायु उष्ण एवं शुष्क होने लगी, जो मरुस्थलीय जलवायु का द्योतक थी। भारत में महादेव समुदाय की शिलाएँ इसी काल में निक्षिप्त हुई थीं, जो महाराष्ट्र और गुजरात के पास सतपुड़ा और विंध्यांचल के पहाड़ों में पाई जाती हैं। यही वह समय था जब सरीसृपों (reptiles) यानी डायनसोरों का पृथ्वी पर सर्वप्रथम आगमन हुआ था। उभयचरों एवं मीनों का भी बाहुल्य था। और जुरैसिक युग में, जलवायु में पुनः सामान्यता आ गई थी और नर्मदा के किनारे राजसौराऊस नरमाडेन्सिस जैसे डायनासोर फलने-फूलने लगे। जिसके बारे में कवि आनंद अपने काव्य-संग्रह “सौन्दर्य जल में नर्मदा” में इस ओर संकेत करते हैं:
“नर्मदा जंगलों में बसते हैं/ ज्ञान के उत्खनन/ पिंड प्रागितिहास के/ दबे हुए मिट्टी में/ जिनके अन्तरालों से बाहर। चुनौती देती हुई/ छोटी-छोटी/ कहीं-कहीं उगी हुईं/ दिखायी दे जाती हैं/ इतिहास की नामालूम-सी दूब” (पृष्ठ-74)
इसके अतिरिक्त, उन्हें इन वैज्ञानिक शोध एवं तथ्यों की सविस्तार जानकारी होने के कारण ही डायनासोरों के अंडों को पत्थर के अंडों ही संज्ञा दी है और जूरैसिक युग की हिडिंबा के पूर्वजों से तुलना की है:
“हिडिम्बा के पूर्वजों के गण्डे। जमकर हो गये हैं पत्थर/ अलम्बुषा की पीठ पर पड़े हैं/पत्थरों के अण्डे” (सौन्दर्य जल में नर्मदा:16)
ज़्यादा अतीत में न जाकर हम लौट आते हैं आज से 8000 साल पहले की सिन्धु घाटी सभ्यता की ओर, जो सिंधु और घघ्घर (प्राचीन सरस्वती) के किनारे विकसित हुई। हड़प्पा (पंजाब पाकिस्तान), मोहेनजोदड़ो (सिन्ध पाकिस्तान लरकाना जिला), लोथल (गुजरात), कालीबंगा (राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में), बनवाली (हरियाणा के फतेहाबाद जनपद में), आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले में), सूत कांगे डोर (पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में), कोट दीजी (सिन्ध पाकिस्तान), चन्हूदड़ो (पाकिस्तान), सुरकोटदा (गुजरात के कच्छ ज़िले में), हिन्दुकुश पर्वतमाला के पार अफ़ग़ानिस्तान में शोर्तुगोयी आदि जगहों से इस सभ्यता के प्रमाण मिले है। इस प्राचीन सभ्यता के प्रकाश में आने के बाद कुछ विद्वान मानते है कि हिन्दू धर्म द्रविड़ों का मूल धर्म था और शिव द्रविड़ों के प्रमुख देवता थे जिन्हें आर्यों ने बाद में अपना लिया। प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में पुरातत्वविदों को कई मन्दिरों के अवशेष मिले है, पर सिन्धु घाटी में आज तक कोई मन्दिर नहीं मिला। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे विभिन्न तर्क दिये जाते हैं जैसे: आक्रमण, जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिकी असन्तुलन, बाढ़ तथा भू-तात्विक परिवर्तन, महामारी, आर्थिक कारण आदि, मगर अगर देखा जाए तो नर्मदा घाटी की सभ्यता, अगर खोजी जाए तो उससे बहुत ज़्यादा पुरानी सिद्ध होगी, क्योंकि 20 करोड़ साल पहले नर्मदा की इस भ्रंश घाटी में अरब सागर के घुसने से बनी खारे पानी की दलदली झील जैसा था और वहाँ डायनासोर जैसे जीवों के सबूत पहले ही मिल चुके हैं। सिंधु घाटी की संस्कृति तथा वैदिक संस्कृति ने परवर्ती भारतीय समाज को विकास का आधार बनाकर मुख्य धार्मिक प्रणालियों में जैसे हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि को जन्म दिया, जबकि नर्मदा घाटी द्रविड़ियन गोंड और भील आदिवासियों की संस्कृति बनकर रह गई।
नर्मदा घाटी कभी जंगली आदिवासियों की निवास स्थल हुआ जाती थी, जो कि बाद में गंगा के मैदान, राजस्थान, मालवा और गुजरात से आए लोगों की शरणस्थली बन गई। जिन्होंने आदिवासियों से मिलकर अपनी एक संस्कृति विकसित कर ली है। महाकौशल का खुलापन, बुदेलखंडियो की स्पष्टवादिता, मालवी लोगों का काइयाँपन, मराठी लोगों की मितव्ययता, राजस्थानी की साहसिकता, गुजरातियों के धन-प्रेम का घोल नर्मदा के पानी में मिलकर नर्मदा घाटी की जीवन शैली बन गई। मैं इस मिश्रित जीवन-शैली को आर्य-अनार्य के पारस्परिक लड़ाई, अपहरण और उपनिवेश से जोड़कर देखता हूँ।
गुणाढ्य ऋषि ने बृहत्कथा (“द ग्रेट नैरेटिव”) लिखी थी, जो पैशाची भाषा में थी, शायद द्रविड़ मूल की भाषा थी यह, जिसमें 700, 000 श्लोक थे। उस समय नर्मदा और गोदावरी के बीच इलाक़ों में पैशाची भाषा बोली जाती थी। मगर जब नर्मदा घाटी में आर्य आए अपने उपनिवेश स्थापित करने और उन्हें यह भाषा समझ में नहीं आई तो इस पुस्तक को कोई ख़ास तवज्जु नहीं दी तो गुणाढ्य ऋषि ने इस कृति के छह भाग को आग के हवाले कर दिया और अंतिम को स्वाहा करने ही जा रहे थे कि सोमदेव ने उन्हें रोक दिया और उस भाषा को सीखकर संस्कृत में अनुवाद किया, जिसका नाम रखा कथासरित्सागर (“कहानियों की सरिताओं का महासागर”)। यह किंवदंतियों, इतिहास और लोक कथाओं का 11वीं सदी का एक प्रसिद्ध संग्रह है। विद्वान गुणाढ्य की तुलना व्यास और वाल्मीकि से करते हैं। भले ही, उन्होंने लंबे समय से लुप्त हो चुकी बृहत्कथा को संस्कृत में नहीं लिखा। वर्तमान में इसके दो संस्कृत अनुवाद उपलब्ध हैं, क्षेमेंद्र द्वारा बृहत्कथामंजरी और सोमदेव द्वारा कथासरित्सागर। इस तरह क्षेमेंद्र और सोमदेव ने संस्कृत और पैशाची के बीच सेतु-बंध का काम किया, जो नर्मदा घाटी में हो रहे धार्मिक उठापटक, सामाजिक उत्परिवर्तन और समन्वय को प्रदर्शित करते हैं। आधुनिक युग में भी यह परिपाटी जारी है, जैसे सलमान रश्दी का Haroun and the sea of stories कथासरित्सागर का आधुनिक रूप ही तो है! यह अत्यंत मनोरंजक बाल-उपन्यास है, जिसमें कई भाषाओं का प्रयोग किया गया हैं। इसी प्रकार मध्य पूर्वी लोक-कथाओं का संग्रह अरबी में लिखा गया ‘एक हज़ार और एक रातें’ को अंग्रेज़ी में अरेबियन नाइट्स के रूप में जाना जाता है, जिसका पहला संस्करण सन 1706 में प्रकाशित हुआ।
आर्य-अनार्य सिद्धांत को अगर ठीक माने तो आर्यों के आगमन के बाद से अनार्य यानी असुर विन्ध्याचल और सतपुड़ा पर्वतों के बीच सघन जंगलों में प्रवाहित सदानीरा नर्मदा के दोनों किनारों बस गए थे। उत्तर भारत का इलाक़ा उन्होंने आर्यों के लिए छोड़ दिया था। नरसिंहपुर के नृसिंह मंदिर में भगवान नृसिंह की मूर्ति प्रहलाद ने स्थापित की होगी। इसी क्षेत्र में हिरण्यकश्यप का राज्य था, शोणितपुर अर्थात् वर्तमान सोहागपुर के पोते बाणासुर की राजधानी थी। महात्मा ज्योति राव फूले ने अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरि’ में आर्यों को ईरान-इराक से आया हुआ बताया है और ब्राह्मणों को उनके ख़ास प्रतिनिधि, जबकि हिरण्यकश्यप और हिरनाक्ष को द्रविड़ों के प्रतापी और उदारवादी राजा बताया है। नृसिंह अवतार को चालबाज़ आर्यों का बहुरूपिया सेनानायक, जिसने ने केवल प्रह्लाद को बरगलाया, बल्कि उसके पिता हिरण्यकश्यप को धूर्तता से मौत के घाट उतारकर उसे सिंहासन पर बैठा दिया। यहीं से शुरू होती है आर्य और अनार्य संस्कृतियों में आपसी घालमेल! प्रह्लाद की एक बहन के पुत्र असुरों के में प्रह्लाद गुरु शुक्राचार्य का आश्रम विन्ध्याचल और सतपुड़ा पर्वतों के घने वन क्षेत्र में था, यहाँ की जड़ी-बूटियों के रसायन से उन्होंने अमृत संजीवनी तैयार की थी। जिसे अर्जित करने हेतु देवताओं के राजा इंद्र ने गुरु पुत्र कच्छ को भेजा था। इसी क्षेत्र में उसका प्रेम प्रसंग शुक्राचार्य पुत्री देवयानी से हुआ था। देवासुर संग्राम के पूर्व देवताओं ने ब्रह्मकुण्ड में शिव आराधना की थी। गराडू घाट पर गरुड़ ने युद्ध काल में तपस्या की थी। नर्मदा की परिक्रमा में इन सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा हो जाती है। जयचंद विद्यालंकार के कालबद्ध पौराणिक इतिहास लेखन के बाद से पौराणिक साहित्य को हिंदुओं का ऐतिहासिक साहित्य माना जाने लगा है। नर्मदा घाटी का भेड़ाघाट से नेमावर का क्षेत्र देव-असुर संग्राम का साक्षी रहा है। स्कन्द पुराण के रचयिता वेद-व्यास ने कार्तिकेय अर्थात् शिवपुत्र स्कन्द के नाम पर यह यह ग्रंथ संकलित किया था। स्कन्द द्वारा तारकासुर असुर का वध का साक्षी भी यही स्थल रहा है। भगवान शिव संहार के देवता हैं। उनका पुत्र कार्तिकेय संहारक शस्त्र अथवा शक्ति के रूप में जाना जाता है। तारकासुर का वध करने के लिए ही स्कन्द का जन्म हुआ था। कार्तिक माह की ग्यारस के चमकते चाँद की गवाही में इस पौराणिक स्थान का आनंद लिया। स्कंद का एक नाम कार्तिकेय है, कार्तिक मास की पूर्णिमा को नर्मदा के दोनों तटों के हज़ारों घाटों पर भरने वाले मेलों में करोड़ों लोग डुबकी लगाकर पुण्य सहेजते हैं। इस प्रकार आर्य-अनार्य संस्कृतियाँ अपने आप एक-दूसरे में विलय होती जा रहीं थीं। वे एक-दूसरे के देवी-देवताओं और साहित्य को अपनाने लगे थे। कवि आनंद नर्मदा के दोनों तट पर आदिम मनुष्य की कल्पना करते हैं और साथ-ही-साथ, उनके संघर्ष, कोलाहल, भय, निवास स्थान, रहन-सहन, निस्संगता आदि के बारे में लिखते हैं:
“नर्मदा की धारा के दोनों तट/ शताब्दियों से ढोते रहे हैं/ आदिम मनुष्यों की इच्छाएं/ संघर्ष, कोलाहल, किटकिटाहटें, आदिम भय/वह बेपरवाह अकेलापन/ जहाँ लेटी है अब भी पहाड़ियों में जंगली गुफ़ाएं” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 76)
यह आदिम मनुष्य कौन था? सबसे पहला मानव जो धरती पर आया? कब? कैसे? ये सवाल आज भी अनुत्तरित हैं। इस संदर्भ में तरह-तरह की किंवदंतियाँ अवश्य हैं, मगर सत्य पर आधारित कोई उत्तर नहीं। किसी ने मनु-श्रद्धा का प्रसंग उठाया, किसी ने एडम-ईव का तो किसी ने आदम-हव्वा का। चार्ल्स डार्विन का मैं बहुत आदर करता हूँ, उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज’ में एक कोशीय जीव से बहुकोशीय जीव के निर्माण की कल्पना की। 4.5 बिलियन वर्ष पहले पृथ्वी बनी, फिर बनना शुरू हुए पहले पहल एक कोशिकीय जीव, फिर मछली, फिर कोरल, फिर मोलस्का, एम्फिबिया, साथ ही साथ सदाबहार वन, डायनासोर, उड़ने वाले सरीसृप, पक्षी, स्तनधारी जीव, फूलों वाले पौधे, घास के मैदान, बिल्ली, कुत्ते, वनमानुष, व्हेल, और फिर बंदरों जैसे हमारे पूर्वज, आदि मानव के रूप में। इससे मिलती-जुलती धारणा हमारे अवतारवाद में भी पाई जाती है, मत्स्य-कच्छप-वराह-नृसिंह-वामन।
मगर स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका’ में लिखा है कि सात पुरुष और सात महिलाओं को भगवान ने एक साथ किसी पर्वत पर उतारा था, वैसे ही जैसे आज दिखते हैं, और फिर उनके पारस्परिक संसर्ग से सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई। यह उनका अपना मत है। ऐसे तो आज भी ब्रह्मकुमारी वाले मानते हैं कि मनुष्य मरने के बाद मनुष्य योनि में जाता है, किसने देखा या परखा है? जबकि हिंदू धर्म 84 लाख योनियों के आवागमन में विश्वास करता हैं। स्वामी दयानंद उस पर्वत के बारे में नीरव है। एडम-ईव की कहानी से तो आप परिचित होंगे? एडम को बेसुध अवस्था में भगवान ने पैदा किया था और फिर उसकी पसली की एक हड्डी निकाल कर ईव को बना दिया, फिर दोनों के संसर्ग से सृष्टि बनी। यानी एडम आदिपुरुष और ईव आदिमहिला। जितने मुँह, उतनी बातें! ऐसे इस दिशा में ज़्यादा दिमाग़ पर दबाव डालने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि अखिल ब्रह्मांड के किसी भी पदार्थ के अस्तित्व के अंतिम छोर तक की तलाश में पहुँचने पर जवाब में एक ही स्वर सुनाई देगा, कोई दिव्य शक्ति ने उसका निर्माण किया है। चाहे वह वायु, जल, आग, धरती, आकाश क्यों न हो? वे कहाँ से पैदा हुए और उन्हें किसने पैदा किया? सभी का उत्तर भारतीय दर्शन में सर्वशक्तिमान परमात्मा तक पहुँचता है।
मगर आज जहाँ तक हमारे मानव मस्तिष्क ने वैज्ञानिक उन्नति की है और अगर विज्ञान की बात मानें तो रिचर्ड ओवरी की प्रसिद्ध पुस्तक “द कंप्लीट हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड” के अनुसार आधुनिक मनुष्य के पूर्वज होमीनीन की उत्पत्ति ग्लोबल कूलिंग की वजह से 50-60 लाख वर्ष पहले परिवेश में परिवर्तन होने के कारण मांसाहारी व सर्वाहारी प्राणियों के रूप में हुई। मनुष्य के प्राप्त जीवाश्मों पर के अध्ययन अनुसार Austrolopthesius, Homohabills, Homoerectous, Homoheidal bergenus तथा Homosapian (Motera human) आदि के परिवर्तनों में लंबी समयावधि लगी। 50 वर्ष से आधुनिक मनुष्य की खोपड़ियों में मस्तिष्क का आकार लगातार वृद्धि करता नज़र आ रहा है। Austrolopthecius मनुष्य में आधुनिक मनुष्य के मस्तिष्क आकार का एक तिहाई होता था। और अगर यू देखें तो DNA के अध्ययन के अनुसार आधुनिक मानव यानी होमोसेपियन की उत्पत्ति अफ़्रीका में डेढ़-दो लाख वर्ष पूर्व हुई। यद्यपि उनकी उत्पत्ति और विस्तार के बारे में अभी भी अनुसंधान कार्य शेष है, पृथ्वी पर 90 लाख साल पहले हमारे पूर्वज बंदर थे, 30 लाख साल लगे उन्हें अपने दोनों पैरों पर चलना सीखने में, और अगले 30 लाख साल में उनकी चाल में कुछ सुधार हुआ। उसके हिसाब से 15 लाख साल पहले हमारे अस्थिपंजर का निर्माण हुआ और आज से 4 लाख साल पहले हमारे पूर्वज होमो इरेक्टस बने, और इस तरह 11000 साल पहले होमो सेपियन के रूप में आधुनिक मानव का प्रादुर्भाव हुआ, इथोपिया के ओमो बेसिन और दक्षिण अफ़्रीका के क्लासिएस नदी की तलहटी में। उस समय हमारी पृथ्वी 30 लाख साल पहले बंदरों, लंगूरों और वन-मानुषों से भरी हुई थी, जो उस समय अफ़्रीका के जंगलों में रहते थे। विज्ञान की भाषा में इस काल को ‘मायोसिन पीरियड’ कहते हैं। दस लाख साल पहले तापमान घटना शुरू हुआ था और जंगल देखते-देखते ‘सवाना’ में बदल गए, वनमानुष ख़त्म हो गए और बनने लगा हमारे पूर्वजों का प्रारम्भिक स्वरूप, ओरांगगुटान-गोरिल्ला-चिंपाजी-बोनोबो से होते हुए। लेकिन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दस हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्य ने विश्व में कॉलोनी निर्माण का कार्य शुरू कर दिया था। दूसरे शब्दों में, दस हज़ार सालों से पृथ्वी पर होमोसेपियन यानी आधुनिक मानव का राज है, उससे पहले होमो इरेक्टसों का, आँखों पर भृकुटियों को ढकने वाली कैप और पीछे की तरफ़ दबी हुई ललाट वाले, जिनके पास न कोई संस्कृति, न धर्म, न कला, न संस्कार थे। जीते थे ज़्यादा, आधुनिक मनुष्य से 20 गुना।
अनेकों बर्फ़ युग की शृंखलाओं ने मनुष्य जाति को विविध वातावरण में बदलाव सहन करने के लिए सक्षम बना दिया था, मनुष्य ने शिकार करने के साथ-साथ खेती एवं पशुपालन करना सीख लिया था। कृषि की इस उत्पत्ति को “निओलियिक रिवोल्यूशन” कहा जाता है। विश्व इतिहास के अनुसार कृषि पूर्वी यूरोप से होते हुए मेडिटेरियन कोस्ट तथा सेंट्रल यूरोप से होते हुए चार हज़ार ई.पू. तक ब्रिटेन में पहुँचकर वहाँ से बाल्टिक यूरोपियन रशिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली।
पुरातत्व विज्ञान के अनुसार भारत के तत्कालीन सामाजिक जीवन के बारे में यह अवश्य कहा जा सकता है कि 1200 ई.पू. के बाद की शताब्दियों में वेदों का निरूपण हुआ होगा, मगर 5वीं शताब्दी तक वेद लिखित रूप में सामने नहीं आए थे। इस तरह गंगा के ऊपरी भागों में इण्डो आर्यन सेटलमेंट स्थापित हो रहे थे।
हमारे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक “विश्व इतिहास की झलक” के अनुसार भारत के प्रारंभिक इतिहास का अध्ययन हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि आदि आर्य (इण्डो आर्यन) ने कभी भी इतिहास लिखने में ध्यान नहीं दिया, मगर उन लोगों के रचे गए ग्रंथ वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत उनकी अपनी कृतियाँ है। इन ग्रंथों के अध्ययन से हमें भले ही, अपने पूर्वजों के रीति-रिवाज़, रहन-सहन और सोच-विचार करने के ढंग का पता चलता है, मगर यह इतिहास नहीं है। संस्कृत में वास्तविक इतिहास की पुस्तक कश्मीर के इतिहास पर है, लेकिन वह बहुत पुरातन ज़माने की है, उसका नाम है ‘राज तरंगिणी’। इसमें कश्मीर के राजाओं का सिलसिलेवार हाल का वर्णन है और यह कल्हण की लिखी हुई है। इस जानकारी से हमारे मन में एक सवाल अवश्य उठता है कि क्या रामायण अथवा महाभारत के पात्र आर्यों के वंशज थे यानी सिंधु घाटी से सम्बन्ध रखते थे या किसी नर्मदा घाटी की द्रविड़ सभ्यता के पुरोधा थे? यह भी तो हो सकता है हम उन पुराने लोगों के ठेठ वंशज हैं जो उत्तर पश्चिम के पहाड़ी दर्रों से होकर उस लहलहाते हुए मैदान में आए जो कालांतर में ब्रह्मवर्त, आर्यावर्त, भारतवर्ष तथा हिंदुस्तान कहलाया। क्या नर्मदा घाटी का तत्कालीन समाज हड़प्पा और मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता के समकक्ष है अथवा इससे पूर्व का? क्या जिस युग में वाल्मीकि ने रामायण और वेद व्यास ने महाभारत लिखी, तब सिंधु और नर्मदा के आर्य और अनार्य एक-दूसरे से समन्वय कर रहे थे? क्या त्रेता और द्वापर से पूर्व वेदों की रचना हो चुकी थी? शायद धीरे-धीरे इस धर्म में अश्वमेध, पशुबलि, बहु-विवाह, औरतों पर अत्याचार जैसी कई कुरीतियों का समावेश हो गया था। नर्मदा घाटी कभी भी लम्बे समय तक किसी शासक का ग़ुलाम नहीं रही। घाटी की दुरुह पहुँच ने आततायियों से इसे बचाए रखा। अंग्रेज़ों द्वारा रेल लाने के बाद खंडवा से जबलपुर का बहुत तेज़ी से विकास हुआ है। इसलिए नर्मदा घाटी के लोगों में एक स्वाभिमान और साहसिक खुलापन के साथ भारतीय संस्कृति का मौलिक मूल्य अतिथि सेवा स्थायी भाव है। कुछ ऐसा ही अविस्मरणीय अनुभव शोलोखोव के अमर उपन्यास ‘और चुपचाप डान बहती रही’ पढ़कर हुआ था।
नर्मदा घाटी की संस्कृति विविधता धारण किए है। गुजरात, महाराष्ट्र अथवा उड़ीसा की तरह इस प्रदेश को किसी भाषाई संस्कृति से नहीं पहचाना जाता। मध्यप्रदेश विभिन्न लोक और जनजातीय संस्कृतियों का समागम है। यहाँ कोई एक लोक संस्कृति नहीं है। यहाँ एक तरफ़ पाँच लोक संस्कृतियों का समावेशी संसार है, तो दूसरी ओर अनेक जनजातियों की आदिम संस्कृति का विस्तृत फलक पसरा है। नर्मदा के पानी की तासीर शुद्ध रंगहीन पानी जैसी है जिन लोगों के ख़ून को रवाँ करती है उनको अपनी संस्कृति में रंग देती है। निष्कर्षतः मध्यप्रदेश छह सांस्कृतिक क्षेत्र निमाइ, मालवा, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, महाकौशल और ग्वालियर हैं। धार-झाबुआ, मंडला बालाघाट, छिन्दवाड़ा, होशंगाबाद, खण्डवा-बुरहानपुर, बैतूल, रीवा-सीधी, शहडोल आदि जनजातीय क्षेत्रों में विभक्त है। नर्मदा घाटी अपने दामन में आदिमानव, अर्वाचीन जनजातियाँ, मध्ययुगीन विकसित मनुष्य से लेकर आधुनिक नागरिक समाजों को सँजोए हुए है, बोलियों के साथ सांस्कृतिक विविधता जैसी नर्मदा घाटी में है, संभवतः दुनिया में कहीं नहीं है।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि कर्म के आधार पर इस सृष्टि के चारों वर्ण मैंने बनाए है यानी ‘चातुरवर्ण्य मया सृष्टि’, लेकिन तीन हज़ार साल बाद जगद्गुरु शंकराचार्य अपने ‘नर्मदाष्टकम्’ में ‘किरात-सूत-वाडवेषु-पण्डिते-शठे-नटे’ कहकर तत्कालीन समाज की जाति-प्रथा पर प्रकाश डालते हैं, मगर यह कहना मुश्किल है कि उस समय तक जाति जन्माधारित हो चुकी थी या अभी भी कर्म पर टिकी हुई थी।
अगर हम चार्ल्स डार्विन की परिकल्पना को सही मान लेते हैं तो बंदर हमारे पूर्वज है और हनुमानजी बंदर और मनुष्य के बीच की कड़ी है। इसका मतलब कभी बहुत सारे हनुमान पैदा हुए होंगे। कालांतर में वे हनुमान अपनी पूँछ खोकर और बाहर निकले मुँह की ड्योढ़ी को जैविक उत्परिवर्तन द्वारा सीधी कर सबसे पहले आदिवासी बने होंगे।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि हम सभी के पूर्वज–-जहां तक हमारा ध्यान जाता है, अवश्य ही किसी-न-किसी आदिवासी जनजाति अर्थात् शेड्यूल ट्राइब के ही लोग रहे होंगे। आज कोई हमें शेड्यूल ट्राइब कहें तो मन में हीन भावना पैदा होती है और ऐसा लगता है कि हम दूसरों की तुलना में अभी भी अविकसित और अवलेहित हैं। ऐसा क्यों?
रामचन्द्र गुहा की पुस्तक ‘सेवेजिंग द सिविलाइज़्ड: वेरियर एलविन, हिज़ ट्राइबल एंड इंडिया’ में जयपुर की महारानी का उल्लेख आया है, जो बहुत ही ख़ूबसूरत है और वह अपने आपको बिहार के किसी प्रांत की ट्राइबल महिला बताती है तो साधारण लोगों में चर्चा का विषय बन जाती है। अब वह उनके लिए किसी अजूबे से कम नहीं है! वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत सभी तो ज़्यादा पुरानी बातें नहीं है, मगर मनुष्य को पैदा हुए अरबों-खरबों साल हो गए। उस ज़माने के पूर्वजों को अगर हम मानव कहें तो आज हम सभी अपने आप को अतिमानव कह सकते हैं। महर्षि अरविंद के अनुसार यही तो मानव से अतिमानव की यात्रा है। और यहीं पर ख़त्म नहीं होती है, आगे भी अनवरत चलती रहेगी और आज का अतिमानव और ज़्यादा परिष्कृत होकर भविष्य में अवश्य अति-अतिमानव की शृंखला में एक क़दम और आगे बढ़ाएगा। यह सारा खेल चेतना का ही है। जैसे-जैसे चेतना ऊर्ध्वगामी होती रहेगी, वैसे-वैसे तिमिर हटता रहेगा और जग्द्गुरु शंकराचार्य की धारणा ‘मैं वही हूँ’, ‘सोहम’, ‘अहम शिवोहम’ में परिणित हो जाएगी। विज्ञान भी यही कहता है कि अगर किसी धातु के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश, जिसे हम परमाणु कहते हैं, उसके भी अगर टुकड़े कर दिए जाए तो उनमें भी उस धातु के सारे गुण विद्यमान होंगे। इसी तरह परमात्मा के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश को अगर हम ‘आत्मा’ मान लें तो उस आत्मा में परमात्मा के सारे गुण अवश्य विद्यमान होंगे। यही तो नर्मदा तट के जगद्गुरु शंकराचार्य हमें सिखाते हैं कि विश्व की हर चीज़, चाहे निर्जीव हो या सजीव, में परमात्मा है।
‘किरात-सूत-वाडवेषु-पण्डिते-शठे-नटे’ सभी में ईश्वर के गुणों वाली आत्मा ही परमात्मा है, अर्थात् आदिवासियों के शरीर भी परमात्मा के सारे गुणों से ओत-प्रोत हैं। उनके पास भी अपनी भाषा है, अपने संस्कार है, अपनी संवेदनाएँ हैं, अपने सुख-दुख है, अपने रीति-रिवाज़, व्यवहार है, सब-कुछ है। ऐसे आदिवासियों के जीवन के अध्ययन के लिए वेरियर एल्विन ने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया, भाषा, रीति-रिवाज़, रंगभेद, जाति-प्रकृति सारे अवरोधों को तोड़कर।
उनकी आत्मकथा ‘द ट्राइबल वर्ल्ड ऑफ़ वेरियर’ में उनके जीवन के बहुत सारे तथ्यों को खंगाला जा सकता है। केवल वे ही लोग भूत-प्रेत में विश्वास नहीं करते, बल्कि मैंने अपने बचपन में अपनी जन्म-नगरी सिरोही में ये सब देखे हैं कि किस तरह एक तांत्रिक तालाब के किनारे बोतल में किसी प्रेतात्मा को भरकर किसी बरगद के पेड़ पर कील मारकर उसे हमेशा के लिए उस पेड़ पर बँधी बनाता है, वैसा ही वर्णन ओड़िशा के प्रख्यात द्विभाषी लेखक मनोज दास की कहानी ‘फ़ेयरवेल ऑफ़ घोस्ट’ में भी पढ़ने को मिलता है। कभी-कभी तो तांत्रिक प्रेतात्माओं को भगाते-भागते पीड़ित व्यक्ति के शरीर में चिमटे घोंप-घोंपकर जान से मार तक देते हैं। चुड़ैल कथाएँ भी बहुत प्रचलित है, कभी उनमें नरबलि भी चरम पर थी, आजकल कुछ थमी है।
आज भी उनमें जहाँ नदी में नहाने के बाद एक-दूसरे को अँगूठी या हार पहनाकर एक-दूसरे के मुँह में थूकने से शादी हो जाती हैं और मटकी फोड़कर और तिनके के दो भाग करने से तलाक़ हो जाता है। ये सब मानव-शास्त्र के अध्ययन के विषय हैं, जो नर्मदा घाटी में भरे पड़े हैं। लड़की के घर वालों को पैसे देकर या उसे भगाकर शादी करने की रस्म अभी भी प्रचलित हैं। धान बोने से पहले मुर्ग़े की बली दी जाती है। उनके अपने पंडित हैं, उनके अपने मंत्र हैं, उनकी अपनी संस्कृति हैं, उनकी अपनी कलात्मकता हैं, संवेदनशीलता है।
मनुष्य मस्तिष्क में कहाँ से कहानी उपजती है, कविता कैसे जन्म लेती है, संवेदनाओं की कब अनुभूतियाँ होती हैं–—ये सब जानने के लिए हमें मानव-शास्त्री होने के साथ-साथ एलविन, सीताकान्त महापात्र, सुधीर सक्सेना, आनंद सिंह और गोपीनाथ मोहंती जैसे सहृदय जिज्ञासु होने की आवश्यकता है। यद्यपि प्रोफ़ेसर आनंद सिंह के काव्य-संग्रह “सौन्दर्य जल में नर्मदा” में नर्मदा के तट पर रहने वालों रहने वाली जनजातियों के बारे में कोई स्वतंत्र कविता नहीं है, मगर उनकी सर्जन-प्रक्रिया के दौरान बीच-बीच में अपने आप ही ‘आदिवासी’, ‘वनवासी’, ‘आदिम’, ‘तटवाहा’, ‘निषाद’, ‘भील’, ‘बधिक’, ‘किरात-सूत-वाडव-पंडित-शठ-नट’ आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। उदाहरण के तौर पर,
“चूमा है गहरा रतिश्लथ/महुए की गाछ पर टिकी हुई/प्रेमिका की देह को/आदिवासी प्रेमी ने” (पृष्ठ-18)
“विन्ध्य के महावनों से निकली/ यही मे
कल की तनया/ चंचल लड़की-सी वनवासी/ आ रही गदबदी” (पृष्ठ-26)“यही मेकल की कन्या/चंचल वनवासी लड़की /नहा रही रेवा के रव में” (पृष्ठ-27)
“कितने राजे-रजवाड़ों, भीलों, निषादों के मन में/सम्भ्रम भय भरती निसर्ग की हिलोर का/ सन्तों-तपस्वियों को भयमुक्त करती/अछोर धन देती आशीष का” (पृष्ठ-39)
“वनवासी कन्या-सी पीतनेत्र/चढ़ती तरुणाई का असंग एकलाप हो/अस्फुट अर्धमुखर नत नयन” (पृष्ठ-62)
“वधिकों से कहती हो छुरे फेंक दें/मछलियों को न्याय मिले/समुद्री जीव छोड़कर सागर की तलहटी/तुम्हारे जलाशय में आ रहे हैं” (पृष्ठ-66)
“आज भी उनके समानान्तर/ बसते हैं वनवा जिनकी पीली आँखों और सफ़ेद हँसी में फँसी हुई है/ इतिहासों की चहल-पहल/ आदिकालीन शान्ति/ जिनको देखकर मुख्यधारा के नीचे की/ ज़मीन खिसक जाती है/ बची रह जाती है/ राजनीतिक ऊब” (पृष्ठ-74) सी/
“तटों पर निर्विकार तटवासी/कर रहे हैं रस-पोषण/अपहृत वैभव के निरुत्तर शब्द पथिक/वनवासी/अधनंगे भूखे बच्चों को टाँगें हुए गोद में/सड़कों पर आकर फैला रहे हाथ” (पृष्ठ-81)
“सुनता हूँ मैं/ केवल धुन अमरत्व भाव की/इस महेशकेशजा तट पर/ क्योंकि शीघ्र ही पापमुक्त करती जाती तुम/ हो किरात, सूत, वाडव, पंडित, शठ, नट हो/ हरण कर रही पाप-ताप सब/सुख देती तुम/जीवमात्र को/ नमन तुम्हारे चरण-कमल में देवि, नर्मदे! (पृष्ठ-99)
इस आलेख में उन जातियों का वर्तमान संदर्भ में प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे:
किरात समाज:
भारत की एक प्राचीन अनार्य (सम्भवत: मंगोल) जाति थी, जिसका निवास-स्थान मुख्यतः पूर्वी हिमालय के पर्वतीय प्रदेश में था। प्राचीन संस्कृत साहित्य में किरातों का सम्बन्ध पहाड़ों और गुफ़ाओं से जोड़ा गया है और उनकी मुख्य जीविका आखेट बताई गई है। यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में किरातों का पर्वत और कन्दराओं का निवासी बताया गया है। ‘वाजसनेयीसंहिता’ और ‘तैत्तिरीय ब्राह्मण’ में किरातों का सम्बन्ध गुहा से बताया गया है—‘गुहाभ्य: किरातम’। वाल्मीकि रामायण में किरात नारियों के तीखे जूड़ों का वर्णन है और उनका शरीर वर्ण सोने के समान वर्णित है:
‘किरातास्तीक्षणचूडाश्च हेमाभा: प्रियदर्शना:’ (किष्किधाकांड)
महाभारत में किरातों के विषय में अनेक निर्देश मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि उनकी गिनती बर्बर या अनार्य जातियों में की जाती थी:
'उग्राश्च भीमकर्माणस्तुषारायवना: खसा:, आंध्रकाश्च पुलिंदाश्च किराताश्चोग्रविक्रमा:। म्लेच्छाश्च पार्वतीयाश्च, कर्ण’
महाभारत, सभापर्व में प्राग्ज्योतिषपुर (वर्तमान असम) के निकट अर्जुन की किरातों के साथ हुई लड़ाई का वर्णन है। महाभारत, सभापर्व के अंतगर्त उपायन उपपर्व में युधिष्ठिर के पास भेंट में किरात लोगों द्वारा लाए गए उपहारों का वर्णन है। इसी प्रसंग में किरातों को फल-मूलभोजी, चर्मवस्त्रधारी, भयानक शस्त्र चलाने वाले और क्रूरकर्मा बताया गया है। संस्कृत काव्य में किरातों का सबसे सुंदर वर्णन शायद महाकवि कालिदास ने किया है:
“भागीरथी निर्झरसीकराणं बोढा मुहु: कंपित देवदारु:। युद्वायुरन्विष्टमृगै: किरातैरासेव्यते भिन्नशिखंडिबर्ह:”
यहाँ हिमालय पर्वत पर गंगा के निर्झरों से सिक्त, देवदारुवृक्षों को बार-बार कंपायमान करने वाली और मयूरों के पंखों के भार को अस्त-व्यस्त कर देने वाली वायु का कस्तूरी मृगों की खोज में घूमने वाले किरात सेवन करते हैं। रघु ने हिमालय प्रदेश की विजय के पश्चात् जब वहाँ से अपनी सेना का पड़ाव उठा लिया, तब उस स्थान के वन्य किरातों ने रघु की सेना के हाथियों की ऊँचाई का अनुमान उनके गले की रस्सों की रगड़ से देवदारु वृक्षों के तनों पर उत्कीर्ण रेखाओं से किया। प्लिनी, टॉलमी और मेगस्थनीज़ के लेखों में भी किरातों के विषय में कई उल्लेख हैं। टॉलमी ने इन्हें ‘किरादिया’ लिखा है और भारत में इनकी विस्तृत बस्तियों का उल्लेख किया है। खारवेल के प्रसिद्ध अभिलेखों में चीन और किरात दोनों का एकत्र उल्लेख है। ऐसा जान पड़ता है, कालांतर में किरात लोग अपने मूल निवास हिमालय से अतिरिक्त भारत के अन्य भागों में भी फैल गए थे। साँची (मध्य प्रदेश) के स्तूप पर किसी किरात भिक्षु के दान का उल्लेख है और दक्षिण भारत में नागार्जुनीकोंड के एक अभिलेख में भी किरातों का वर्णन हुआ है। महाभारत में उपाययनपर्व के उपर्युक्त निर्देश में किरातों की भेंट में चंदन की भी गणना की गई है, जिससे यह प्रतीत होता है कि कुछ किरातों की बस्तियाँ उस समय मैसूर आदि के समीपवर्ती प्रदेश में भी रही होगी। ‘मनुस्मृति’ में कई अन्य अनार्य जातियों के समान किरातों की भी व्रात्य क्षत्रियों में गणना की गई है—‘पारदा: पह्लवाश्चीना: किराता दरदा: खशा:’। यह भी सम्भव है कि किरात शब्द का प्रयोग वन्य जातियों के लिए साधारणतः होने लगा हो। सिक्किम के पश्चिम स्थित मोरग में आज भी किरात नामक एक जाति बसती है। सम्भवत: किरातों का मूल निवास स्थान यहीं रहा होगा। शंकराचार्य के समय किरात अवश्य ही नर्मदा नदी के विंध्यांचल पर्वतों पर रहने आए होंगे। राजस्थान और गुजरात में पहाड़ों पर रहने वाले आदिवासियों को आज भी गिरिवासी (स्थानीय भाषा में गरासिया) कहते हैं। उन्हें भील या भिलाला से भी जाना जाता है। नर्मदा के शूलपाणि और गुजरात के पहाड़ियों में इनका अधिवास है।
सूत समाज:
भारत में आज सूत नामक जाति का कोई समाज नहीं है। शंकराचार्य ने उनका अर्थ या तो वर्ण-संकर जाति अथवा अन्य शूद्र जाति से लिया होगा।
वाडव समाज:
शंकराचार्य ने वाडव समाज में ब्राह्मण, द्विज, भूदेव, विप्र, महीदेव, अग्रजन्मा, द्विजाति, भूसुर, महीसुर, भूमिसुर, भूमिदेव आदि को गिन लिया है।
पण्डिते-शठे-नटे:
नर्मदा के किनारे कुछ पंडित लोग भी अपना जीवन यापन कर रहे हैं, कुछ धूर्त है, जो आम जनता की आस्था का लाभ उठाकर उन्हें लूटते हैं तो कुछ नाचने-गाने या नट का काम कर अपना पेट पालते हैं।
गोंड समाज:
नर्मदा द्रविड़ परिवार की एक जनजाति, जो सम्भवतः पाँचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण से गोदावरी के तट को पकड़कर मध्य भारत के पहाड़ों में फैल गई थी। नर्मदा उत्तर-दक्षिणी दोनों तटों से लगी सौ किलोमीटर तक गौड़ बसे हुए थे। आज भी मोदियाल गोंड जैसे समूह हैं जो तेलुगु, कन्नड़, तमिल आदि से संबन्धित द्रविड़ परिवार के हैं। वास्तव में गोंडों को शुद्ध रूप में एक जनजाति कहना कठिन है। इनके विभिन्न समूह सभ्यता के विभिन्न स्तरों पर मौजूद रहे हैं और धर्म, भाषा तथा वेशभूषा सम्बन्धी एकता की उनमें नहीं है, न कोई ऐसा जनजातीय संगठन है जो सब गोंडों को एकता के सूत्र में बाँधता हो। उदाहरणार्थ राजगोंड समाज क्षत्रिय है इनका इतिहास बहुत पुराना और बहुत गौरवशाली है। गोंडों का प्रदेश गोंडवाना के नाम से भी प्रसिद्ध है किन्तु गोंडों की छिटपुट आबादी मध्यप्रदेश में है। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र और राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में भी गोंड आबाद हैं। गोंडों की कुल आबादी 30 से 40 लाख के बीच आँकी जाती है। इसका कारण यह है कि अनेक गोंड जातियाँ अपने को हिंदू जातियों में गिनते हैं। बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के दक्षिणी भागों में भी कुछ गोंड जातियाँ हैं जो हिंदू समाज का अंग बन गई हैं। गोंड जनजाति के लोग 12 जातियों में विभक्त हैं। किन्तु उनकी 50 से अधिक उपजातियाँ हैं जिनमें ऊँच-नीच का भेदभाव भी है। राजगोंड का भारत की जातियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है जिसका मुख्य कारण उनका इतिहास है। 15 वीं से 17 वीं शताब्दी के बीच गोंडवाना में अनेक राजगौंड राजवंशों का दृढ़ और सफल शासन स्थापित था। इन शासकों ने बहुत से दृढ़ दुर्ग, तालाब तथा स्मारक बनवाए और सफल शासकीय नीति तथा दक्षता का परिचय दिया। इनके शासन की परिधि मध्य भारत से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार तक पहुँचती थी। 15 वीं शताब्दी में चार महत्त्वपूर्ण गौड़ साम्राज्य थे। जिसमें खेरला, गढ़-मंडला, देवगढ़ और चाँदागढ़ प्रमुख थे। गोंड राजा बख्त बुलद शाह ने नागपुर शहर की स्थापना कर अपनी राजधानी देवगढ़ (छिन्दवाड़ा) से नागपुर स्थानांतरित की थी। गोंडवाना की प्रसिद्ध रानी दुर्गावती राजगोंड राजवंश की रानी थी। गोंड जनजाति का इतिहास उतना ही पुराना है जितना इस पृथ्वी पर मनुष्य, परन्तु लिखित इतिहास के प्रमाण के अभाव में खोज का विषय है।
निषाद समाज:
नर्मदा का सच्चा सेवक “निषाद समाज” है। केवट, निषाद, धीवर, ढीमर, मल्लाह, मछुआरे, कहार, बरुआ, बरौआ, बर्मन इन उपनाम वाले। मेहनती लोग देश की अधिकांश नदियों की मचलती लहरों पर सवार होकर लोगों को पार उतारने वाली जातियों के रूप में पहचाने जाते हैं। भारत में जातियाँ खेत या बग़ीचों की तरह व्यवस्थित रूप से उगाई फ़सल की तरह विकसित नहीं हुई हैं। जातियाँ जंगल में विकसित पेड़-पौधों, घास-फूस, झाड़ी-झंखाड़ की तरह ज़रूरत के अनुसार उपजी और विकसित हुई हैं। बर्मन कहलाने वाले ये लोग नर्मदा घाटी के मूल निवासी हैं। नर्मदा घाटी में बाहर से आए लोगों ने व्यापार वाणिज्य और प्रशासन के मेल मुलाक़ात से एक तंत्र विकसित करके वाणिज्यिक गतिविधियों पर अधिकार कर लिया। ये बेचारे लघु सीमांत कृषक, मछली पालन और नाविक बनकर जहाँ के तहाँ हैं। जबलपुर के ग्वारीघाट पर नर्मदा किनारे पहुँचते ही नाव से उस पार जाने के लिए काले स्याह बर्मन युवकों से सामना होता है। ये अर्धनग्न मेहनतकश नौजवान उछलते-कूदते नाव को घुमाते रहते हैं। उनकी बाँहों, पुट्ठों, पीठ और पैर पर धूप में चमकती मांसपेशी मछलिएँ उनके श्रमसाध्य जीवन की कहानी स्वमेव कह जाती हैं। यह समाज अमरकण्टक से भड़ौच तक नर्मदा के दोनों किनारों पर सेवा को मुस्तैद रहता है। ये लोग नर्मदा की सभी सहायक नदियों के किनारे भी जीवन के अनिवार्य हिस्से हैं।
जब से नदियों के किनारे मानव सभ्यता की शुरूआत हुई है तब से निषाद समाज का अस्तित्व रहा है। नाव बनाना, जाल बुनना, नदी पार कराना, नाव खेना, मछली पकड़ना, नदी कछार में खेती करना और डूबतों को तारना इत्यादि इनकी आजीविका के साधन रहे हैं। रामायण काल में राम को केवट ने नदी पार कराई थी। निषाद राज उन्हें दूर तक छोड़ने गए थे उनसे उनके वनराज्य में वनवास बिताने का आग्रह करते रहे, परन्तु राम न रुके। महाभारत काल में वे धीवर कहलाने लगे। महाभारत कथा की जड़ में एक धीवर कन्या सत्यवती ही है। उसके लिए कौरव-पांडव से थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। चद्रवंशी राजाओं में एक प्रतापी राजा हुए थे शान्तनु, उनका राज्य गंगा के दोनों किनारों पर फैला हुआ था। वे अक्सर गंगा किनारे घूमने जाया करते थे। गंगा नदी देवी रूप में प्रकट होकर उनसे मिलीं तो वे उन पर आसक्त हो गए। विवाह का निवेदन किया जिसे गंगा ने नकार दिया लेकिन दैहिक सम्बन्ध आज की सहनिवासी (Living Together) तर्ज़ पर स्थापित हो गए। गंगा ने शर्त रखी कि वह शान्तनु कोई प्रश्न नहीं करेंगे। यदि सवाल किया तो वे जो भी करेगी कुछ उन्हें छोड़कर चली जाएँगी। उनके सात पुत्र हुए जिन्हें पैदा होते ही गंगा ने नदी को अर्पित कर दिए उन सात पुत्रों की कहानी सप्त ऋषियों के उद्धार से जुड़ी है। जब आठवाँ पुत्र हुआ ता शान्तनु से नहीं रहा गया। उन्होंने गंगा को टोक दिया। गंगा ने वह पुत्र शान्तनु को दे दिया और हमेशा के लिए चली गई। उस पुत्र का नाम देवव्रत रखा गया। वे बाद में भीष्म पितामह कहलाए।
एक मत्स्यगंधा धीवर कन्या सत्यवती अपने पिता के साथ गंगा में नाव खेती थी। एक दिन उसके पिता नदी किनारे नहीं थे वह अकेली नाव पर बैठी थी। तभी पाराशर ऋषि आए, उन्होंने उससे गंगा पार उतारने का निवेदन किया। पिता जी को आने में विलम्ब हो रहा था अतः सत्यवती ख़ुद नाव खे कर पाराशर ऋषि को गंगा में उतर गई। गंगा का पाट चौड़ा था। सत्यवती का उत्तरीय उसके वक्ष से उड़-उड़ जा रहा था उसने उत्तरीय को कस कर कमर में बाँध लिया। अब उसके वक्ष पर एक कंचुकी भर थी। वह पसीने से तरबतर नाव खेते जा रही थी। पसीने से उसकी कंचुकी का अस्तित्व समाप्त सा हो देह का उभार निखर आया, उसकी बाँहों की गोलाई और वक्ष की कसावट पर पाराशर ऋषि की निगाह पड़ी। उसके गीले बदन से मत्स्य गन्ध की मादकता पाराशर ऋषि की नथुनों में समायी तो वे कामासक्त हो गए। सत्यवती भी ऋतुश्राव से निवृत हुई थी। नाव में समागम हुआ जिससे वेद व्यास जी का जन्म हुआ, जिन्होंने महाभारत लिखी थी। इस वास्तविक घटना को तर्क-वितर्क का जामा कथावाचक पहनाते रहते हैं कि सत्यवती की देह से आती दुर्गंध से नजात पाने के लोभवश वह तैयार हुई थी। पाराशर ऋषि और सत्यवती मिलन से वेद व्यास का जन्म हुआ था। पाराशर ऋषि सत्यवती को छोड़कर संन्यासी की राह चले गए। राजा शान्तनु के जीवन से गंगा जा चुकी थी वे गंगा किनारे उदास घूमते थे। उनकी निगाह सत्यवती पर पड़ी और सत्यवती ने उनको देखा। प्रेम अंकुर फूटते देर न लगी। शान्तनु ने उसके पिता से विवाह का प्रस्ताव रखा तब तक गंगापुत्र देवव्रत को अगला राजा बनाना तय हो चुका था। सत्यवती के पिता ने विवाह के लिए शर्त रखी कि सत्यवती की संतान ही अगला राजा बनेगी, जिसे शान्तनु ने मान लिया। फिर सवाल उठा देवव्रत की संतान भी राजा का दावा कर सकती है। शान्तनु चुप रह गए। पिता को उदास देखकर देवव्रत ने प्रतिज्ञा की, कि वह आजीवन अविवाहित रहकर सिंहासन की सेवा करेंगे। उस भीष्म प्रतिज्ञा से वे भीष्म कहलाए। शान्तनु और सत्यवती से एक पुत्र विचित्रवीर्य नाम का हुआ। उसके विवाह के लिए काशी राजा की तीन कन्याओं अम्बे, अम्बा और अम्बालिका को भीष्म भरे स्वयंवर से उठा लाए। अम्बे का प्रेम-प्रसंग किसी अन्य राजकुमार से था तो उसे वापस जाने दिया। उसे प्रेमी राजकुमार ने नकार दिया तो वह शिखंडी बनी अम्बा और अम्बालिका से संतान पैदा नहीं हो रही थी। सत्यवती ने पाराशर ऋषि से उत्पन्न अपने पुत्र वेद व्यास से नियोग दवारा अम्बा से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पाण्डु पैदा करवाए और एक दासी से विदुर पैदा हुए। यहीं महाभारत युद्ध की नींव पड़ गई। धीवर कन्या सत्यवती कौरव-पांडव की राजमाता थीं। पुराणों में आर्य-अनार्य सम्मिलन की अनेक घटनाओं में से यह एक घटना है। यही हमारा पौराणिक इतिहास है। धीवर आदिवासी कन्या थी। आदिवासी प्रारम्भ से भारत के निवासी रहे थे आर्य ने उनको अपने में मिलाने के लिए बेटी व्यवहार का तरीक़ा अपनाया था।
राजा दुष्यंत की कहानी में कालिदास ने शकुंतला की अँगूठी ढीमर द्वारा पकड़ी गई मछली के पेट में मिली बताई थी। उस समय तक धीवर नाम बदलकर ढीमर हो चुका था। मध्ययुग में वही ढीमर बड़ी-बड़ी नाव गंगा में खेने लगे थे अतः वे मल्लाह कहलाने लगे। अंग्रेज़ों के आने के बाद बंगाल में डोली उठाने के लिए और लुटेरों के क़हर से निपटने के लिए वे मेहनतकश लोग कहार कहलाने लगे। उन्नीसवीं सदी में अंग्रेज़ों ने आसाम में चाय के बाग़ लगाए तब कलकत्ता से उन मल्लाहों को आसाम ले गए, वहाँ मल्लाहों ने एक प्रचलित ब्राह्मण उपनाम बरुआ अपना लिया, क्योंकि उनको लाने वाला एक बरुआ ब्राह्मण ही था और अंग्रेज़ उन्हें बरुआ कहकर बुलाते थे। अतः निषाद समाज बरौआ कहलाने लगा। उन्हीं बरुआ को त्रिपुरा में बर्मन बुलाते थे। जैसे सचिन देव बर्मन और उनके पुत्र आर.डी. बर्मन आज़ादी के बाद बरौआ शब्द बर्मन में बदल गया। नर्मदा किनारे के सभी नाविक अब बर्मन कहलाना पसंद करते हैं। इस समाज को कहीं आदिवासी माना जाता है, कहीं हरिजन और कहीं पिछड़ा वर्ग। इनके बच्चे बचपन से ही शराब, जुआ और ग़लत लत में पड़कर चालीस साल की उम्र तक बुढ़ा जाते हैं। शाम होते ही कच्ची शराब की गन्ध, बीड़ी के धुँए के साथ, भूनी मछली की महक इनके गाँवों के आसपास फैलने लगती है। राजनीतिज्ञों के लिए इस समाज के लड़के प्रचार-प्रसार के लिए कच्चा माल है। सभी राजनैतिक दल मंच सजाने भीड़ जुटाने, दौड़ भाग में इनका उपयोग ख़ूब खुलकर करते हैं। इनके जवान बच्चे 2,000—3,000 रुपए मासिक पर मिल जाते हैं। नेताओं की गाड़ियों में भरकर बाहुबली प्रदर्शन में इनका उपयोग किया जाता है।
सतनामी समाज:
इसी तरह सतनामी समाज नर्मदा घाटी में कब, कैसे और कहाँ से आया। नर्मदा के उस पार दक्षिण के गाँवों में सतनामी समाज की सघन बसाहट है। जबलपुर ज़िले में नर्मदा के दक्षिण तट की तरफ़ बसे गाँवों में सतनामी बसे हैं। जब भारत में ग्यारहवीं सदी से मुस्लिम तेग़ की ख़ूनी खूँखार आँधी चली तब हिमालय की तराई, दक्षिण के पथरीले पहाड़ और सतपुड़ा-विंध्याचल में नर्मदा के दोनों तरफ़ दो सौ किलोमीटर चौड़ी और एक हज़ार किलोमीटर लम्बी घाटी हिंदुओं के लिए सुरक्षित अभयारण्य बन गई। जहाँ भी इस्लामी सुल्तान या बादशाह का अत्याचारी दबाव पड़ता था वहाँ के रघुवंशी, गूजर, लोधी, कुर्सी, कलार, काछी, सतनामी और उनके साथ लगे-लगे ब्राह्मण, चमार, बँसोड, भंगी नर्मदा घाटी की गोद में आकर बस जाते थे। सघन जंगलों से पूरी तरह ढँकी रहने वाली घाटी आबाद होने लगी थी। अंग्रेज़ों द्वारा रेल लाइन बिछाने के पहले तक नर्मदा घाटी में पहुँच दुरूह हुआ करती थी। प्रसिद्ध इतिहासकार चोपड़ा, पुरी और श्रीदास ने मैक्मिलन कम्पनी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ए सोशियल कल्चरल एंड इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ के भाग तीन में लिखा है: “18 वीं शताब्दी में अवध के बाबा जगजीवनदास ने एक अलग धार्मिक पंथ बनाया जो कि सत्य और ज्ञान पर विश्वास करने वाला सतनाम पंथ कहलाया।”
इस पंथ के लोग उत्तरी भारत में विस्तृत रूप से फैले थे। औरंगज़ेब कट्टर नीतियों के चलते सिक्ख, जाट, मराठों के साथ के शासनकाल साथ सतनामी लोगों ने भी विद्रोह का परचम लहराया था। इस सम्प्रदाय के गुरु घासीदास माने जाते हैं। जो मध्य युगीन सतनामी समाज में विश्वास और उपासना विधि को जीवित रखना चाहते थे तथा उनमें अभिनव चेतना लाने की आकांक्षा रखते थे। उन्होंने प्रचारित किया कि वास्तविक भगवान कर्मकांड में निहित नहीं है सतनाम ध्यान में प्रकट होते हैं। सनातन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अमरकण्टक से नेमावर के बहाव को देवी नर्मदा की देह का ऊपर का हिस्सा माना जाता है, तदानुसार नेमावर नाभिकुंड है। नेमावर को विष्णु के छठे अवतार परशुराम का जन्मस्थान माना जाता है। इसका मतलब हुआ कि ऋषि जमदग्नि और रेणुका का आश्रम नेमावर में रहा होगा। भृगु, मार्कंडे, वशिष्ठ, कौंडिल्य, पिप्पल, कर्दम, सनत्कुमार अत्रि, नचिकेता, कश्यप, कपिल जैसे अनेको सनातन ऋषियों के आश्रम भेड़ाघाट से नेमावर के बीच रहे हैं जहाँ वेदो का पठन-पाठन, उपनिषद, अरण्यकों, ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों के साथ स्मृतियों का लेखन कार्य उन ऋषि आश्रमों में हुआ है।
आदिवासी जीवन पर समकालीन साहित्य:
नर्मदा घाटी के गोंड, भील आदिवासी हो, या फिर ओड़िशा के कंध, परजा हो या फिर बिहार के संथाल; या नॉर्थ-ईस्ट के कोई और क्यों न हो, सभी के रीति-रिवाज़ मोटे तौर पर एक जैसे ही होते हैं। उनके जीवन पर मानव-शास्त्रियों में वेरियर एलविन, डॉ. सीताकान्त महापात्र, सुधीर सक्सेना, गोपीनाथ मोहंती ने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। वेरियर एलविन का ट्राइबल वर्ल्ड, तो सीताकान्त महापात्र की पीएचडी थीसिस (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से दो भागों में ग्रंथाकार रूप में प्रकाशित) ‘माडर्नाइज़ेशन एण्ड रिचुअल’ तथा ‘द टेल्स ऑफ़ द सेक्रड’ शीर्षक से, डॉ. सुधीर सक्सेना का ‘छतीसगढ़ का स्वतंत्रता-संग्राम एवं आदिवासी’ और गोपीनाथ मोहंती का उपन्यास ‘परजा’ एवं ‘अमृत संतान’ से आदिवासियों की जीवन-शैली के बारे में हम बहुत कुछ जान सकते हैं।
डॉ. सीताकांत महापात्र ने आदिवासियों पर बहुत कुछ लिखा है। उनकी कविताओं, आलेखों और शोध का मुख्य विषय भी आदिवासियों की जीवन-शैली, सांस्कृतिक परम्पराएँ और लोक-गीत रहे हैं। जब डॉ. प्रसन्न कुमार बराल ने उनसे यह पूछा कि इस तरह के कष्ट-साध्य कार्य करने की प्रेरणा उन्हें किससे मिली तो उनका उत्तर था, आई.ए.एस. की नौकरी में मुझे ओड़िशा के दो ज़िलों का कलेक्टर और ज़िला मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिसमें एक ज़िला था सुंदरगढ़ और दूसरा मयूरभंज। दोनों ज़िले आदिवासी बहुल ज़िले थे। भिन्न-भिन्न समुदायों के आदिवासियों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करने का अवसर मुझे इन दोनों ज़िलों में प्राप्त हुआ।
डॉ. महापात्र बताते हैं, “सुंदरगढ़ में मेरे रहने का समय था सन् 1967-681राऊरकेला में इस्पात कारख़ाना लगने के बाद शहर काफ़ी बढ़ गया था। आदिवासियों के हज़ारों की तादाद में काम-धंधों की तलाश में राऊरकेला आनेऔर उसके आस-पास के इलाक़ों में शाम के समय गीत गाते लौट जाने के दृश्य देखकर मैं अभिभूत हो जाता था। मौखिक भाषा में गाए जाने वाले गीतों में था मेरे लिए मर्मस्पर्शी आकर्षण।
“मयूरगंज ज़िले में कलेक्टर की नियुक्ति के समय मैंने संथाली भाषा सीखी। भाषा सीखने की इस प्रक्रिया से अलग दो खडिया और मुंडारी भाषा मुझे समझ में आने लगी। एक बार भाषा सीख जाने के बाद उनके द्वारा गाए जाने वाले गीत और अधिक मीठे लगने लगे। उन सभी गीतों के अंतर्गत उनके जीवन के सभी अध्यायों और घटनाओं का वर्णन समाया हुआ था। जन्म-मृत्यु, उत्सव, त्योहारों आदि प्रत्येक घटना के उपलक्ष्य में सभी गीतों का मुक्त कंठ से वे लोग गान करते थे। उन सभी का मैंने जी भर कर उपयोग किया। फिर इन सभी गीतों को एकत्रित कर ‘दे सिंग लाइफ़’ शीर्षक से संकलन मैंने प्रकाशित करवाए। इन संग्रहों का अनुवाद और संकलन करने में मुझे 20 साल से ज़्यादा का समय लगा। ये सारे संकलन यूनेस्को रिप्रेजेंटेटिव सीरीज़ द्वारा प्रकाशित हुए। ये संकलन थे, “The empty distance carries”, “The wooden sword”, “They sing life”, “Unending rhythms”, ”Men, patterns of dust”, “The Awakened wind”, “Forgive the words”, “Slaying is now here”, “The endless wave”
“इस कार्य की प्रेरणा मुझे अपने भीतर और मेरे चारों तरफ़ फैले हुए परिवेश से मिली। आदिवासी लोगों की मुक्त जीवन-धारा और जीवन के प्रति उनके अकृत्रिम ममत्वबोध ने मुझे गंभीर तरीक़े से प्रभावित किया। इस वजह से मैं इस कार्य को अपने हाथ में लेकर अपने आपको सौभाग्यवान समझता हूँ।”
कवि सीताकांत जी की एक कविता ‘नियमगिरि: खांवसी गाँव की चौरासी वर्षीय बूढ़ी की अनकही कहानी' शीर्षक से हिन्दी में अनुवाद किया था, जो मेरे अनूदित कविता-संग्रह ‘ओडिया भाषा की प्रतिनिधि कविताएँ’ में संकलित है। इस कविता में कई आदिवासी शब्दों जैसे बुरुबंगा, दर्मू, थाली, दोना, महुली, अलंदू आदि का इस्तेमाल हुआ है। कविता की अंतर्वस्तु आदिवासियों के जंगल काटकर उसकी जगह उद्योगधंधों की स्थापना करना है। यह महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ की कथा-वस्तु की याद दिलाता है। बड़े-बड़े गगनचुंबी जंगल, पहाड़, महुली के पेड़ आदि आदिवासियों के लोक-जीवन का एक हिस्सा है। इसी पर्वत-शृंखला में अर्थात् नियमगिरि में बॉक्साइट और अनेक खनिज धरती के गर्भ में छुपे हुए हैं। कल-कल करते झरने बह रहे हैं। वहाँ के युवकों की बंसी में मधुर रागिनी है। सब कुछ नैसर्गिक वातावरण से भरा-पूरा है। मगर उस गाँव की चौरासी वर्षीय बुढ़िया की भविष्यवाणी है कि एक-न-एक दिन यहाँ बड़े-बड़े व्यापारी शोषक, शासक सभी आएँगे और यह पवित्र माहौल छिन्न-भिन्न हो चुका होगा। पर्यावरण और विकास के बीच संतुलित धारणा को बल देती उनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ:
“कल खोजते समय
वे धुँधली आँखें देखेंगी
ये पवित्र पेड़ नहीं
पेड़ के नीचे कुलदेवता नहीं
झरनों में पानी नहीं
उन गीतों में, युवकों की बंसी में
मधुर रागिनी नहीं।
इस तरह नहीं-नहीं के भीतर होंगे
अभी तक जो सात पुश्तों
से बने छोटे से घर में
सर से टकराएगा अलंदू काला
ध्यान से देखकर आओ, देख सकते हो
छत से लटकती हुई कोई माला
चट्टान के गीत सरस
बाजरा नहीं मिलने पर लेंगे आम की गुठलियों का रस”
कवि सीताकांत जी ने तो आदिवासी जीवन शैली को अपने अध्ययन का विशिष्ट विषय चुना था। कवि सीताकांत जी ने अपनी पुस्तक ‘हिंटरलैंड ऑफ़ क्रिएटीविटी:ऐसेज एण्ड लेक्चर्स’ के आलेख ‘द वर्ल्ड ऑफ़ ट्राइबल ओरल पोएट्री: द अनएक्सप्लोर्ड वर्ल्ड’ में लिखा है कि आदिवासियों के जीवन में गीत बहुत मायने रखते हैं। बच्चे का जन्म हो, नामकरण संस्कार हो, लड़की के रजस्वला होने का अवसर हो, प्यार, शादी, मृत्यु, खेती के कार्य हो, शिकार, बीमारी का इलाज करना हो—वे गानों के माध्यम से अदृश्य देवी-देवताओं का आभार प्रकट करते हैं। उत्सव, त्योहारों में गीतों का विशिष्टस्थान है। उनके देवता भी दो प्रकार के होते हैं। 1) अच्छे देवता, 2) बुरे देवता। दोनों को समाज में समृद्धि और ख़ुशहाली लाने के लिए पूजा जाता है, उनका आशीर्वाद लिया जाता है। बुरे देवी-देवताओं की पूजा में विशेष सावधानी रखनी होती है। कहीं ऐसा न हो कि थोड़ी-बहुत त्रुटि उनके व्यक्तिगत जीवनके साथ-साथ समाज को बुरी तरह से प्रभावित करें। कवि ने अपने दूसरे आलेख ‘रिथिंकिंग डेवलपमेंट एण्ड कल्चर: द ट्राइबल वर्ल्ड’ में स्पष्ट किया है उनका विकास आधुनिक पद्धति से होना चाहिए, मगर उनकी परम्पराएँ किसी भी तरह से अक्षुण्ण रहनी चाहिए। इसी तरह अपनी एक और पुस्तक ‘न्यू हॉरीजन ऑफ़ ह्यूमन प्रोग्रेस’ के निबंध ‘द लाइफ़ ऑफ़ मार्जिनलाइज़्ड ट्राइबल्स: इम्पेक्ट ऑफ़ डिफ़ोरेस्टेशन एण्ड पोल्यूशन ऑफ़ रिवर वाटर्स’ में वे लिखते हैं:
“भारत में अनुसूचित जनजाति 8 प्रतिशत हैं, जबकि ओड़िशा में 25 प्रतिशत। जिसमें 62 प्रकार की जातियाँ होती हैं, मगर सबसे पुरानी जातियों में बोडा और संथाल आते हैं। कई सालों से औद्योगीकरण के लिए उनके जंगल काटे जा रहे हैं, जिस वजह से उनकी आर्थिक आमदनी पर भी बहुत प्रभाव पड़ता है। बारिश भी कम होने लगती है। इस प्रकार उनका सामाजिक जीवनपूरी तरह से प्रभावित होता है।”
डॉ. सीताकांत महापात्र आदिवासियों के मौखिक गीतों पर अपने निबंध-संग्रह ‘बियांड द वर्ल्ड’ के आलेख ‘सिंगिग्स ऑफ़ लाइफ़’ में लिखते हैं कि भारत के मूल आदिवासियों की मौखिक कविता अभी भी पूरी तरह से नहीं खोजी जा सकी है। यह कविता शैली विलुप्त होती जा रही है। वेरियर एल्विन और अन्य कुछ स्कॉलरों ने उनकी कविताएँ संगृहीत की है, मगर अभी भी उन्होंने केवल आइसबर्ग के ऊपरी सिरे को पकड़ा है। हज़ारों गानों का दस्तावेज़ीकरण अभी भी हुआ नहीं है। कवि ने राऊरकेला में डिप्टी कमिश्नर की नौकरी के दौरान कंध आदिवासियों की मौखिक कविताओं को संगृहीत किया तथा उनका अंग्रेज़ी अनुवाद किया। कुछ कविताएँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं:
“Life is fleeting
Old age exhausts everything
As crops do not thrive well
On lands ones cultivated
And again dugup
।n an old man's life
Joy withers
So as life lasts
And heart beats
Come, let us enjoy
Let us play.”
“Man's tragedy is alike
From childhood
Useless iron is thrown into corners
The poor man enters the forest
Crowbar on shoulders
Basket on head
And life, only a tragic song.”
“How sweety
।t rings out the agony
The bare naked voice of grief
And । cry
Helpless, forlorn
Like the little girl
Whose widowed mother
Walks away with a stranger
To a new house.”
गोपीनाथ मोहंती के उपन्यास ‘अमृतर संतान’ में दक्षिण ओड़िशा के कंध आदिवासियों के जीवन का वर्णन है। जिसमें धर्म, न्याय का देवता है, ऊपर रहता है, जबकि धरतनी, पृथ्वी की देवी है। उनकी भाषा में पृथ्वी देवी की उपासना का कवि सीताकांत महापात्र ने अपने आलेख 'इनवोकिंग द ब्लेसिंगऑफ़ अर्थ मदर' में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है:
“Let no famine
Visit our land
Let no calamity
Plague on people
Our land and this earth
Let them be in peace
Let everything be in plenty
Like the siale and gulchi creapes
Let our crops flourish
This offering we make
To thee, O'Dhartani
let Onion grow well
Garlies grow well
We committed no sins
We have no guilt
We only feed the Gods
We only feed the mother.”
कवि ने एक कुँवारे आदिवासी युवक ‘धांगड़ा का प्रेम’ पर ओड़िया भाषा में कविता लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद उनके कविता-संग्रह ‘तीस कविता वर्ष’ में संकलित है। एक धांगड़ा युवक अपनी प्रेमिका से स्नेह, स्वप्न स्पर्श, देह, अँधेरा माँगता है तो वह खेत-खलिहान में बहुत सारे लोगों के होने से कभी जुगनू और तारों से डरने के कारण से मलिन धूसर माटी के धूल-धूसरित होने के भय का बहाना बनाकर टाल जाती है, तो प्रेमी अंत में अपनी दोनों आँखें बाहर निकालकर कहना चाहता है:
“सारी पृथ्वी सो रही थी
यहाँ तक चाँद-तारे भी
तुमसे स्पर्श माँगा, प्राण माँगे
अपनी थुर-थुर आत्मा के लिए
तेरे शरीर के घोंसले में इत्ती-सी जगह माँगी
तूने कहा अँधेरे में भी मेरी आँखों के आईने में
सारा कुछ साफ़-साफ़ दिखता है।
अभी नहीं, अभी नहीं।
तो फिर तो दोनों आँखें निकालकर
तुम्हें भेंट करता हूँ
अब स्पर्श दो, स्नेह दो, अँधेरा दो
एकाकी आत्मा का आसरा दो।”
ऐसी ही प्रेम कविता की प्रोफ़ेसर आनंद सिंह ने अपने काव्य-संग्रह “सौन्दर्य जल में नर्मदा” में रचना की है:
“चूमा है गहरा रतिश्लथ/महुए की गाछ पर टिकी हुई/प्रेमिका की देह को/आदिवासी प्रेमी ने” (पृष्ठ-18)
कहने का अर्थ था कि कवि आनंद और सीताकांत जी ने अपने जीवन में आदिवासियों को निकटता से देखा, परखा, समझा और उनके अंग्रेज़ी भाषा में लिपिबद्ध किया। कवि सुधीर सक्सेना भी इस दिशा में कैसे पीछे रह जाते? उनकी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति, व्यापक दृष्टिकोण और नए-नए पात्रों की खोज के लिए पत्रकारिता के साथ-साथ यायावरी जीवन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। जहाँ कवि सीताकांत महापात्र नियमगिरि पर्वत शृंखला के बारे में कविता लिखकर विपुल पाठक वर्ग का ध्यान इस दिशा में आकर्षित करते हैं तो वहीं कवि सुधीर सक्सेना छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र ‘बस्तर’ पर अपनी कविता का सृजन करते हैं। जैसे सीताकांत महापात्र कविता में खांबसी गाँव की चौरासी वर्षीय बूढ़िया की धुँधली आँखों में बॉक्साइट उत्खनन के लिए जंगल कटने, वहाँ की सांस्कृतिक-धार्मिक-आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों में परिवर्तन आने के साथ-साथ झरनों के सूख जाने तथा लोक संस्कृति के विलुप्त होने की आशंका जताई है, वैसे ही कवि सुधीर सक्सेना ने बस्तर के वन्य जीवन पर परिप्रकाश करते हुए लिखा है कि यह वह जगह है जहाँ जंगल और मनुष्य का पारस्परिक सौहार्द रिश्ता है, दोनों एक-दूसरे को देखकर खिलखिलाते हैं, मुस्कुराते हैं। कहीं महुआ तो कहीं चिरौंजी तो कहीं गबरू जवान तो कहीं नाटा गाछ-सभी वन्य जीवन में प्रसन्नचित्त और सौहार्दपूर्ण जीवन जी रहे हैं। कवि सुधीर सक्सेना की कविताकी पंक्तियों पर ग़ौर करें:
“परस्पर
बेतरह गुँथे हुए हैं
आदमी और पेड़ के सपने
और उनकी चाहतें।
थके-माँदे पेड़ और आदमी
एक-दूजे के कंधों पर
सिर टिका सहेजते हैं
अपना हौसला और विश्वास
कि आदमी जहाँ भी जाता है
पेड़ उसके साथ होता है।
कहते हुए
हुलास से दीप उठता है
सुकमा का तांबिया चेहरा
सुकमा चेहरे में
उसके बूढ़े दादा के चेहरे की
रेखाएँ और रंगत
तलाशता है बूढ़ा साल।
ज़ुबानी याद है उसे
अपने व सुकमा के पुरखों का इतिहास।
लंबोतरे पेड़ के मन में
अभी भी ताज़ा है
गो कल की बात हो
चैथू और सीमा का प्रणय-प्रसंग।”
लेकिन बस्तर में भी औद्योगीकरण जंगल के विनाश का कारण बनता जा रहा है। बड़े-बड़े पेड़ काट दिए जाते हैं, पलभर में आँखों के सामने सारा जंगल ध्वस्त हो जाता है। 'बस्तर' कविता की मार्मिक पंक्तियाँ देखें:
“पेड़ों के सपनों में
बेहताशा खिलखिलाता है
छाल में गहरे फिसलता चाकू
गुरति बुलडोज़र का भीमकाय चक्का।
उसके सपनों की देह में
धड़धड़ाता उतरता है
तेज़ आरे का चमकीला फाल।”
इस तरह गाँव का मुखिया भी अच्छी तरह जानता है कि बस्तर के जंगल जिस तरह घट रहे हैं, उसी तरह उस अंचल के लोग भी जीवन-यापन के साधनों की तलाश में शहरों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। उसके बिरादरी के लोगों की संख्या दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। नए-नए अजनबी चेहरे वाले लोग वहाँ दिखाई देने लग रहे हैं। कवि सीताकांत ने अपनी कविता नियमगिरि में उन लोगों को शासक, शोषक, उद्योगपति, व्यापारी, राजा-महाराजा आदि संज्ञा से संबोधित किया है। बस्तर कविता में कवि सुधीर सक्सेना ने उन्हें एक ही विशेषण अजनबी चेहरे कहकर उस प्रजाति के पूरे कलेवर को अपने भीतर समेट लिया है। कविता ‘बस्तर’ का अंतिम पद्यांश इस प्रकार है:
“बेतरह
बेतरह
जारी है घुसपैठ
चुनांचे
मर्दुमशुमारी
का इंतज़ार
नहीं करता मुखिया
लेकिन बख़ूबी जानता है वह
कि घटती जा रही है
उसके और पेड़ों की बिरादरी की संख्या
और बिरादरी में धँसते ही जा रहे हैं
अजनबी चेहरों
और आदतों वाले लोना।
यही है
यही है
वह जगह
जहाँ एक साथ
अपाहिज हो रहे हैं
आदमी और पेड़।”
प्रसिद्ध आलोचक उमाशंकर सिंह परमार अपनी पुस्तक ‘सुधीर सक्सेना: प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य’ में संकलित उनके आलेख ‘हर प्रलय का कोण कायाकल्प का है’ में लिखते हैं:
“सुधीर सक्सेना के लेखन का महत्त्वपूर्ण अंश आदिवासी विद्रोह का विवेचन करना है। आदिवासी समुदाय एक ऐसा समूह है जो जंगलों में रहकरअपना जीवन यापन करता है। आमतौर पर यह समूह स्वआश्रित है। उन्हेंनागरिक सत्ता और उनके नियमों-विनियमों से ज़्यादा वास्ता नहीं रहता है। उनके अपने क़बीले होते हैं। उनके अपने विश्वास होते हैं। उन विश्वासों का निर्माण उसके जीवन और जंगल की सामंजस्य पूर्व परिस्थितियों में होता है। आदिवासी समुदाय सदियों से हाशिए पर रहा। अशिक्षा और चेतना विहीनता मुख्य कारण है। आज़ादी की लड़ाई में आदिवासियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। इनके जैसे बहादुर बाँकुरे किसी क़ौम ने नहीं दिए।”
इसी आलेख में आगे लिखते हैं कि सुधीर सक्सेना आदिवासी संघर्ष के हर पहलू का मूल्यांकन करते हैं। उनकी अभिव्यक्तियों और उनके सम्बन्ध में फैली प्राचीन किंवदंतियों का भी विश्लेषण करते हैं। आदिवासी अपने जंगल से बहुत लगाव रखते हैं। जंगल उनकी आजीविका है और जंगल उनकी पहचान है। दोनों एक-दूसरे से पृथक जीवन संभावनाएँ रखते हैं, पर एक-दूसरे में घुल-मिलकर जीते हैं। सरदार विष्णु सिंह गंजन सिंह के समय का बेहतरीन लोकगीत उल्लेख करते हुए सुधीर सक्सेना लिखते हैं:
“हम भारत के गोण्ड बैगा। आज़ादी ख्यार
अंग्रेजन ला मार भगाओ भारत ले रे
हम भैया छाती लड़ाओ हम तो ख़ून बहाओ, भारत ख्यार
अंग्रेजन ला मार भगाओ भारत ले रे
हम भारत के भाई-बहनें मिलि के करिबे रक्षा
अंग्रेजन ला मार भगाओ करबे आपन रक्षा, भारत ख्यार“
उनका यह लोक गीत महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में आज़ादी के आंदोलन में बिरसा मुंडा की भूमिका की याद दिला देता हैं। हालाँकि उन्होंने आदिवासी इलाक़ों में क्रांतिकारी चेतना पर पायोनियर काम किया है, किन्तु सुधीर सक्सेना का ध्यान बस्तर के आदिवासी विद्रोहों पर अधिक रहा है। वह इस विद्रोह और उसके इतिहास पर बड़े विस्तार से बात करते हैं। संघर्षों की समूची परंपरा का उल्लेख करते हुए गाँधीवादी आंदोलनों की जड़ तक का वर्णन करते हैं। सुधीर सक्सेना ने इतिहास को केवल आदिवासी ऐकान्तिकता के रूप में नहीं देखा। वह उसे युगीन चेतना से जोड़कर परिभाषित करते हैं। यही कारण है कि आदिवासी संघर्षों का इतिहास भारत की आम जनता का इतिहास प्रतीत होने लगता है। यदि तत्कालीन संघर्षों की मूलधारा से कटकर आदिवासी संघर्षों में परखा जाता तो ऐसा नहीं होता और आदिवासी संघर्ष का इतिहास मुख्य धारा के संघर्षों से कट जाता। आदिवासी जिजीविषा, चेतना और अधिकारों के प्रति सचेत करता यह इतिहास लेखन सुधीर सक्सेना की गहन पर्यवेक्षण क्षमता व अध्ययनशीलता का प्रमाण है। आदिवासी समुदायों के बीच जानकर उनके गीतों को खंगालना, उन पर लिखे साहित्य को खोजना, ब्रितानी पत्रकारों की तत्कालीन टिप्पणियों की खोज करना दुष्कर कार्य है। सुधीर सक्सेना ने आदिवासी इतिहास लेखन में सबसे ज़्यादा ध्यान औपनिवेशक लूट की नीतियों पर केंद्रित किया है।
डॉ. सुधीर सक्सेना की बस्तर के आदिवासियों की जीवन-शैली तथा स्वतंत्रता सेनानी गुंडाधूर (भूमकाल का युयुत्सु महानायक) पर मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा ‘गुंडाधूर’ शीर्षक से 2003 में पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिससे हम बस्तर की आदिवासी भाषा, संस्कृति और इतिहास की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तथा महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ के संथाल परगने के आदिवासी नायक बिरसा मुंडा की तरह सुधीर सक्सेना ने गुंडाधूर जैसे अज्ञात अगोचर व्यक्ति को इतिहास की दुर्गम उपत्यका से निकालकर उसकी जन सामान्य से सम्मुख गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा करना उनकी शोधपरक रचनाशीलता का अद्वितीय उदाहरण है तथा एक सदी से ज़्यादासमय गुज़रे इंद्रावती के तट पर भूमकाल (सन् 1910 ईस्वी) जैसी लोहित प्रतिकार की स्मृति को सँजोने की दिशा में सत्ता, साहित्य और समाज को अपनी-अपनी भूमिका निर्वाह करने के लिए जागरूक बनाया भी है। आदिवासी जीवन पर विशद शोध करने वाले कवि सीताकांत महापात्र ने गोंड, डोंगरिया, कौंध तथा जुआंग जैसे आदिवासी समुदाय के बच्चों को किस तरह से प्रभावशाली शिक्षा दी जाए, उन तरीक़ों पर अपने अर्जित अनुभवों से ‘ट्राइबल स्टडीज़ ऑफ़ इंडियन सिरीज़’ के तहत “Bringing them to school: Primary education for tribal children” भी लिखी है, जिसने नीति-निर्माताओं तथा विशाल पाठक जगत का ध्यान भी आकर्षित किया है। उच्चकोटि के साहित्यकार होने के साथ-साथ दोनों कवि सुधीर सक्सेना तथा सीताकांत महापात्र आदिवासी समाज की भाषा, शिक्षा, साहित्य तथा संस्कृति के उत्थान के लिए सदैव प्रत्यत्नशील रहे हैं।
इस प्रकार कवि सीताकांत महापात्र और कवि सुधीर सक्सेना की आदिवासी समुदायों पर लिखे साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि दोनों कवियों ने हाशिए पर रह रहे इस समुदाय की पीड़ा को परखने के लिए उनसे संपर्क साधा। उनकी निजी ज़िन्दगी में झाँका और उनके सुख-दुःख और जीवन के संघर्षों को अपने आलेखों, कविताओं, गीतों और इतिहास के रूप में उकेर कर उनके उपेक्षित साहित्य को मुख्य धारा से जोड़कर गौरवान्वित करने का कार्य किया है। कवि सीताकांत जी का मत है कि उन्हें मुख्य धारा से जोड़ना काफ़ी हद तक सही है, मगर उनकी कला-संस्कृति किसी भी हालत में अक्षुण्ण रहनी चाहिए। उनकी आस्था, उनके विश्वास, उनकी मनुष्यता सभी कुछ अगर जीवित रहेंगे तो हम नृतात्विक दृष्टिकोण से मनुष्य के क्रमिक विकास के बारे में जान सकेंगे। कवि सुधीर सक्सेना के विचार भी कुछ हद तक ऐसे ही हैं। वे भी चाहते हैं कि उनका विकास हो, मगर जिस गति से औद्योगीकरण हो रहा है, जिस गति से उनका सांस्कृतिक विस्थापन हो रहा है, जिस गति से उनके सामाजिक मूल्यों का अवक्षय हो रहा है तो हम आदिवासी समुदाय के मौलिक और नैसर्गिक गुणों को जानने, परखने और पहचानने से वंचित रह जाएँगे।
अंत में यह कहा जा सकता है कि आदिवासी समुदायों को लेकर भी सभी संवेदनशील कवियों की चिंताधारा में एक ही प्रकार की ज्योति का प्रस्फुटन हो रहा है, जो उनकी संवेदनाओं की समरूपता का प्रदर्शन करती है। इतना कहना भी सहज है कि ईश्वर कवि-हृदय में वैसी ही संवेदनाओं को पैदा करता है जैसे मनुष्य की धमनियों को पैदा करता है, और जैसे हर मनुष्यों की धमनियों में प्रवाहित करता लाल ख़ून। किसी भी जाति, प्रजाति, बिरादरी का मनुष्य होने पर भी उनकी धमनियों में लाल ख़ून ही बहेगा, न कि काला या सफ़ेद। इसी तरह कवि हृदय की संरचना भी ईश्वर इसी तरह करता है कि उनकी निरीक्षण-पर्यवेक्षण क्षमता, संवेदना और दृष्टिकोण लगभग बराबर होते हैं। कारण यह कि वे उदात्त मानवीय प्रवृत्तियों से परिचालित होते हैं। दुःख उन्हें सालता है। संवेदना के समान धरातल पर खड़े कवि एक जैसा रचते हैं, भले ही वे कवि विश्व के किसी भी कोने के अधिवासी हो अथवा किसी भी भाषा में अपना साहित्य लिखते हो।
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लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
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- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
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- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
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- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
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- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
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- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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