सौन्दर्य जल में नर्मदा (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
3. नर्मदा नदी के तीर्थ
त्वदम्बु-लीनदीन-मीन-दिव्यसम्प्रदायकं, कलौ मलौघ-भारहारि सर्वतीर्थनायकम्।
सुमत्स्य-कच्छ-नक्र-चक्रवाक-शर्मदे। त्वदीयपादपंकजं नमामि देवी नर्मदे॥२॥
तुम्हारे जल में लीन हुए दीन हीन मीनों को अन्त में स्वर्ग देने वाले औरकलियुग की पापराशि का भार हरने वाल, समस्त तीथों में अग्रगण्य अतः मच्छ कच्छ आदि जानवरों तथा चकई चकवा आदि नभचरों को सदैव सुख देने वाली हे देवि नर्मदे! तुम्हारे चरणारविन्दों को में प्रणाम करता हूँ॥२॥
1200 साल पहले जगद्गुरु शंकराचार्य ने ‘नर्मदाष्टकम्’ की यहीं पर रचना की थी, जिसमें उन्होंने नर्मदा को सभी तीर्थों का नायक कहा है। ऐसे ही उन्होंने नहीं कहा होगा, उसके पीछे कोई न कोई बात अवश्य रही होगी। रेवाखंड में ब्रह्मकुण्ड का वर्णन आता है, यह वही ब्रह्मकुण्ड है, जहाँ कभी देवताओं ने सुर-असुर संग्राम के दौरान तपस्या की थी। तंजौर मंदिर का बाणलिंग को नर्मदेश्वर से शिवाजी के पुत्र संभाजी ने हाथियों से खींच कर लेकर आए थे, जो भारत का सबसे बड़ा शिवलिंग माना जाता है। हज़ारों साल पहले वेद व्यास की महाभारत नर्मदा किनारे लिखी गई। किपलिंग की ‘जंगल बुक’ में नर्मदा का वर्णन है। कालिदास के मेघदूत और शकुंतला में अमरकंटक की पहाड़ियों का वर्णन है। मालवा के सुल्तान बाज़ बहादुर और उनकी प्रेमिका रूपमती की कविताएँ ‘इमली पेड़ के नीचे’ यहीं पर लिखी गई। रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतपुरी जी महाराज नर्मदा किनारे चंदोद में चालीस साल रहे। नर्मदा के ओंकारेश्वर में कावेरी से संगम होता है तो नेमावर में बागड़ी से। इसी तरह बंद्रभान, होशंगाबाद में तवा से तो मंडला में बंजर से।
इन तीर्थों के दर्शन के लिए आपको नर्मदा की परिक्रमा करनी होगी, चाहे पैदल, चाहे किसी वाहन से, चाहे हवाई जहाज़ से। फ़िलहाल मैं बाहरी यात्रा की बात कर रहा हूँ, अंतर्यात्रा की नहीं। अंतर्यात्रा के लिए साधना की ज़रूरत है और बाहरी यात्रा के लिए साधन की। अंतर्यात्रा के लिए एकाग्र चित्त की ज़रूरत है और बाहरी यात्रा के लिए प्रचंड वित्त की, लेकिन कभी-कभी बाहरी यात्रा अंतर्यात्रा के लिए उत्प्रेरक का काम करती है। अतः इस यात्रा के आपको घुमक्कड़ होना होगा। और घुमक्कड़ों के भी कई प्रकार होते हैं, श्रेष्ठ, मध्यम और निम्न। श्रेष्ठ घुमक्कड़ वह होता है जो पृथ्वी के सातों महाद्वीपों को अपनी जागीर समझता है। कभी यूरोप, ऑस्ट्रेलिया तो कभी अमेरिका अफ़्रीका में, तो कभी एशिया या अंटार्कटिका में निडर होकर चक्कर काटते हुए नज़र आता है। ऐसे घुमक्कड़ 15-16 साल की उम्र में इस धर्म की दीक्षा लेकर विश्व-पर्यटन के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार हो जाते हैं। मध्यम घुमक्कड़ वे होते हैं जो अपने बिज़नेस या कार्यालय के किसी कार्य हेतु देश-देशांतरों का भ्रमण करते हैं। भ्रमण करना ही उनका पेशा होता है। निम्न श्रेणी घुमक्कड़ घर-द्वार सब सँभालते हुए, आगे-पीछे की सोचते हुए, अपने उत्तर-दायित्वों का निर्वहन सम्पन्न करने के बाद विश्राम की अवस्था में सुनियोजित ढंग से देश-विदेशों की यात्रा का संकल्प लेते हैं। जो भी हो, हर व्यक्ति की अपनी-अपनी परिस्थितियाँ होती है और अपनी-अपनी सीमा भी। मगर यह सार्वभौमिक शाश्वत सत्य है कि मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता। चौरासी लाख योनियों से गुज़रते हुए कभी-कभार मनुष्य जन्म मिलता है। वह भी सीमित अवधि के लिए, ज़्यादा से ज़्यादा सत्तर से अस्सी या अस्सी से नब्बे वर्षों तक। इस अवधि में अगर हमने दुनिया नहीं देखी तो फिर कब देखेंगे? और अगर हमने दुनिया नहीं देखे तो क्या लेखन करेंगे? क्या यथार्थ, क्या काल्पनिक?
सवाल उठता है घूमने वाला अपनी आजीविका कैसे कमाएगा? अपना भरण-पोषण कैसे करेगा? क्या उसे अपने घर-परिवार वालों की चिंता नहीं होगी? उत्तर इतना ही होगा जब विश्व का भरण-पोषण करने वाला मौजूद है तो उसे जीवन की क्या चिंता? अर्थात् “का चिंता मम जीवने यदि हरिर्विश्व।”
घुमक्कड़ी से हमें न केवल भूगोल और इतिहास की शिक्षा मिलती है, बल्कि साहित्य, संस्कृति, ज्योतिष, गणित, जादूगरी, अध्यात्म, धर्म आदि सभी विषयों का ज्ञान होने लगता है। दूसरे शब्दों में, घुमक्कड़ी में जो रस हैं वह किसी काव्य-रस से कम नहीं है, असली ब्रह्मरस तो वही है। फाह्यान, स्वोचांग, ईचिंग, मार्कोपोलो आदि ने उस रस का भरपूर आनंद उठाया है। सधुक्कड़ी-फक्कड़ी से वे लोग जीये। मानो कोई कह रहा हो-
“ले जा हो शंकर, गाँजा है न कंकर”!
कहते हैं, शेर समूह में नहीं चलते है, वैसे ही घुमक्कड़ भी अपनी जमात बाँधकर नहीं चलते हैं क्योंकि उन्हें अज्ञात परिवेश में प्रवेश कर उनकी भाषा, संस्कृति, संवेदना, भाव-भंगिमा, रीति-रिवाज़, धर्म-कर्म बहुत कुछ सीखना होता है। अपनी जमात में इन सारी उपलब्धियों को पाने के लिए ख़तरों से खेलना ही नहीं पड़ता है, बल्कि कभी-कभी तो जान जोखिम में भी डालनी पड़ती है। बिना संघर्ष के कोई भी लेखन में उस अज्ञात प्रदेश की यथार्थ झलकियाँ उभर कर सामने आ पाएँगी? महात्मा गाँधी कहा करते थे, भारत गाँवों में बसता है। अगर कोई भारत के बारे में जानना चाहते हैं, तो उन्हें महानगरों की नहीं, बल्कि गाँवों का दौरा करना चाहिए। आधुनिक टूर पैकेज के प्रोग्रामों में ऐसा नहीं होता है, आपको वे लोग बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ, नदी, सरोवर, नगरों और महानगरों का दर्शन अवश्य करवा देते हैं, मगर क्या उनकी पिछड़ी जातियों के लोगों का दुख-दर्द अनुभव करने के लिए आपको अपने ग़रीब प्रांतों का परिदर्शन करवाते हैं? अपनी कल्पना से सोच-विचार कर या दूसरे के अनुभवों को सुनकर या किसी यात्रा-संस्मरण को पढ़कर सही चित्रण किया जा सकता है? नहीं, कदापि नहीं।
फिर भी मैंने नर्मदा नदी के तीर्थों पर यह आलेख तैयार करने के लिए अमृतलाल वेगड़ की ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’, ‘तीरे तीरे नर्मदा’, ‘अमृतस्य नर्मदा’, सुरेश पटवा की ‘नर्मदा: सौन्दर्य, समृद्धि और वैराग्य की नदी’, उदय नागनाथ की ‘नर्मदायन’, ओम प्रकाश शर्मा की ‘नर्मदा के पथिक’, के अतिरिक्त अन्य अंग्रेज़ी पुस्तकों में हरतोष सिंह बल की ‘वाटर क्लॉज ओवर अस (ए जर्नी एलॉन्ग नर्मदा), पी. दामोदरन की ‘इन द लैंड ऑफ़ नर्मदा’ का अध्ययन किया, जिनके आधार पर मैंने जो कुछ नर्मदा तीर के तीर्थों के बारे में बहुत कुछ जाना, वह अब आपके हाथों में है।
वेदों में नर्मदा का नाम नहीं है। ऋग्वेद में सात नाम हैं: विपाशा (व्यास), शुक्तुद्री (सतलज), विपास्था (झेलम), पारुसन्नी (रावी), असीकनी (चिनाब), सिंधु और सरस्वती। सप्त-सैन्धव के इस क्षेत्र में लिखे गए 4 वेद। वेदों के बाद 108 उपनिषद, गंगा-यमुना के मैदानी भू-भागों में निर्मित ऋषि-कुटीरों में, वेदों के सारांश के रूप में। उस ज़माने में दो ही चीज़ें मुख्य थीं, कृषि और ऋषि। लोग कृषि से अवकाश पाकर ऋषि की कुटिया के पास बने चबूतरों के चारों तरफ़ पाल्थी मार बैठ जाते थे। उप + निष्ठतः = उपनिषद, जब प्रधान ऋषि गण बीच मंच पर बैठ पर वेदों की गहनता और गूढ़ार्थ पर चर्चा करते थे, तब उनके शिष्य नीचे बैठ कर टिप्पणी या नोट लिख लिया करते थे वे ही बाद में संकलित होकर उपनिषद कहलाए। यहीं वेदों का अंत होता है इसलिये ये उपनिषद ही वेदांत दर्शन के आधार कहाए। इनसे निकला दर्शन वेदांत कहलाया। ईसा के जन्म से चार-पाँच हज़ार वर्ष पहले का समय रहा होगा। उस समय आर्य अफ़ग़ानिस्तान से बंगाल तक फैल चुके थे और द्रविड़ विंध्यांचल पर्वत पारकर दक्षिण की ओर हिंदमहासागर तक।
पुराणों में एक कहानी आती है कि अगस्त्य ऋषि ने घमंडी विंध्याचल पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबाया, ताकि हिमालय से ज़्यादा ऊँचा न हो और फिर उसे लाँघकर चले गए दक्षिण, यह कहकर कि वह उनके आने तक उसी अवस्था में रहेगा। यद्यपि कहानी प्रतीकात्मक है, मगर रहस्योद्घाटक। आर्यों ने अपने दर्शन को दक्षिण में पहुँचाने के लिए अगस्त्य ऋषि का सहारा लिया था। इस प्रकार एक समावेशी अखिल भारतीय संस्कृति का जन्म हुआ था। जब अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पार कर रहे थे, तब तक कपिल, जमदग्नि, मार्कण्डेय, कौंडिल्य और भृगु ऋषि विंध्याचल-सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों के सम्पर्क में आए।
यही से शुरू होती है कहानी, ‘नर्मदा नदी’ को ‘नर्मदा देवी’ में बदलने वाले प्रारम्भिक कवियों और लेखकों के बारे में। इन कवियों और लेखकों के समय गंगा-यमुना के मैदानों से वनस्पति और जंगल-झाड़ साफ़ किए जा चुके थे। और शुरू हो गई थी हिमालय पर हाड़कंपाती ठंड, मैदानी भाग में भयानक गर्मी। इसलिए वहाँ से आकर उन्होंने डिंडोरी और मंडला ज़िलों में अपने आश्रम बनाए।
कहा जाता है, मार्कण्डेय ऋषि थे प्रथम यायावर और भृगु ऋषि द्वितीय। दोनों नर्मदा की परिक्रमा करते रहते थे, इस 1312 किलोमीटर लंबी नदी की, तो परिक्रमा-पथ हुआ 2624 किलोमीटर। मार्कण्डेय और भृगु को मुख्य नदी के साथ-साथ सहायक नदियों की भी पैदल परिक्रमा करते थे, जिसमें 3 वर्ष, 3 महीने और 13 दिन लगते थे, यानी एक दिन में दो किलोमीटर। उस समय घने जंगल थे, इसलिए यात्रा कठिन रही होगी, मगर आजकल 108 दिन में पूरी कर लेते है। नर्मदा की परिक्रमा करने वाले ऋषि भृगु के नाम से पहले भृगुघाट और कालांतर में कहलाया भेड़ाघाट। आगे बरमान और होशंगाबाद के बीच भारकच्छ और भरूच में बना भृगु मंदिर। और मार्कण्डेय के नाम पर मार्कण्डेश्वर। नर्मदा पुराण के अनुसार यहाँ पर मार्कण्डेय ऋषि भगवान शंकर की कृपा से ज्ञान प्राप्त हुआ था, इसलिए यहाँ कोई पुरुष जल के भीतर ‘द्रुपदादिव’ गायत्री का जप करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।
यह नाम मेरे लिए बहुत मायने रखता है, क्योंकि मेरे जन्म-स्थान सिरोही (राजस्थान) के पास सिरोही रोड में भी मार्कण्डेश्वर जी का मंदिर है, पास में स्वयं प्रकट सरस्वती जी का मंदिर और वहीं ज़मीन से निकली गुप्त-गंगा भी, जिसकी छोटी पोखरी में मेरे पिताजी की अस्थियों का विसर्जन भी किया गया था। कवि आनंद ने भी अपने जन्मस्थली गाजीपुर से वाराणसी के बीच गोमती पुल से थोड़ी सी दूरी पर गोमती और गंगा की संगम-स्थली को मार्कण्डेय ऋषि की तपोभूमि बताया है। अपने जीवन काल में मार्कण्डेय ऋषि कहाँ-कहाँ घूमे, यह तो नहीं कहा जा सकता है, मगर इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि उन्हें नदियों से बहुत प्यार था और वे उनके चारों तरफ़ परिक्रमा करते ही रहते थे, जबकि सन् 1858 में ब्रिटिश जॉन हैंनिंग स्पेक ने नील नदी के स्रोत बुरुंडी की खोज की थी, इसके सौ साल बाद एंडीज़ पहाड़ों में अमेज़न नदी के स्रोत मिसूई ग्लेशियर की खोज हुई। नील नदी 6695 किलोमीटर लंबी है, जो बुरुंडी-कांगो-इजिप्ट-इथोपिया-केन्या-रवांडा-सूडान-तंजानिया-युगांडा है, जबकि गंगा से ज़्यादा पानी ले जाने वाली अमेज़न नदी 6448 किलोमीटर लंबी है, पेरू से ब्राज़ील जाती है। चीन की चांग जियांग नदी 6378 किलोमीटर और हुआंग ही नदी 5464 किलोमीटर लंबी है, जबकि हमारी नर्मदा नदी केवल 1312 किलोमीटर दीर्घ है, मगर इन सारी नदियों से ज़्यादा पूजनीय और आध्यात्मिक, इसलिए तीर्थों की नदी बन गई।
अमृत लाल वेगड़ जी की ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ में उनकी यात्रा-पथ इस प्रकार था:
जबलपुर-मंडला-छिनगांव-अमरकंटक-डिंडोरी-महाराजपुर (मंडला)-ग्वारीघाट (जबलपुर)-बरमानघाट-साँड़िया-होशंगाबाद-हंडिया-ओंकारेश्वर-खलघाट-बोरखेड़ी-केली-शूलपाणेश्वर-कबीरवड-विमलेश्वर-मीठीतलाई-कोलियाद-भरूच
श्री निवास शास्त्री की पुस्तक ‘माँ नर्मदा परिक्रमा: ए पिकटोरियाल एसे ऑफ़ ए परिक्रमा’ से परिक्रमा-पथ को देखा, जो निम्न है:
ओंकारेश्वर-बड़वानी-राजपिपला-अंकलेश्वर-दमापुरा-पावागढ़हिल-महेश्वर-नेमावर-बुधनी-जबलपुर ग्वारीघाट-अमरकंटक दूधधारा कपिलधारा, कबीर सागर सरोवर-कान्हा नेशनल पार्क-होशंगाबाद-ओंकारेश्वर
मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपनी नर्मदा परिक्रमा में निम्न पथ चुना, जो उनकी अद्यतन पुस्तक “नर्मदा के पथिक’ में दिया गया है:
बरमानघाट-हँडिया-ओंकारेश्वर-मायासर-विमलेश्वर-मीठी तलाई-चापड़िया-महेश्वर-मंडला-अमरकंटक-बरमान घाट
‘नर्मदायन’ यात्रा-संस्मरण में नर्मदा का परिक्रमा-पथ इस प्रकार दिया गया है:
अमरकंटक-डिंडोरी-बूढ़नेर-रामनगर-मंडला-जबलपुर (भेड़ाघाट, तिलवाड़ा, ग्वारीघाट)-नरसिंहपुर-होशंगाबाद-हरदा-खंडवा-हंडिया-नेमावर-अर्धेश्वर-मंडलेश्वर-बड़ोदरा-भरूच
नर्मदा की परिक्रमा तीन तरीक़े से की जाती है, घड़ी के दिशा की तरह यानी क्लॉक वाइज़, नर्मदा नदी हमेशा आपके दायीं तरफ़ रहेगी और उसमें आपको समुद्र लाँघना पड़ता है, जबकि जिलहरी परिक्रमा में समुद्र लाँघना नहीं पड़ता है, जिस दिशा में गए, उसी दिशा में लौटकर आना है और तीसरी परिक्रमा होती है हनुमत परिक्रमा, जिसमें उत्तर तट या दक्षिण तट कहीं पर भी जाया जा सकता है और प्रत्येक तीर्थ के दर्शन कर सकते हैं। यद्यपि कवि आनंद ने नर्मदा की हनुमत परिक्रमा की है, भले ही टुकड़ों-टुकड़ों में, मगर अपनी प्राध्यापक की नौकरी के दौरान सुसनेर, होशंगाबाद, बाबई और भोपाल में अपने प्रवास के समय नर्मदा के सौन्दर्य ने उनके कवित्व को झकझोरा है, इस वजह अपनी खंडित परिक्रमा के उन स्थानों के प्रति अपनी काव्यिक-भाषा में आभार व्यक्त करना नहीं भूलते हैं। स्वतः ही उनकी रचना-प्रक्रिया के दौरान उन स्थलियों के बिम्ब उभर कर आते हैं। उदाहरण के तौर पर, सुसनेर के धरड़ की याद ताज़ा होती है:
“घने पेड़ों की छाँह में/जिसमें तुम्हारे शरीर की गरमाई/रोशनी डालती है मेरी आत्मा पर। मैं हूँ सपनों के अर्थ खोलता/बैठा सुसनेर के धरड़ पर/एक प्यासा हुआ झरना/जिसकी ऊबड़-खाबड़ दीवारों से/चिपके हैं ख़तरनाक गोहरे” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-19)
इसी तरह होशंगाबाद का सेठानी घाट के मनस्तल को स्पर्श कर जाता है:
“कच्चे मन की उजास जो उठती है/नर्मदा की लहर-सी/धीर गम्भीर हो जाती है/सेठानी घाट पर॥ पुण्य की शितिकण्ठ आभा/टकराती है जिस ज्योति जल से/देखता है वहीं॥ हाँ, वहीं तो बहती है/क़िले की दीवार को दरेरती/होशंगाबाद में।” (सौन्दर्य जल में नर्मदा। 45)
और बाबई कैसे छूट सकता है! यह होशंगाबाद से पंचमढ़ी मार्ग से 20 किलोमीटर दूर है।
“घूमता हूँ घाट-घाट पर मगन/नर्मदा के साथ करता बतकही/सुस्त चाल से बढ़ी ख़राब बस/झुरमुटों में शाम आज ढल गयी। सीढ़ियों पर सो गयी है नर्मदा/थक गये हैं आदमी औ बाबई” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-60)
बाबई में सन् 1889 में जन्मे हिन्दी के प्रख्यात राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी को ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से आज भी जाना जाता है। उनके नाम का शासकीय महाविद्यालय भी है। हमारे पीढ़ी के लोगों ने अपने बचपन में उनकी कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ अवश्य पढ़ी होगी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है:
“मुझे तोड़ लेना वनमाली/उस पथ पर तुम देना फेंक/मातृभूमि पर शीश चढ़ाने/जिस पथ पर जाएँ वीर अनेक”
कवि आनंद के इस काव्य-संग्रह में एक साथ दो यात्राएँ चलती है, कहीं-कहीं भौगोलिक यानी मूर्त तो कहीं-कहीं अंतर्यात्रा यानी अमूर्त। जिसका संकेत उन्होंने अपनी कविता में एक जगह किया है:
“नदी तट का भूगोल है/स्वयमेव चलता/चेतना से मिलकर/स्वयं को बदलता/भौगोलिक यात्राएँ बनाती है दक्षिण पथ/लेकिन उत्तरोत्तर/विकास की विकलता” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-21)
साधारण पाठकों के लिए मूर्त से अमूर्त में जाकर रसास्वादन इतना सहज नहीं है, इस वजह से हम एक साथ दोनों यात्राओं का शाब्दिक यज्ञ करेंगे। नर्मदा की हर जगह, हर कंकर, हर घाट महत्त्वपूर्ण है, उदाहरण के तौर पर ओम प्रकाश के ‘नर्मदा के पथिक’ के अनुसार बरमान घाट ब्रह्मा की तपोभूमि है, जबकि सुरेश पटवा की ‘नर्मदा: सौन्दर्य, समृद्धि और वैराग्य की नदी’, के अनुसार इस घाट पर 1933 में महात्मा गाँधी आए थे, अस्पृश्यता निवारण अभियान के तहत, जबलपुर से करेली ट्रेन में और फिर यहाँ से सागर गए नाव में। इसी तरह खलघाट पर राम ने कभी खरदूषण का वध किया था, जो कालांतर में अपभ्रंश होकर खल में बदल गया जैसे खलखुर्द, खल बुज़ुर्ग आदि, जबकि साँड़िया घाट शांडिल्य ऋषि की तपोभूमि है, और गुजरात के हाँसोट से सात किलोमीटर दूर बलबला कुंड कश्यप की तपोभूमि। मोदरी के घनघोर जंगल में भृगु के पुत्र च्यवन ऋषि का आश्रम है। रावेरखेड़ी में चतुर्थ मराठा छत्रपति साहू के पेशवा बाज़ी राव की समाधि है। रायसेन ज़िले के ‘मनकामनेश्वर’ में शिव-लिंग पर जल चढ़ते समय ॐ की ध्वनि सुनाई देती है। कभी नर्मदा के तटों पर कश्यप, कपिल, मार्कण्डेय, भृगु घूमा करते हैं, आज उमा भारती के गुरु मोहनजी महाराज, पायलट बाबा (कनाडा में पढ़े लिखे और पायलट प्रशिक्षण प्राप्त पूर्व सिविल ऐवीऐशन के इंजिनीयर), केरल की फार्मा कंपनी के जनरल मैनेजेर जैसे प्रोफ़ेशनल भी वैराग्य लेकर नर्मदा की परिक्रमा में लगे हुए हैं। इस तरह नर्मदा के सारे घाटों पर पौराणिक ऋषियों ने अपने ध्यान-केंद्र खोल दिए थे, या फिर बड़े-बड़े राजा-महाराजों ने अपने साम्राज्य के विस्तार हेतु नगर बसाने शुरू कर दिए। उन जगहों पर कुछ-कुछ चमत्कार आज भी नज़र आते हैं। पुस्तक का कलेवर न बढ़ जाए, इसलिए नर्मदा नदी के तट पर पड़ने वाले निम्न मुख्य स्थलों का ही केवल वर्णन किया जा रहा है:
1. अमरकंटक:
“अमरकंटक का नाम मेकल भी है। इसलिए नर्मदा का नाम मेकलसुता भी है। मेकल अपनी बिटिया को वनाच्छादित घाटी में से किस हिफ़ाज़त से नीचे छोड़ गया है, इसे आज हमने अपनी आँखों से देखा। आगे जाने पर पगडंडी मिल गई। इक्के-दुक्के ग्रामीण भी दिखाई देने लगे। शाम होते-होते पकरीसोंढा पहुँचे। ख़ूब सवेरे आगे बढ़े। सामने के सूखे खेतों में से बहती नर्मदा साफ़ दिखाई दे रही थी। अभी तक तंग घाटी के घने शाल वन में छुपी नर्मदा, मुश्किल से ही नज़र आती थी, लेकिन यहाँ से वह दूर से भी साफ़-साफ़ दिखाई देती है। नर्मदा का जन्म मानो गौरैया की तरह हुआ है। ऊपर कुंड के घोंसले में अंडे की तरह अवतरित हुई है। अंडे में से बाहर वह यहाँ नीचे निकली है।” (अमरकंटक से डिंडौरी, सौन्दर्य की नदी नर्मदा, अमृत लाल वेगड़, पृष्ठ-29)
मध्यप्रदेश के अनूपपुर ज़िले में विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों को जोड़ती है मैकल पर्वत माला। शायद यह शब्द ‘मैखला’ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है शृंखलाएँ। तीनों के संगम पर मौजूद है, अमरकंटक, टीक और महुआ के पेड़ों से घिरा, वहीं पर है नर्मदा कुंड। इसके चारों ओर मंदिर ही मंदिर। नर्मदा-शिव मंदिर, कार्तिकेय मंदिर, श्रीराम जानकी मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, गुरु गोरखनाथ मंदिर, श्री सूर्यनारायण मंदिर, वंगेश्वर महादेव मंदिर, दुर्गा मंदिर, शिव परिवार, सिद्धेश्वर महादेव मंदिर, श्रीराधा कृष्ण मंदिर और ग्यारह रुद्र मंदिर आदि। पवित्र तालाब, ऊँची पहाड़ियों और शांत वातावरण वाली इस जगह से निकलती है तीन नदियाँ नर्मदा नदी, सोन नदी और जोहिला नदी, एक दूसरे से रूठकर। तीनों की प्रेम कहानी के बारे में आप जानते ही होंगे? यहाँ पर धुनी पानी नामक गर्म पानी का झरना है, औषधीय गुणों से संपन्न। पास ही दूधधारा झरना, जहाँ ऊँचाई से गिरते इस झरने का जल दूध के समान दिखता है। किंवदंती है कि यह ऋषि दुर्वासा की तपोस्थली है, जहाँ माँ नर्मदा ने उन्हें दुग्ध पान कराया था। पार्श्व में 1041-1073 ई. ज़माने के कल्चुरी काल के मंदिर, महाराजा कर्णदेव द्वारा निर्मित, नर्मदाकुंड से 1.5 किलोमीटर दूर सोनमुड़ा-सोन नदी का उद्गम स्थल, घाटी और जंगल से ढका हुआ, मैकाल पहाड़ियों के किनारे। वहाँ भी 100 फ़ीट ऊँची पहाड़ी से झरना गिरता है, सुनहरी रेत के कारण यह कहलाती है सोन नदी। और 8 किलोमीटर दूर, जोहिला नदी निकलती है, श्री ज्वालेश्वर महादेव मंदिर से। आगे नर्मदा को समर्पित हरी-भरी बग़िया, जहाँ वह पुष्प चुनती थी। यहाँ आम, केले और अन्य बहुत से फलों के पेड़ों की भरमार हैं। फिर गुलबाकावली और गुलाब के सुंदर पौधों का कहना ही क्या!
देखते-देखते आठ किलोमीटर दूर। आ जाइए, वहाँ है नर्मदा का पहला प्रपात, कपिलधारा, कपिल मुनि के नाम पर। वर्धमान का पुत्र कपिल। यह वही कपिल है, भयंकर ग़ुस्से वाले, जिन्होंने सागर के 60,000 बच्चों को अपने नेत्रों की ज्योति से भस्म कर दिया था। यहाँ से नर्मदा घने पहाड़ी बियाबान में प्रवेश करती है, साँप की तरह हिलती-डुलती हुई एक छोटी घाटी में और चार मील के बाद कपिलमुनि के क्रोध से डर कर तीन सौ मीटर नीचे कूद जाती है, बनकर कपिलधारा। नर्मदा परिक्रमा का प्रारम्भिक बिंदु, जिस पर कवि आनंद कहते हैं:
“पत्थर कर सकता है प्रेम/धारा में घुलकर/पत्थरों से/टकराहट चलती रहती है/अनवरत/कंकर बनता है शंकर! /पत्थर झगड़ पड़ता है/धारा में रुककर/पत्थरों से/कपिलधारा की/चिनगारियाँ/किनारे पर हैं /पड़ी धूल बालू रेती औ' कंकड़ी!”: (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-58)
कपिल मुनि ने यहाँ वर्षों तपस्या की और सांख्य दर्शन और तत्व-मीमांसा की रचना भी। कपिलधारा से यहाँ का शिव मंदिर कहलाया कपिलेश्वर मंदिर। कहते हैं आस-पास अनेक गुफाएँ है, जहाँ आज भी साधु-संत ध्यानमग्न मुद्रा में देखे जा सकते हैं। कपिल ही क्यों, कबीर क्यों नहीं? यहाँ एक चबूतरा है जहाँ संत कबीर ने कई वर्षोंं तक ध्यान लगाया, यही नहीं, उनकी गुरु नानकदेव से पहली मुलाक़ात यही हुई। कबीर चबूतरे के निकट है कबीर झरना। वहाँ अभी-अभी पास में सर्वोदय जैन मंदिर बना है, भगवान आदिनाथ का, अष्ट धातु से। अमरकंटक बहुत से आयुर्वेदिक पौधों के लिए भी प्रसिद्ध है, जिन्हें किंवदंतियों के अनुसार जीवनदायी गुणों से भरपूर माना जाता है।
2. मंडला
अमृत लाल वेगड़ जी अपनी पुस्तक ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ में डिंडौरी से महाराजपुर (मंडल) की यात्रा के एक दृष्टांत के बारे में लिखते हैं:
“उसने बताया कि पहाड़ी पर एक कुटी है, रात को वह वहीं सोता है। हम लोग भी वहीं सो सकते हैं। भोजन से निवृत्त होकर टॉर्च की रोशनी में उसके साथ कंकड़-पत्थर वाली पगडंडी से ऊपर चढ़े। विकट चढ़ाई थी। पीठ पर बोझा लादे छिपकली की तरह दबे-दबे चढ़ रहे थे। जैसे-तैसे ऊपर पहुँचे। उस वीराने में कोई नहीं था। सन्नाटे का आलम, घुप्प अँधेरा। ऐसे स्थान में सोने का जीवन में यह पहला मौक़ा था। नर्मदा के पाट में आग दिखाई दे रही थी। ऐसी ही आग पीछे भी थी। कभी-कभी मछुआरे रात को नदी में ही रह जाते हैं। उन्हीं की आग थी। पूछने पर बाबा ने कहा, “सामने की आग तो मछुआरों की है, पर पीछे की आग उनकी नहीं।”
“तब?”
“वह सिद्धों की भूमि है। वहाँ अपने आप दीये जलते हैं। अपने आप आग जलती है। रात को आग दिखेगी, लेकिन सवेरे जली हुई एक भी लकड़ी या कंडा नज़र नहीं आएगा।” सुबह उठकर ऐसे भयावह स्थान में मैंने चुप रहना ही ठीक समझा। आगे बढ़े तो थोड़ी दूर तक वह साथ चला। सिद्धों की भूमि में पहुँचे।” (सौन्दर्य की नदी नर्मदा, 37)
इस सिद्ध भूमि में आज भी नर्मदा के तट पर निमाड में बसे 108 वर्षीय सियाराम बाबा बिना माचिस की तीली के घी के प्रदीप जला देते हैं, जिसे आप यू-ट्यूब पर देख भी सकते हैं। उन्होंने ‘खडेश्वरी’ साधना की थी। इस साधना में सोने-जागने से लेकर हर काम खड़े-खड़े ही किया जाता है। एक बार नर्मदा में बाढ़ आई, उनके नाभि तक पानी पहुँचा, मगर वे टस से मस नहीं हुए। दान में 10 रुपए से अधिक नहीं लेते हैं। ऐसे संतों की पवित्र भूमि पर घुमावदार मार्ग और प्रबल वेग के साथ घने जंगलों और चट्टानों को पार करते हुए नर्मदा रामनगर के जर्जर महल तक पहुँचती हैं। आगे दक्षिण-पूर्व की ओर, रामनगर और मंडला (25 किमी (15.5 मील)) के बीच, यहाँ जलमार्ग अपेक्षाकृत चट्टानी बाधाओं से रहित सीधे एवं गहरे पानी के साथ है। मंडला आदमखोर शेरों के शिकार करने में सिद्धहस्त रानी दुर्गावती के लिए मशहूर है। जाति से वह राजपूत थी, मगर गोंड आदिवासी राजा से शादी की और अकबर के सेनापति आसिफ़ ख़ान से युद्ध में लोहा लिया था। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ही नहीं, मेरे लिए मंडला इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि यहाँ कभी आदिवासियों की गहन जीवन-शैली का अध्ययन करने के लिए ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर एक प्रतिष्ठित स्कॉलर वेरियर एलविन आए थे और मंडला में ही अपना घर-संसार बसा लिया, एक गोंड-युवती कौशल्या (जिसे वह कोसी से पुकारते थे) से शादी कर ली। दो बच्चे भी हुए, एक का नाम जवाहर (जवाहर लाल नेहरू के नाम पर) और दूसरा विजय (प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी विजय मर्चेन्ट के नाम पर)। कोसी की बेवफ़ाई के कारण यह शादी दस साल से ज़्यादा नहीं चली, फिर उन्होंने दूसरी शादी की, प्रधान गोंड जाति की तलाक़शुदा महिला, लीला से, जिसके तीन बच्चे हुए, वसंत, नकुल और अशोक। वह एक धर्मनिष्ठ ईसाई थे, मगर अपने अन्तर्द्वन्द्वों, गाँधी जी के विचारों और सान्निध्य, जनजातियों की स्थिति, मिशनरियों के कार्यों के तरीक़ों को देखकर उनके विचार बदल गए। फिर उन्होंने जनजातियों के बीच रहकर उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए काम करने का निश्चय किया और इसी दौरान अपने अनेक विख्यात मानवशास्त्रीय शोध-कार्य किए। अपने शोध-कार्यों के कारण वह भारतीय जनजातीय जीवन-शैली और संस्कृति के क्षेत्र में बड़े विद्वानों में से एक बन गए, ख़ासकर गोंडी लोगों के बीच बहुत मशहूर हुए। उन्होंने 1945 में मानव विज्ञान सर्वेक्षण के उप-निदेशक के रूप में भी कार्य किया। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने उन्हेंं उत्तर-पूर्वी भारत के आदिवासी मामलों के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया और बाद में वे नेफा जिसे अब अरुणाचल प्रदेश के नाम से जाना जाता है, वहाँ की सरकार के एंथ्रोपोलॉजिकल सलाहकार बनाए गए। भारत सरकार ने उन्हेंं 1961 में पद्मभूषण से सम्मानित किया। उनकी आत्मकथा ‘द ट्राइबल वर्ल्ड ऑफ़ वेरियर एलविन’ के लिए मरणोपरान्त उन्हेंं 1965 का ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ दिया गया।
उनकी प्रमुख पुस्तकों में ‘Songs of the Forest: the folk poetry of the Gonds’, ‘Leaves from the Jungle: Life in a Gond Village’, ‘The Agaria’, ‘The Aboriginals’, ‘Folk-songs of the Maikal Hills’, ‘Folk-songs of Chhattisgarh’, ‘The Muria and their Ghotul’, ‘Myths of Middle India’, ‘Maria Murder and Suicide’, ‘Tribal Myths of Orissa’, ‘Myths of the North-east Frontier of India’, ‘When the World was Young: folk-tales from India's hills and forests’, ‘Folk-tales of Mahakoshal’, ‘The Baiga’ आदि प्रमुख हैं।
3. जबलपुर
नर्मदा नदी के तट पर बसे इस शहर का नाम पहले जबालिपुरम् था, क्योंकि महर्षि जबालि यहीं निवास करते थे। यहाँ कभी मराठे तो कभी अँग्रेज़ों का शासन रहा। एक पहाड़ी पर पुराना गोंड क़िला है। चार स्वतंत्र गोंड राज्यों का प्रमुख नगर था। भेड़ाघाट, ग्वारीघाट और जबलपुर से प्राप्त जीवाश्मों से संकेत मिलता है कि यह प्रागैतिहासिक काल के पुरापाषाण युग के मनुष्य का निवास स्थान था। मदन महल, नगर में स्थित कई ताल और गोंड राजाओं द्वारा बनवाए गए कई मंदिर इस स्थान की प्राचीन महिमा की जानकारी देते हैं। इस क्षेत्र में कई बौद्ध, हिन्दू और जैन भग्नावशेष भी हैं। कहते है कि जबलपुर में स्थित ५२ प्राचीन ताल तलेयों ने यहाँ की पहचान को बढ़ाया, इनमें से अब कुछ ही तालाब शेष बचे हैं परन्तु उन प्राचीन ताल-तलैयों के नाम अभी तक प्रचलित हैं। जबलपुर भेड़ाघाट मार्ग पर स्थित त्रिपुर सुंदरी मंदिर, हथियागढ़ संस्कृत के कवि राजशेखर से सम्बंधित है।
नर्मदा नदी एक संकीर्ण लूप में आकार उत्तर-पश्चिम से जबलपुर पहुँचती है। नर्मदा डिंडोरी और मंडला का उछलकूद भरा बचपना छोड़कर किशोर वय की थोड़ी गम्भीर और गहरी हो चली है। शहर से 20 किलोमीटर दूर, नदी भेड़ाघाट के पास क़रीब 9 मीटर का जल-प्रपात बनाती है जो की धुआँधार के नाम से प्रसिद्ध हैं। जिसे कवि आनंद इन पंक्तियों में याद करते हैं:
“नितान्त प्रेमास्पद वन गाथाओं में/शताब्दियों से ढोती हुई जल/लोकमन का/अकेली ही चलती है नर्मदा/उछलती है नर्मदा!। धुआँधार झरनों की बौछारें/भिगो देती हैं संगमरमरी चट्टानें!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, 43)
भेड़ाघाट किसी भेड़ के नाम पर नहीं बना है, बल्कि यह कालांतर में भृगु ऋषि के घाट के नाम का अपभ्रंश शब्द है। आगे यह लगभग 3 किमी तक एक गहरी संकीर्ण चैनल में मैग्नीशियम चूनापत्थर और बेसाल्ट चट्टानों जिसे संगमरमर चट्टान भी कहते हैं, के माध्यम से बहती है, यहाँ पर नदी 80 मीटर के अपने पाट से संकुचित होकर मात्र 18 मीटर की चौड़ाई के साथ बहती हैं। नर्मदा नदी में ज्योत्स्ना विहार का आनंद ही कुछ और है! ज्योत्स्ना विहार का नाम आते ही ओड़िया कवि मायाधार मानसिंह की प्रसिद्ध कविता ‘महानदी में ज्योत्स्ना विहार’ एवं मैथिली गुप्त की महान रचना ‘पंचवटी’ याद आने लगती हैं। ‘पंचवटी’ की पंक्तियाँ मानो उन्होंने चाँदनी रात में भेड़ाघाट में नौकाविहार के बाद ही लिखी हो:
“चारु-चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही थीं जल-थल में/स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनी और अम्बर ताल में/पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से/मानो झूम रहे है तरु भी, मंद पावन के झोंकों से”
संगमरमर चट्टानों से निकलते ही नदी अपनी पहली जलोढ़ कछारी मिट्टी (alluvial soil) के उपजाऊ मैदान (जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, हरदा, खंडवा दक्षिणी तट और दमोह, सागर, रायसेन, देवास, इंदौर उत्तरी तट) में प्रवेश करती है। जिसे “नर्मदाघाटी” कहते हैं, जो लगभग 320 किमी जबलपुर से महेश्वर तक फैली हुई है, यहाँ नदी की औसत चौड़ाई 3.5 किमी ही है। इस यात्रा के सौन्दर्य को याद करते हुए अमृत लाल वेगड़ जी लिखते है:
“नर्मदा का प्रसिद्ध जलप्रपात धुआँधार यहाँ से पास है। यहाँ रात्रि विश्राम की व्यवस्था हो गई तो धुआँधार चल दिए। चौड़ी नर्मदा यहाँ हठात् सँकरी हो गई है और एक खड्ड में प्रचंड वेग के साथ गिरती है। दूर से ही जलबिंदुओं का धुआँ सा उठता दिखाई देता है, इसलिए इसे धुआँधार कहते हैं।
दूर से दबी-दबी सी सुनाई देने वाली गड़गड़ाहट पास जाने पर कर्णभेदी घोष में बदल गई। यहाँ का तांडव देखते ही बनता है। चट्टानों पर मानो हज़ारों मूसल बरस रहे हैं। पानी बड़े वेग से गिरता, लहरिए बनाता आगे बढ़ जाता है। नर्मदा पर यहाँ मस्ती का कैसा अलबेला नशा छाया है! नदी में ख़ूब पानी था और धुआँधार यौवन और जीवन से भरपूर था। देर तक हम उसके आबो-ताब को देखते रहे, उसकी धमक को सुनते रहे और उसकी फुहार में भीगते रहे।
इसी धुआँधार से नर्मदा संगमरमर की कुंज गली में प्रवेश करती है। संगमरमर की चट्टानों को चीरती हुई तंग घाटी में से बहती है और एक अद्भुत सौंदर्य लोक की सृष्टि करती है। कनक छरी सी इकहरे बदन की नर्मदा एक जगह इतना सिमट गई है कि इस स्थान को बंदरकूदनी कहते हैं। यहाँ नर्मदा मानो सुस्ता रही है या अत्यंत गति से बह रही है। संगमरमर की विशाल दूधिया चट्टानें, अलस गति से बहती नीरव नर्मदा और निपट एकांत-लगता है किसी नक्षत्र लोक में आ गए हैं।” (ग्वारीघाट से बरमानघाट, सौन्दर्य की नदी नर्मदा, पृष्ठ-51)
भेड़ाघाट का न केवल बंदर कूदनी, बल्कि गणेश पहाड़, हाथी खो आदि स्थल भी पर्यटकों को बहुत आकर्षित करते है। ग्वारीघाट, सबसे सम्पन्न नर्मदा घाट है, जिसके दक्षिणी तट पर सिख गुरुद्वारा इसकी सौंदर्यमयी चित्रमय झाँकी को निखराने में कोई कसर नहीं छोड़ता। तिलवारा घाट अगला पड़ाव है, जहाँ कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस अध्यक्ष चुने गए थे। उसके आगे लम्हेटा के बाद भेड़ाघाट है। इसके अतिरिक्त, तिलवारा घाट, जिलहरी घाट, उमाघाट, खारीघाट, सिद्धघाट, दरोगा घाट, सरस्वती घाट, झांसीघाट, गौरैयाघाट, घाट पिंडरई, भिटौली घाट, जमतरा घाट, नन्दिकेश्वर घाट यानी नर्मदा किनारे घाटों का जमघट है। झाँसीघाट के रेलपुल से रेलयात्री नर्मदा को श्रद्धापूर्वक सिक्के अर्पित करते हैं, जिन्हें खोजते मल्लाहों के बच्चे डुबकी लगाते दिखते है।
इसी तरह हर घाट पर जल, जंगल, ज़मीन, खुले आकाश में बादलों के वितान नर्मदा के कैशोर्य सौंदर्य की सिर्फ़ एक बानगी भर है, ऐसा अलौकिक सौंदर्य 1312 किलोमीटर बहती नर्मदा के दोनों किनारों पर बिखरा है जिसके दर्शन नदी की परिक्रमा से ही सम्भव हैं। ग्वारीघाट से बरमानघाट जाते समय अंगार पर गाकड़ सिकते देखकर उन्हें हमारे पूर्वजों के भोजन बनाने के प्राचीन तरीक़ों की याद आती है, जिसकी आधुनिक युग से सटीक तुलना करते हैं:
“अंगार पर गाकड़ सिकते देखकर मुझे लगा कि प्रकृति के बीच रहने वाला आदि मानव अपने खाद्य पदार्थ इसी प्रकार आग पर भूनकर खाता होगा। थोड़ी अतिशयोक्ति करके हम कह सकते हैं कि गाकड़ प्रकृति है, रोटी संस्कृति है और पूरी-परांठे विकृति हैं।” (ग्वारीघाट से बरमानघाट, सौन्दर्य की नदी नर्मदा, पृष्ठ-57)
इस क्षेत्र से अरब सागर में अपनी मिलान तक, नर्मदा उत्तर में विंध्य पट्टियों और दक्षिण में सतपुड़ा रेंज के बीच तीन संकीर्ण घाटियों में प्रवेश करती है। घाटी का दक्षिणी विस्तार अधिकतर स्थानों पर फैला हुआ है, इस तरफ़ कवि आनंद पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं:
“शान्त मानचित्रों के बर्फ़ीले पहाड़ों से/अटके हैं सतपुड़ा और विन्ध्य के पहाड़/अकथनीय काली धुमैली हरीतिमा में। बहती है यौवन की प्राणदा नदी यह। गुप्त वनराजियों को उद्बुद्ध करती। रचती हुई पथ अपने संकल्प बल से/न जाने उतरी है कब यह महानता!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-28)
भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित चौसठ योगिनी मंदिर भेड़ाघाट के समीप स्थित है। यहाँ कई प्रसिद्ध हिन्दी फ़िल्मों का चित्रांकन हुआ है। जबलपुर आए और ओशो रजनीश और सेठ गोविंद दास की याद न आए, यह कैसे हो सकता है! कभी पाँच महीने के गर्भस्थ ओशो की उनकी गर्भवती माँ ने घर में कलह होने के कारण अपने ससुराल कुचवाड़ा से मायके गदरवाड़ा गई थी, नर्मदा नदी के आवक्ष जल स्तर को पार करते हुए, ठीक वैसे ही जैसे कृष्ण को जन्मते ही को वासुदेव महाराज को यमुना नदी पारकर लेकर गए थे। इसलिए इस गर्भस्थ शिशु पर नर्मदा के संस्कार पड़ गए होंगे, जो स्वयं अपनी जाति-बिरादरी के पूर्व दिशा के गमन की परंपरा को तोड़कर पश्चिम की ओर समुद्रगामिनी होती है। यह तथ्य कवि आनंद की कविता में भी झलकता है:
“परम्परा से सटती परम्परा से हटती परम्परा/परम्परा को वरती परम्परा को चरती परम्परा/सीढ़ियों पर चढ़ती परम्परा की सीढ़ियों से बढ़ती परम्परा/प्रवाह की धारा परम्परा प्रमाद की कारा/फैलती फूलती फलती परम्परा/रत्नसानु शिखरों पर चढ़कर मचलती परम्परा/एक नहीं एक से बढ़कर विवेक की अनेकशः परम्परा/शर्म वर्म हर्म्य दा परम्परा/सर्वदा से नर्मदा परम्परा/उत्तरपथ पूजित विष्णुधात्री परम्परा” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-47)
इसी प्रकार पौराणिक और धार्मिक परंपराओं को ध्वस्त करने वाले ओशो को अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘संभोग से समाधि की ओर’ लिखने की प्रेरणा भी नर्मदा नदी के तट पर गोंड आदिवासियों से मिली, जिनके जवान लड़के-लड़कियाँ शादी से पहले सभी एक-दूसरे से यौन-सम्बन्ध बना लेते थे और फिर अंत में अपना जीवन साथी चुन लेते थे। इसके लिए आदिवासी लोग अपने गाँव में एक डोरमेटरी बनाते थे, जहाँ अपनी बारी के हिसाब से लड़का प्रतिदिन नई लड़की के साथ हम-बिस्तर होता था। ऐसे सम्बन्धों में कोई पाप की भावना नहीं थी। यही उदात्त भावना उनकी किताब ‘संभोग से समाधि की ओर’ की पृष्ठभूमि बनी। ऐसे ही रिवाज़ का गोपीनाथ मोहंती के कँध आदिवासियों के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘परजा’ और वेरियार एलविन की पुस्तक “Tribal Myths of Orissa’ में वर्णन आता है। मेरे मन में ओशो, वेरियार एलविन और गोपनीथ मोहंती की रचनाओं पर सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर किसी दिव्य शक्ति ने पुरुष और स्त्री को अलग-अलग पैदा किया है यानी दोनोंं के सृष्टिकर्ता एक ही है तो सामाजिक नियमों के अनुसार वे दोनोंं रिश्ते में भाई-बहन हुए। अगर मान भी लेते हैं, नहीं हुए तो उनके संसर्ग से जो बच्चे पैदा होंगे, लड़का हो या लड़की हो, भाई-बहन की श्रेणी में आएँगे, और मान लेते हैं एक लड़का ही पैदा हुआ होगा तो उसने अपनी माता के सम्बन्ध बनाए होंगे और अगर लड़की पैदा हुई होगी तो उसने पिता के साथ सम्बन्ध बनाए होंगे। आख़िर सृष्टि-संचालन की बात जो ठहरी! ख़ैर, रिश्तों के ज़्यादा पड़ताल की हमें आवश्यकता नहीं है। केवल आदिपुरुष से आदिवासी की उत्पत्ति तक पहुँचने की क़वायद है, इस हिसाब से आदिवासियों के तत्कालीन सामाजिक जीवन में उन्मुक्त सेक्स को लेकर कोई भ्रांति नहीं थी। डॉ. सुधीर सक्सेना द्वारा सेठ गोविन्द दास के जीवन पर लिखी गई जीवनी ‘गोविंद की गति गोविंद जाने’ के अनुसार नर्मदा तट के वातावरण और गाँधीजी के असहयोग आंदोलन का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वैभवशाली जीवन का परित्याग कर वे दीन-दुखियों के साथ सेवकों के दल में शामिल हो गए तथा दर-दर की ख़ाक छानी, जेल गए, जुर्माना भुगता और सरकार से बग़ावत के कारण पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकार भी गँवाया। उनकी आत्मकथा ‘गोविंद की गति गोविंद जाने’ के इस पद्यांश से,:
“रेवा उसका दृश्यविधान रचती है। शहर के आसपास रमणीक प्राकृत दृश्यों की कमी नहीं है। भेड़ा घाट में बंदर कूदनी, धुआँधार, देवताल, मदन महल . . . गोविन्द अक्सर इन स्थलों पर जाता। गौने के बाद पत्नी के साथ वहाँ जाने की आवृत्ति और भी बढ़ गयी। इतवार प्रायः घर पर न बीतता। छुट्टी का दिन अक्सर ऐसे ही किसी सुरम्य स्थान पर बीतता। वहीं भोजन बनता और जीमा जाता। ज़्यादातर चूरमा और बाटी बनती। वर्षांऋतु में वन-विहार का आनन्द लिया जाता। पावस के आते ही वायु में शीतलता व्याप जाती। छोटे-छोटे पहाड़ और मैदान हरा दुशाला ओढ़ लेते। यह मनभावन हरियाली मन को और हरा कर देती। भेड़ाघाट का बंदरकूदनी का दृश्य चाँदनी में बहुत मनोरम हो गया है। चारुचन्द्र को चंचल किरणें वातावरण को मोहक बना रही हैं। दोनोंं ओर अस्सी-अस्सी और सौ-सौ फ़ुट ऊँची श्वेत संगमरमर की धवल चट्टानें। बीच में नर्मदा का ढाई-तीन सौ फ़ुट गहरा निर्मल नीर। ज्योत्स्ना में वहाँ नौका-विहार के आनन्द का क्या कहना। लगता है, स्वप्न लोक में विचर रहे हैं।” (‘गोविंद की गति गोविंद जाने’, पृष्ठ-126)
सेठजी ने देवकीनंदन खत्री के तिलस्मी उपन्यासों ‘चन्द्रकांता संतति’ की तर्ज़ पर उन्होंने ‘चंपावती‘, ‘कृष्ण लता’ और ‘सोमलता’ नामक उपन्यास लिखे, और शेक्सपीयर के ‘रोमियो-जूलियट’, ‘एज़ यू लाईक इट’, ‘पेटेव्कीज प्रिंस ऑफ़ टायर’ और ‘विंटर्स टेल’ नामक प्रसिद्ध नाटकों के आधार पर सेठजी ने ‘सुरेन्द्र-सुंदरी’, ‘कृष्ण कामिनी’, ‘होनहार’ और ‘व्यर्थ संदेह’ नामक उपन्यासों की रचना की। सन् 1917 में सेठजी का पहला नाटक ‘विश्व प्रेम’ छपा। उसका मंचन भी हुआ। पी. दामोदरन की ‘इन द लैंड ऑफ़ नर्मदा’ में उनके अच्छी अंग्रेज़ी जानने और बोलने के बावजूद भी हिन्दी में बातचीत करने की हठधर्मिता का उल्लेख आता है।
4.होशंगाबाद (नर्मदापुर)
होशंगाबाद का प्राचीन नाम नर्मदापुरम् है, सल्तनत काल में मालवा के सुल्तान होशंगशाह गौरी ने होशंगाबाद नाम रख दिया था, वे सूफ़ी विचारधारा के थे और सभी धर्मों का समान आदर करते थे। संगमरमर चट्टानों से निकलते हुए नर्मदा नदी “नर्मदाघाटी” प्रवेशकर उत्तर में, बर्ना-बरेली घाटी पर सीमित होती जाती है जो कि होशंगाबाद के बरखरा पहाड़ियों के बाद समाप्त होती है। हालाँकि, कन्नोद मेदानों से यह फिर पहाड़ियों में आ जाती हैं। यह नर्मदा की पहली घाटी में है, जहाँ दक्षिण की ओर से कई महत्त्वपूर्ण सहायक नदियाँ आकर इसमें शामिल होती हैं और सतपुड़ा पहाड़ियों के उत्तरी ढलानों से पानी लाती हैं। जिनमें: शेर, शक्कर, दूधी, तवा (सबसे बड़ी सहायक नदी) और गंजल साहिल हैं। हिरन, बारना, चोरल, करम और लोहर, जैसी महत्त्वपूर्ण सहायक नदियाँ उत्तर से आकर जुड़ती हैं। दूधी नर्मदा की सहायक नदी है। किंवदन्ती है कि हनुमान जी की माता अंजना इसी किनारे खड़ी होकर तप कर रही थी, उनके मातृभावापन्न होने पर स्तनों से फूटकर बहने के कारण नाम दूधी हुआ। कवि आनंद भी मार्कण्डेय की तरह दूधी और तवा की भी मानसिक परिक्रमा आकर लेते है:
“जर्जर गरूड़ की तपस्या के नुचे हुए पंख/नीचे उड़ रहे हैं/दूधी की धवल धार/मिल रही है . . तुममें ही नर्मदा!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, 82)
नर्मदा-तवा संगम के बारे में लिखते है:
“छोटी-छोटी धाराओं में बँटी हुई/अपने अस्तित्व से कटी हुई/बालू के घरों से भी निर्वासित/ठठरी-सी, राह से हटी हुई/फैलाए हुई कोस भर पाट/बिना घर-घाट/ताने हुए सबसे लंबा पुल/जिसका सब कुछ गया खुल/मिल तो रही हो नर्मदा से/लेकिन/उससे क्या लेकर मिलती हो/पानी या हवा? बोलो तवा!। प्रश्न यही करती हैं तुमसे/काली सिंध, पारबती, बेतवा?” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, 95)
होशंगाबाद के घोड़ासफील में नर्मदा देवी के वाहन मगरमच्छों से सावधान रहने की सलाह देते हैं:
“जल से परावर्तित प्रकाश की। टेढ़ी-मेढ़ी रेखा में। उथला दिखता है नर्मदा का पेंदा! घोड़ासफील घाट शान्त है: चाँदनी के शरद में/थोड़ा-सा चलें और गहरे। अधिक नहीं/जलों में भी होते हैं पहरे! रुको, रुको/डुबकी यहीं पर लगा लो/मकरासना नर्मदा/प्रकृति की त्रिगुणमयी शक्ति है/नियमों को मानो नहीं? फिर तुम ही जानो!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, 59)
यही नहीं, कभी-कभी परिक्रमा जानलेवा भी साबित हो जाती है, उसका उल्लेख अमृत लाल वेगड़ जी ने अपने संस्मरणों में किया है। ओड़िया कहानीकार जगदीश मोहंती की कहानी ‘सोन मछली’ में ‘चोर-बालू’ शब्द का उल्लेख आता है, इसी तरह यह शब्द ओड़िया भाषा के प्रसिद्ध कवि सच्चिदानंद राऊतराय की ‘अलका संयाल’ कविता में भी प्रयोग हुआ है:
कलिंग कटक से दूर इलायची द्वीप के बंदरगाह पर
मैं तुमको खोजते हुए चलता हूँ
तुम्हारे काले बालों की ख़ुश्बू सूँघते
सुदूर अनार द्वीप के पार आरी जैसी नुकीली काँच की बाड़ कूदते
तुम्हें बंधन-मुक्ति का उपहार देने
वादियों में, जंगल में, खोजा
सारे कारागार खोलकर देखे
मेरी बंदिनी तुम कहाँ हो?
खोज रहा हूँ काले घोड़े पर सवार होकर
किन्तु आज समय की चोरबालू पारकर
मैंंने तुम्हें मुर्दाघाट “नुअखाली” में छुपते पाया।
(अलका सांयाल, सच्चिदानंद राऊतराय)
मुझे यह मालूम नहीं था कि ‘चोर-रेता’ के नाम से हिन्दी में व्यवहृत हो रहा है, जिसका उदाहरण अमृत लाल वेगड़ की भाषा-शैली में भी झलकता है:
“वहाँ रेत है, नदी भी गहरी नहीं। वहीं दोनों भाई नहा रहे थे। इतने में छोटे भाई का पैर चोर-रेता में धँसने लगा। ज्यों-ज्यों वह निकालता, त्यों-त्यों अधिक धँसता। यह चिल्लाया, तो बड़ा भाई बचाने दौड़ा। इसी में डूब गया। विदिशा के इंजीनियरिंग कॉलेज के तृतीय वर्ष का छात्र था।
मौत की घड़ी कभी-कभी रात के चोर की तरह आती है और पलक झपकते ही अपने शिकार को ले जाती है।
आज तक हम रेत को सुरक्षित समझते थे। पर आज पता चला कि रेत में भी एक चोर-रेत होती है, जो अंदर से पोली होती है और प्राणलेवा हो सकती है। (बरमान घाट से साँड़िया, सौन्दर्य की नदी नर्मदा, पृष्ठ-66)
5. नेमावर
हंडिया और नेमावर से नीचे हिरन जल-प्रपात तक, नदी दोनों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस भाग पर नदी का चरित्र भिन्न दिखाई देता है। नेमावर में परशुराम ने अपने पिता ऋषि जमदग्नि के कहने पर फरसे से अपनी माँ रेणुका का सर धड़ से अलग कर दिया। माँ पर परशु प्रहार करने के अपराधबोध से वे इतने ग्रस्त हो गए कि उन्होंने पिता से प्रायश्चित क उपाय पूछा। पौराणिक प्रसंगों के अनुसार ऋषि जमदग्नि ने तब अपने परशुराम को जिस स्थान पर जाकर पापविमोचन तप करने का निर्देश उन स्थानों में नेमावर का परशुराम कुण्ड सर्वप्रमुख है। मेरे हिसाब से यह सबसे बड़ा कलंकित पौराणिक प्रसंग है, जिस पर विमर्श करना आवश्यक है। यह समय था त्रेता का प्रथम चरण जहाँ इतिहास अधोन्मुख हो जाता है, मनु संहिता लागू होने लगती है। मगर सृष्टि के गर्भ में समाए हुए अनेक रहस्य धीरे-धीरे हज़ारों सवाल हमारी वर्तमान पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करते है, उदाहरण के तौर पर:
1) क्या नारी को काम सम्बन्धित अपनी भावनाओं को प्रकट करने का या अनुभव करने का लेश मात्र भी अधिकार नहीं होना चाहिए? सरोजिनी साहू की कहानी ‘रेप’ में नायिका अपने पति को सपने में किसी दूसरे आदमी से यौन सम्बन्ध बनाने के बारे में कहती है तो वह उसके साथ ऐसा व्यवहार करने लगता है मानो किसी ने उसके साथ ‘रेप’ किया हो।
2) क्या वही वर्ग-व्यवस्था तत्कालीन समाज को नाश कर रही थी, जो आज भी विनाश का मुख्य कारण है? एक ब्राह्मण तथा क्षत्रिय से उत्पन्न संतान वर्ण संकर बनकर समाज संहारक बन सकती है? गीता का श्लोक “चातुर्वर्णय मया सृष्टि . . .” इस बात की पुष्टि नहीं करती?
3) क्या तत्कालीन समाज में एक राजा अपने स्वार्थ की ख़ातिर अपनी बेटी को किसी बूढ़े आदमी को दान कर अपने संस्कारी होने की दुहाई देता है? मनुसंहिता के अनुसार राजा को भगवान मानना उचित था?
कवि उद्भ्रांत ‘रेणुका’ कविता के माध्यम से यह साबित कर देते हैं कि जो समस्याएँ कलियुग में हैं, वे सारी समस्याएँ त्रेता युग में भी थीं, शायद कुछ ज़्यादा ही। देवदत्त पटनायक अपनी पुस्तक “इंडियन माइथोलोजी” में रेणुका के संदर्भ में एक कहानी के माध्यम से ऐसे ही कुछ विचार प्रस्तुत करते है। जब परशुराम अपनी माँ को कुल्हाड़ी लेकर मारने के लिए दौड़ रहा था तो वह अपने को बचाने के लिए एक निम्न जाति के परिवार में शरण लेती है। यह सोचकर कि उसका ब्राह्मण बेटा वहाँ प्रवेश नहीं करेगा, मगर ऐसा नहीं होता है, उसने न केवल रेणुका का सिर काटा वरन् उसको बचाने आई एक निम्न जाति की महिला का भी सिर काट लिया। जब परशुराम ने अपनी माँ को ज़िन्दा करने के लिए अपने पिता से वर माँगा तो उन्होंने अभिमंत्रित जल दिया, मगर उत्तेजनावश परशुराम ने निम्न जाति की महिला का सिर अपनी माँ के धड़ से जोड़ दिया और अपनी माँ का सिर दूसरी महिला के धड़ से जोड़ दिया। जमदग्नि ऋषि ने पहले वाले शरीर को स्वीकार किया और दूसरे शरीर को निम्न जाति के लोगों के पूजा-पाठ के लिए छोड़ दिया। जिसे ‘येलम्मा’ के नाम से जाना जाता है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रा के गाँवों में किसान ऊँची जाति वाले रेणुका के सिर की पूजा करते है। रेणुका और येलम्मा दोनों अपने पति द्वारा प्रताड़ना को प्रस्तुत करते हैं। ऐसी ही अंतर्वस्तु पर लिखे गए भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कृत नाटककार गिरीश कर्नाड के बहुचर्चित नाटक ‘हयबदन’ की याद नहीं आती?
नेमावर में परशुराम का कुंड तत्कालीन समाज में व्यभिचारिणी पत्नी पर अविश्वास, अपराध पर दंड की क्रूरता, उच्च जाति के हिंदुओं की कठोरता, निम्न जाति के हिंदुओं की नम्रता, संवेदनाओं और नैतिकता के उतार-चढ़ाव को प्रस्तुत करती है। यद्यपि यह कहानी संस्कृत साहित्य में नहीं दी गई है, मगर मनोविज्ञानियों द्वारा इसे अभी जोड़ दिया गया है। क्योंकि अधिकतर शक्तिशाली कथानक एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में मौखिक रूप से जाते हैं न कि शास्त्रों के द्वारा। रेणुका के सिर और धड़ की पूजा येलम्मा, एकवे और हुलिगम्मा के रूप में की जाती है। यह तीर्थ कुख्यात है और आजकल अवैध भी, क्योंकि यहाँ पर देवदासी के नाम से जवान लड़कियों को वेश्यावृत्ति के लिए बाध्य किया जाता है। परशुराम का यह संदर्भ तत्कालीन मनुष्यों में लूटपाट, चोरी जैसी लोक-प्रवृति को उजागर करता है। उदाहरण के तौर पर त्रेता में रावण ने सोने के हिरण के माध्यम से सीता को प्राप्त करना चाहा, कैकेयी ने अपने पुत्र के लिए अयोध्या का राजसिंहासन तथा कार्तवीर्य ने परशुराम के पिता जमदग्नि से नंदिनी गाय को प्राप्त करना चाहा। दूसरी बात, परशुराम की यह कहानी पितृसत्ता का बोध करती है जिसमें स्त्रियों तथा मवेशियों को सम्पत्ति के रूप में गिना जाता था। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में राजाओं और साधुओं के बीच में संघर्ष चला आ रहा था। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार परशुराम विष्णु का उग्र अवतार है जो नियम बनाता है, वह राम तथा कृष्ण से भिन्न है क्योंकि राम नियमों का पालन करते हैं तथा कृष्ण नियमों को तोड़ते हैं। परशुराम की कोई पत्नी नहीं थी, राम की एक पत्नी थी और कृष्ण की अनेक पत्नियाँ। परशुराम की माँ रेणुका, राम की पत्नी सीता तथा कृष्ण की सखी द्रोपदी को देवी के रूप में माना जाता है। इस तरह दोनों अवतारों में क्रमशः विकास हुआ है।
मगर महात्मा ज्योतिबा फूले ने अपनी पुस्तक “गुलामगिरि (1873)” में परशुराम को एक ब्राह्मण पुरोहित वर्ग का मुखिया तथा क्रूर क्षत्रिय बताया है जिसने इक्कीस बार क्षत्रियों को पराजित करके उनका सर्वनाश किया तथा उनकी अभागी नारियों के अबोध मासूम बच्चों का क़त्ल किया, इतने क़त्ल तो हिटलर ने भी नहीं किए होंगे। ब्राह्मणों ने चालाकी से अपने पूर्वजों के मान में कमी नहीं आने के लिए अवतार जैसा मिथ्या पात्र खड़ा किया है।
सारांश यह है कि नर्मदा तट का नेमावर ऐसे नए अध्याय की याद दिलाता है, जो न केवल अतीत वरन् वर्तमान समाज में उन मूल्यों पर गहरी बहस पैदा कर नए रास्ते का प्रतिपादन करने में समर्थ है। दामोदरन की ‘इन द लैंड ऑफ़ नर्मदा’ में परशुराम का सम्बन्ध केरल से जोड़ दिया। माँ की हत्या के पाप से छुटकारा पाने के लिए परशुराम ने केरल के समुद्री तट को मिट्टी से भरकर समतल भूमि तैयार की, और उस भूमि पर आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ। इस तरह नेमावर के पाप का प्रायश्चित केरल में हुआ।
6. ओंकारेश्वर द्वीप
कवि आनंद ओंकारेश्वर में नर्मदा के प्रवाह पर लिखते हैं:
“ऊँ की अर्धमात्रा जैसे तनी हुई/जल की व्याहृतियों पर तैरती/वनों की धुमैली रवहीन शान्त पृष्ठभूमि में/बादलों के नीलश्याम पट पर चित्रलिखित/धीरमना माता-सी बहती है नर्मदा” (सौन्दर्य जल में नर्मदा। 45)
यह वह जगह है, जहाँ नर्मदा का कावेरी के साथ क्रिस-क्रॉस संगम होता है यानी नर्मदा द्वीप के नीचे से ऊपर की ओर तथा कावेरी ऊपर से नीचे की ओर जाती हुई एक-दूसरे से मिलती है। इसकी कहानी पर थोड़ा विचार करें:
“मांधाता इक्ष्वाकु कुल में एक बड़े प्रतापी राजा थे। उनका लालन-पालन नर्मदा घाटी में हुआ था। तपस्या करने के लिए जिस पर्वत पर बैठे, वह ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित मंदिर वाला पर्वत ही है। जिसके पूर्व नर्मदा पहले दो फिर तीन भागों में बँटकर ॐ का निशान बनाते हुए प्रवाहमान है। वह ज्योर्तिलिंग ओंकारेश्व मांधाता नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह तो हुआ पुराण, इतिहास क्या है? भारत के विद्वान इतिहासविद जयचन्द विध्यालंकार ने पुराणों की काल गणना इक्ष्वाकु वंशीय राजाओं के आधार पर करके भारतीय इतिहास को जय मौलिक नज़रिया दिया है। पुराणों में उल्लेख आता है कि मांधाता जब राजा बने तब एक भील आदिवासी राजा लवणासुर से उनके युद्ध हुए थे, जिस पास शिव का वरदान स्वरूप दिया हुआ त्रिशूल था। मांधाता उसका वध नहीं कर सके थे। उसे बाद में राम के भाई शत्रुघ्न ने अश्वमेध यज्ञ के दौरान मारा था। ध्यान देने वाली बात है कि जितने भी दानव या राक्षस हैं, वह महिषासुर हो या रावण हो या भस्मासुर सबको वरदान और अस्त्र शंकर भगवान ने दिए हैं और वध विष्णु या उनके अवतार की सहायता से हुए। भैरव राक्षसों के देव थे और विष्णु आर्यों के। यहीं इतिहास बिंदु छुपा हुआ है। काल भैरव और काली अनार्यो के देव-देवी थे। सतपुड़ा के नंदी और उनकी सवारी और आभूषण थे। उनकी देवी नरबलि लेती थी और नरमुख की माला पहनती थी। खप्पर में रक्त इकट्ठा करके रक्तपान करती थी।”
ज्योतिर्मठ, गोवर्धन मठ, शृंगेरी मठ और द्वारिका मठ के संस्थापक शंकराचार्य ने ओंकारेश्वर में गुरु गोविंद पाड़ा के सानिध्य में वेद, उपनिषद और पुराणों की शिक्षा ग्रहण की थी। जिनकी पांडुलिपियाँ एक अंग्रेज़ विद्वान पार्टिज़र ने उज्जैन, इंदौर, महेश्वर और ओंकारेश्वर से संगृहीत करके अध्ययन किया और कहा था कि ये मानव सभ्यता की अनमोल धरोहर हैं। वे पांडुलिपियाँ लंदन म्यूज़ियम की शोभा बढ़ा रहीं हैं। नर्मदा को वैराग्य की नदी भी कहते है क्योंकि भर्तृहरि पूर्ण वैराग्य धारण करके ओंकारेश्वर की पहाड़ी पर अपने दस सेवक शिष्यों के साथ आश्रम बनाकर रहने लगे। वे वैराग्य धारण करके नर्मदा परिक्रमा करते रहे। उन्होंने चिंतन-मनन से निष्कर्ष निकाला कि जैनों का वीतराग और बौद्धों का अर्हत जैसा वैराग्य सिद्धांत सनातनों में दृष्टिगोचर नहीं है। उन्होंने वैराग्य-शतक की रचना करके अपने आठ शिष्यों को आठ दिशाओं में वैराग्य दर्शन का संदेश प्रचारित करने भेजा। बहुत बाद में बनारस के कबीरपंथियों ने भर्तृहरि का वैराग्य दर्शन पकड़कर निराकार ब्रह्म की ध्यान साधना से सतनाम पंथ की नींव रख दी। सतनामियों में भरथरी कथा गाने का चलन आज भी जारी है। भरथरी कथा में दो पात्र है। भरथरी और गोपीचन्द, जिनसे ये कथा शुरू होती है। राजा भरथरी और भान्जा गोपीचन्द। भरथरी की कथा बिहार, उत्तरप्रदेश, बंगाल में प्रचलित है।
7. महेश्वर:
कहते हैं कि महिष्मती नगरी के गुप्तेश्वर मंदिर में शंकराचार्य और मंडन मिश्रा का शास्त्रार्थ हुआ था। महिष्मती स्टडीज़ इंस्टीट्यूट के प्रमुख गिरिजा शंकर अग्रवाल ने अपनी पुस्तक ‘मंडला: एनसीएन्ट महिष्मती, आर्गयूमेंट्स, एविडेंस एंड प्रूफ़’ में मंडला को पुरानी महिष्मती बताया है, जबकि अन्य पुस्तक ‘हिस्ट्रीकल एंड आर्चियोलॉजीकल गाइड टू महेश्वर’ में लेखक बाबूलाल सेन महेश्वर को पुरानी महिष्मती बताते है। ख़ैर, हम मंडला और महेश्वर के चक्कर में क्यों पड़े! हमारा मुख्य मक़सद है नर्मदा के तटवर्ती शहरों के अतीत के गौरव से वर्तमान पीढ़ी को अवगत कराना है कि 1200 वर्ष पहले शंकराचार्य न केवल वेदों के महान भाष्यकार, टीकाकार, आधुनिक शब्दों में महान आलोचक थे, बल्कि वे प्रकांड पांडित्य वाले कवि, धर्मवेत्ता और आध्यात्मिक गुरु भी थे। उस समय मंडन मिश्र के तोते भी ‘कोहम’, ‘सोहम’ जैसे संस्कृत शब्दावली का प्रयोग करते थे। शास्त्रार्थ में महिलाएँ भी भाग लेती थीं, जैसे मंडन मिश्र की पत्नी शारदा (कुछ पुस्तकों में भारती) ने शंकराचार्य से कामशास्त्र के बारे में सवाल पूछे थे, उसके उत्तर के लिए उन्हें विदेह होकर अमरीक के राजा की मृत काया में प्रवेश करना पड़ा था। क्या ऐसे पवन स्थल महेश्वर को आप भूल सकते है!
यही महेश्वर खरगोन ज़िला में स्थित है जो कभी हैहयवंशी क्षत्रिय राज सहस्रार्जुन की राजधानी था, जिसने रावण को पराजित किया था। पौराणिक मान्यता है कि सहस्त्रार्जुन नर्मदा नदी के प्रवाह को अपनी एक हज़ार भुजाओं से रोक 500 रानियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था उसी समय रावण अपने पुष्पक विमान में आकाश मार्ग से वहाँ से गुज़रा, सूखी नदी के रेतीले स्थान को देखकर रावण की शिवपूजा करने की इच्छा हुई। जब से शिवलिंग बनाकर पूजा शुरू कर रहा था तब ही सहस्त्रार्जुन रावण बालू की जलक्रीड़ा समाप्त होने के कारण जल प्रवाहित होने से रावण की भंग हो गई। रावण-राजराजेश्वर सहस्त्रार्जुन में युद्ध हुआ जिसमें रावण के हार स्वीकार करनी पड़ी। राज-राजेश्वर सहस्त्रार्जुन ने उसे बंदी बना लिया। पुराणों में वर्णन है कि राज राजेश्वर सहस्त्रार्जुन की रानियाँ रावण के दस शीशों पर दीपक जलाती थीं क्योंकि दीपक राज राजेश्वर सहस्त्रार्जुन को अति प्रिय थे। आज भी महेश्वर में स्थित श्री राज राजेश्वर मंदिर में अखंड 11 दीपक पुरातनकाल से प्रज्वलित किए जा रहे हैं। आज भी श्रद्धालु के प्रसाद हैहयवंशी क्षत्रिय समुदाय साथ देशी घी अवश्य चढ़ाते हैं। श्री राज-राजेश्वर सहस्त्रार्जुन जी के वंश के लोग महेश्वर को तीर्थ स्थल मानते हैं। मेरा यह क़तई उद्देश्य नहीं है कि आपको हमारे पूर्वजों की मिथकीय या लोक-कथाएँ सुनाऊँ, आप भी परंपरा से हटकर नर्मदा की तरह विपरीत दिशा में चिंतन-मनन करने को पूरी तरह स्वतंत्र है।
8. शूलपाणि
भांग्रापाणि से 30 किलोमीटर दूर अस्तांबा ऋषि का पहाड़ है। स्थानीय लोग अश्वत्थामा को अस्तांबा कहकर बुलाते हैं। इस पहाड़ पर सिर्फ़ पुरुष जाते है, महिलाएँ नहीं। दीपावली के समय वहाँ ज्वार, मक्का, बाज़ारी, तुअर, उड़द आदि ले जाते हैं और वहाँ पूजा करके घर आकर दीपावली मनाते हैं। उनका मानना है कि शूल पाणि में आज भी अश्वत्थामा से परिक्रमावासियों की मुलाक़ात होती है। इसी दंतकथा को लेकर कवि आनंद अपनी कविता में लिखते हैं:
“रात की इन्हीं गहन नीरवताओं में/घूमता हुआ अश्वत्थामा की तरह/प्रान्तर में भटकता/इतिहास/खोजता है अतन्द्रित प्रेम का शरीर/एक पुरावृत्त से दूसरे वृत्तान्त तक। छलता है इतिहास दर्शन;। नहीं है शान्ति की सदिच्छा/ढूँढ़ता है दूहों में रात भर /मृत शरीरों में वंचना की आँख/और रुकी हुई धड़कन।” (सौन्दर्य जल में नर्मदा। 36)
लेकिन मेरा मानना है कि अश्वत्थामा से मुलाक़ात हो न हो, भीलों से अवश्य मुलाक़ात हो जाती है, जो परिक्रमावासियों लूट लेते हैं, यहाँ तक कि उनके सारे कपड़े भी उतरवा देते हैं। ऐसा ही ज़िक्र अमृत लाल वेगड़ जी ने अपने यात्रा-संस्मरण में किया है:
“रास्ते से जा रहे थे कि सामने से आते हुए एक वृद्ध दिखाई दिए। वेशभूषा से परकम्मावासी जान पड़ते थे। परकम्मावासी ही थे। मैंने पूछा, ‘आप उल्टे कैसे चल रहे हैं?’
उन्होंने कहा, ‘मेरी जिलहरी-परिक्रमा है। इस परिक्रमा में समुद्र को नहीं लाँघते। इसमें दोहरी परिक्रमा होती है।’
मैं चकित। पचहत्तर वर्ष की उम्र के ये वृद्ध, बिना किसी संगी-साथी के कैसी कठिन परिक्रमा कर रहे थे! मैं नतमस्तक हुआ। शूलपाण की झाड़ी में भीलों ने उन्हें लूट लिया था। चश्मा तक उतार लिया। उन्होंने भीलों से कहा कि मेरी आँखों में मोतियाबिंद है, यह चश्मा तुम्हारे किसी काम का नहीं, इसे मत लो, तो भीलों ने कहा कि हम इसे फोड़ डालेंगे, पर तुमसे तो ले लेंगे। कहने लगे, ‘तब से चलने में बड़ी दिक़्क़त होती है। ऊँचे-नीचे का सही अंदाज़ा नहीं हो पाता। कई बार गिर चुका हूँ।’
मैंने पूछा, ‘क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ? आपको कुछ पैसे दे सकता हूँ?’
उन्होंने कहा, ‘पैसे को में हाथ नहीं लगाता।” (सौन्दर्य की नदी नर्मदा, पृष्ठ-39)
इस तरह परिक्रमा कभी-कभी ख़तरों से ख़ाली नहीं होती।
9. भरूच
भरूच का असली नाम भृगुकच्छ है। स्कन्द पुराण के अनुसार यहाँ भृगु ऋषि कच्छप (कछुए) पर बैठकर आए थे। धीरे-धीरे जिह्वासुख के कारण उच्चारण भृगुकच्छ से भरूच हो गया। मकरई के नीचे, नदी बड़ोदरा ज़िले और नर्मदा ज़िलों के बीच बहती है और फिर गुजरात राज्य के भरूच ज़िला के समृद्ध मैदान के माध्यम से बहती है। यहाँ नदी के किनारे, सालों से बहकर आये जलोढ़ मिट्टी, गांठदार चूना पत्थर और रेत की बजरी से पटे हुए हैं। नदी की चौड़ाई मकराई पर लगभग 1.5 किमी (0.9 मील), भरूच के पास और 3 किमी तथा कैम्बे की खाड़ी के मुहाने में 21 किमी (13.0 मील) तक फैली हुई बेसीन बनाती हुई अरब सागर में विलीन हो जाती है। कवि आनंद ने नर्मदा के अरब सागर में इस महामिलन को निम्न शब्दों में पिरोया है:
“भरूच के समुन्दर में गिरती/नर्मदा के दोनों वन-कंटक पथ पार कर/पूरी कर परिक्रमा/थक गया है पथिक शरीर से/मन लेकिन भरपूर संतृप्ति की ऊर्जा से/चलता है गतिमान/भाषा द्रवों पर उछलता फेनिल/काँधे पर लिए हुए स्मृतियों के पाथेय/ढोता है परम्परा की काँवड़” (सौन्दर्य जल में नर्मदा। 33)
जिस तरह अमृत लाल वेगड़ मानते थे कि वह समय दूर नहीं, जब नर्मदा अपना सारा सौन्दर्य खो बैठेगी, अंधाधुंध विकास के नाम, बाँधों के नाम पर। इसकी पहले से उन्होंने यह भविष्यवाणी कर दी थी और नर्मदा के सौन्दर्य को शब्दों में पिरोकर और चित्रों में अंकित कर कालजयी बना दिया था। उनके शब्दों में:
“तो उस तट के पाठा, सहजपुरी, छेवलिया, बरहइयाखेड़ा; और इस तट के घाघी, झुरकी, बखारी, रोटो, पायली-तुम्हें जुहार! अब तो तुम थोड़े दिनों के मेहमान हो न? नर्मदा के लुभावने किनारों, तुम्हें भी अलविदा! और सौंदर्य-सरिता नर्मदा! तुम्हें भी अलविदा, क्योंकि यहाँ तुम भी तो उस विशाल झील में उसी तरह खो जाओगी, जिस तरह दूध के बरतन में पड़ती धारोष्ण दूध की धार खो जाती है!” (महाराजपुर से ग्वारीघाट (जबलपुर), सौन्दर्य की नदी नर्मदा, पृष्ठ-49)
आज वेगड़ जी हमारे बीच में नहीं है, मगर उनका कहा हुआ अक्षरशः सही है। जो कवि आनंद ने न केवल अपनी आँखों से देखा, बल्कि उस यथार्थ दृश्य को काव्य-भाषा में प्रस्तुत किया है:
“देह नदी की पावनता में गुँथी हुई है/असुन्दर कठिनता/तटों पर निर्विकार तटवासी/कर रहे हैं रस-पोषण/अपहृत वैभव के निरुत्तर शब्द पथिक/वनवासी/अधनंगे भूखे बच्चों को टाँगें हुए गोद में/सड़कों पर आकर फैला रहे हाथ/उधर अट्टहास कर रहे ट्रकों-ट्रैक्टरों पर/लादी जा रही है रेती/उत्खनन में और भीतर ही धँसती चली जाती है/आत्मा नदी की/उतराती दिखती है कुंजड़ों की खेती/ज़मीन में बिला गए नक्शे/काग़ज़ों से भी मिट रहे हैं चिह्न/टूट रहे धसक रहे पुल” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 81)
सन् 2017-18 में मध्य प्रदेश के पूर्व दिग्विजय सिंह और उनके दल ने अमृत लाल वेगड़ जी और आनंद जी के उपर्युक्त कथनों को सत्य पाया और अपनी पुस्तक ‘नर्मदा के पथिक’ में लिखा कि नर्मदा की स्थिति दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है। अगर हमने नदियों के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया तो वह दिन दूर नहीं, जब हम आने वाली पीढ़ी के लिए अनावृष्टि या प्रलय जैसा ख़ौफ़नाक मंज़र छोड़कर जाएँगे। भले ही, आज नर्मदा सदानीरा हैं। नर्मदा घाटी में जब तक जल-जंगल-ज़मीन-ज़मीर का एक मज़बूत रिश्ता है जब तक आदमी प्रकृति से जुड़े हैं, तभी तक आदमी स्वाभाविक रूप से स्वस्थ, समुद्र और सुखी हैं। जंगल से वर्षा, वर्षा से जल, जल से ज़मीन और इनको बचाए रखना हर इंसान के ज़मीर का हिस्सा होना चाहिए, अमृत लाल वेगड़ जी के पूर्ण समर्पण की तरह:
“माँ नर्मदे! बार-बार तुम्हारे तट पर आता रहूँगा। हो सका तो शेष परिक्रमा भी पूरी करूँगा। लेकिन लिखना यहीं समाप्त करता हूँ। हो, एक बात कहना चाहता हूँ। मैं तुम्हारे तट पर आता था, कई-कई दिन चलता था, फिर घर वापस आ जाता था। लेकिन एक बार ऐसा आऊँगा कि वापस नहीं जाऊँगा। हमेशा के लिए मीठी नींद सो जाऊँगा, तब थपकी देकर सुला देना। बस, यही एक आकांक्षा है, इसे पूरी करना माँ!” (सौन्दर्य की नदी नर्मदा, पृष्ठ-176)
<< पीछे : 2. नर्मदा नदी का प्रवाह आगे : 4. नर्मदा नदी का जनारण्य >>विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज
- विडियो
-
- ऑडियो
-