सौन्दर्य जल में नर्मदा (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
1. नर्मदा नदी की प्राचीनता
महागंभीर नीरपूर पापधूत भूतलं, ध्वनत्-समस्त-पातकारि-दरितापदाचलम्।
जगल्लयेमहाभये मृकण्डुसूनु-हर्मदे। त्वदीय पादपंकजं नमामि देवि नर्मदे॥4॥
महान् भयंकर संसार के प्रलयकार में महर्षि मार्कण्डेय को आश्रय प्रदान करने वाली हे नर्मदे! अत्यन्त गम्भीर नीर के प्रभाव से पृथ्वी तल के पापों को धोने वाले तथा समस्त पातक रूप शत्रुओं को ललकारते हुए विपत्ति रूप पर्वतों को विदीर्ण करने वाले तुम्हारे पादपद्यों को में प्रणाम करता हूँ। ॥4॥
नर्मदा पुराण के अनुसार नर्मदा एक ऐसी नदी है, जो कभी नहीं मरती है, प्रत्येक कल्प-कल्पांतर के क्षय होने के बाद भी बहती रहती है, इस वजह इसे ‘न मृता’ कहा जाता है यानी दूसरे शब्दों में ‘अमृता’। पुराणों के हिसाब से पाँच कल्प हमत् कल्प, हिरण्य गर्भ कल्प, ब्राह्म कल्प, पाद्म, वराह कल्प और चार महाप्रलय-पहला नित्य प्रलय, दूसरा आत्यन्तिक प्रलय, तीसरा नैमित्तिक प्रलय और चौथा प्राकृत प्रलय हुए हैं। ऐसे समय में पृथ्वी पर सारी नदियाँ गंगा, सरस्वती, कावेरी, सिंधु, सालकुटी, सरयू, शतरुद्रा, चंबल, गोदावरी, यमुना, पयोष्णी, ताप्ती, सतलज, महानद, सुरसा, कृताकृपा, मंदाकिनी, दशार्णा, चित्रकूटा, तमशा, विदिशा, रंजना, बालूवाहिनी आदि सूख गईं, पर्वतों के सातों कुल महेन्द्र, मलय, सय, हेमकूट, माल्यवान, विन्ध्य और पारियात्र—ब्रह्मांड के बारह सूर्यों से दग्ध होकर पृथक-पृथक बिखरकर जल गए, पर नर्मदा जी नहीं। इसी तरह, देव-गन्धर्वों से सेवित पर्वतराज हिमालय, हेमकूट, निषध, गंधमर्दन, माल्यवान्, पर्वत श्रेष्ठ नील और उच्च शिखर वाला श्वेत शृंग आदि सभी प्रलय काल की अग्नि से भस्मीभूत हो गये, पर नर्मदा तब भी ‘न मृता’। प्रलय और पूर्व कल्पों के भय का चिन्तन कर आज कलियुग में भी नर्मदा तट पर सारे देवताओं का निवास है। संबलपुरी कवि पद्मश्री हलधर नाग ने भगवान कृष्ण के जीवन पर आधारित अपने महाकाव्य ‘प्रेम पहचान’ में दो सौ से ज़्यादा ऐसे ऋषि-मुनियों के नाम दिए हैं, जिन्होंने नर्मदा तट पर तपस्या की और ऊर्ध्वगति को प्राप्त हुए। वे हैं:
एतश, उष्ना, शम्बरन, बबरू,
वर्षागीर, बेशी-अग्नि,
मेघातिथी, काण्व, काक्षीवन, क्षत्री,
पौरुकुस्त, जमदग्नि।
वैवस्वत मनु, रेज्रास्व, नुहुष,
प्रगाध, माधुछंदस,
सुरदास, भयमान कण्वघोर,
गाधिन दीर्घतामस-
दैवदासी लोपामुद्रा, गार्समद
शाक्य, कत्सी, आंगीरस,
रेमशा, औचाथ्य, कौशिक, शौनक,
शुनसेप, अग्निचाक्षुष।
शावर्णिक, शान्धामार्का, शुक्राचार्य
उपनयन, दयालु,
भाँड़, विभाँड़क, मृकुंडू, मार्कंड
कर्ण, कभंडी, कृपालु।
च्यवन, जालुक, भूत, सुमंतक,
गर्ग, पुलह, मातंग,
अकृत, कृतिका, तारक, दुर्वासा,
स्थूल, रैवत, उत्तंग।
विस्फोट, चार्वाक्य, अनघ, आदिक
सनातन, शुकदेव,
जाबाली, जनक, जान्हू, जैमिनी,
यजुर्वेद व्यासदेव।
आसुरिक, अंतरीक्ष, अमरिष,
लिप्त, जानुक, अगस्तय,
सुतीक्ष्ण, कोकिल, दरद, कुमुद,
कंडु, अंगिरा पुलस्त्य।
सुदेव, देवल, सुमति, नारद
कण्व, मंदर, स्वस्तिक,
मेरु, सावर्णिक, खणा, विरूपाक्ष,
रिभु, सनाका, आस्तिक।
दत्तात्रेय, वात्सायन, कीर्तिरथ,
कालिंजन, यदुशील
शंख, अनुष्टक, गाधि, अष्टावक्र,
बालखिल्य, पंचशील।
विश्रवा, तांदिल, घर्ट, अंतरिक्ष
अत्रि, मुदिल, नामुची
दर्शलोपा, स्वर्ण लोपा, तृणबिन्दु
शृंगी, मांडूक, प्रसुचि।
कृषंबाक, कृष्णंकुर, कुशध्वज,
कृपाजल, अवधूत,
रोमांच, मंथन, धौम्य, वीरसेन,
गार्ग्य, गगन, मरुत।
सुविज्ञ, सुजान, बरेहा, गोमत,
वामदेव, ज्ञानात्माक,
नृसंगु, अष्टांग, देवांग, रत्नांग
पंगुकल्प, कृष्णात्मक।
गौतम, वशिष्ठ, अथर्व, कश्यप
वैश्वायन, मधुकर,
कर्दम, घर्घरा, भार्गव, मैत्रेय
उद्दालक, पराशर।
काशपर्णी, व्योमकेश, धुंदूमार,
विरूपाक्ष, सदानंद
स्वराभंगा, बाजश्रवा, मंदपाल,
कुलदीप, सत्यानंद।
सहदेव, याज्ञवल्क्य, द्वैपायन,
वरतंतु, कात्यायन
ऋष्यशृंग, युल्पायन, भारद्वाज,
दधीचि, पिप्पलायन।
मरीचि, पर्वतसूतपा, रम्यक,
मेघदक्ष, वैखानश,
विश्वामित्र, वाल्मिक, अजमित्र,
धर्मात्मा, क्रतु, मेधस।
सुधीर, रुचिक, दुर्गायु, वादान्य,
मनसिज, निरंजन,
पाठा, त्वष्टा, चूली, मदन, अरुण,
सौभिर, अग्निभिमान।
संदीपनि, अर्बदक्ष, कुंभ, भृगु
बढू अग्निक, शमिक,
कौस्तुभ, निशाकार, परशुराम,
सनतकुमार, जम्निक। (प्रेम-पहचान, हलधर नाग)
कवि आनंद भी नर्मदा नदी के इस महत्त्व को नर्मदा सूक्त-27 में स्वीकार करते हैं। उनके शब्दों में:
“भृगु-गार्गेय-वसिष्ठ-कंक से लेकर अगणित ऋषिवर–मुनिगण
रेवा तट पर सिद्ध हो गये दुर्गम दिव्य धाम को पाकर!”
पुण्यजल वाली नर्मदा इन्द्रपुरी, अलकापुरी और अमरावती के समान सुन्दर, देव मन्दिरों सी मनोहर, आश्रमों से स्वर्ग में मन्दाकिनी गंगा के समान शोभित होती है। धावड़ा, तेंदू, पाटल, जम्बीर, अर्जुन, कुब्जशमी, केसर, किंशुक, पुन्नाग, नारियल, खैर, कल्प के सुगन्धित पुष्पों से भरे हुए वृक्षों, अनेकों जंगली जीवों से भरे हुए मृग-बिलावों से युक्त रीछ, हाथियों-चीतों से भरे हुए, फूलों से सुशोभित वन वाले पर्वतों के भागों से युक्त नर्मदा नदी की उत्पत्ति का स्थान गंगोत्री के समान पवित्र माना गया है। दोनों तटों पर सुन्दर मन्दिरों और स्थानों से शोभित है। जहाँ अग्नि में हवन हो रहे हैं। यज्ञ-धूम्र से भरे हुए तीर्थ स्थानों में जालेश्वर, अमरेश्वर, दारू, ग्रहमावर्त, पत्रेश्वर, अग्नि, रवि, मेघनाथ, केदार, नर्मदेश्वर, करन्जेश्वर, पिप्पलेश्वर, शूलभेद, आदित्येश्वर, शकेश्वर, करोडीश्वर, कुमारेश्वर, अगस्तेश्वर, आनन्देश्वर, मातृ, लुकेश्वर, घनद, गोतमेश्वर, शंख चूह, पारेश्वर, भीमेश्व, नागेश्वर, दधि स्कन्द, मधु स्कन्द, नन्दिकेश्वर, मंगलेश्वर, कामेश्वर, मणि नागेश्वर, गोपारेश्वर, बरुणेश्वर, हनुमन्तेश्वर, रामेश्वर, लक्ष्मणेश्वर, सोमनाथ, पिन्गलेश्वर, कपिलेश्वर तीर्थ, पूतिकेश्वर, जलाशायी, चन्हादित्य, नन्दिकेश्वर, नारायणी, कोटीघर, व्यास तीर्थ, प्रभाष तीर्थ, मार्कण्डेय, संकर्षण, मन्मथेश्वर, पुन्खिल तीर्थ, हिन्डमेश्वर, अमलेश्वर, श्री कपाल, ऋन्, आपाठी, एरन्डी तीर्थ, जामदग्न्य, लोटेश्वर, तिलादेश्वर, बासवेश्वर, कोटीश्वर, अलिकेश्वर, चरुकेश्वर, व्यतीपातेश्वर, वरुणेश्वर, सिद्धेश्वर, यमेश्वर, ब्रह्मेश्वर, विमलेश्वर आदि प्रमुख हैं। ओंकार पर्वत पर करोड़ों रुद्र स्थित है और अमरकण्टक पर्वत से समुद्र पर्यन्त नर्मदा के दोनों तटों में साठ करोड़ साठ हज़ार तीर्थ हैं। इसमें संशय नहीं है। वायु पुराण में श्री नर्मदा के तट पर अड़सठ करोड़ तिहत्तर हज़ार सात सौ तीर्थ बताये गए हैं। हमारी संस्कृति तो क्या, विश्व की प्रत्येक संस्कृति में सृष्टि के पंच महाभूतों की उत्पत्ति दिव्य स्रोत से मानी जाती है, भाषा की उत्पत्ति की तरह। ऐसी ही लोककथा नर्मदा की उत्पत्ति के संदर्भ में भी आती है:
“ब्रह्माजी के मुख्य मानस पुत्र अग्नि देव, जिन्हें वह्नि भी कहते हैं, परम धार्मिक ऋषि भी कहे गये हैं। उस अग्नि देव की दक्ष की पुत्री स्वाहा नामक पत्नी हुई। तब उस स्वाहा पत्नी में मुख्य तीन पुत्र हुए। आहवनीय अग्नि, दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि। गार्हपत्य अग्नि से दो पुत्र पद्मक और शंकु नामक उत्पन्न हुए। वे दोनों ही श्रेष्ठ अग्नि हैं। नदी के तीर में निवास करते हुए बड़े तप का आश्रय लेकर मन को वश में कर परम सावधान होते हुए अग्नि देव ने एक समय शंकर की आराधना की। दस हज़ार वर्ष तक अग्नि देव ने विशाल उग्र तप किया। तब प्रसन्न होकर महादेव उन अग्नि देव से बोले– महाभाग्य शालिन! तुम्हारे मन में जो हो, चाहे वह बड़ा दुर्लभ मैं तुम्हें दूँगा इसमें सन्देह नहीं।
अग्नि देव ने कहा, “हे शंकर भगवान्! यह महा पुण्य नदी नर्मदा तथा जो ये सोलह नदियाँ हैं, तुम्हारे अनुग्रह से वे मेरी धर्मपत्नी बनें, उन स्त्रियों से विचारे गये उत्तम पुत्रों को मैं उत्पन्न करूँ। महेश्वर देव! यही वर मुझे दीजिये।”
शंकर जी बोले, “वेद में प्रसिद्ध श्रेष्ठ नदियों विद्यमान विशाल नेत्रों वाली हैं ये सभी तुम्हारी पत्नी बनेंगी। इसमें संशय नहीं। यज्ञ में स्मरण किये गये अग्नि रूप वाले उनके पुत्र होंगे, जो प्रलय पर्यन्त यज्ञ में पूज्य और धिष्णय नाम से सुप्रसिद्ध होंगे। ऐसा कहकर महादेव वहाँ से अन्तर्धान हो गये और नदियों में श्रेष्ठ नर्मदा और अन्य नदियाँ कावेरी, कृष्णवेरी, रेवा, यमुना, गोदावरी, वितस्ता, झेलम, चन्द्रभागा, इरावती-रानी विपाशा, व्यास कोशिकी कुशी, सरयू, शत रुद्रिका, सतलज, क्षिप्रा, सरस्वती, आल्हादिनी और पावन ये सोलह नदियाँ अग्नि देव की स्त्रियाँ हुई। उन महा तेजस्वी अग्नि देव ने तब शीघ्र ही अपना विभाग कर पति के अभिचार से नर्मदा आदि घिष्णि नामक स्त्रियों से पवित्र पुत्र उत्पन्न किये वे सभी ‘ घिष्ण’ नाम से स्मरण किये गये हैं॥” (नर्मदा पुराण, पृष्ठ-83, बाईसवाँ अध्याय)
यही नहीं, नर्मदा उत्पत्ति के बारे में बहुत सारी दंत-कथाएँ प्रचलित हैं। किसी ने शिव के तांडव नृत्य के दौरान टपकी पसीने की बूँद से तो किसी ने उनके ध्यान के समय शरीर से बही पसीने से बनी नन्ही कन्या, जिसे शिव ने नर्मदा नाम दिया अर्थात् सभी को सुख देने वाली, हँसती-हँसती हँसाने वाली, आह्लादित करने वाली आयोनिजा कन्या, मगर संस्कृत में नर्मदा का एक और अर्थ है-(नृ+मनिन्), यानी कामकेलि में निपुण गंधर्व स्त्री या वेश्या। सतयुग में पहाड़ों से नदी तक का भू-भाग बारहों महीने पानी से भरा रहता था। घने जंगलों से वहाँ जलवायु बारह महीने नम रहती थी। इस कारण यहाँ की मृदा यानी मिट्टी भी नर्म होती थी। इस पूरे क्षेत्र में नम जलवायु के साथ नम मृदा यानी नरम मिट्टी रहती थी जिस पर पैदल चला जा सकता था। इस प्रकार नर्म + मृदा = नर्मदा इस नदी का नाम उन ऋषियों मुनियों के वाचन में आ गया। नर्मदा का उल्लेख कूर्म पुराण, मत्स्य पुराण, ब्रह्मांड पुराण, वामन पुराण, नारदीय पुराण और भागवत पुराण में मिलता है। नर्मदा एकमात्र नदी है जिसके नाम से अलग एक नर्मदा पुराण लिखा गया है। इससे सनातन सभ्यता और पौराणिक काल में नर्मदा की महत्ता प्रतिपादित होती है। वाल्मीकि रामायण में अमरकण्टक का उल्लेख किया है। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नर्मदा की एक नहर किसी सोमवंशी राजा ने निकाली थी जिससे उसका नाम सोमोद्भवा भी पड़ गया था। गुप्तकालीन अमरकोश में भी नर्मदा को ‘सोमोद्भवा’ कहा है। कालिदास ने भी नर्मदा को सोमप्रभवा कहा है। रघुवंश में नर्मदा का उल्लेख है। मेघदूत में रेवा या नर्मदा का सुन्दर वर्णन है। शिव-पुत्र कार्तिकेय का नाम ही स्कन्द है। स्कन्द का अर्थ होता है क्षरण अर्थात् विनाश। शिव संहार के देवता हैं। उनका पुत्र कार्तिकेय संहारक शस्त्र अथवा शक्ति के रूप में जाना जाता है। तारकासुर राक्षस का वध करने के लिए उसका जन्म हुआ था। ‘स्कन्द पुराण’ शैव सम्प्रदाय का पुराण है और अठारह पुराणों में सबसे बड़ा है। इसके छह खण्ड हैं: माहेश्वर खण्ड, वैष्णव खण्ड, ब्रह्म खण्ड, काशी खण्ड, अवन्तिका खण्ड और रेवा खण्ड। कुछ विद्वानों ने इसके सात खण्ड बताए हैं। किन्तु अधिकांश विद्वान छह खण्ड ही स्वीकार करते हैं। पुराणों के क्रम में स्कन्द पुराण का तेरहवाँ स्थान है। ‘वैष्णव खंड’ में जगन्नाथपुरी का और ‘काशीखंड’ में काशी के समस्त देवताओं, शिवलिंगों का आविर्भाव और महात्म्य बताया गया है। अवंतिकाखंड में उज्जैन के महाकालेश्वर का वर्णन है। अवन्तिका खण्ड को ही कुछ लोग ‘ताप्ति खण्ड’ और ‘प्रभास खण्ड’ में विभाजित करके सात खण्ड बना देते हैं। स्कन्द पुराण में इक्यासी हज़ार श्लोक हैं। इस पुराण का प्रमुख विषय भारत के शैव और वैष्णव तीर्थों के माहात्म्य का वर्णन करना है। उन्हीं तीर्थों का वर्णन करते समय प्रसंगवश पौराणिक कथाएँ भी दी गई हैं। बीच-बीच में अध्यात्म विषयक प्रकरण भी आ गए हैं। शिव के साथ ही इसमें विष्णु और राम की महिमा का भी सुन्दर विवेचन किया गया है। तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ में इस पुराण का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है। स्कन्द पुराण के रेवा खण्ड में स्कंद तीर्थ के विषय में मार्कण्डेय मुनि कहते हैं कि नर्मदा महानदी के दक्षिण तट पर यह तीर्थ अत्यन्त शोभायमान है। इस तीर्थ की स्थापना भगवान स्कन्द ने घोर तपस्या करने के उपरान्त की थी। स्कंद पुराण के अनुसार विष्णु ने 21 अवतार लिए, जिसमें से 20 अवतारों में मानव की हत्या की, तो उन्हें भी पाप लगा और उस पाप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें ज़रूरत पड़ी, शिव के सिर के पसीने से उत्पन्न हुई शिव-तनया नर्मदा की। किसी ने सूर्यकुल के इक्ष्वाकु वंश में राजा पुरुकुत्सु से तो किसी ने पौराणिक राजा पुरुरवा से तो किसी ने राजा दक्ष से तो किसी ने राजा हिरण्यतेजा से नर्मदा को स्वर्ग से लाने की कहानी जोड़ दी, तपस्वी भागीरथ द्वारा गंगा लाने के समान ही। दंत-कथा में बाल-कन्या नर्मदा का मैकल पर्वत पर लालन-पालन होता है, जिसे अपनी तरुणावस्था में उसे सोनभद्र से प्यार हो जाता है, मगर आधुनिक फ़िल्मों की कहानी की तरह बीच में आ जाती है जुहीला, नर्मदा की सहेली। आख़िर प्रेम-त्रिकोण नदियों में बदल जाता है, कभी न मिलने की क़सम खाकर। विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत शृंखलाओं के बीच में है मैकाल पर्वत, जिसका शिखर है अमरकंटक, समुद्र तल से 3400 मीटर। वहाँ के नर्मदा कुंड से निकलती है नर्मदा पश्चिम की तरफ़ और उससे 8 किलोमीटर दूर, पूर्व की तरफ़ बहता है सोन नद, जो पटना के पास सोनपुर में जाकर गंगा में आत्म-विसर्जन कर लेता है। बेचारी जुहीला, न घर की और न घाट की! नर्मदा और सोनभद्र की विफल प्रेम कहानी! कवि ने इस अधूरी अतृप्त प्रेम-कहानी को इस तरह प्रस्तुत किया है,
“जागती हुई निद्रित बसन्त में/उछलती/ निद्रा फूलों को खोंसे हुए कबरी में कामिनी/ श्लीला/रूप के दुकूल में फँसी हुई/तन्वंगी वनरम्या नर्मदा! खोजती है सोन को/ चुप चुप चुप चुप . . . करवटें बदलती” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 38)
क्या हमारे पूर्वजों ने नदियों के मानवीकरण कर तत्कालीन समाज की मानवीय संवेदना को उजागर करने और प्रेमी-प्रेमिका के अटूट संबंधों को दर्शाने के लिए प्रयोग किया? हाँ, आज भी किसी के भी वैवाहिक जीवन में अगर किसी तीसरे का हस्तक्षेप होता है तो उसका सारा परिवार बिखर जाता है, हमेशा-हमेशा के लिए, मगर अलग-अलग रास्तों पर चलकर जीवित तो रहा जा सकता है, मरने की बजाय, दूसरे शब्दों में तलाक़ लेकर ही सही। आधुनिक वैज्ञानिकों को इन पौराणिक और दंत कहानियों से कोई लेना-देना नहीं है, वे उन्हें केवल कपोल-काल्पनिक गप मानते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार अंतरिक्ष की उल्का-पिंडों के धरती पर टकराने से जल की उत्पत्ति हुई, जिन्होंने भौगोलिक स्वरूप के हिसाब से नदियों का रूप लिया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जल की उत्पत्ति के बारे में मैंने उद्भ्रांत जी की दीर्घ-कविता ‘अनाद्य सूक्त’ पर मेरी आलोचनात्मक पुस्तक ‘अनाद्य सूक्त: विज्ञानाध्यात्मिक दार्शनिक काव्य का अणु-चिंतन’ के एक स्पंद (अध्याय) में विचार-विमर्श किया गया है, जो इच्छुक पाठकों की जानकारी के लिए परिशिष्ट में जोड़ा गया है। जल पर अमृत लाल वेगड़ ने एक कविता लिखी, वह यहाँ दृष्टव्य है:
“पानी
जब समुद्र से आता है तब बादल
और जाता है तब नदी कहलाता है।
बादल उड़ती नदी है
नदी बहता बादल है!
बादल से वर्षा होती है।
वर्षा इस धरती की शालभंजिका है।
उसके पदाघात से धरती लहलहा उठती है!
और जब वर्षा नहीं होती
तब यही काम नदी करती है।
वर्षा और नदी-धरती की शालभंजिकाएँ।
विचार और कर्म (कल्पना और यथार्थ)
आत्मा की शालभंजिकाएँ हैं।
इनके पदाघात से आत्मा
पल्लवित-पुष्पित होती है!
बादल धरा पर उतरकर सार्थक होता है।
विचार कर्म में परिणत होकर कृतार्थ होता है।
(सौन्दर्य की नदी नर्मदा, पृष्ठ-131)
आज नर्मदा का एक किनारा वैष्णव है तो दूसरा किनारा शैव। विष्णु और शिव को जोड़ती है नर्मदा। जिसका हर पत्थर, हर कंकर में शंकर निवास करते हैं। ऐसे भी नर्मदा अविवाहित नदी है, ब्रह्मचारिणी है, इसलिए उसमें ओज है, तेज है, फिर भी पिता शिव को चिंता है। सारी नदियों का व्यतिक्रम है नर्मदा! जहाँ उसकी जाती-बिरादरी पूर्व की ओर बहती हैं तो वह उनसे सारे रिश्ते-नाते तोड़कर चल पड़ती है पश्चिम की ओर, मेढकों और मछलियों से पूर्ण, विविध पक्षियों से शब्दायमान, करोड़ों ऋषियों, सांख्याचार्यो, सिद्धों से सेवित, मगर विद्रोहिनी की तरह हुंकार भरती, तरंगों और भँवरों से लड़ती-झगड़ती, रव-रव की आवाज़ करती, कूदती-फाँदती। शायद तभी कहलाती है रेवा आज भी। मध्य प्रदेश का रीवा स्टेशन आज भी इस नाम की याद दिलाता है, अंग्रेज़ी में आज भी लिखते है ‘Rewa’। रीवा, सतना, शहडोल, उमरिया, सीधी और कटनी रेवाखण्ड कहलाते हैं। जिसके उत्तरमें काशी, दक्षिण में गोंडवाना, पूर्व में छत्तीसगढ़ की अंबिकापुर और रतनपुर और पश्चिम में पन्ना और बुंदेलखंड की रियासतें। जैसे मध्यप्रदेश भारत का भौगोलिक हृदय है, वैसे ही मध्य प्रदेश की जीवन-रेखा ‘नर्मदा’ भारत के उत्तर-दक्षिण की सीमा रेखा का कार्य करती है। जिस तरह हृदय का काम है प्राणी के दूषित ख़ून को शुद्ध कर शरीर के अंग-अंग तक पहुँचाना, वैसे ही विंध्याचल और सतपुड़ा की भ्रंश घाटी से निकलकर मानसून जल अपनी उतुंग शिराओं में भरकर, वनों की हरियाली में समाहित ऑक्सीजन मिलाकर विभिन्न नदियों-नहरों रूपी स्नायु-तंत्र की नसों के जाल से देश के अन्य हिस्सों को जीवन उपयोगी शुद्ध जल पहुँचा कर नर्मदा अपने नाम ‘सुखदा’ और ‘विशल्या’ को सार्थक करती है। कवि आनंद नर्मदा के इसी उद्गम को इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं:
“अनगढ़ दरदरे औघट घाटों के महाकाय वन में/अपार नीरवताओं की चंचल जलमाला/पड़ी है विन्ध्य और सतपुड़ा के बीच में/ ॐकारभरिता/सुखदा/ महार्णवा सरिता” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 39)
भूगर्भशास्त्री मानते हैं कि जब पृथ्वी वर्तमान आकार ले रही थी तब विंध्याचल और सतपुड़ा अस्तित्व में आने से पहले हिमालय का अस्तित्व नहीं था। पृथ्वी पर शीतकाल समाप्त होने के पश्चात ग्रीष्मकाल में समुद्रों का पानी तेज़ी से भाप में बदलना शुरू हुआ, तभी ऊपर की ताप ज़मीन के अंदर की ताप से मिली और पृथ्वी के भीतर उबलते लावा से परतदार चट्टानों में बदलाव के कारण अटलांटिक महासागर में अफ़्रीका से जुड़ा पृथ्वी का एक हिस्सा उत्तर-पूर्व की तरफ़ खिसकना शुरू हुआ, उसकी एशियाई प्लेट से टकराहट के कारण हिमालय का निर्माण हुआ फलस्वरूप तराई में गंगा का मैदानी भाग अस्तित्व में आया। भूगर्भ प्रक्रिया चालू रहने से सतपुड़ा एवं विंध्याचल पर्वत शृंखला हिमालय से पहले अस्तित्व में आई। यहीं पर विस्तृत घने जंगलों का साम्राज्य था, दंडकारण्य—जहाँ राम ने ताड़का का वध किया था और लक्ष्मण ने सूर्पनखा की नाक काटी थी। अगर ये दोनों पहाड़ नहीं होते तो गंगा नदी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल से बहाने के बजाय सीधी दक्षिण के पठार की तरफ़ चली आती और गंगा के तटीय मैदान पूरी तरह से बंजर हो जाते। कितना बड़ा उपकार है इन दोनों पहाड़ों का हम पर!
इसी तरह करोड़ों वर्ष पहले ताप्ती नर्मदा की सहायक नदी ही थी और बाद में भूगर्भीय उथल-पुथल से दोनों के मुहाने पर समुद्र के किनारों में भू-आकृति में बदलाव के फलस्वरूप ये अलग-अलग होकर समुद्र में मिलने लगीं। कुछ भी रहा हो परन्तु इस विषय पर भू-वैज्ञानिक आमतौर पर सहमत हैं कि नर्मदा और ताप्ती विश्व की प्राचीनतम नदियाँ हैं। इसलिए कवि आनंद नर्मदा को गंगा, गोदावरी, गोमती की बड़ी बहिन (दिदिया) कहकर पुकारते हैं:
“सुस्ताती हैं गंगा, गोदावरी, गोमती/देखती हैं हुलास से नर्मदा की ओर/जिसके चंचल जल में डूबी हुई त्रिजटा नदियाँ/पकड़ लेती हैं दिदिया के आँचल का छोर।” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 24)
गीता में युग की परिभाषा का विस्तृत उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार ‘सूक्ष्म काल’ को ‘परमाणु’ के नाम से जाना जाता है। उसके बाद उत्तरोत्तर बढ़ते हुए समय की शृंखला में अणु, त्रेषरेणु, त्रुटि, वेद, लव, निमेष, क्षण, काष्ठा, नाडिका के नाम से माना जाता है। फिर और आगे बढ़ने पर हम देखते हैं कि नाडिका से प्रहर, प्रहर से दिन, पक्ष, मास, अयन एवं वर्ष बनते हैं। वर्षों की समायावधि युग में बदलती है। एक चतुर्युग में सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग शामिल होता है, जिनकी अवधि वर्षों की इकाई में क्रमशः 4800, 3600, 2400, 1200 होते हैं। समय मापने की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती वरन् और आगे जाती है जिसके अनुसार एक सौ मानव वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के तुल्य होता है, 30 मानव वर्ष देवताओं के महीने के तुल्य, 360 मानव वर्ष को देवताओं का 1 वर्ष कहा जाता है और देवताओं के 12000 वर्ष अथवा 43, 20, 000 मानव वर्ष को ‘दिव्य युग/महायुग/चतुर्युग’ कहा जाता है। इस तरह सहस्र युग पर्यन्तम् अथवा युग सहस्रान्त का अर्थ एक हज़ार चतुर्युग की अवधि वाला समय है। गीता में दिये गए युग की परिभाषा का खंडन स्वामी दयान्द सरस्वती द्वारा रचित “ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका” के “वेदोत्पत्ति विषय” के अंतर्गत देखने को स्पष्ट तरीक़े से मिलता है। जिनके अनुसार एक वृंद, छियानवे करोड़, आठ लाख, बावन हज़ार नव सौ छहत्तर अर्थात् (1,96,08,52,976) वर्ष वेदों और जगत की उत्पत्ति को हो गए हैं और यह संवत् सतहत्तरवाँ (77वाँ) चल रहा है।
वर्तमान सृष्टि सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है, इससे पूर्व छह मनवंतर हो चुके हैं, स्वयम्भुव, स्वरोचिष, औत्वभि, तामस, रैवत, चाक्षुष। ये छह बीत गए है, सातवाँ वैवस्वत चल रहा है और सवार्ण आदि सात मन्वंतर आगे आएँगे। कुल मिलाकर चौदह मनवंतर होते हैं और एकहत्तर चतुयुर्गियों का नाम मनवंतर होता है। सो उनका गठन इस प्रकार से हैं कि सत्तरह लाख, अट्ठाईस हज़ार वर्षों का नाम सतयुग (17,28,000), बारह लाख छियानबे हज़ार वर्षों का नाम त्रेता (12,96,000), आठ लाख चौसठ हज़ार वर्षों का नाम द्वापर (8,64,000) और चार लाख, बत्तीस हज़ार वर्षों का नाम कलियुग (4,32,000) रखा है। यही नहीं, आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेकर एक वर्ष पर्यंत के काल को सूक्ष्म और स्थूल संज्ञाओं से बाँधा है और इन चारों युगों के तियालीस लाख, बीस हज़ार वर्ष होते हैं, जिनका चतुर्युगी (43,20,000) नाम है। एकहत्तर चतुर्युगी के अर्थात् तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हज़ार वर्षों की एक मन्वंतर (30,62,0000) की संज्ञा है और ऐसे ऐसे छह मन्वंतर मिलकर अर्थात् एक अरब चौरासी करोड़ तीन लाख बीस हज़ार वर्ष हुए और सातवें मन्वंतर के योग में यह अट्ठाईसवीं चतुर्युगी है। इस चतुर्युग के कलियुग के चार हज़ार नौ सौ छिहत्तर (4976) वर्षों का भोग हो चुका है और बाक़ी 4,27,024 का भोग होना बाक़ी है। जानना चाहिए कि 12,05,32,976 वर्ष वैवस्वत मनु के भोग हो चुके है और 18,61,27,024 वर्षों का भोग बाक़ी है।
एक हज़ार चतुर्युग का अर्थ एक ब्रह्मदिन और उतने ही चतुर्युग एक ब्रह्मरात्रि होती है। इसलिए ईश्वर सृष्टि उत्पन्न कर एक हज़ार चतुर्युग पर्यंत बनाकर रखता है और एक हज़ार चतुर्युग तक सृष्टि को मिटाकर रखता है, जिसे ब्रह्मरात्रि कह सकते हैं। ज्योलोजिकल टाइम स्केल के अनुसार सृष्टिक्रम को दो EON में बाँटा गया है। सबसे पुराना क्रिप्टोज़ोइक इओन (cryptozoic eon) जिसमें पृथ्वी निर्माण से छह सौ मिलियन वर्ष की समयावधि शामिल है। जबकि दूसरा phanerozoic EON है जिसमें छह सौ मिलियन वर्ष से आज तक का समय लिया जाता है। क्रिप्टोज़ोइक प्रिकेम्ब्रियन समय है जिसमें primitive plant, स्पांज प्रजाति तथा जेली फ़िश जैसे जानवरों का निर्माण हुआ। जबकि फनेरोज़ोइक EON में तीन युग आते हैं, Paleozoic, Mesozoic और Cenozoic। अगर तीन युगों को पीरीयड में बाँटा जाए तो पेलियोजोइक में पर्मियन, पेंसिल्वानियन, मिसीसिपीयन, डेनोनियन, स्केलिरियन, ओरडोविसियन, केब्रियन, तथा मेसोजोइक युग में क्रिटेशियस, केम्ब्रियन तथा मेसोजोइक युग में क्रिटेशियस, जुरैसिक तथा ट्राइसिक एवं सेनोजोइक में क्वार्टसरी व टर्शरी आते है। इस विभाजन के अनुसार करो मेगनन मेन की उत्पत्ति सेनोजोइक युग में होती है, जो आज से 60-65 मिलियन अर्थात् 600-500 लाख वर्ष पूर्व की बात है। जबकि ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के आकलन से 1960 लाख वर्ष पहले जगत और वेदों की उत्पत्ति हुई। अगर हम दोनों केलकुलेशनों का औसत अर्थात् 1280 लाख वर्ष को आता है। इसके हिसाब से 1280-120=1160 लाख वर्ष पूर्व त्रेता का प्रतिपादन हुआ था। जो कि प्राप्त साक्ष्यों के अनुरूप ग़लत ठहरता है, क्योंकि शोध के अनुसार रामायण के बारे में 4000-5000 वर्ष पूर्व के प्रमाण प्राप्त होते हैं। अगर विज्ञान की बात मानें तो रिचार्ड ओवरी की प्रसिद्ध पुस्तक “द कंप्लीट हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड” के अनुसार आधुनिक मनुष्य के पूर्वज होमीनीन की उत्पत्ति ग्लोबल कूलिंग की वजह से 50-60 लाख वर्ष पहले परिवेश में परिवर्तन होने के कारण मांसाहारी व सर्वाहारी प्राणियों के रूप में हुई। मनुष्य के प्राप्त जीवाश्मों पर के अध्ययन अनुसार Austrolopthesius, Homohabills, Homoerectous, Homoheidal bergenus तथा Homosapian (Motera human) आदि के परिवर्तनों में लंबी समयावधि लगी। पाँच मिलियन वर्ष से आधुनिक मनुष्य की खोपड़ियों में मस्तिष्क का आकार लगातार वृद्धि करता नज़र आ रहा है। Austrolopthecius मनुष्य में आधुनिक मनुष्य के मस्तिष्क आकार का एक तिहाई होता था। और अगर यू देखें तो DNA के अध्ययन के अनुसार आधुनिक मानव यानी होमोसेपियन की उत्पत्ति अफ़्रीका में डेढ़-दो लाख वर्ष पूर्व हुई। यद्यपि उनकी उत्पत्ति और विस्तार के बारे में अभी भी अनुसंधान कार्य शेष है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 28 हज़ार साल पूर्व मनुष्य जाति के रूप में होमोसेपियन ने जन्म लेकर विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली थी। और दस हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्य ने विश्व में कॉलोनी निर्माण का कार्य शुरू कर दिया था। अनेकों बर्फ़ युग की शृंखलाओं ने मनुष्य जाति को विविध वातावरण में बदलाव सहन करने के लिए सक्षम बना दिया था, मनुष्य ने शिकार करने के साथ-साथ खेती एवं पशुपालन करना सीख लिया था। कृषि की इस उत्पत्ति को “निओलियिक रिवोल्यूशन” कहा जाता है।
विश्व इतिहास के अनुसार कृषि पूर्वी यूरोप से होते हुए मेडिटेरियन कोस्ट तथा सेंट्रल यूरोप से होते हुए चार हज़ार ई.पू. तक ब्रिटेन में पहुँचकर वहाँ से बाल्टिक यूरोपियन रशिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली। भारत विश्व-इतिहास की सबसे प्रमुख पुरानी सभ्यता है, जो सभ्यता सिंधु नदी के किनारे पल्लवित हुई, मोहनजदड़ों और हड़प्पा में, अगर देखा जाए तो नर्मदा घाटी की सभ्यता तो उससे बहुत ज़्यादा पुरानी है। सिंधु घाटी की संस्कृति तथा वैदिक संस्कृति ने परवर्ती भारतीय समाज को विकास का आधार बनाकर मुख्य धार्मिक प्रणालियों में जैसे हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि को जन्म दिया, जबकि नर्मदा घाटी द्रविड़ियन, गोंड और भील आदिवासियों की संस्कृति बनी रही। यद्यपि भारत के उस इतिहास के बारे में बताना अत्यंत ही कठिन है, मगर पुरातत्व विज्ञान के अनुसार तत्कालीन सामाजिक जीवन के बारे में यह अवश्य कहा जा सकता है कि 1200 ई.पू, के बाद की शताब्दियों में वेदों का निरूपण हुआ होगा, मगर 5वीं शताब्दी तक वेद लिखित रूप में सामने नहीं आए थे, जबकि गंगा के ऊपरी भागों में इण्डो आर्यन सेटलमेंट स्थापित हो रहे थे, तब तक वेदों में नर्मदा का कहीं उल्लेख नहीं था।
जवाहर लाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक “विश्व इतिहास की झलक” के अनुसार भारत के प्रारंभिक इतिहास का अध्ययन हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि आदि आर्य (इण्डो आर्यन) ने कभी भी इतिहास लिखने में ध्यान नहीं दिया, मगर उन लोगों के रचे गए ग्रंथ वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत उनकी उत्पन्न कृतियाँ है। इन ग्रंथों के अध्ययन से हमें भले ही, अपने पूर्वजों के रीति-रिवाज़, रहन-सहन और सोच-विचार करने के ढंग का पता चलता है, मगर यह इतिहास नहीं है। संस्कृत में वास्तविक इतिहास की पुस्तक कश्मीर के इतिहास पर है, लेकिन वह बहुत पुरातन ज़माने की है, उसका नाम है ‘राज तरंगिणी’। इसमें कश्मीर के राजाओं का सिलसिलेवार हाल का वर्णन है और यह कल्हण की लिखी हुई है। इस जानकारी से हमारे मन में एक सवाल अवश्य उठता है कि क्या रामायण अथवा महाभारत के पात्र आर्यों के वंशज थे या किसी दूसरी सभ्यता के पुरोधा थे यह भी तो हो सकता है हम उन पुराने लोगों के ठेठ वंशज हैं जो उत्तर पश्चिम के पहाड़ी दर्रों से होकर उस लहलहाते हुए मैदान में आए जो कालांतर में जंबुद्वीप, ब्रह्मवर्त, आर्यावर्त, भारतवर्ष तथा हिंदुस्तान कहलाया। क्या नर्मदा हड़प्पा और मोहन-जो-दड़ो से पूर्व की है अथवा बाद की? क्या जिस युग में वाल्मीकि ने रामायण लिखी, उस युग में नर्मदा को किस माँ से पुकार जाता था? क्या रामराज्य से पूर्व वेदों की रचना हो चुकी थी? शायद धीरे-धीरे इस धर्म में अश्वमेध, पशुबलि, बहु-विवाह, औरतों पर अत्याचार जैसी कई कुरीतियों का समावेश हो गया था।
स्वस्तिक सृष्टि-चक्र को चार बराबर भागों में बाँटता है—सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग । सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य सामने आते हैं और इन दो युगों की सम्पूर्ण सुखपूर्ण सृष्टि में पृथ्वी-मंच पर एक “आदि सनातन देवी देवता धर्म वंश” की ही मनुष्यात्माओं की भूमिका होती है और अन्य सभी धर्म-वंशों की आत्माएँ परमधाम में होती हैं। अतः इन दो युगों में केवल इन्हीं दो वंशों की ही मनुष्यात्माएँ अपनी-अपनी पवित्रता के अनुसार नम्बरवार आती है इसलिए, इन दो युगों में सभी अद्वेत पुर निर्वैर स्वभाव वाले होते हैं। प्रजपिता ब्रह्मा तथा जगदम्बा सरस्वती, जिन्हें ही “एडम” अथवा “इव” अथवा “आदम और हव्वा” भी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका हैं। क्योंकि इन्हीं द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते हैं। कलियुग के अंत और सतयुग के आरंभ का यह छोटा सा संगम, अर्थात् संगमयुग, जब परमात्मा अवतरित होते ंहै, बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। विश्व के इतिहास और भूगोल की पुनरावृत्ति चित्र में यह भी दिखाया गया है कि कलियुग के अंत में परमपिता परमात्मा शिव जब महादेव शंकर के द्वारा सृष्टि का महाविनाश करते हैं तब लगभग सभी आत्माएँ मुक्तिधाम वापस लौट जाती हैं और फिर सतयुग के आरंभ में इस सृष्टि-मंच पर आना शुरू कर देती हैं।
उपर्युक्त मिथकीय दृष्टिकोण से परे जाकर भू-विज्ञानियों ने विंध्य पर्वत आयु 120 करोड़ वर्ष और सतपुड़ा पर्वत श्रेणी की आयु 100 करोड़ वर्ष आँकी है, जो वैवस्वत मनु के बीते हुए 12,05,32,976 वर्षों से मेल खाती है। शाहपुरा निवास व डिंडोरी के नज़दीक घुघुवा राष्ट्रीय उद्यान पशुओं के जीवाश्म संगृहीत किए गए हैं, जिससे नर्मदा घाटी में प्रागैतिहासिक अस्तित्व का पता चलता है। उसमें पुरातत्व विभाग को नर्मदा घाटी के विभिन्न स्थानों पर पाषाण युग के कई उपकरण मिले हैं, उससे इस इलाक़े में आदिमानव की गाथा की पुष्टि होती है। सतपुड़ा की पहाड़ियों में एक झुनझुनू महल है उसके शैल-चित्रों में पत्थर के हथियारों की आकृति पशु-पक्षियों के शिकार करते हुए मानव के रूप में देखी जा सकती है। पंचमढ़ी की गुफाएँ, अब्दुल्लागंज के नज़दीक भीमबैठका और विदिशा के पास उदयगिरी गुफाओं में आदिमानव की चित्रकारी व अवशेष नर्मदा घाटी में आदिम काल से मानव जीवन की पुष्टि करते हैं। उस समय नर्मदा घाटी में डायनासोर घूमा करते थे। डॉ. प्रियंका घोष की ‘डिस्कवरी ऑफ़ डायनासोर फॉसिल्स एंड नेचुरल हिस्ट्री ऑफ़ डिंडोरी’ में जबलपुर से 150 किलोमीटर दूर डिंडोरी के मुकुतपुर में डायनासोर के अंडों के मिलने का उल्लेख हैं, जो मटके की तरह गोलाकार है। इस वजह से हलहलधारा गाँव वाले उन्हें मटका पत्थर कहते हैं और शिव मंदिरों के तोरण द्वार बनाने के लिए एक के ऊपर एक सजाकर उन्हें रखते थे। वहाँ डायनासोरों के पाँवों के निशान भी मिलते हैं, जिन्हें गाँव वाले देवी के पद-चिह्न मानते थे। जूरैसिक युग में यहाँ Branchiosaurus, Jainosaurus, stegosaurus, lettersaurus आदि डायनासोरों की प्रजातियाँ पाई जाती थीं। नर्मदा घाटी में मौजूद चट्टानों की बनावट और डिंडोरी में पाए गए शंख, सीपियों व अन्य मॉलस्कों जैसे Gastropda, corbicula, bryozoans, shell आदि समुद्री जीवाश्मों की बड़ी संख्या में मिलने से यह तथ्य उजागर होता है कि यहाँ समुद्री खारे पानी की उपस्थिति थी। यहाँ मिले वनस्पतियों के जीवाश्मों में खारे पानी के आस-पास उगने वाले पेड़-पौधों के सम्मिलित होने से यह धारणा भी पुष्ट होती है कि 200 लाख साल पहले नर्मदा की इस भ्रंश घाटी में अरब सागर के घुसने से बनी खारे पानी की दलदली झील जैसा था। उस समय अरब सागर का जल अमरकंटक की तलहटी तक पहुँचता था, जो अमरकंटक से नर्मदा के वर्तमान उद्गम पर प्रश्नचिह्न लगाता है। नर्मदा पुराण से भी ज्ञात होता है कि नर्मदा नदी का उद्गम स्थल प्रारंभ में एक अत्यन्त विशाल झील के समान था। यह झील संभवतः समुद्र के खारे पानी से निर्मित झील रही होगी। कवि आनंद ने इन वैज्ञानिक तथ्यों की सविस्तार जानकारी होने के कारण ही डायनासोरों के अंडों को पत्थर के अंडों ही संज्ञा दी है और जूरैसिक युग की हिडिंबा के पूर्वजों से तुलना की है:
“नर्मदा की धारा के दोनों तट। शताब्दियों से ढोते रहे हैं। आदिम मनुष्यों की इच्छाएँ। संघर्ष, कोलाहल, किटकिटाहटें, आदिम भय/वह बेपरवाह अकेलापन/जहाँ लेटी हैं अब भी पहाड़िया में जंगली गुफाएँ/हिडिम्बा के पूर्वजों के गण्डे। जमकर हो गये हैं पत्थर/ अलम्बुषा की पीठ पर पड़े हैं/पत्थरों के अण्डे” (सौन्दर्य जल में नर्मदा:16)
यही नहीं, उन्होंने जयशंकर प्रसाद के ‘कामायनी’ के मनु और श्रद्धा की तरह एक सृष्टि के शुरूआत में आदिम वन-कन्या की नर्मदा घाटी में होने की कल्पना की है। उन्हीं के शब्दों में:
“सम्भव है किसी छोटी-सी साँवली चट्टान की चमक में/आदिम वनकन्या की पथराई आँखों की/चमकीली पुतली हो/और किसी पत्थर में नर्मदा के जल में पथराया/तैरता हो किसी एक वनपुरुष का प्यार/ रेतीले जल में बहती खर धार/ शायद किसी आदिम युवक के हाथों से/ छूटी कली हो” (सौन्दर्य जल में नर्मदा:16)
विंध्यांचल की कैमूर पर्वत शृंखला रीवा, सतना, पन्ना, छतरपुर, दामोह, सागर, रायसेन, सीहोर, देवास, इंदौर, झाबुआ ज़िले से होती हुई गुजरात तक पहुँचती है। यह शृंखला नर्मदा नदी को उसकी आठ सहेलियों से मिलाती है और सतपुड़ा से मिलती नौ सहेलियाँ। नाम कितने अजब-गजब। अगर उत्तर से सहायक नदी ‘हिरण’ मिलती है तो दक्षिण से मिलती है ‘शेर’। कहीं दूध की तरह साफ़ मिलती है सहायक दूधी नदी, तो कहीं ‘शक्कर’। इसी तरह कहीं तवा है, कहीं छोटा तवा है, कहीं हथिनी है, कहीं उँटी है, कहीं बंजर है तो कहीं चंद्रकेशर। ये 17 बड़ी नदियाँ नर्मदा के जल को समृद्ध करती है, बरसाती नाले और अन्य छोटी-मोटी नदियों को छोड़कर। इन सारी नदियों का जल पहुँचता है ओंकारेश्वर, ओम की आकृति वाले द्वीप के चारों ओर। जिस तरह पृथ्वी पर 75 प्रतिशत जल है, उसी तरह हमारे शरीर में भी 75% जल है यानी जल ही जीवन है। इसी वाक्य पर अमृत लाल वेगड़ जी की कविता उल्लेखनीय बन पड़ी है।
“पृथ्वी पर तीन भाग जल
और एक भाग थल है।
हमारे शरीर में तीन भाग जल
और एक भाग हड्डी है।
बिल्कुल वही अनुपात!
हमारा हृदय धड़कता है
समुद्र गरजता है।
समुद्र का गर्जन
कहीं धरती के हृदय की धड़कन तो नहीं!
माना कि समुद्र का पानी खारा है
पर हमें तो वह मीठा पानी ही देता है!
बादल से खारा पानी तो नहीं बरसता!
शबरी की तरह चख चखकर
हमें तो वह मीठे बेर ही देता है!
समुद्र शबरी, धरती राम
जुग जुग की कहानी अविराम!
(सौन्दर्य की नदी नर्मदा, पृष्ठ-156)
अमृत लाल वेगड़ अपनी पुस्तक ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ में लिखते हैं:
जल शुद्ध तो जीवन शुद्ध। विंध्याचल और सतपुड़ा के जंगल और पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का शुद्ध जल ही नर्मदा के जीवनदायी तत्वों से भरपूर बनाता है और अगर देखा जाए तो आज नर्मदा गंगा और यमुना से ज़्यादा शुद्ध है। प्रज्ञा की नदी गंगा तो सबसे ज़्यादा प्रदूषित है, आज नहीं कई सालों से, बचपन में गंगा-शुद्धिकरण पर बनी फ़िल्म मैंने देखी थी ‘राम तेरी गंगा मैली’। अनेक ‘गंगा एक्शन प्लान’ बने, मगर गंगा मैली की मैली। इसी तरह प्रेम की नदी कालिंदी (यमुना) भी सबसे ज़्यादा प्रदूषित हैं। इन दोनों नदियों में दिल्ली, आगरा, मथुरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी के जानवरों और मनुष्यों का मल, उनकी लाशें और औद्योगिक विसर्जन मिलता हैं। यही नहीं, नदियों के रास्ते में रुकावट पैदा कर कुकुरमुत्तों की तरह विकास के नाम पर हो रहे तरह-तरह के निर्माण कार्य जल-प्लावन को आमंत्रित कर रहे हैं, जगह-जगह बाँध बाँधे जा रहे हैं। आज दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा अगर डूब रहा है तो मानवीय लोभ-लिप्सा के कारण, नहीं तो, नदियाँ अपने रास्ते से ही गुज़र रही थीं। अचानक प्रकृति ने क्यों रौद्र रूप धारण कर दिया? इस ख़तरे से कवि आनंद ने सचेत करवाया है:
“बाँध बनाकर अभियन्तागण रोक रहे हैं उस अनन्त को/ जो करुणा से आप्लावित हो धारण करता सृष्टि मात्र को;। अवरोधित कर एक अनामय विप्लवमान तरंगिणी रेवा/जड़ता की विद्युत धारा को मात्र स्वार्थ से खोज रहे हैं! भोग स्वार्थ की तत्परता विस्मृत कर संस्कृति के सम्बल/ऊर्जा का व्ययकर अनात्म वे बिजली का रोना रोते हैं!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा: 55)
अचानक जलवायु और ऋतु-चक्र में क्यों परिवर्तन होने लगा? भले ही, आज नर्मदा के किनारे ऐसा कोई बड़ा महानगर नहीं है। केवल मंदिर ही मंदिर हैं और तीर्थ ही तीर्थ हैं। इस वजह से कुछ हद तक नर्मदा की शुद्धता बनी हुई है। जल-प्रदूषण का स्तर उतना ज़्यादा नहीं बढ़ा, लेकिन आख़िर कब तक इसे रोक पाएँगे? मनुष्य के लोभ-लालच के सामने अब वह दिन दूर नहीं, जब नर्मदा भी प्रदूषित नदियों में गिनी जाएगी। नर्मदा देवी का वाहन मगरमच्छ की प्रजातियाँ भी आज विलुप्त होने के कगार पर हैं। ऐसी अवस्था में नर्मदा नदी में फेंके जाने वाले अवशिष्ट पदार्थों और मृत साधुओं की मुँह में दग्ध अंगार भरी लावारिस लाशों को कौन खाएगा? प्रसिद्ध अंग्रेज़ी उपन्यासकार गीता मेहता के उपन्यास ‘रिवर सूत्र’ में सांसारिक दुखों से छुटकारा पाने के लिए एक अपहृता अवसादग्रस्त लड़की के अमरकंटक के पहाड़ों में बने ‘सूसाइड पॉइंट’ से नर्मदा नदी में ऊँचाई से गिरकर आत्महत्या करने की घटना का उल्लेख आता है, मगर फिर भी उसकी माँ मानती है कि उसके सारे गुनाह नर्मदा नदी में धुल जाएँगे। मुझे याद आ गया कि ठीक ऐसी ही धारणा का ओड़िशा के जगन्नाथ मंदिर में भी प्रचलन था, जब पुरी के बड़-डाँड (मुख्य मार्ग) पर जगन्नाथ जी की रथ-यात्रा चलती थी तो आर्तप्राणी रथों के भारी भरकम पहियों के नीचे आकर अपनी मृत्यु का वरण करते थे—यह सोचकर कि जगन्नाथ भगवान उन्हें अपने लोक में ले जाकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति प्रदान करेंगे। आधुनिक युग में कितना हास्यास्पद लगता है ये सब! पंडों और पाखंडियों ने धर्मभीरु साधारण जनता को अपनी आस्था के केंद्र में लाकर उनमें ऐसा सम्मोहन पैदा कर देते थे कि दुख सहने में अक्षम निस्सहाय प्राणी मोक्ष के लालच में रथों के पहियों के नीचे घुसकर मरना पसंद करते थे। ठीक इसी तरह कभी नर्मदा नदी के तट पर बने काल-भैरव मंदिर में अपने जीवन से दुखी लोग नर्मदा नदी के पुल से पथरीले चट्टानों पर कूदकर अपना जीवन त्याग देते थे। नारियल के फूटने की तरह नरमुंड फूटकर ख़ून के फव्वारे निकलते थे तो काल-भैरव प्रसन्न होकर उस दुखी प्राणी को मोक्ष प्रदान कर देते थे। पता नहीं, भारतीय धर्मों में या विश्व के धर्मों में मोक्ष का कांसेप्ट कहाँ से आ गया? एक ऐसा काल्पनिक शब्द—जिसे पाने के लिए अनगिनत लोगों ने अपनी जानें दे दीं। ऐसी अवस्था में समाज में आध्यात्मिक, पारिस्थितिकी और भौतिक विकास के बीच संतुलन कैसे बनेगा? यह संतुलन बिगड़ने पर क्या हम गंगा को कनखल में, सरस्वती-यमुना को कुरुक्षेत्र में, ग्राम व वन सर्वत्र बहाने वाली नर्मदा परम पुण्य देने वाली मान सकते हैं, जो जन-धन की क्षति करने पर तुली हुई है? क्या आपको मिथ्या नहीं लगेगा कि जब आपसे कोई कहेगा सरस्वती नदी का जल तीन दिनों में, यमुना का जल सात दिनों में तथा गंगा का जल उसी समय पवित्र करता है, जबकि नर्मदा का जल-दर्शन मात्र से, जबकि इन नदियों का प्रदूषित जल पीने से आप अनेक उदर रोगों से बीमार हो जाएँगे। यही वजह है कि आज बाज़ार में हर जगह बिसलेरी का बोतलबंद पानी धड़ल्ले से बिक रहा है।
जब तक मानव के प्रदूषणकारी जघन्य अपराध से नर्मदा अछूती है, तब तक कम से कम हमें सौन्दर्य की नदी नर्मदा की परिक्रमा अवश्य कर लेनी चाहिए। भौगोलिक न सही तो शब्द-यात्रा ही सही। शरीर से न सही, मन से ही सही। कवि आनंद ने इस काव्य-संग्रह में प्रेम और प्रार्थना के गीत लिखे हैं, जबकि अधिकांश साहित्यकार नर्मदा में सौंदर्य देखते हैं, अध्यात्म देखते हैं, शिवत्व देखते हैं, वैराग्य देखते हैं, समृद्धि देखते हैं, मगर प्रेम? क्या उनकी प्रेम कविताओं का आधार रेवांचल की लोक-कथाएँ है? उस परिवेश को कवि आनंद अपने शब्दों में पिरोते हैं:
“नितान्त प्रेमास्पद वन गाथाओं में/शताब्दियों से ढोती हुई जल/लोकमन का/ अकेली ही चलती है नर्मदा/ उछलती है नर्मदा!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा:42)
वह दिन दूर नहीं है जब अतिवृष्टि और अनावृष्टि से सम्पूर्ण पृथ्वी के विनष्ट होने पर, चर-अचर सब समाप्त हो जाने पर युग की व्यवस्था छिन्न-भिन्न होते ही सभी अचेतन एवं हाहाकार करते हुए समाप्त हो जाएँगे। ऐसी भयावह स्थिति में करोड़ों ऋषियों से पूजित श्रेष्ठ नर्मदा नदी शेष रह पाएगी? उसकी पुण्यता, पवित्रता और रमणीयता ख़त्म हो जाएगी। उस समय लता विहीन सारा भूमण्डल अवर्षण से अत्यधिक पीड़ित होगा। भूख-प्यास से पीड़ित हज़ारों की संख्या में लोग मरने लगेंगे। जब हवन का स्वाहाकार एवं स्वधाकार नष्ट हो जाएगा। प्रलय आँखों के सामने होगा। जिस प्रकार धोंके जा रहे अंगारों से लोहा रात्रि में जल रहा होगा, उसी प्रकार प्रलय काल की प्रदीप्त संवर्ताग्नि से यह सब जलने लगा। उस समय यह पृथ्वी, वृक्ष, तृण, नदी, निर्झर, तालाब तथा पर्वतों से रहित होकर कछुए की पीठ के समान दिखाई देने लगेंगे। सम्पूर्ण चेतन जगत् को ज्वालाओं से व्याकुल कर महारुद्र रूप धारी भगवान शिव तीसरा नेत्र खोलने लगेंगे। उनके नेत्रों की अग्नि की धधकती ज्वालाओं के सामने कौन टिक पाएगा? हमें क्या करना चाहिए? कहाँ जाएँ? हमारा रक्षक कौन होगा? ऐसी अवस्था में नर्मदा जैसी नदियाँ ही हमारी रक्षा करेगी। हमारी और हमारी पीढ़ियों की रक्षा के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमारे पूर्वजों ने नर्मदा जैसी नदियों की पूजा की थी और हमें भी विरासत में ये संस्कार दिए हैं। नर्मदा नदी की पहली परिक्रमा करने वाले प्रकृति-प्रेमी मार्कण्डेय ऋषि ने नर्मदा पुराण में लिखा है:
“भृगु आदि सात मेरे पितामह जो प्रथम हो चुके हैं और पवित्र मुस्कराहट वाली मेरी पत्नी सौभाग्यवती द्यौमणी और मेरी माता मनस्वती तथा भार्गव आगंगिरस, पुलस्त्य, पुलह वशिष्ठ, अग्नि नन्दन काश्यप, तथा महाभाग्यशाली नियम व्रत का आचरण करने वाले अन्य सैकड़ों हज़ारों महर्षि यहाँ सिद्धि पा चुके हैं। इससे यह भगवती नर्मदा सदा ही सेवनीय है। इसका कभी त्याग न करना चाहिए। इस प्रकार तीनों लोकों का उत्तम फल देने वालीं और नदी नहीं। नर्मदा के तट पर निवास करने वाले महात्मा अनेकों द्वन्दों-सुख-दुःख आदि तथा भूख प्यास आदि बड़े भयों से शीघ्र छूट जाते हैं। अतः इस लोक और परलोक में उत्तम कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को श्रेष्ठ नदी नर्मदा का सर्व उपायों से सेवन करना चाहिए।”
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