सौन्दर्य जल में नर्मदा (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
प्राक्कथन
‘नर्म-दा यानी सुख देने वाली’ इतनी-सी पहचान भी मन को आह्लादित करती है नर्मदा घाटी के निवासियों को ही नहीं, बल्कि परिक्रमावासियों को भी। लेकिन नर्मदा की गंगा से पूर्व की उत्पत्ति और नर्मदा घाटी में हुए आदिमानव के जन्म की कहानी कितने लोग जानते हैं? जिस तरह कवि आनंद की कविताओं में नर्मदा के सौन्दर्य का ही नहीं, वैसे ही अमृतलाल वेगड़ के सुंदर चित्र-प्रस्तुतियों में नर्मदा नदी के प्रति प्रगाढ़ प्रेम का ही नहीं, बल्कि उनमें नर्मदा का समग्र जीवन-दर्शन झलकता है। इस जीवन-दर्शन पर आधारित हमारे देश और दुनिया भर के तमाम लेखक-कवियों के भाव-प्रवण साहित्य के सुमन-पुंजों को अपने कर-कमलों में लेकर मानो नर्मदा की अर्चना-पूजा की है दिनेश कुमार माली जी ने।
बारह सौ साल पहले रचित शंकराचार्य के ‘नर्मदाष्टकम्’ से आध्यात्मिक परंपरा के साथ-साथ ऐतिहासिक धारा प्रकट होती रही है, जिसे अत्यंत ही बारीक़ी से वर्णनात्मक विश्लेषण के द्वारा लेखक-कवियों ने गूँथकर उस अनमोल ख़जाने को किसी गुफा में मानो छुपा दिया हो। दिनेश माली ने कवि आनंद की कविताओं के साथ-साथ अन्य साहित्यकारों की रचनाधार्मिता को गहराई से समझकर उनके रेशे-रेशे अलग करते हुए फिर से एक नया आविष्कार कर हमारे सामने रखा है, ‘सौंदर्य जल में नर्मदा: एक पर्यावरणीय आलोचना’ जैसी उद्बोधक पुस्तक के रूप में!
जहाँ विश्व की सभी नदियों की अध्यक्षता करने के साथ-साथ स्वयं अपनी परिक्रमा करने वाली मानकर नर्मदा में पृथ्वी की सारी नदियों को डूबी देखकर कवि आनंद ने उसे एक विशेष दर्जा प्रदान किया है, वहीं दिनेश माली ने अनेक बिम्ब-दर्शनों को समन्वित करते हुए मानो नर्मदा के अखंड स्वरूप को पेश किया है। पुरातत्व शास्त्र से लेकर अध्यात्म तक और आगे चलकर नर्मदा घाटी के हर पर्यावरणीय संसाधनों सम्बन्धी विज्ञान को भी उन्होंने अपने लेखन का आधार बनाया है, इस अद्भुत पुस्तक में अधुनातन विचार और आचार धारा को लेते हुए। आदिगुरु शंकराचार्य से लेकर नर्मदा के संरक्षक बने सतपुड़ा और विंध्य की पहाड़ियों में बसे गोंड, भील, भिलाला आदिवासियों तक नर्मदा से जुड़े हर समुदाय की संस्कृति पर भाष्य लिखने वाले ही समझ सकते हैं, जाति, धर्म और पंथ से परे बहती और जल छिड़कती ‘मातेसरी’ के योगदान के गूढ़ार्थ को। ज्ञानपीठ और पद्मविभूषण से सम्मानित ओड़िया कवि सीताकांत महापात्र से लेकर पद्मविभूषण से सम्मानित वैरियर एल्विन और जॉन रस्किन जैसे लेखकों के व्यक्तित्व और कृतित्व को आधार बनाकर दिनेश माली ने इस अप्रतिम योगदान को अपनी पुस्तक में प्रमुखता से उजागर किया है।
यही नहीं, नर्मदा घाटी के जल, जंगल, ज़मीन के साथ सदियों से जीवनयापन कर रहे आदिवासी समुदायों के हितों पर मेरे जैसी धरातलीय कार्यकर्ता को मालीजी ने अपनी किताब का विशेष हिस्सा बनाया है, यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। पुस्तक के एक हिस्से में जहाँ नर्मदा अपना ऐतिहासिक और पौराणिक सफ़र तय करती है, वहीं दूसरे हिस्से में नर्मदा तल की एक बूँद-बूँद को बचाने के लिए हमारे ऐलान को प्रतिबंबित होते हुए दिखाया है। अपने उद्गम स्थान से समुद्र-संगम तक उछलती, कूदती, फाँदती, ऊपर चढ़ती, नीचे उतरती ‘मातेसरी’ ने अपनी गोद में कितनी रेत और कितनी सारी मछलियों की प्रजातियाँ को छुपाकर रखा था, जो आज समाप्ति के कगार पर हैं, उन्हें विंध्वस्त किया जा रहा हैं—जिसे इस घाटी के लोग अपनी आँखों से देख रहे हैं।
जंगलों की अंधा-धुंध कटाई और उन्हें डुबोये जाने से बाँध ऊँचे होते जा रहे हैं, जबकि नर्मदा रसातल की ओर अग्रसर हो रही है। रेत के अनवरत उत्खनन से धरा के नीचे का जल-चक्र ख़त्म हो रहा है। जंगल-प्रेमी और वन-रक्षक रहे आदिवासियों को अपने वन्य-जीवन से विस्थापित किया जाना और बर्गी से लेकर सरदार सरोवर तक अनेक बाँधों का निर्माण एक प्रकार से सीधा आक्रमण हैं—उनकी समता, सादगी और स्वावलंबन वाली संस्कृति पर। इस नदी में बहाए जाने वाले अवशिष्ट पदार्थों, शहरवासियों के मल-मूत्र सहित औद्योगिक संस्थानों से निकलकर उप-नदियों द्वारा उत्सर्जन और अ-जैविक खेती के ज़हरीले बहावों द्वारा एक नहीं, अनेक तरीक़ों से विनाश थोपा जा रहा है, प्रदूषित जल के माध्यम से। तकनीकी विकास को ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ तक आगे बढ़ाने वाले दुनिया के विकासकर्त्ता जल-शोधन के इस मुद्दे पर चिंतित नज़र नहीं आ रहे हैं। नर्मदा किनारे बसे एक-एक शहर के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने के नाम पर करोड़़ों रुपए ले चुके हैं राजनेता, लेकिन कौन है कटिबद्ध इस कार्य को पूरा करने में?
इस पुस्तक में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के सदर्भ में लेखक ने स्मरण किया है महात्मा गाँधी, कुमारप्पा और ज्योतिबा फुले जी को। ज्योतिबा ने अँग्रेज़ शासकों से ‘पहाड़, खेती-बाड़ी, चारागाह’ नियंत्रण में लेने के उद्देश्य से की गई वन-विभाग की स्थापना को साज़िश क़रार दिया था, तो आज़ाद भारत में पूँजी और बाज़ार को बढ़ावा देने वाले, सृष्टि के हर संसाधन का वस्तुकरण करने और उसी के आधार पर लेन-देन करने वाले नियोजनकर्ताओं के बारे में क्या टिप्पणी की जाए! अमेरिका, रूस जैसे हर राष्ट्र के विश्लेषकों ने वहाँ की नदियों और पहाड़ों की बर्बादी पर तीव्र कटाक्ष करते हुए क़लम चलाई है, मगर गंगा नदी से भी लगभग 15 करोड़़ साल और हिमालय से 5 से 7 करोड़़ साल पुरानी नर्मदा पर हो रहे अत्याचार पर क्या नर्मदा भक्त कभी अपने छोटे ही सही, शब्द-भेदी बाण चला पाएँगे? आज परिक्रमावासी मजबूर हैं नर्मदा के किनारे और हरे-भरे जंगल डूब जाने, वन-पशुओं पक्षियों के विस्थापित होने के कारण कंक्रीट के बँगलों और दुकान-बाज़ारों के गलियारों से गुज़रते हुए अपनी परिक्रमा पूर्ण करने के लिए, तो मनुष्य और प्रकृति के बीच सम्बन्ध बनाए रखने की कौनसी परंपरा हम ढूँढ़ेंगे?
दिनेश माली ने दुनिया भर के अनुभवों की हक़ीक़तों को समेटकर, संयुक्त राष्ट्र संघ और वैज्ञानिकों की चेतावनी, ‘जलवायु परिवर्तन’ की विकट परिस्थिति से बचने के लिए नर्मदा के सपूतों को ही नहीं, बल्कि हर पृथ्वीवासी को अपनी कर्तव्य-प्रेरित ज़िम्मेदारी का अहसास करवाया है। अमृतलाल वेगड़ जी ने नर्मदा घाटी का चप्पा-चप्पा छानते हुए वहाँ के सौंदर्य को अवश्य चित्रित किया हैं, लेकिन जिस कच्छ से वे जबलपुर आए, उसी कच्छ ज़िले में 10000 करोड़ रुपए से ऊर्ध्व की लागत से बने महाकाय सरदार सरोवर बाँध द्वारा किसी भी किसान को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध न कराने पर सवाल उठाने की हिम्मत क्या भुक्तभोगियों में बची हुई है?
भारत सरकार के उपक्रम कोल इंडिया लिमिटेड की ओड़िशा में स्थित अनुषंगी कंपनी महानदी कोलफ़ील्डस लिमिटेड में कार्यरत लेखक दिनेश माली ने नर्मदा घाटी के बड़े बाँधों पर सवाल उठाए हैं। उनमें डूबता धरती का हरा आच्छादन ही तो पैदा करता है ग्रीन हाउस गैसें, जिसमें सबसे ज़्यादा ख़तरनाक होती हैं मिथेन गैस। जिससे न केवल अमरकंटक से लेकर खंभात की खाड़ी तक मत्स्य-प्रजातियाँ प्रभावित होती हैं, बल्कि पृथ्वी का 97% हिस्सा रहा समुद्र का खारा जल नर्मदा पर आक्रमण करते हुए घुसपैठ कर रहा है। इस तरह नदी पर भी हो रहा है दुर्घुष अत्याचार। विकास की परिभाषा के अंतर्गत समाहित नहीं होने वाला विनाश, अलोकतांत्रिक विस्थापन, संसाधनों पर अधिकार, उनके उपयोग का नियोजन तथा उनसे मिलने वाले लाभों का बँटवारा आदि प्रत्येक बिंदुओं को न केवल स्पर्श करती है, बल्कि सोचने के लिए भी प्रेरित करती है दिनेश माली की यह किताब। हिमालय के पिघलते हुए ग्लेशियरों से लेकर ‘चिपको आंदोलन’ की मूल प्रणेता अमृता देवी से सुंदरलाल बहुगुणा जी तक और संयमित, सादे जीवन और अहिंसा-अपरिग्रह के विकल्प को अधोरेखित करने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया जी तक को इतिहास के पन्नों से बाहर निकालकर भविष्य की पीढ़ियों के निर्माण और सुरक्षा के उद्देश्य से उन्होंने पाठकों के सामने रखा है।
फिर भी मन में यह सवाल उठता है कि आज का युवावर्ग इस गहरी किताब का रसास्वादन कर पाएँगे? कवि आनंद के ‘आधुनिक नर्मदाष्टकम्’ को जन-जन तक पहुँचाने वाली इस किताब को नर्मदा पर लिखी गई अनेक पुस्तकों और पर्यावरण की क्षति पर सवाल उठाने वाले ग्रंथों में इसे अवश्य विशिष्ट स्थान प्राप्त होगा, ऐसा मुझे विश्वास है। इस हेतु आवश्यक है, सांख्यिकी जानकारी के साथ-साथ धरातलीय विवेचन को नर्मदा घाटी और हर नदी घाटी में फैलाएँ, इस साहित्य के एक विशेष रूपक को। जनशक्ति के आधार पर ही सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक परिवर्तन लाने के लिए प्रयत्नशील आंदोलनकारियों ने, हर नदी को जो जीवित इकाई मानकर, करोड़ों लोगों की आजीविका और जीवन बचाना चाहने वाले नदी-प्रेमियों ने, और आज तक बची शुद्ध हवा और पृथ्वी के तीन प्रतिशत जल पर निर्भर करने वाले हर इंसान ने कभी सोचा है जीवनाधार प्रकृति के सही दर्शन के बारे में?
हमें अंध-श्रद्धा से नहीं, बल्कि मानवता और प्रकृति के साथ आलिंगन करते हुए स्वयं को ही इस प्रश्न का उत्तर खोजना हैं। इस दिशा में नर्मदा आंदोलन की सत्याग्रही प्रार्थना हमें प्रेरणा देती रही है।
“कहाँ राम हैं, क्या रहीम है? यह प्रकृति जीवन मेरा!
मेरा ही जल, मेरी नदी! ये ज़मीन और जंगल मेरा!!
विकास की सही सोच हो! उसमें ही राम-रहीम हो!!!”
दिनेश माली जी की यह पुस्तक भी तो एक प्रार्थना है, पृथ्वी की धमनियों बनीं, “बहती बादल” स्वरूपा नदियों की और उस पर हो रही हिंसा को नकारकर और अविरल, निर्मल बहते जल की—जो जीवन है, उसकी प्रत्येक बूँद के संरक्षण की।
मेधा पाटेकर
21.01.2024
विषय सूची
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज
- विडियो
-
- ऑडियो
-