कश्मीर फ़ाइल की फ़ाइल
संजीव शुक्लकाश आज कोई ऐसा होता जो अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल ज्यूरी के चीफ़ को कश्मीर फ़ाइल्स की उपयोगिता और उसकी महत्ता के बारे में बता सकता! अफ़सोस होता है कि इत्ते ढेर सारे ख़ुद के भोंपुओं और उनके यसमैन एंकरों के होने के बावजूद ज्यूरी के मुखिया को कश्मीर फ़ाइल्स के पवित्र उद्देश्यों को समझाया नहीं जा सका। उन्होंने इसे अश्लील, प्रोपेगेंडा और न जाने क्या-क्या कहा गया।
अगर कश्मीर फ़ाइल्स नहीं बनती तो भारतीय-जन एक ख़ास टाइप के इतिहास से अनजान ही रह जाते।
क्योंकि बताते हैं कि असली इतिहास फ़िल्में ही बताती हैं।
रही बात प्रचार की तो भाई प्रचार ही तो विकास की मूल अवधारणा है। प्रचार में दिव्यदृष्टि होती है। प्रचार के ज़रिये दूसरे देश के पुल की फोटो को दिखाकर उसे अपना बताया जा सकता है। इसके ज़रिये अधबने अस्पताल या काग़ज़ पर बनी संस्थानों को चलता हुआ दिखाया जा सकता है। प्रचार में अनहोनी को भी होनी करने की क्षमता रहती है। जो अब तक नहीं हुआ, उसका सजीव प्रसारण तक किया जा सकता है। इसलिए इस मूवी पर प्रचार की तोहमत लगाना इसके ऐतिहासिक ज्ञान के साथ-साथ प्रचार के दर्शन को भी लांछित करना है। अफ़सोस है कि इस फ़िल्म को इतिहास में मील का पत्थर बताने की जितनी मेहनत अपने यहाँ की गई उसका दस प्रतिशत भी अगर बाहर के देशों में किया जाता तो इतनी बेहतरीन फ़िल्म को यह दिन न देखना पड़ता। एक देश ने तो इसे अपने यहाँ बैन भी कर दिया था।
हम तो कहते हैं चलो किसने क्या किया इस बात को यहीं छोड़ो, पर कम से कम ज्यूरी के अध्यक्ष को तो समझाना बनता ही था। ताज्जुब यह कि यह सब उनकी आँखों के नीचे हो गया जो मूवी को इतिहास जानने का इकलौता साधन बताते फिरते थे। कहीं तो कुछ ढिलाई हुई है।
हमें लग रहा यह सब भारतीयों के मन में गहरे जड़ जमा चुकीं पुरातनपंथी धारणाओं के चलते हो गया, जो सिर्फ़ किताबों की दुनिया को सच्चा मार्गदर्शक मानती आई थी।
ख़ुद भारतीय अब तक फ़िल्मों की मारक क्षमता से अपरिचित थे। वह तो भला हो अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी और कैमरे की व्यापक पहुँच से बाख़बर अपने राष्ट्रपुरुष का जिन्होंने हमें फ़िल्मों के करामाती प्रभाव से परिचित कराया। वह ख़ुद हमेशा कैमरे की ज़द में रहते हैं। बकौल उनके अगर महात्मा गाँधी पर समय रहते एक क़ायदे की मूवी बन जाती तो आज वे भी इंटरनेशनल ब्रांड के नेता होते। उनको भी लोग विश्व में जानते।
वैसे इस मामले में हम नेहरू की चालाकी को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। उन्होंने गाँधी पर एक भी फ़िल्म नहीं बनवाई, जबकि दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद और मनोज कुमार से उनके ठीक-ठाक रिश्ते थे।
हाँ, शुरूआती दौर में ज़रूर नेहरू फ़िल्मों की महत्ता को नहीं समझ पाए थे। क्योंकि अगर समझ पाए होते तो डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया और अच्छे से लिख सकते थे, क्योंकि असली इतिहास तो फ़िल्मों से ही पता चलता है। अगर एक-आध मूवी देख लेते तो इतिहास के बारे में अच्छी-ख़ासी मालुमात हो सकती थी। ख़ैर हर दौर की अपनी सीमाएँ होती हैं, लिहाज़ा फ़िल्मी ज्ञान कम ही रहा जिसका असर बेशक उनके ज्ञान पर पड़ा ही होगा। पर प्रधानमंत्री बनने के बाद गाँधी पर मूवी बनाने के लिए उन्हें ज़रूर सोचना चाहिए था।
साहब ने यूँ ही थोड़े न कश्मीर पर मूवी बनवाई और देखने की अपील की।
ख़ैर . . . इस कश्मीर फ़ाइल्स को अश्लील भी कहा गया। यह ठीक नहीं है। भई अश्लीलता तो आँखों में होती है। आप किसको किस नज़र से देखते हैं, यह महत्त्वपूर्ण है। हमारे एक पहुँचे हुए व्यवसायी बाबा सबको एक नज़र से देखते हैं। वह कहते हैं कि परिधान सुंदरता के लिए ज़रूरी नहीं। इसलिए प्रथमदृष्टया यह आरोप सिरे से नकारने के योग्य है। अब यदि कोई नफ़रत को ही अश्लीलता कहता है तो यह उसका तंग नज़रिया है। भाई जब तक नफ़रत नहीं होगी तब तक लोग प्रेम की महत्ता को कैसे जान पाएँगे और फिर तीन घण्टे की मूवी में सौमनस्यता और प्यार के ही पल दिखाते रहेंगे तो फिर एजेंडे पर कब आएँगे।
हालाँकि यह मूवी कश्मीरी पंडितों के दर्द से जुड़ी थी जिसको लेकर बहुत लोग पंडितों के लिए बेचैन हुए लेकिन यह सहृदयता तात्कालिक ही रही और अंततः भक्ति भावुकता पर हावी हुई और बाद में उनकी समस्याओं को लेकर सरकारी उपेक्षा पर भक्तगण सुख-दुख समे कृत्वा वाले हो गए। यह निःस्पृहता सबके भाग्य में नहीं होती, यह भक्ति की विशेष अवस्था है।
ख़ैर . . .
कुलमिलाकर यह मूवी बहुत काम की है। उम्मीद है कि इस पर लग रहे ऐरे-गैरे आरोपों की रोकथाम के लिए सरकार इस दिशा में ज़रूर कुछ करेगी।
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