वेदिका

डॉ. वेदित कुमार धीरज (अंक: 161, अगस्त प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

आरण्य तुम्हारे
गीतांजलि पर
कुछ अवशेष हमारे भी
इन कर्मों की कंचनजंगा पर
कुछ पदचिन्ह तुम्हारे भी
इक दरिया सदा था पास मेरे
और प्यास अमिट ही रही सदा
वो गगन रहा कुछ ग़ैरों सा
कुछ अपने रहे बेगाने से
कड़वाहट से अपना नाता
जैसे साँसों की डोर हो गई
कुछ मित्र रहे लाचार रहे
कुछ ख़ास रहे अपने मेरे
और सत्ता के जासूस रहे।
अच्छे वक़्त की कहता हूँ
वक़्त वही जो साथ रहे
ख़ाली ही तुम्हारे बाद रहे
ख़ाली ही तुम्हारे बाद रहे॥

 

आरण्य-वास, तप साध रहा 
जीवन भर ज़ख़्मों के साथ रहा 
जग बैरी हो नौका खींची
उन मायावी आँखों का इतना प्रताप रहा   
जीवन छंदों की कविता में
तुम दोहराती तुकांत रही
मेरे मन की 'जुहू' कली
तुम 'महादेवी' की  'गिल्लू' रही

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